मित्रों, प्रायः यह माना जाता है बुद्ध वेदोँ के घोर विरोधी थे किन्तु निष्पक्षपात दृष्टि से इस विषय का अनुशीलन करने पर इसमेँ यथार्थता नहीँ प्रतीत होती।
सुत्त निपात के सभिय सुत्त मेँ महात्मा बुद्ध ने वेदज्ञ का लक्षण इस प्रकार
बताया है-
वेदानि विचेग्य केवलानि समणानं यानि पर अत्थि ब्राह्मणानं।
सब्बा वेदनासु वीतरागो सब्बं वेदमनिच्च वेदगू सो।।
(सुत्त निपात ५२९)
श्री जगत्मोहन वर्मा ने अपनी 'बुद्ध देव' नामक पुस्तक के पृष्ठ २४३ पर इसे
उद्धत करके अनुवाद दिया है-
"जिसने सब वेदोँ और कैवल्य वा मोक्ष-विधायक उपनिषदोँ का अवगाहन कर लिया है और जो सब वेदनाओँ से वीतराग होकर सबको अनित्य जानता है वही वेदज्ञ है"। श्री वियोगी हरि ने अपनी 'बुद्ध वाणी' के पृ॰७२ मेँ इसे निम्न अर्थ के साथ उद्धत किया है- "श्रमण और ब्राह्मणोँ के जितने वेद हैँ उन सबको जानकर और उन्हेँ पार करके जो सब वेदनाओँ के विषय मेँ वीतराग हो जाता है, वह वेद पारग कहलाता है|
श्रोत्रिय का लक्षण-
प्रश्न- किन गुणोँ को प्राप्त करके मनुष्य श्रोत्रिय होता है?
बुद्ध का उत्तर- "सुत्वा सब्ब धम्मं अभिञ्ञाय लोके सावज्जानवज्जं यदत्थि किँचि। अभिभुं अकथं कथिँ विमुत्त अनिघंसब्बधिम् आहु 'सोत्तियोति"।।
लार्ड चैमर्स G.C.B.D.Litt ने Buddha's teaching सुत्त निपात के अनुवाद मेँ इसका अर्थ योँ दिया है-
"जितने भी निन्दित और अनिन्दित धर्म हैँ उन सबको सुनकर और जानकर जो मनुष्य उनपर विजय प्राप्त करके निश्शंक, विमुक्त, और सर्वथा निर्दःख हो जाता है, उसे श्रोत्रिय कहते हैँ"।
संस्कृत साहित्य मेँ श्रोत्रिय शब्द का प्रयोग 'श्रोत्रियछश्न्दोऽधीते' इस अष्टाध्यायी के सूत्र के अनुसार वेद पढ़नेवाले के लिए होता है। वेदज्ञ और श्रोत्रिय के महात्मा बुद्ध ने सभिय के प्रश्न के उत्तर मेँ जो लक्षण किये हैँ उनसे उनका वेदोँ के विषय मेँ आदर भाव ही प्रकट होता है न कि अनादर, यह बात सर्वथा स्पष्ट है। दरअसल जहां भी निन्दासूचक शब्द आये हैँ वे उन ब्राह्मणोँ के लिए आये जो केवल वेद का अध्ययन करते हैँ पर तदनुसार आचरण नहीँ करते हैँ। इसको वेद की निन्दा समझ लेना बड़ी भूल है।
मित्रोँ, सब वैदिकधर्मी विद्वान इस बात को जानते हैँ कि गायत्री मन्त्र 'सवितुर्वरेण्य भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रयोदयात्।' वेद माता तथा गुरूमंत्र के रूप मेँ आदृत किया जाता है। महर्षि मनु अपनी स्मृति मेँ गायत्री को सावित्री मंत्र के नाम से भी पुकारते हैँ क्योँकि इसमेँ परमेश्वर को 'सविता' के नाम से स्मरण किया गया है। ( देखिये मनुस्मृति २/७८)
इसी आर्ष परम्परा का अनुसरण करते हुए महात्मा बुद्ध ने सुत्तनिपात महावग्ग सेलसुत्त श्लो॰२१ मेँ कहा है-
अग्गिहुत्तमुखा यज्ञाः सावित्री छन्दसो मुखम्।
अग्रिहोत्र मुखा यज्ञा, सावित्री छन्दसो मुखम्।।
इसका अनुवाद प्रायः लेखको ने छन्दोँ मेँ सावित्री छन्द प्रधान है ऐसा किया है। किन्तु वह अशुद्ध है। सावित्री किसी छन्द का नाम नहीँ। छन्द का नाम तो गायत्री है। छन्द का अर्थ वेद तो सुप्रसिद्ध है ही अतः उसी अर्थ को लेने से ही महात्मा बुद्ध की उक्ति अधिक सुसंगत प्रतीत होती है। इसमेँ उनकी सावित्री मन्त्र(गायत्री) तथा अग्रिहोत्र विषयक श्रद्धा का भी आभास मिलता है। क्या एक वेद विरोधी नास्तिक के मुख से कभी इस प्रकार के शब्द निकल सकते हैँ?
सुत्तनिपात श्लो॰३२२ मेँ महात्मा बुद्ध ने कहा है-
एवं पि यो वेदगू भावितत्तो, बहुस्सुतो होति अवेध धम्मो।
सोखो परे निज्झपये पजानं सोतावधानूपनिसूपपत्रे।।
अर्थात् जो वेद जाननेवाला है, जिसने अपने को सधा रखा है, जो बहुश्रुत है और धर्म का निश्चय पूर्वक जाननेवाला है वह निश्चय से स्वयं ज्ञान बनकर अन्योँ को जो श्रोता सीखने के अधिकारी हैँ ज्ञान दे सकता है।
लार्ड चैमर्स के अनुवाद मेँ 'वेदगु' का अर्थ वेद को जाननेवाला न देकर केवल He who knows यह दे दिया है जो अपूर्ण है, शेष भाग का अनुवाद ठीक है। वस्तुतः He who knows के स्थान पर 'He who knows the Vedas' होना चाहिए।
सुन्दरिक भारद्वाज सुत्त मेँ कथा है कि सुन्दरिक भारद्वाज जब यज्ञ समाप्त कर चुका तो वह किसी श्रेष्ठ ब्राह्मण को यज्ञ शेष देना चाहता था। उसने संन्यासी बुद्ध को देखा। उसने उनकी जाति पूछी उन्होनेँ कहा कि मैँ ब्राह्मण हूं और उसे सत्य उपदेश देते हुए कहा- "यदन्तगु वेदगु यञ्ञ काले। यस्साहुतिँल ले तस्स इज्झेति ब्रूमि।।" अर्थात् वेद को जाननेवाला जिसकी आहुति को प्राप्त करे उसका यज्ञ सफल होता है ऐसा मैँ कहता हूं। इसमेँ जन्मना जाति का कोई मतलब नहीँ है। इस प्रकरण से भी स्पष्ट ज्ञात होता है कि महात्मा बुद्ध सच्चे वेदज्ञोँ के लिए बड़ा आदरभाव रखते थे। यहां भी लार्ड चैमर्स नेँ अशुद्धि की है और 'वेदगु' का अर्थ Saint किया है।
सुत्तनिपात श्लोक १०५९ मेँ महात्मा बुद्ध की निम्न उक्ति पाई जाती है-
यं ब्राह्मणं वेदगुं अभिजञ्ञा अकिँचनं कामभवे असत्तम्।
अद्धाहि सो ओघमिमम् अतारि तिण्णो च पारम् अखिलो अडंखो।।
अर्थात् जिसने उस वेदज्ञ ब्राह्मण को जान लिया जिसके पास कुछ धन नहीँ और जो सांसरिक कामनाओँ मेँ आसक्त नहीँ वह आकांक्षारहित सचमुच इस संसार सागर के पार पहुंच जाता है। यहां भी लार्ड चैमर्स ने 'वेदगु' का अर्थ Rich in lore किया है जो ठीक नहीँ, इसका अर्थ Rich in Vedic lore होना चाहिए।
उपसंहार- मित्रोँ, तो हमने पाया कि महात्मा बुद्ध न सिर्फ वेदो का सम्मान करते थे बल्कि सच्चे वेदज्ञोँ के भी प्रेमी थे। बुद्ध गया के महन्त स्वामी महाराज योगिराज ने अपने "बुद्ध मीमांसा" नामक उत्तम अंग्रेजी ग्रन्थ मेँ लिखा है कि- "त्विश्य जातक मेँ वेदोँ के अध्ययन को बौद्ध गृहस्थोँ के आवश्यक कर्त्तव्य के रूप मेँ बताया गया है। इसके लिए उन्होनेँ श्री शरत्चन्द्र दास कृत Indian Pandits in the Land of snow पृ.८७ का प्रतीक दिया है।(Buddha meemansa पृ.६०)
बौद्धमत पर अनेक ग्रंथोँ के लेखक श्री राइसडेविड्स ने अपनी 'Buddhism' नामक पुस्तक मेँ लिखा है कि-
बुद्ध के विषय मेँ यह एक अशुद्ध फैला हुआ है कि वह हिन्दू धर्म का शत्रु है।
बुद्ध भारतीय के रूप मेँ ही उत्पन्न हुए, पालित हुए उसी रूप मेँ जिये। उस समय प्रचलित धर्म से उनका कुछ ही विवाद था। पर उनका उद्देश्य धर्म को सम्पुष्ट करना तथा प्रबल बनाना था, उसका नाश करना नहीँ।
Buddhism by Rhys Davids पृ.१८२)
सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान श्री मोनियर विलियम्म ने अपनी Buddhism नामक किताब के पृ.२०६ पर लिखा है कि-
बुद्ध का उद्देश्य हिन्दू धर्म का नाश करना नहीँ अपितु अशुद्धियोँ से पवित्र
करके प्राचीन शुद्ध रूप मेँ पुनरूद्धार करना था।
मित्रोँ, इतने प्रमाणो के बाद अब अधिक कहने की आवश्यकता नहीँ है। ईश्वर सबको सद्बुद्धि प्रदान करेँ।
Source- The Light Of Truth-सत्यार्थ प्रकाश
हिन्दुओं बौद्धों और जैनियों का आपस में कहीं कोई ऐसा विरोध नहीं की उँगलियाँ उठाईं जाएँ।
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