अनुभव की बात
देश के प्रसिद्द उद्योगपति , कर्मयोगी एवं देशभक्त स्वर्गीय घनश्यामदास बिड़ला ने अत्यंत मार्मिक पत्र अपने पुत्र श्री वसंतकुमार बिड़ला को अब से 78 वर्ष पूर्व लिखा था जो आज भी प्रासंगिक है और देश के बड़े बड़े उद्योगपतियों एवं नौकरशाहों के लिए प्रेरणास्रोत्र है।
चिरंजीव वसंत दीपावली संवत- 1991
यह जो लिखता हूँ उसे बड़े होकर और बूढ़े होकर भी पढना। अपने अनुभव की बात करता हूँ। संसार में मनुष्य जन्म दुर्लभ हैं, यह सच बात है और मनुष्य जन्म पाकर जिसने शारीर का दुरुपयोग किया, वह पशु है। तुम्हारे पास धन हैं, तंदरुस्ती हैं, अच्छे साधन है। उनका सेवा के लिए उपयोग किया तब तो साधन सफल है अन्यथा वे शैतान के औजार है। तुम इतनी बातों का ध्यान रखना।
धन का मौज- शौक में कभी उपयोग न करना। धन सदा रहेगा भी नहीं, इसलिए जितने दिन पास में है, उसका उपयोग सेवा के लिए करो। अपने ऊपर कम से कम खर्च करो, बाकि दुखियों का दुःख दूर करने में व्यय करो। धन शक्ति हैं, इस शक्ति के नशे में किसी के साथ अन्याय हो जाना संभव हैं, इसका ध्यान रखो। अपनी संतान के लिए यही उपदेश छोड़कर जाओ। यदि बच्चे ऐश- आराम वाले होंगे तो पाप करेंगे और हमारे व्यापार को चौपट करेंगे। ऐसे नालायकों को धन कभी न देना। उनके हाथ में जाये इससे पहले ही गरीबों में बात देना। तुम यही समझना की तुम इस धन के ट्रस्टी हो। तुम्हारा धन जनता की धरोहर है। तुम उसे अपने स्वार्थ के लिए उपयोग नहीं कर सकते। भगवान को कभी न भूलना वह अच्छी बुद्धि देता है। इन्द्रियों पर काबू रखना, वर्ना ये तुम्हें डूबा देगी। . नित्य नियम से व्यायाम करना। भोजन को दावा समझकर खाना। इसे स्वाद के वश होकर मत खाते रहना।
घनशयाम दास बिरला (विश्व हिंदी सेवी समाचार लखनऊ से साभार)
धन की शास्त्रों में 3 गति बताई गई हैं। पहली दान, दूसरी भोग एवं तीसरी नाश। धन का अगर आवश्यकतानुसार भोग करेंगे तो वह कभी दुखदायी नहीं होगा एवं आवश्यकता से अधिक धन को दान में देकर जनकल्याण में व्यय करेंगे तो वह सुखदायी होगा और अगर ऐसा नहीं किया तो वही धन आपका नाश कर देगा क्यूंकि वह धन आपको गलत रास्ते पर ले जायेगा। यही कारण हैं की अनेक धनी लोगों की संतान नशा, व्यभिचार आदि में लिप्त होकर अपने जीवन को नष्ट कर देते है।
इसी प्रकार से वेद में व्यक्ति को धनी होने के साथ साथ विद्वान होने अथवा विद्वान का सत्संग करने का भी सन्देश हैं। ऋग्वेद के मंडल 1 के अध्याय 15 में मंत्र आता हैं की विद्वान लोग अपनी धार्मिकता और सदाचार से न केवल अपने अपितु धनी के धन आदि पदार्थों और आचरण की रक्षा करते हैं। इसका एक अर्थ यह भी हैं की विद्या से सभी प्रकार की सम्पदा की रक्षा होती हैं। इसलिए यह सभी मनुष्यों का कर्तव्य हैं की वे विद्या के ग्रहण और प्रचार प्रसार में अवश्य भागी बने जिससे की न केवल सभी मनुष्य विद्वान होकर धार्मिक बने अपितु सभी की रक्षा हो सके। आज हमारे समक्ष अनेकों ऐसे उदहारण हैं जहाँ पर यह देखने को मिलता हैं की समाज का अधिक से अधिक वर्ग केवल धन और संसाधन प्राप्ति के पीछे भाग रहा हैं। इस भागदौड़ में वह ज्यादा से ज्यादा धन कमाने की इच्छा में अधार्मिक एवं दुराचारी तरीकों से भी धन कमाने की चेष्टा करने लगा हैं। विद्या से सुशोभित सज्जन व्यक्ति केवल पवित्र धन की इच्छा रखता हैं एवं ऐसा धन ही जीवन में सुख को देने वाला हैं। विद्या व्यक्ति को निर्दयी, भ्रष्टाचारी, पापी, चोर आदि बनाने से बचाती हैं। इसलिए केवल धन की ही इच्छा न करे अपितु विद्या की भी प्राप्ति की चेष्टा रखे। वेद कभी भी निर्धन रहने का सन्देश नहीं देते अपितु पवित्र धन की सदा कामना करते है।
डॉ विवेक आर्य
GREAT ARTICLE.
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