हैदराबाद आंदोलन और आर्यसमाज
#डॉ_विवेक_आर्य
आपको इतिहास की किसी भी इतिहास पुस्तक में आर्यसमाज द्वारा 1939 में चलाये गये हैदराबाद आंदोलन के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलेगी। स्वतन्त्र भारत के पहले मदरसा पठित शिक्षा मंत्री अब्दुल कलाम को यह खास हिदायत मिली थीं कि इतिहास में हिन्दुओं पर जितने भी अत्याचार हुए हैं। उनका किसी इतिहास पुस्तक में वर्णन मत करना। भारतीयों के प्राचीन इतिहास का जिस पर वो गौरव कर सके। उसका भी वर्णन मत करना। उसे सदा पराजित दर्शाना ताकि भारतीयों को यह लगने लगे कि तुम शासक बनने के कभी योग्य ही नहीं थे। इसलिए तुम पर विदेशी शासन करने के लिए आये। यही तुम्हारी नियति थी।
24 फरवरी 1939 को हैदराबाद से निकलने वाले साप्ताहिक पत्र 'रहबरे दकिन' में हैदराबाद के तत्कालीन निज़ाम मीर उस्मान अली की एक ग़ज़ल प्रकाशित हुई। जिसका एक पद्य यह था-
'बन्द नाकूस हुआ सुनके नदाये तकबीर। जलजला आ ही गया सिलसिले जुन्नार पै भी।।'
अर्थात मस्जिदों में मुसलमानों की अल्लाह अकबर की आवाज़ सुनकर हिन्दू लोगों के दिन दहल गये। उनके मंदिरों के शंख बंद हो गये और उनके (जुन्नार) जनेऊ शरीर की कंपकंपी के कारण हिल थे।
पं गंगा प्रसाद उपाध्याय ने अपनी आत्मकथा में इस ग़ज़ल का उत्तर इस प्रकार से दिया था-
'तीन धागे थे फ़कत सूत के कच्चे लेकिन। बाजी जुन्नार ने ली हैदरी तलवार पै भी।।'
अर्थात तीन धागे थे सूत के कच्चे पर फिर भी हैदरी तलवार पर जनेऊ अर्थात यज्ञोपवीत भारी पड़ा।
यह पद्य आर्यसमाज द्वारा सुदूर दक्षिण में हैदराबाद में निज़ाम द्वारा चलाये जा रहे दमन के विरोध अहिंसक आंदोलन की विजय का समाचार देता है। हैदराबाद रियासत में प्रजा में 89% हिन्दू थे और 10% मुस्लिम। जबकि सरकारी नौकरियों में यह प्रतिशत विपरीत था। शासक मतान्ध निजाम था जो दुनिया का सबसे धनी आदमी समझा जाता था। जिसके पुत्र का विवाह तुर्की के खलीफा की पुत्री से हुआ था। निजाम के लोगों को लगता था कि उनका पोता तुर्की का खलीफा बनेगा और मुसलमानी जगत की बागडोर आसफिया वंश के हाथों में होगी। अलीगढ में सर सैय्यद अहमद खान के लगाए हुए अलगाववादी वृष में निज़ाम मतान्धता की घुट्टी पीकर आया। तेलगू भाषी प्रदेश पर उर्दू लाद दी। हिन्दुओं को नए मंदिर बनाने, उत्सव बनाने, जुलूस निकालने, पुराने मंदिरों की मरम्मत करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इस्लाम में मत परिवर्तन को प्रोत्साहन दिया। उसे अपनी मतान्ध नीति में आर्य समाज बाधा लगी तो उसने रियासत में आर्य प्रचारकों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। अंत में विवश होकर आर्यसमाज को 25 दिसंबर 1938 में शोलापुर में आंदोलन करने की घोषणा करनी पड़ी। यह काल था जब देश में गाँधी का सिक्का बोलता था। आर्यों का अहिंसक आंदोलन भी गाँधी को असहनीय था। गाँधी ने घोषणा कर दी कि कोई भी कांग्रेसी हैदराबाद आंदोलन में भाग ना ले। अगले कुछ दिनों में दिल्ली में कांग्रेस का दफ्तर त्यागपत्रों से भर गया। तब जाकर गाँधी की आँख खुली और आर्यसमाज की जमीनी ताकत का उन्हें अहसास हुआ। ऐसा ही गलत आकलन निज़ाम ने भी किया था। हज़ारों आर्यों ने निज़ाम की जेलें भर दी। आर्यों के जनेऊ ने निज़ाम की हैदरी तलवार कुंठित कर दी। निजाम सोचता था कि चींटी चींटी ही है। हाथी के एक पैर से कुचली जा सकती है। पर निज़ाम सृष्टि का नियम भूल गया था। जब समय आ जाता है तो ईश्वर चींटियों के द्वारा ही हाथी का विनाश भी कर देता है। हैदराबाद के सर अकबर हैदरी ने एक महंत के समक्ष कहा कि- यह हमारा क्या करेंगे? महंत ने उत्तर दिया कि आप क्या करने की बात कहते हैं। यह न सोवेंगे और न आपको सोने देंगे। वस्तुतः: ऐसा ही हुआ।
आर्यों के न परिवारों में लगातार कई महीनों तक न कोई सोया न ही निज़ाम को सोने दिया। सर्वप्रथम आर्य समाज के सार्वदेशिक सभा के प्रधान महात्मा नारायण स्वामी जी ने अपनी गिरफ़्तारी दी। पीछे जत्थे के जत्थे अपने अपने सर्वधिकारियों के संग जेल जाते रहे। जत्थों का जहाँ रेलवे स्टेशन पर आर्य जनता स्वागत करती थी। वही शहरों से निकलते हुए जत्थों के जुलूसों पर मस्जिदों से पथरबाजी होती थी। स्वामी स्वतंत्रानन्द जी शोलापुर में बैठे हुए फील्ड मार्शल के समान उनका नेतृत्व करते रहे। आखिर में निज़ाम की जेलों में स्थान नहीं रहा। इस आंदोलन की गूंज ब्रिटेन तक गई। निज़ाम ने यह भ्रम भी फैलाने का प्रयास किया कि आर्यों ने असत्य प्रचार उन्हें बदनाम करने के लिए फैला रखा है। आर्यों ने हैदराबाद में बहुत से पत्र, फरमान, आदेश-पत्र, पुराने हिन्दू मंदिरों पर मुसलमानी झंडों के चित्र, टूटे हुए हिन्दू मंदिरों के चित्र , भग्न मूर्तियों के चित्र एकत्र कर उनकी रिपोर्ट बनाकर ब्रिटेन की पार्लियामेंट को भेज दी। निज़ाम का पाँसा यहाँ भी उलट गया। अंत में विवश होकर निज़ाम ने घुटने टेक दिए। आर्यों की ऐतिहासिक विजय हुई। यही आर्यों की विजय बाद में जाकर सरदार पटेल के अनुसार आपरेशन पोलो द्वारा हैदराबाद को भारत में मिलाने के लिये कारगर सिद्ध हुई।
कुछ लोग कहेंगे कि आज के सन्दर्भ में हैदराबाद आंदोलन की क्या प्रासंगिकता है? तो मैं उन्हें बताना चाहूंगा कि आज कल हैदराबाद से ही एक स्वयंभू नेता के नाम पर देश में भ्रामक बयान देता रहता है। उसकी मजलिस ने उस काल में भी आर्यों का पूरा विरोध करने में और रजाकारों के माध्यम से हिन्दुओं को प्रताड़ित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। हमारे पूर्वजों ने उसकी बीमारी की अहिंसात्मक तरीके से तब भी चिकित्सा की थी।
अद्भुत ऐतिहासिक जानकारी
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