Monday, November 30, 2015

आत्मा के भीतर का मैल समाप्त करने वाला ईश्वर ही है।



आत्मा के भीतर का मैल समाप्त करने वाला ईश्वर ही है।
एक गुरु के दो शिष्य थे। दोनों लम्बे समय से गुरु के निर्देशन में साधना करते आ रहे थे। एक बार दोनों ने अपने गुरु से दीक्षा देकर सन्यासी बनाने का आग्रह किया। गुरु ने कहा उचित ठीक है आप दोनों को कल दीक्षा देंगे। आप दोनों कल नदी पर स्नान कर नवीन वस्त्र धारण कर मेरे पास आना। मैं दोनों को दीक्षा दूंगा। अगले दिन प्रात:काल दोनों शिष्य नदी पर स्नान करने गए तो उनके गुरु भी उनके पीछे चल दिए। गुरु साथ में एक ग्रामीण व्यक्ति को ले गए। पहला शिष्य स्नान करने के पश्चात नवीन वस्त्र धारण कर वापिस आ रहा था। मार्ग में उस ग्रामीण ने उसके ऊपर कूड़ा डाल दिया। पहला शिष्य क्रोधित होता हुआ बोला। तुमने मेरे वस्त्र ख़राब कर दिए। आज मैं दीक्षा लेकर सन्यासी बनने जा रहा था। अब मुझे दोबारा स्नान कर फिर से वस्त्र बदलने पड़ेंगे। यह कहकर बुदबुदाता हुआ वह वापिस नदी पर चला गया। पीछे से दूसरा शिष्य स्नान कर नवीन वस्त्र पहनकर गुरु से दीक्षा लेने के लिए चला। मार्ग में उसी ग्रामीण ने उसके ऊपर कूड़ा डाल दिया। दूसरा शिष्य बिना क्रोधित हुए नम्रतापूर्वक बोला। यह कूड़ा, यह वस्त्रों का मैल तो उस कूड़े, उस मैल के समक्ष कुछ भी नहीं हैं, जो वर्षों से मेरी आत्मा के भीतर गंदगी के रूप में जमा हुआ है। यह बाहरी मैल तो वस्त्र धोने मात्र से धूल जाता हैं। परन्तु भीतर का मैल तो परमात्मा की कृपा से ही समाप्त होता हैं।
उन शिष्य के गुरु वृक्ष के पीछे छुपे हुए अपने शिष्य के वचनों को सुन रहे थे। उन्होंने अपने शिष्य को गले से लगा लिया और कहा आप दीक्षा लेने के पात्र बन चुके है। आपके ऊपर ईश्वर की कृपा हो चुकी हैं। जो भीतर के मैल को दूर करने की चेष्ठा करता है वही मोक्ष पथ का पथिक है। मनुष्य को प्रकृति के बाहरी प्रलोभनों से विरक्ति कर उसके स्थान पर प्रकाश करने वाला ईश्वर ही हैं। अथर्ववेद 4/11/5 में वेद इसी सन्देश को बड़े सुन्दर शब्दों में लिखते हैं। वेद कहते है,"परमात्मा की ज्योति के उपासक मुमुक्षुओं (मोक्ष की इच्छा रखने वाले) के अंदर से भोगों या भोग बंधन में बांधने वाली प्रकृति के मृत्यु रूप जड़भाव को नष्ट कर देती है और उनके अंदर स्वप्रकाश तरंग को संचालित कर देती है।"

डॉ विवेक आर्य

हिन्दू समाज के पतन के मुख्य कारण



हिन्दू समाज के पतन के मुख्य कारण


1. वैदिक धर्म की मान्यताओं में अविश्वास एवं मत-मतान्तर, भिन्न भिन्न सम्प्रदाय, पंथ, गुरु आदि के नाम से वेद विरुद्ध मत आदि में विश्वास रखना। इस विभाजन से हिन्दू समाज की एकता छिन्न-भिन्न हो गई एवं वह विदेशी हमलावरों का आसानी से शिकार बन गया।
2. वेदों में वर्णित एक ईश्वर को छोड़कर उनके स्थान पर अपने से कल्पित कब्रों, पीरों, भूत-प्रेत, मजारों आदि पर से पटकना। धर्म की हानि से धार्मिक एकता का ह्रास हो गया जिसके चलते विदेशियों के गुलाम बने।
3. वेद विदित सत्य, संयम, सदाचार और धर्म आचरण को छोड़कर पाखंडी गुरुओं के चरण धोने से,निर्मल बाबा के गोलगप्पों से,राधे माँ की चमकीली पोशाकों से मोक्ष होने जैसे अन्धविश्वास को मानना। आध्यात्मिक उन्नति का ह्रास होने से हिन्दू समाज की स्थिति बदतर हो गई।
4. वेद विदित संगठन सूक्त एवं मित्रता की भावना का त्यागकर स्वार्थी हो जाने से। स्वयं के गुण, कर्म और स्वभाव को उच्च बनाने के स्थान पर दूसरे की परनिंदा, आलोचना, विरोध आदि में अपनी शक्ति व्यय करना। हिन्दू समाज में एकता की कमी का यह भी एक बड़ा कारण था.
5. जातिवाद, छुआछूत, अस्पृश्यता जैसे समाज तोड़क विचार को धरना। इसी जातिवाद के कारण लाखों हिन्दू भाई विधर्मी बन गए। हिन्दू समाज की एकता छिन्न-भिन्न हो गई।
6. शुद्धि अर्थात बिछुड़े हुए भाइयों को जो विदेशी आक्रमणकारियों के अत्याचारों के चलते विधर्मी बन गए थे। उन्हें फिर से हिन्दू समाज में सम्मिलित न करने की भावना।इससे हमारी शक्ति धीरे धीरे क्षीण होती गई।
7. बाल विवाह, विधवा विवाह न होना, दहेज़ प्रथा, बहु विवाह आदि कुप्रथाओं के कारण सामाजिक एकता की कमी होना। सामाजिक रूप से एकता की कमी के चलते लाखों हिन्दू हमारे से सदा के लिए दूर चले गए।
डॉ विवेक आर्य

Saturday, November 28, 2015

ईश्वर मनुष्यों को अच्छे गुण, कर्म और स्वभाव में प्रवृत करने वाला हैं



ईश्वर मनुष्यों को अच्छे गुण, कर्म और स्वभाव में प्रवृत करने वाला हैं

एक बार एक आचार्य  अपने शिष्यों की कक्षा ले रहे थे।  उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य का उदहारण दिया। गुरु द्रोणाचार्य ने एक बार युधिष्ठिर और दुर्योधन की परीक्षा लेने का निश्चय किया। द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से कहा की जाओ और कहीं से कोई ऐसा मनुष्य खोज कर लाओ जिसमें कोई अच्छाई न हो। द्रोणाचार्य ने फिर दुर्योधन से कहा की जाओ और कहीं से कोई ऐसा व्यक्ति खोज कर लाओ जिसमें कोई बुराई न हो। दोनों को व्यक्ति की खोज करने के लिए एक माह का समय दिया गया। एक माह पश्चात युधिष्ठिर एवं दुर्योधन दोनों गुरु द्रोणाचार्य के पास वापिस आ गए। दोनों अकेले ही वापिस आ गए। द्रोणाचार्य ने युधिष्ठिर से खाली हाथ आने का कारण पूछा। युधिष्ठिर ने विनम्रता से द्रोणाचार्य को उत्तर दिया,"गुरु जी मुझे संसार में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसमें कोई न कोई गुण, कोई न कोई अच्छाई न हो। इस सृष्टि में सभी मनुष्यों में कोई न कोई अच्छाई अवश्य हैं। इसलिए मैं ऐसा कोई मनुष्य खोजने में असमर्थ रहा जिसमें कोई अच्छाई न हो। "
द्रोणाचार्य ने दुर्योधन से खाली हाथ आने का कारण पूछा। दुर्योधन ने उत्तेजित वाणी से द्रोणाचार्य को उत्तर दिया,"गुरु जी मुझे संसार में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसमें कोई न कोई दुर्गुण, कोई न कोई बुराई न हो। इस सृष्टि में सभी मनुष्यों में कोई न कोई बुराई अवश्य हैं। इसलिए मैं ऐसा कोई मनुष्य खोजने में असमर्थ रहा जो सभी बुराइयों से मुक्त हो।"

आचार्य ने अब अपने शिष्यों से पूछा। एक ही संसार में सभी प्राणियों में युधिष्ठिर सभी प्राणियों में केवल अच्छाई देख पाते हैं और दुर्योधन केवल बुराई देख पाते हैं। इस भेद का कारण बताये?

एक बुद्धिमान शिष्य ने उत्तर दिया, "आचार्य जी। इस भेद का मुख्य कारण परीक्षा लेने वाले की मनोवृति, उसकी रूचि और उसका सोच की दिशा हैं। "

आचार्य जी ने उत्तर दिया,"बिलकुल ठीक।"व्यक्ति की वृतियां उसके विचारों और कर्मों दोनों पर प्रभाव डालती हैं। इसीलिए वेद मनुष्यों को सात्विक वृत्ति वाला बनाने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने का सन्देश देते हैं। यजुर्वेद 3/36 मंत्र में मनुष्य को सात्विक वृतियों की प्राप्ति के लिए अत्यंत शुद्ध ईश्वर से प्रार्थना करने का सन्देश दिया गया हैं। इस संसार में सबसे उत्तम गुण, कर्म और स्वभाव ईश्वर का है। इसीलिए सभी प्राणी मात्र को सर्वश्रेष्ठ गुण, कर्म और स्वभाव वाले ईश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए। अपनी आत्मा में धारण एवं प्राप्त किया हुआ ईश्वर मनुष्यों को अच्छे गुण, कर्म और स्वभाव में प्रवृत करता हैं। मनुष्यों को जैसी उत्तम प्रार्थना करनी चाहिए वैसा ही पुरुषार्थ उत्तम कर्मों और सदाचरण के लिए भी करना चाहिए।

डॉ विवेक आर्य
 

Thursday, November 26, 2015

मनुष्य ईश्वर कृपा से सामंजस्य बनाना सीखता है।



मनुष्य ईश्वर कृपा से सामंजस्य बनाना सीखता है।

एक बार एक संत अपने शिष्यों के साथ बैठे थे। अचानक उन्होंने सभी शिष्यों से एक सवाल पूछा; “बताओ जब दो लोग एक दूसरे पर गुस्सा करते हैं तो जोर-जोर से चिल्लाते क्यों हैं ?

शिष्यों ने कुछ देर सोचा और एक ने उत्तर दिया : “हम अपनी शांति खो चुके होते हैं इसलिए चिल्लाने लगते हैं।”

संत ने मुस्कुराते हुए कहा : दोनों लोग एक दूसरे के काफी करीब होते हैं तो फिर धीरे-धीरे भी तो बात कर सकते हैं। आखिर वह चिल्लाते क्यों हैं?” कुछ और शिष्यों ने भी जवाब दिया लेकिन संत संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने खुद उत्तर देना शुरू किया।

वह बोले : “जब दो लोग एक दूसरे से नाराज होते हैं तो उनके मन में दूरियां बहुत बढ़ जाती हैं। जब दूरियां बढ़ जाएं तो आवाज को पहुंचाने के लिए उसका तेज होना जरूरी है। दूरियां जितनी ज्यादा होंगी उतनी तेज चिल्लाना पड़ेगा। मन की यह दूरियां ही दो गुस्साए लोगों को चिल्लाने पर मजबूर कर देती हैं।

जब दो लोगों में प्रेम होता है तो वह एक दूसरे से बड़े आराम से और धीरे-धीरे बात करते हैं। मन का परस्पर सामंजस्य लोगों को करीब लाता है और करीब तक आवाज पहुंचाने के लिए चिल्लाने की जरूरत नहीं।

जब दो लोगों में सामंजसय और भी प्रगाढ़ हो जाता है तो वह एक दूसरे के साथ मिलकर चलना सीख जाते हैं। ईश्वर कृपा से मनुष्य समान वाले हो जाते हैं।

वेद इसी सामंजसय के सन्देश को सिखाते हैं। अथर्ववेद 3/30/5 में लिखा है हे मानवों! अपने से बड़ो को बड़ा मानते हुए, ज्ञान संग्रह करते हुए, मिलकर कार्य सिद्धि करते हुए, एक धुरे में जूटकर चलते हुए अर्थात समान लक्ष्य की पूर्ति का प्रयास करते हुए, एक-दूसरे के प्रति मधुर भाषण करते हुए, चलो, अग्रसर होवो। तुमको साथ मिलकर चलनेवाले तथा समान मनवाले करता हूँ।

डॉ विवेक आर्य 

Thursday, November 19, 2015

सदा मधुर वाणी बोलनी चाहिए



सदा मधुर वाणी बोलनी चाहिए

एक राजा अपने घुड़सवारों के साथ जंगल से गुजर रहे थे। राह में रास्ता भटक गए। प्यास लगने पर पानी की खोज में उन्होंने अपने घुड़सवारों को चारों दिशाओं में भेजा। एक सैनिक एक पानी के घड़े रखे हुए अंधे व्यक्ति के पास पहुँचता है और उससे पानी मांगने के लिए कहता है,"ए अंधे! देख नहीं रहा मैं प्यासा मर रहा हूँ।  मुझे पानी दे।" अंधे व्यक्ति ने सैनिक की बात को सुनकर अनसुना कर दिया। पीछे से राजा का सेनापति भी उस अंधे व्यक्ति के पास पहुँचता है और उससे पानी मांगने के लिए कहता है, अंधे बाबा! मुझे प्यास लगी हैं। मुझे पानी दो। अंधे व्यक्ति ने सेनापति की बात को सुनकर भी अनसुना कर दिया। पीछे से राजा भी उस अंधे व्यक्ति के पास पहुँचता है और उससे पानी मांगने के लिए कहता है, बाबा जी! मेरे प्राण प्यास के कारण निकले जाते है। कृपया मुझे पानी देकर मेरी प्राण रक्षा कीजिये। अंधे व्यक्ति ने राजा की बात को सुनकर उन्हें सहर्ष पानी पिला कर तृप्त कर दिया। राजा ने बाकि लोगों को पानी पिलाने का कारण उस अंधे व्यक्ति से पूछा। अंधे व्यक्ति ने उत्तर दिया। आपका सैनिक अपने सैनिक होने के अभिमान से ग्रस्त था। वह अन्य प्राणियों को अपने से नीचा समझता हैं। वह सहायता करने लायक नहीं है। आपके सेनापति के मन में कपट है। वह चापलूसी करके अपना काम निकालना जानता है। उससे अधिक अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए क्यूंकि वह अपने लाभ के लिए किसी का भी अहित कर सकता है। और आप राजन सभी प्राणी मात्र को एक सम दृष्टि से देखते इसलिए आपकी भाषा में मधुरता, सौम्यता और मीठापन हैं। राजा उस अंधे व्यक्ति की बात सुनकर तृप्त हुए।

हर व्यक्ति अपने लिए दूसरे मनुष्य द्वारा मीठी वाणी का उपयोग करने की अपेक्षा रखता है। मीठी वाणी से मनुष्य को सौ कार्य भी सिद्ध हो जाते है। कटु बोलने से बनते काम बिगड़ जाते है। वेद सामान्य जीवन में हर मानव को न केवल अन्य मनुष्य के लिए मीठी वाणी का उपयोग करने का सन्देश देते है अपितु ईश्वर के लिए भी स्तुति करते समय मधुर वाणी से स्मरण करने का सन्देश देते है। अथर्ववेद 20/65/2 में सन्देश दिया गया है कि है कि, "हे मनुष्यो दिव्य प्रकाश की किरणों के स्रोत्र, ज्ञान इन्द्रियों एवं कर्म इन्द्रियों को शक्ति देने वाले, आलोक में निवास कराने वाले, पापों और तापों के नाशक इन्द्र (ऐश्वर्या के स्वामी) रूपी ईश्वर के लिए घृत और मधु से भी अधिक स्वादु स्तुतिवचनों का प्रयोग करो"।

मनुष्य परमेश्वर को कब कब स्मरण करता है? एक जब वह सुख में हो, एक जब वह विपत्ति में हो। जब सुख में होता है तब बेमन से, माला फेरते हुए, ध्यान कहीं ओर रखकर ईश्वर का जाप करता है। और जब दुखी हो तो आपत्ति के उपाय के लिए अथवा कभी कभी कटु वचनों से ईश्वर का स्मरण करता हैं। ऐसी स्तुति फलदायक नहीं है। अपने मन को बाह्य जगत से हटाकर मधुर वाणी से ईश्वर के गुण गाओ। मधुर वाणी में ईश्वर की स्तुति करने वाले मनुष्य के गुण भी ईश्वर के समान दयालु और कल्याणकारी हो जाते हैं। इसलिए सदा मधुर वाणी बोलनी चाहिए।

डॉ विवेक आर्य 

Tuesday, November 17, 2015

धर्म रक्षक कैसा हो?



धर्म रक्षक कैसा हो?
एक बार प्रसिद्द वैदिक अन्वेषक पंडित भगवत दत्त रिसर्च स्कॉलर जी ने महान त्यागी महात्मा हंसराज जी से पूछा की क्या कारण है मुग़लों का राज विशेष रूप से आगरा-दिल्ली में केंद्रित होने पर भी सीमांत नार्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविन्स, बलूचिस्तान, अफगानिस्तान आदि जो वहां से अत्यंत दूरी पर थे। परन्तु फिर भी सीमांत प्रांत में रहने वाले हिन्दू अधिक संख्या में मुसलमान बन गए जबकि मुग़लों की नाक के नीचे रहने वाले आगरा-मथुरा के हिन्दू न केवल चोटी-जनेऊ और अपने धर्म ग्रंथों की रक्षा करते रहे अपितु समय समय पर मुग़लों का प्रतिरोध भी करते रहे और अंत तक हिन्दू ही बने रहे? महात्मा हंसराज ने गंभीर होते हुआ इस प्रश्न का उत्तर दिया,"इसका मूल कारण उत्तर भारत के हिन्दुओं का पवित्र आचरण था। एक अल्प शिक्षित हिन्दू भी सदाचारी, शाकाहारी, संयमी, धार्मिक, आस्तिक, ज्ञानी लोगों का मान करने वाला, दानी, ईश्वर विश्वासी,पाप-पुण्य में भेद करने वाला और सद्विचार रखने वाला था। उन्हें अपना सर कटवाना मंजूर था मगर चोटी कटवानी मंजूर नहीं थी। उन्होंने जजिया देना मंजूर किया मगर इस्लाम स्वीकार करना मंजूर नहीं किया। उन्होंने पलायन करना मंजूर किया मगर मस्जिद जाना मंजूर नहीं किया। उन्होंने वेद, दर्शन और गीता का पाठ करने के लिए द्वितीय श्रेणी का नागरिक बनना स्वीकार किया मगर क़ुरान पढ़ना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने गोरक्षा के लिए प्राण न्योछावर करना स्वीकार किया मगर गोमांस खाना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अपनी बेटियों को पैदा होते ही न चाहते हुए भी उनका बाल विवाह करना स्वीकार किया मगर मुसलमानों के हरम में भेजना अस्वीकार किया।"
यही सदाचारी श्रेष्ठ आचरण जिसे हम "High Thinking Simple Living" के रूप में जानते हैं उनके जीवन का अभिन्न अंग था। यही सदाचार मुग़लों से धर्म रक्षा करने का उनका प्रमुख साधन था। सीमांत प्रान्त वासियों ने इन उच्च आदर्शों का उतनी तन्मयता से पालन नहीं किया। इसलिए उनका बड़ी संख्या में धर्म परिवर्तन हो गया। 
मित्रों! अपने चारों ओर देखिये। पश्चिमी सभ्यता और आधुनिकता ने नाम पर आज हिन्दुओं को वर्तमान पीढ़ी को व्यभिचारी, नास्तिक, मांसाहारी, अधार्मिक, कुतर्की, शराबी, कबाबी, ईश्वर अविश्वासी, पाखंडी आदि बनाया जा रहा हैं। 90% से अधिक हिन्दू युवाओं की धर्म रक्षा के स्थान पर ऐश, लड़कियों, फैशन, शराब, सैर सपाटे में रूचि हैं। इसीलिए चाहे गौ कटे, चाहे लव जिहाद हो, चाहे किसी हिन्दू का धर्म परिवर्तन हो। इन्हें कोई अंतर नहीं पड़ता। ऐसे कमज़ोर कन्धों पर हिन्दू कितने दिन अपने धर्म की रक्षा कर पायेगा? इसलिए धर्मरक्षक बनने के लिए सदाचारी बनो। संयमी बनो। तभी प्रभावशाली धर्म रक्षक बन सकोगे।
वेदों में सदाचारी जीवन जीने के लिए ऋग्वेद 10/5/6 में ऋषियों ने सात अमर्यादाएं बताई हैं। उनमे से जो एक को भी प्राप्त होता हैं, वह पापी है। ये अमर्यादाएँ हैं चोरी करना, व्यभिचार करना, श्रेष्ठ जनों की हत्या करना, भ्रूण हत्या करना, सुरापान करना, दुष्ट कर्म को बार बार करना और पाप करने के बाद छिपाने के लिए झूठ बोलना।

वेदों की इस महान शिक्षा का पालन कर ही आप धर्म रक्षक बन सकते है। 
  
(यह प्रेरक प्रसंग धर्मरक्षा के लिए जीवन आहूत करने वाले वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप, गुरु गोबिंद सिंह, बंदा बैरागी, वीर हकीकत राय, वीर गोकुला जाट,स्वामी दयानंद, पंडित लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द, भक्त फूल सिंह सरीखे ज्ञात एवं अज्ञात उन हजारों महान आत्माओं को समर्पित हैं जिनका बलिदान आज भी हमें प्रेरणा दे रहा हैं)

डॉ विवेक आर्य

‪#‎HighThinkingPlainLiving‬

Saturday, November 14, 2015

इस दिवाली पर रामायण से क्या विशेष सीख ले?



इस दिवाली पर रामायण से क्या विशेष सीख ले?
वाल्मीकि रामायण महापुरुष श्री रामचन्द्र जी का प्रेरणादायक एवं मार्गदर्शक जीवन चरित्र है। सदियों से विश्व के जनमानस को रामायण से जीवन में आचरण, परिवार में सम्बन्ध, राज्य व्यवस्था, त्याग, तपस्या, भातृप्रेम, पति-पत्नि व्रता, न्याय व्यवस्था आदि महत्वपूर्ण विषयों पर मानव सीखता आया हैं। इसी कड़ी में रामायण का एक अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष उसकी आध्यात्मिकता भी है। रामायण में सभी मुख्य पात्र वैदिक धर्म के मूल आधार संध्या (ईश्वर की स्तुति प्रार्थना और उपासना), हवन, प्राणायाम (चित साधना) एवं वेद अध्ययन का पालन करते हैं। यही उनकी आध्यात्मिक उन्नति, सदाचार, उत्तम व्यवहार एवं न्यायप्रियता का मुख्य कारण था। पुरुष के समान महिलाएं भी वेद मन्त्रों से अपनी आत्मा की उन्नति करती थी।
श्री राम
श्री राम वेद-वेदांग के तत्ववेत्ता थे।- वाल्मीकि रामायण बाल कांड 1/14
राम सर्व विद्याव्रत स्नातक तथा यथावत अंगों सहित वेद के जानने वाले थे।- वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड 1/20
सीता के शोक से ग्रस्त राम ने लक्ष्मण द्वारा आश्वस्त होने पर संध्या की। - वाल्मीकि रामायण युद्ध कांड 6/23
राम-लक्ष्मण ने प्रात:काल उठ, स्नान आदि से शुद्ध होकर, संध्या कर,परब्रह्मा का ध्यान कर, अग्निहोत्र कर बैठे हुए विश्वामित्र का ध्यान किया।- वाल्मीकि रामायण युद्ध कांड 29/31-32
पुरोहित के जाने के पश्चात राम ने स्नान कर पत्नी सहित नित्य ईश्वर की उपासना की। वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड 6/1
माता कौशलया
माता कौशलया ने प्राणायाम के साथ परमात्मा का ध्यान किया।- वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड 4/33
रेशमी वस्त्र पहने हुए कौशलया नित्य व्रतपरायण मंत्र सहित हवन करती थी।- वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड
इस प्रकार से वाल्मीकि रामायण में जीवन में आध्यात्मिक उन्नति करने हेतु वेद अध्ययन, संध्या, प्राणायाम एवं ईश्वर उपासना के अनेक उदहारण मिलते हैं। वाल्मीकि रामायण के महान चरित्रों के समान जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए संध्या पथ के गामी बने।
सभी मित्रों को इसी प्रण के साथ की वह नित्य संध्या, हवन एवं वेद अध्ययन का संकल्प लेंगे दीवाली की बधाइयाँ।
डॉ विवेक आर्य

Thursday, November 12, 2015

टीपू सुल्तान और वीर शिवाजी



टीपू सुल्तान और वीर शिवाजी


प्रसिद्द साहित्यकार गिरीश कर्नाड द्वारा टीपू सुल्तान के विषय में एक बयान दिया गया कि अगर टीपू सुल्तान हिन्दू होते तो उन्हें वैसा ही दर्जा मिलता जो शिवाजी को मिलता है लेखक की साहित्यिक अपरिपक्वता को प्रदर्शित करता हैं। इतिहास की प्रामाणिक जानकारी रखने वाले लेखक ऐसे बयान देकर अपना उपहास नहीं करवाते। ऐतिहासिक महापुरुष वीर शिवाजी पक्षपातरहित, न्यायकारी, प्रजापालक शासक थे जबकि टीपू सुल्तान मज़हबी संकीर्णता से ग्रस्त, मतान्ध, दुर्दांध, अत्याचारी शासक था। शिवाजी अत्याचार से मुक्ति प्रदाता के रूप में प्रसिद्द है जबकि टीपू सुल्तान दक्षिण का औरंगजेब बनने की फिराक में था। शिवाजी अपने राज्य में मुसलमानों और हिन्दुओं में कोई भेदभाव न करते थे जबकि टीपू सुल्तान के लिए एक मुस्लमान इस्लाम में विश्वास रखने के कारण हिन्दुओं से अधिक विश्वनीय था। इस लेख में हम शिवाजी और टीपू सुल्तान की मुसलमानों और हिन्दुओं के साथ किये गए व्यवहार की तुलना कर अपनी बात को सिद्ध करेंगे।


इस्लाम के विषय में शिवाजी की निति

1 . अफजल खान को मरने के बाद उसके पूना, इन्दापुर, सुपा, बारामती आदि इलाकों पर शिवाजी का राज स्थापित हो गया। एक ओर तो अफजल खान ने धर्मान्धता में तुलजापुर और पंडरपुर के मंदिरों का संहार किया था दूसरी और शिवाजी ने अपने अधिकारीयों को सभी मंदिर के साथ साथ मस्जिदों को भी पहले की ही तरह दान देने की आज्ञा जारी की थी।

2. बहुत कम लोगों को यह ज्ञात हैं की औरंगजेब ने स्वयं शिवाजी को चार बार अपने पत्रों में इस्लाम का संरक्षक बताया था। ये पत्र 14  जुलाई 1659 ,26  अगस्त एवं 28 अगस्त 1666  एवं 5 मार्च 1668  को लिखे गए थे। (सन्दर्भ Raj Vlll, 14,15,16 Documents )

3. डॉ फ्रायर ने कल्याण जाकर शिवाजी की धर्म निरपेक्ष नीति की अपने लेखों में प्रशंसा की है। (सन्दर्भ Fryer,Vol I, p. 41n)

4. ग्रांट डफ़ लिखते हैं की शिवाजी ने अपने जीवन में कभी भी मुस्लिम सुल्तान द्वारा दरगाहों ,मस्जिदों ,पीर मज़ारों आदि को दिए जाने वाले दान को नहीं लूटा। (सन्दर्भ History of the Mahrattas, p 104)

5. डॉ दिल्लों लिखते हैं की वीर शिवाजी को उस काल के सभी राज नीतिज्ञों में सबसे उदार समझा जाता था। (सन्दर्भ Eng.Records II,348)

6. शिवाजी के सबसे बड़े आलोचकों में से एक खाफी खाँ जिसने शिवाजी की मृत्यु पर यह लिखा था की अच्छा हुआ एक काफ़िर का भर धरती से कम हुआ भी शिवाजी की तारीफ़ करते हुए अपनी पुस्तक के दुसरे भाग के पृष्ठ 110 पर लिखता हैं की शिवाजी का आम नियम था की कोई मनुष्य मस्जिद को हानि न पहुँचायेगा , लड़की को न छेड़े , मुसलमानों के धर्म की हँसी न करे तथा उसको जब कभी कही कुरान हाथ आता तो वह उसको किसी न किसी मुस्लमान को दे देता था। औरतों का अत्यंत आदर करता था और उनको उनके रिश्तेदारों के पास पहुँचा देता था। अगर कोई लड़की हाथ आती तो उसके बाप के पास पहुँचा देता। लूट खसोट में गरीबों और काश्तकारों की रक्षा करता था। ब्राह्मणों और गौ के लिए तो वह एक देवता था। यद्यपि बहुत से मनुष्य उसको लालची बताते हैं परन्तु उसके जीवन के कामों को देखने से विदित हो जाता हैं की वह जुल्म और अन्याय से धन इकठ्ठा करना अत्यंत नीच समझता था।
(सन्दर्भ लाला लाजपत राय कृत छत्रपती शिवाजी पृष्ठ 132 ,संस्करण चतुर्थ, संवत 1983)

7. शिवाजी जंजिरा पर विजय प्राप्त करने के लिए केलशी के मुस्लिम बाबा याकूत से आशीर्वाद तक मांगने गए थे। (सन्दर्भ – Vakaskar,91 Q , bakshi p.130)

8. शिवाजी ने अपनी सेना में अनेक मुस्लिमों को रोजगार दिया था।

1650  के पश्चात बीजापुर, गोलकोंडा, मुग़लों की रियासत से भागे अनेक मुस्लिम , पठान व फारसी सैनिकों को विभिन्न ओहदों पर शिवाजी द्वारा रखा गया था जिनकी धर्म सम्बन्धी आस्थायों में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया जाता था और कई तो अपनी मृत्यु तक शिवाजी की सेना में ही कार्यरत रहे। कभी शिवाजी के विरोधी रहे सिद्दी संबल ने शिवाजी की अधीनता स्वीकार कर की थी और उसके पुत्र सिद्दी मिसरी ने शिवाजी के पुत्र शम्भा जी की सेना में काम किया था।शिवाजी की दो टुकड़ियों के सरदारों का नाम इब्राहीम खान और दौलत खान था जो मुग़लों के साथ शिवाजी के युद्ध में भाग लेते थे। क़ाज़ी हैदर के नाम से शिवाजी के पास एक मुस्लिम था जो की ऊँचे ओहदे पर था। फोंडा के किले पर अधिकार करने के बाद शिवाजी ने उसकी रक्षा की जिम्मेदारी एक मुस्लिम फौजदार को दी थी।

 बखर्स के अनुसार जब आगरा में शिवाजीको कैद कर लिया गया था तब उनकी सेवा में एक मुस्लिम लड़का भी था जिसे शिवाजी के बच निकलने का पूरा वृतांत मालूम था। शिवाजी के बच निकलने के पश्चात उसे अत्यंत मार मारने के बाद भी स्वामी भक्ति का परिचय देते हुए अपना मुँह कभी नहीं खोला था। शिवाजी के सेना में कार्यरत हर मुस्लिम सिपाही चाहे किसी भी पद पर हो , शिवाजी की न्याय प्रिय एवं सेक्युलर नीति के कारण उनके जीवन भर सहयोगी बने रहे। (सन्दर्भ Shiva ji the great -Dr Bal Kishan vol 1 page 177)

शिवाजी सर्वदा इस्लामिक विद्वानों और पीरों की इज्ज़त करते थे। उन्हें धन,उपहार आदि देकर सम्मानित करते थे। उनके राज्य में हिन्दू-मुस्लिम के मध्य किसी भी प्रकार का कोई भेद नहीं था। जहाँ हिंदुयों को मंदिरों में पूजा करने में कोई रोक टोक नहीं थी वहीँ मुसलमानों को मस्जिद में नमाज़ अदा करने से कोई भी नहीं रोकता था। किसी दरगाह, मस्जिद आदि को अगर मरम्मत की आवश्यकता होती तो उसके लिए राज कोष से धन आदि का सहयोग भी शिवाजी द्वारा दिया जाता था। इसीलिए शिवाजी के काल में न केवल हिन्दू अपितु अनेक मुस्लिम राज्यों से मुस्लिम भी शिवाजी के राज्य में आकर बसे थे।
शिवाजी की मुस्लिम नीति, न्याप्रियता और पक्षपात रहित व्यवहार की जीती जागती मिसाल हैं।

 टीपू द्वारा हिन्दुओं पर किया गए अत्याचार उसकी निष्पक्ष होने  की भली प्रकार से पोल खोलते हैं।

1. डॉ गंगाधरन जी ब्रिटिश कमीशन कि रिपोर्ट के आधार पर लिखते है की ज़मोरियन राजा के परिवार के सदस्यों को और अनेक नायर हिन्दुओं को टीपू द्वारा जबरदस्ती सुन्नत कर मुसलमान बना दिया गया था और गौ मांस खाने के लिए मजबूर भी किया गया था।
2. ब्रिटिश कमीशन रिपोर्ट के आधार पर टीपू सुल्तान के मालाबार हमलों 1783-1791 के समय करीब 30,000  हिन्दू नम्बूदरी मालाबार में अपनी सारी धनदौलत और घर-बार छोड़कर त्रावनकोर राज्य में आकर बस गए थे।
3. इलान्कुलम कुंजन पिल्लई लिखते है की टीपू सुल्तान के मालाबार आक्रमण के समय कोझीकोड में 7000 ब्राह्मणों के घर थे जिसमे से 2000 को टीपू ने नष्ट कर दिया था और टीपू के अत्याचार से लोग अपने अपने घरों को छोड़ कर जंगलों में भाग गए थे।  टीपू ने औरतों और बच्चों तक को नहीं बक्शा था। जबरन धर्म परिवर्तन के कारण मापला मुसलमानों की संख्या में अत्यंत वृद्धि हुई जबकि हिन्दू जनसंख्या न्यून हो गई।
4.  विल्ल्यम लोगेन मालाबार मनुएल में टीपू द्वारा तोड़े गए हिन्दू मंदिरों काउल्लेख करते हैं जिनकी संख्या सैकड़ों में है।
5.  राजा वर्मा केरल में संस्कृत साहित्य का इतिहास में मंदिरों के टूटने का अत्यंत वीभत्स विवरण करते हुए लिखते हैं की हिन्दू देवी देवताओं की मूर्तियों को तोड़कर व पशुओं के सर काटकर मंदिरों को अपवित्र किया जाता था।
6.  मसूर में भी टीपू के राज में हिन्दुओं की स्थिति कुछ अच्छी न थी। लेवईस रईस के अनुसार श्री रंगपटनम के किले में केवल दो हिन्दू मंदिरों में हिन्दुओं को दैनिक पूजा करने का अधिकार था बाकी सभी मंदिरों की संपत्ति जब्त कर ली गई थी। यहाँ तक की राज्य सञ्चालन में हिन्दू और मुसलमानों में भेदभाव किया जाता था।  मुसलमानों को कर में विशेष छुट थी और अगर कोई हिन्दू मुसलमान बन जाता था तो उसे भी छुट दे दी जाती थी। जहाँ तक सरकारी नौकरियों की बात थी हिन्दुओं को न के बराबर सरकारी नौकरी में रखा जाता था कूल मिलाकर राज्य में 65 सरकारी पदों में से एक ही प्रतिष्ठित हिन्दू था तो वो केवल और केवल पूर्णिया पंडित था।
7.  इतिहासकार ऍम. ए. गोपालन के अनुसार अनपढ़ और अशिक्षित मुसलमानों को आवश्यक पदों पर केवल मुसलमान होने के कारण नियुक्त किया गया था।
8. बिदुर,उत्तर कर्नाटक का शासक अयाज़ खान था जो पूर्व में कामरान नाम्बियार था, उसे हैदर अली ने इस्लाम में दीक्षित कर मुसलमान बनाया था।  टीपू सुल्तान अयाज़ खान को शुरू से पसंद नहीं करता था इसलिए उसने अयाज़ पर हमला करने का मन बना लिया। जब अयाज़ खान को इसका पता चला तो वह बम्बई भाग गया. टीपू बिद्नुर आया और वहाँ की सारी जनता को इस्लाम कबूल करने पर मजबूर कर दिया था।  जो न बदले उन पर भयानक अत्याचार किये गए थे।  कुर्ग पर टीपू साक्षात् राक्षस बन कर टूटा था।  वह करीब 10,000 हिन्दुओं को इस्लाम में जबरदस्ती परिवर्तित किया गया।  कुर्ग के करीब 1000 हिन्दुओं को पकड़ कर श्री रंगपटनम के किले में बंद कर दिया गया जिन पर इस्लाम कबूल करने के लिए अत्याचार किया गया बाद में अंग्रेजों ने जब टीपू को मार डाला तब जाकर वे जेल से छुटे और फिर से हिन्दू बन गए। कुर्ग राज परिवार की एक कन्या को टीपू ने जबरन मुसलमान बना कर निकाह तक कर लिया था। ( सन्दर्भ पि.सी.न राजा केसरी वार्षिक 1964)
9. विलियम किर्कपत्रिक ने 1811 में टीपू सुल्तान के पत्रों को प्रकाशित किया था जो उसने विभिन्न व्यक्तियों को अपने राज्यकाल में लिखे थे। जनवरी 19,1790 में जुमन खान को टीपू पत्र में लिखता हैं की मालाबार में 4 लाख हिन्दुओं  को इस्लाम में शामिल किया है।  अब मैंने त्रावणकोर के राजा पर हमला कर उसे भी इस्लाम में शामिल करने का निश्चय किया हैं। जनवरी 18,1790 में सैयद अब्दुल दुलाई को टीपू पत्र में लिखता है की अल्लाह की रहमत से कालिक्ट के सभी हिन्दुओं को इस्लाम में शामिल कर लिया गया है, कुछ हिन्दू कोचीन भाग गए हैं उन्हें भी कर लिया जायेगा। इस प्रकार टीपू के पत्र टीपू को एक जिहादी गिद्ध से अधिक कुछ भी सिद्ध नहीं करते।
10. मुस्लिम इतिहासकार पि. स. सैयद मुहम्मद केरला मुस्लिम चरित्रम में लिखते हैं की टीपू का केरल पर आक्रमण हमें भारत पर आक्रमण करने वाले चंगेज़ खान और तिमूर लंग की याद दिलाता हैं।


विस्तारभय के चलते यहाँ पर कुछ प्रमाणों को दिया गया हैं। अगर शिवाजी और टीपू सुल्तान की तुलना करी जाये तो इतिहासकार निष्पक्ष रूप से एक ही बात कहेंगे कि शिवाजी आदर्श और उच्च व्यक्तित्व के स्वामी थे और टीपू सुल्तान ने अपना सम्पूर्ण जीवन मतान्धता को बढ़ाने में लगाया।

डॉ विवेक आर्य

(सभी राष्ट्रवादी मित्रों से इस लेख को शेयर कर अधिक से अधिक मित्रों तक पहुँचाने की प्रार्थना हैं)



Friday, November 6, 2015

सकारात्मक बने





एक दिन एक किसान का बैल कुएँ में गिर गया
वह बैल घंटों ज़ोर -ज़ोर से रोता रहा और किसान सुनता रहा और विचार करता रहा कि उसे क्या करना चाहिऐ और क्या नहीं।
अंततः उसने निर्णय लिया कि चूंकि बैल काफी बूढा हो चूका था अतः उसे बचाने से कोई लाभ होने वाला नहीं था और इसलिए उसे कुएँ में ही दफना देना चाहिऐ।
किसान ने अपने सभी पड़ोसियों को मदद के लिए बुलाया सभी ने एक-एक फावड़ा पकड़ा और कुएँ में मिट्टी डालनी शुरू कर दी।
जैसे ही बैल कि समझ में आया कि यह क्या हो रहा है वह और ज़ोर-ज़ोर से चीख़ चीख़ कर रोने लगा और फिर ,अचानक वह आश्चर्यजनक रुप से शांत हो गया।
सब लोग चुपचाप कुएँ में मिट्टी डालते रहे तभी किसान ने कुएँ में झाँका तो वह
आश्चर्य से सन्न रह गया....
अपनी पीठ पर पड़ने वाले हर फावड़े की मिट्टी के साथ वह बैल एक आश्चर्यजनक हरकत कर रहा था वह हिल-हिल कर उस मिट्टी को नीचे गिरा देता था और फिर एक कदम बढ़ाकर उस पर चढ़ जाता था।
जैसे-जैसे किसान तथा उसके पड़ोसी उस पर फावड़ों से मिट्टी गिराते वैसे -वैसे वह हिल-हिल कर उस मिट्टी को गिरा देता और एक सीढी ऊपर चढ़ आता जल्दी ही सबको आश्चर्यचकित करते हुए वह बैल कुएँ के किनारे पर पहुंच गया और फिर कूदकर बाहर भाग गया।
ध्यान रखे
आपके जीवन में भी बहुत तरह से मिट्टी फेंकी जायेगी बहुत तरह की गंदगी आप पर गिरेगी जैसे कि ,आपको आगे बढ़ने से रोकने के लिए कोई बेकार में ही आपकी आलोचना करेगा
कोई आपकी सफलता से ईर्ष्या के कारण आपको बेकार में ही भला बुरा कहेगा
कोई आपसे आगे निकलने के लिए ऐसे रास्ते अपनाता हुआ दिखेगा जो आपके आदर्शों के विरुद्ध होंगे...
ऐसे में आपको हतोत्साहित हो कर कुएँ में ही नहीं पड़े रहना है बल्कि साहस के साथ हर तरह की गंदगी को गिरा देना है और उससे सीख ले कर उसे सीढ़ी बनाकर बिना अपने आदर्शों का त्याग किये अपने कदमों को आगे बढ़ाते जाना है।
सकारात्मक रहे
सकारात्मक जिए...
🙏
" दुसरो को सुनाने के लिए अपनी आवाज ऊचीं मत करो...!
बल्कि अपना व्यक्तित्व इतना ऊँचा बनाओ,
साभार- ब्रह्मदेव वेदालंकार जी

Tuesday, November 3, 2015

राजा का उत्तराधिकारी कौन?



राजा का उत्तराधिकारी कौन?

एक न्यायप्रिय राजा था। उसके राज्य में प्रजा अत्यंत सुखी थी। दुर्भाग्य से उन्हें कोई संतान उत्पन्न न हुई। राजा को यह चिंता हुई की उनके पश्चात उनका राजपाठ कौन संभालेगा। उन्होंने अपने मंत्री को बुलाया और यह घोषणा करने को कहा की अगली पूर्णिमा को जो नवयुवक राजमहल में पहुँच जायेगा उसे राज्य का राजा बना दिया जायेगा। राजा के इस निर्णय को सुनकर मंत्री जी ने आश्चर्यचकित होते हुए बोले। राजन अगर बहुत सारे युवक राजमहल पहुंच गए तो आप निर्णय कैसे करेंगे। राजा ने मंत्री जो को पूर्णिमा तक प्रतीक्षा करने के लिए कहा.ठीक पूर्णिमा की रात को अनेक युवक राजमहल को जाने के लिए घर से निकले। रास्ते में अनेक स्थानों पर उनके मनोरंजन के लिए अनेक साधन उपलब्ध थे। कहीं उत्तम उत्तम पकवान खिलाये जा रहे थे। कहीं सुन्दर नर्तकियां नृत्य कर रही थी। कहीं पर अनेक प्रकार के खेलों का प्रबंध था। सभी युवक किसी न किसी स्थान पर रुक कर उन्हें देखने के लिए रुक गए। अंत में केवल एक युवक राजमहल पंहुचा। राजा ने उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। मंत्री ने राजा जी से केवल एक युवक के राजमहल पहुँचने का कारण पूछा। राजा ने बताया कि मैंने सभी रास्तों पर भोग के लिए अनेक साधन उपलब्ध करवा दिए थे। कोई सूरा का भोगी निकला, कोई सुन्दरी का भोगी निकला। उस नाच तमाशे को देखने में इतना मग्न हुए की जिस कार्य को करने हेतु घर से निकले थे। उन्हें वही स्मरण नहीं रहा। वे सभी भोगों के दास निकले। केवल एक युवक जिसे अपना उद्देश्य स्मरण रहा। जिसे कोई भी भोग अपने पथ से डिगा न सका यहाँ पहुंच सका। वही युवक इस राज्य का राजा बनने लायक है क्यूंकि राज्य के असीम संसाधनों का स्वामी होते हुए भी वह इनका दास नहीं है। ऐसा ही व्यक्ति राज्य करने योग्य है। राजा की बात सुनकर मंत्री को राजा के निर्णय पर गर्व एवं सही उत्तराधिकारी मिलने का संतोष प्राप्त हुआ।

वेदों में इसी सिद्धांत को बड़े सुन्दर शब्दों में बताया गया है। यजुर्वेद 35:10 में संसार को एक नदी के रूप में चित्रित किया गया है। इस नदी के तल में अनेक नुकीले पत्थर विद्यमान हैं एवं इसका वेग भी अति तीव्र है। इस वही पार कर सकता है जिसका वेग एक समान हो अर्थात वह अपने लक्ष्य से हटे नहीं। जिसकी जेबों में भारी पत्थर न हो जो उसका आगे चलना दुर्भर कर दे। अर्थात जो काम, क्रोध, मोह, लोभ आदि बुराइयों से विरक्त हो। जो अन्य को साथ लेकर चलने की क्षमता भी रखता हो। ईश्वर अपने अप्रतीम सुख अर्थात मोक्ष का राजा उसी को बनाता है जो सांसारिक भोगों को पार कर अपने लक्ष्य तक बिना रुके, बिना डिगे एक वेग से आगे बढ़ने की योग्यता रखता हो। इसलिए मित्रों आये सभी मोक्ष पथ के गामी बने।

डॉ विवेक आर्य          

Monday, November 2, 2015

मज़हबी करतूत बनाम धार्मिक सदाचार



मज़हबी करतूत बनाम धार्मिक सदाचार

मैं फेसबुक पर अनेक हिन्दुत्ववादी/ राष्ट्रवादी ग्रुप्स का संचालक हूँ। पिछले कुछ महीनों से सभी ग्रुप्स में अश्लील पोस्ट्स भारी मात्रा में की जा रही हैं। इन्हें हटाने में हमारा बहुमुल्य समय व्यर्थ होता है। सबसे बड़ी बात मुझे यह मिली की अधिकतर ऐसी अश्लील पोस्ट भेजने वालों का ID मुस्लिम पाया गया। अगर इनकी एक ID बैन करी जाती हैं तो दूसरी ID बना देते हैं। पहले किसी हिन्दू नाम से ID बनाकर ग्रुप में प्रवेश करते है। फिर उस छदम ID के माध्यम से अपनी मज़हबी करतूत को अंजाम देते है। गौरतलब बात यह है कि हिन्दू ग्रुप्स में अश्लीलता फैलाने को ये लोग धार्मिक कार्य समझते है। सत्य यह है कि यह धार्मिक कार्य नहीं अपितु मजहबी संकीर्णता है। धर्म और मजहब में अंतर की समझ रखने वाला व्यक्ति ऐसी करतूत नहीं करेगा।

धर्म की परिभाषा-

जो धारण किया जाये वह धर्म है। अथवा लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म है। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं की मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्यति है वह धर्म है। लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु गुणों और कर्मों में प्रवृति की प्रेरणा धर्म का लक्षण कहलाता है। मनु स्मृति के अनुसार धैर्य,क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना, चोरी त्याग, शौच, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध धर्म के दस लक्षण हैं। सदाचार परम धर्म है। जिससे अभ्युदय(लोकोन्नति) और निश्रेयस (मोक्ष) की सिद्धि होती है, वह धर्म है।


मज़हब और धर्म में अंतर

धर्म और मज़हब समान अर्थ नहीं है और न ही धर्म ईमान या विश्वास का प्राय: है। धर्म क्रियात्मक वस्तु है मज़हब विश्वासात्मक वस्तु है। धर्म का आधार ईश्वरीय अथवा सृष्टि नियम है। परन्तु मज़हब मनुष्य कृत होने से अप्राकृतिक अथवा अस्वाभाविक है। धर्म सदाचार रूप है परन्तु मज़हबी अथवा पंथी होने के लिए सदाचारी होना अनिवार्य नहीं है। केवल सम्बंधित मज़हब के नियमों का पालन करने वाला होना चाहिए। धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है जबकि मज़हब मनुष्य को केवल पन्थाई या मज़हबी और अन्धविश्वासी बनाता है। धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़ता है जबकि मज़हब बिचौलिये अथवा मत प्रवर्तक अथवा मत की मान्यताओं से जोड़ता है। धर्म का कोई बाहरी चिन्ह नहीं है जबकि मत में बिना चिन्ह ग्रहण किये कोई उसका सदस्य नहीं बन सकता। धर्म मनुष्य को पुरुषार्थी बनाता है जबकि मज़हब मनुष्य को आलस्य का पाठ सिखाता है। धर्म दूसरों के हितों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति तक देना सिखाता हैं जबकि मज़हब अपने हित के लिए अन्य मनुष्यों और पशुओं  के प्राण हरण का सन्देश देता है। धर्म मनुष्य को सभी प्राणी मात्र से प्रेम करना सिखाता हैं जबकि मज़हब मनुष्य को प्राणियों का माँसाहार और दूसरे मज़हब वालों से द्वेष सिखाता है। धर्म एकता का पाठ पढ़ाता है जबकि मज़हब भेदभाव और विरोध को बढ़ाता है।

संक्षेप में धार्मिक बने मजहबी नहीं। सदाचारी बने दुराचारी नहीं। विचारों में पवित्रता लाये द्वेष भावना नहीं।

डॉ विवेक आर्य