सत्यार्थ प्रकाश और क़ुरान: इतिहास के दर्पण में
#डॉ_विवेक_आर्य
समाचार पत्र से ज्ञात हुआ। क़ुरान की 26 आयतों को बाद में मिलाई हुई आयतें करार देकर उन्हें क़ुरान से हटाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में सैय्यद वसिम रिजवी ने याचिका लगाई है। इस समाचार में ये कौन सी आयतें हैं। इस पर प्रकाश नहीं डाला गया। अनुमान से ये वो आयतें होनी चाहिये जो मुसलमानों को गैर मुसलमानों के प्रति हिंसा करने का सन्देश देती हैं। इस अनुमान का कारण निराधार नहीं है। क्योंकि क़ुरान की आयतों में समीक्षा करने का विचार आज से लगभग 140 वर्ष पुराना है। स्वामी दयानन्द ने ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के 14वें सम्मुलास में क़ुरान की आयतों की समीक्षा ईश्वरीय ग्रन्थ होने की कसौटी पर की गई थीं। स्वामी जी इस समुल्लास की भूमिका में लिखा है कि- 'यह लेख हठ, दुराग्रह, ईर्ष्या, द्वेष, वाद-विवाद और विरोध घटाने के लिये किया गया है, न कि इन को बढ़ाने के अर्थ।' मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि अगर सम्पूर्ण मानव समाज इस कसौटी पर सत्य-असत्य का निर्णय करने लगे तो निश्चित रूप से संसार स्वर्ग बन जाये।
सत्यार्थ प्रकाश में क़ुरान की आयतों की समीक्षा के कुछ उदहारण देखिये-
५४-और काफिरों पर हम को सहाय कर।। अल्लाह तुम्हारा उत्तम सहायक और कारसाज है।। जो तुम अल्लाह के मार्ग में मारे जाओ वा मर जाओ, अल्लाह की दया बहुत अच्छी है।। -मं० १। सि० ४। सू० ३। आ० १४७। १५०। १५८।।
(समीक्षक) अब देखिये मुसलमानों की भूल कि जो अपने मत से भिन्न हैं उन के मारने के लिये खुदा की प्रार्थना करते हैं। क्या परमेश्वर भोला है जो इन की बात मान लेवे? यदि मुसलमानों का कारसाज अल्लाह ही है तो फिर मुसलमानों के कार्य नष्ट क्यों होते हैं? और खुदा भी मुसलमानों के साथ मोह से फंसा हुआ दीख पड़ता है, जो ऐसा पक्षपाती खुदा है तो धर्मात्मा पुरुषों का उपासनीय कभी नहीं हो सकता।।५४।।
७९-और काटे जड़ काफिरों की।। मैं तुम को सहाय दूंगा। साथ सहस्र फरिश्तों के पीछे पीछे आने वाले।। अवश्य मैं काफिरों के दिलों में भय डालूंगा। बस मारो ऊपर गर्दनों के मारो उन में से प्रत्येक पोरी (सन्धि) पर।। -मं० २। सि० ९। सू० ८। आ० ७। ९। १२।।
(समीक्षक) वाह जी वाह! कैसा खुदा और कैसे पैगम्बर दयाहीन। जो मुसलमानी मत से भिन्न काफिरों की जड़ कटवावे। और खुदा आज्ञा देवे उन की गर्दन पर मारो और हाथ पग के जोड़ों को काटने का सहाय और सम्मति देवे ऐसा खुदा लंकेश से क्या कुछ कम है? यह सब प्रपञ्च कुरान के कर्त्ता का है, खुदा का नहीं। यदि खुदा का हो तो ऐसा खुदा हम से दूर और हम उस से दूर रहें।।७९।।
८१-और लड़ो उन से यहां तक कि न रहे फितना अर्थात् बल काफिरों का और होवे दीन तमाम वास्ते अल्लाह के।। और जानो तुम यह कि जो कुछ तुम लूटो किसी वस्तु से निश्चय वास्ते अल्लाह के है पाँचवाँ हिस्सा उस का और वास्ते रसूल के।। -मं० २। सि० ९। सू० ८। आ० ३९। ४१।।
(समीक्षक) ऐसे अन्याय से लड़ने लड़ाने वाला मुसलमानों के खुदा से भिन्न शान्तिभंगकर्ता दूसरा कौन होगा? अब देखिये यह मजहब कि अल्लाह और रसूल के वास्ते सब जगत् को लूटना लुटवाना लुटेरों का काम नहीं है? और लूट के माल में खुदा का हिस्सेदार बनना जानो डाकू बनना है और ऐसे लुटेरों का पक्षपाती बनना खुदा अपनी खुदाई में बट्टा लगाता है। बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसा पुस्तक, ऐसा खुदा और ऐसा पैगम्बर संसार में ऐसी उपाधि और शान्तिभंग करके मनुष्यों को दुःख देने के लिये कहां से आया? जो ऐसे-ऐसे मत जगत् में प्रचलित न होते तो सब जगत् आनन्द में बना रहता।।८१।।
मुसलिम समाज ने स्वामी जी के उद्देश्य को समझने के स्थान पर उसका प्रतिरोध आरम्भ कर दिया। उनके लिए यह पहली बार था कि किसी गैर मुस्लिम ने क़ुरान की समीक्षा करने के लिए प्रेरित किया था। अनेक पुस्तकें 14वें समुल्लास के विरोध में प्रकाशित की गई थीं। आर्य विद्वानों ने उनका यथोचित उत्तर समय समय पर लिखा। पं लेखराम ने 1892 में जहाद के नाम से एक ट्रैक्ट प्रकाशित किया। इस ट्रैक्ट में क़ुरान और हदीस की आयतों के गैर मुसलमानों के साथ सख्त व्यवहार के प्रमाण थे और अरब से लेकर भारत में इस्लाम कैसे फैला इसका विवरण था। इस ट्रैक्ट का उद्देश्य भी क़ुरान की समीक्षा करने के लिए संवाद की स्थापना करना था। पर इसके भी विपरीत प्रतिक्रिया हुई थीं। इसके बाद के दौर में कई सौ पुस्तकें दोनों ओर से लिखी गई थीं। 1920 के दशक में देश में अनेक दंगे हुए जिनमें मोपला, मुलतान और कोहाट के दंगे सबसे प्रसिद्ध रहे। स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा हिन्दू संगठन और शुद्धि आंदोलन चलाने पर अनेक पुस्तकें पक्ष-विपक्ष में प्रकाशित हुई। स्वामी जी की हत्या के पश्चात जो साहित्य प्रकाशित हुआ उसमें उनकी हत्या का प्रमुख कारण क़ुरान की उत्तेजक आयतों का होना बताया गया था जिससे कट्टरवाद को बढ़ावा मिलता था।
इन सभी के मध्य रँगीला रसूल पुस्तक को लेकर उसके प्रकाशक महाशय राजपाल की हत्या का प्रसंग इंग्लैंड की संसद पर गया। इसी कड़ी में सिंध सरकार ने सत्यार्थ प्रकाश के 14वें समुल्लास पर प्रतिबन्ध लगा दिया। इस प्रतिबन्ध का आर्यसमाज ने प्रतिकार किया। सार्वदेशिक पत्रिका में आर्यसमाज के दिग्गज विद्वान जैसे पं धर्मदेव विद्यामार्तण्ड, पं गंगा प्रसाद उपाध्याय, पं सूर्यदेव ने इस्लाम के इतिहास, क़ुरान की आयतों की समीक्षा करते हुए अनेक लेख प्रकाशित किये थे। ये सभी लेख अत्यंत पठनीय थे। 20 फरवरी 1944 को दिल्ली में एक विशाल आर्य सम्मेलन ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पर प्रतिबन्ध लगाने के प्रयास की कड़ी भर्त्सना की थीं। इसके अध्यक्ष श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे। वायसराय को हजारों तार भेजकर इस अन्यायपूर्ण कदम का विरोध किया गया था।
हिन्दू महासभा के नेता भाई परमानंद जी ने कहा – “ सिंध के मुस्लिम मंत्रिमंडल ने “सत्यार्थ प्रकाश” पर प्रतिबन्ध लगाकर सारी हिन्दू जाति को ही चुनौती दी है | यदि यह मान लिया जाये की चौदहवें समुल्लास को इस्लाम धर्म के खंडन के नाते प्रतिबंधित कर दिया जाये तो क़ुरान का प्रत्येक शब्द ही हिन्दुओं के विरुद्ध पड़ता है | समस्त कुरान को भी क्यों न जब्त किया जाये ?”
वीर सावरकर जी ने सार्वजनिक घोषणा की –“ जबतक सिंध में सत्यार्थ प्रकाश पर पाबंदी लगी है, तब तक कांग्रेस शासित प्रदेशों में कुरान पर प्रतिबन्ध लगाने की प्रबल मांग की जानी चाहिए |” सावरकर जी ने भारत के वायसराय और सिंध के गवर्नर को तार देकर कहा –“ सिंध सरकार द्वारा “सत्यार्थ प्रकाश” पर प्रतिबन्ध लगाने से सांप्रदायिक वैमनस्य उत्पन्न होगा| यदि सत्यार्थ प्रकाश से प्रतिबन्ध नहीं हटाया गया तो हिन्दू कुरान पर प्रतिबंध लगाने के लिए आन्दोलन प्रारम्भ कर देंगे। अतः मैं केन्द्रीय सरकार से अनुरोध करता हूँ कि सत्यार्थ प्रकाश पर लगे प्रतिबन्ध को अविलंब रद्द करे।” इतना ही नहीं 27 नवम्बर 1944 को सावरकर जी ने स्वयं वायसराय से भेंट की और “सत्यार्थ प्रकाश’ से प्रतिबन्ध हटाने की मांग की थीं। सिंध सरकार ने आर्य नेताओं के खुले आम सत्यार्थ प्रकाश लेकर सिंध में भ्रमण करने पर कोई रोक टोक नहीं लगाई। इससे यह प्रतिबन्ध हवाई किला सिद्ध हुआ। सीहोर भूपाल मुस्लिम रियासत के अंतर्गत था। यहाँ भी सत्यार्थ प्रकाश पर प्रतिबन्ध लगाया गया था। सार्वदेशिक जून 1947 में यह समाचार मिलता है कि यहाँ पर आर्य समाज ने आचार्य द्विजेन्दरनाथ के सभापतित्व में आर्य महा सम्मेलन कर इसे धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप बताया। संभवत विभाजन के पश्चात यह प्रतिबन्ध स्वयमेव उठ गया।
महात्मा गाँधी की भूमिका यहाँ पर वर्णन करे बिना यह लेख अधूरा है। सत्यार्थ प्रकाश के विषय में गाँधी जी ने नकारात्मक टिप्पणी लिखते हुए लिखा कि सत्यार्थ प्रकाश ने हिंदुत्व को संकीर्ण बना दिया। स्वामी दयानन्द ने जैन, इस्लाम और हिन्दू धर्म की गलत व्याख्या की। यह भी दोष लगाया कि ऐसे सुधारवादी व्यक्तित्व की कृति देखकर उन्हें निराशा हुई। गाँधी जी को अनेक आर्य लेखकों ने उस समय यथोचित उत्तर दिया। पं चमूपति ने गाँधी जी के आरोपों का बड़ा सुन्दर प्रतिउत्तर दिया था। आजीवन गाँधी जी मुसलमानों को प्रसन्न करने के चक्कर में हिन्दू हितों की अनदेखी करते रहे। परिणाम देश के विभाजन के रूप में निकला। मोपला आदि दंगों, शुद्धि, हिन्दू संगठन, वेद, मूर्तिपूजा-कर्मकांड, क्षात्र धर्म और अति-अहिंसावाद मत-मतान्तर समीक्षा, गौरक्षा, मुस्लिम कट्टरता, स्वामी श्रद्धानन्द, रंगीला रसूल और महाशय राजपाल, हैदराबाद आंदोलन, सिंध सत्याग्रह, नोआखली और डायरेक्ट एक्शन डे, देश विभाजन आदि विषयों पर आर्यसमाज और महात्मा गाँधी के मतभेद जीवन पर्यन्त रहे। 2 मई 1947 को गाँधी जी वाल्मीकि मंदिर नियमित प्रार्थना के पश्चात क़ुरान की कुछ आयतें पढ़वाई। कुछ लोगों ने आक्षेप किया तो गाँधी ने उनकी मानसिकता को संकीर्ण बताया। गाँधी ने आगे हरिजन अख़बार में यहाँ तक कह दिया कि 108 में से एक उपनिषद् अल्लोपनिषद भी है। साथ में लिखा कि- 'मुझे इस का कोई कारण नहीं दिखाई देता कि मैं कलमा क्यों न पढूं, अल्लाह की स्तुति क्यों न करूँ और मोहम्मद साहब को अपमा पैगम्बर मान कर उनकी इज्जत क्यों न करूँ? गाँधी जी के इस कृत्य की भारी आलोचना हुई और पं धर्मदेव विद्यामार्तण्ड ने गाँधी से से क़ुरान के आधार पर यही प्रश्न पूछ लिया कि क्या क़ुरान में गैर मुसलमानों के लिए बताई गई आयतों को भी गाँधी जी सही मानते है जिनके अनुसार अल्लाह उन पर कभी मेहरबान नहीं होता जो चाहे कितने अच्छे कर्म करते हो पर वो न पैगम्बर पर विश्वास रखते है और न ही क़ुरान में। वे दोज़ख में जायेंगे। इन विषयों पर प्राय: गाँधी मौन ही रह जाते थे। अच्छा होता वो अपनी नीति स्पष्ट करते।
आर्यसमाज ने उस काल में क़ुरान के दिग्गज विशेषज्ञ पं रामचंद्र दहेलवी जी ने एक ट्रैक्ट हिंदी में लिखा। इस ट्रैक्ट का शीर्षक था 'सत्यार्थ प्रकाश चतुर्दश समुल्लास में उद्धृत क़ुरान की आयतों का देवनागरी में उल्था और अनुवाद' । इसमें मुसलमानों द्वारा इस समुल्लास पर लगाए गए आक्षेपों का प्रति उत्तर था। इस बीच देश का विभाजन हुआ। देश विभाजन के पश्चात 20 जुलाई,1984 को हिमांग्शु किशोर चक्रवर्ती ने कोलकाता में क़ुरान की उत्तेजक आयतों को हटाने के लिए कोर्ट में याचिका दायर की थीं। इस याचिका को कोर्ट ने निष्कासित कर दिया। इस याचिका के विरुद्ध मुसलमानों ने बांग्लादेश तक में प्रदर्शन किया। सीता राम गोयल ने इस याचिका को बाद में प्रकाशित किया। उनका कहना था कि इसे गैर मुसलमानों को अवश्य पढ़ना चाहिए कि क़ुरान उनके विषय में क्या कहती है। कोलकाता में ही एक बार आर्यसमाज के उत्सव में रखी बंगला सत्यार्थ प्रकाश को पुलिस ने जब्त कर लिया था। आर्यसमाज ने उमाकांत जी उपाध्याय ने धरना कर इस कदम का विरोध किया। पुलिस ने ससम्मान सत्यार्थ प्रकाश की प्रतियां वापिस कर प्रकरण को निपटाया। कश्मीर में भी एक बार फारूक अब्दुल्लाह ने ऐसा ही दुस्साहस किया था। एक आर्य व्यक्ति को अरब में सत्यार्थ प्रकाश रखने पर जेल भेज दिया गया था। तत्कालीन आर्य नेताओं ने राजीव गाँधी तत्कालीन प्रधानमंत्री के सहयोग से उन्हें मुक्त करवाया था।
अब इस याचिका का क्या हश्र होगा? क्या मुस्लिम समाज परिवर्तन के लिए मानसिक रूप से तैयार है? उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी? इन प्रश्नों का उत्तर भविष्य की गर्भ में है।
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