Friday, March 19, 2021

अछूतोद्धार और शुद्धि: आपका भविष्य आपके इन दो क़दमों पर निर्भर करता है।


 


अछूतोद्धार और शुद्धि: आपका भविष्य आपके इन दो क़दमों पर निर्भर करता है।


#डॉ_विवेक_आर्य

1947 से पहले की घटना है। आर्यसमाज मीरपुर (वर्तमान पाकिस्तान द्वारा कब्ज़ा किया हुआ कश्मीर का भूभाग) ने स्थानीय अछूतों के उत्थान का निर्णय लिया। उस क्षेत्र में रहने वाले अछूतों को वशिष्ठ कहा जाता था। इनके पूर्वज कभी ब्राह्मण थे। मुग़लों के अत्याचार से इन्हें मृत पशु उठाने का कार्य करने विवश होना पड़ा। न ये हिन्दू मान्यताओं का पालन कर पा रहे थे और ना ही इस्लामिक। आर्यसमाज ने इन्हें पुन: शुद्ध करने का संकल्प लिया। कार्य प्रारम्भ हुआ। वशिष्ठों को शुद्ध होता देख अपने आपको विशुद्ध सनातन धर्मी कहने वाले और मुस्लिम दोनों आर्यसमाज के विरोध में खड़े हो गए। अपने बिछुड़े भाइयों को गले लगाने के स्थान पर उन्होंने आर्यसमाज के दलितों को यज्ञ में भाग लेने, यज्ञोपवीत पहनने का पुरजोर विरोध किया।

शुद्ध हुए वशिष्ठ युवक गोपीनाथ को उसके कुछ साथियों के साथ कुछ बदमाशों ने घेर लिया। उन्हें पकड़ कर बोले ये आर्यसमाजी यज्ञोपवीत पहराना क्या जानें। हम ऐसा यज्ञोपवीत पहना देते हैं, जो मरण पर्यन्त विनष्ट न हो; अत: वे स्वधर्म में पुन: दीक्षित उन भाइयों को जबरन पकड़ कर लोहे की दरांती अग्नि पर लाल करके उनके शरीर पर गहरी रेखा बना देते हैं। यह अत्याचार देश भर में सुर्खियों में छा गया। गाँधी जी से लेकर डॉ अम्बेडकर ने इस अत्याचार की आलोचना की। मामला न्यायालय तक गया। दुष्टों को 10-10 वर्ष की सजा हुई।

ऐसे घृणित अत्याचार पर भी कोई आर्य नेता हतोत्साहित नहीं हुआ। अनेक भूख-प्यास के कष्ट सहते हुए भी कार्य करते रहे। आर्यसमाज ने 12 हज़ार वशिष्ठों की शुद्धि कर डाली। शुद्ध हुए परिवारों के बच्चों के लिए पाठशालाएं खोली गई। उन्हें शिक्षित कर उनके जीवन को सुधारने का कार्य प्रारम्भ हुआ। शिल्प विद्यालय खोल कर उन्हें सक्षम बनाने का कार्य आरम्भ किया गया। यह कार्य केवल मीरपुर ही नहीं अपितु सियालकोट के मेघों आदि अछूतों में भी प्रारम्भ हुआ। मेघों के पुनर्वास के लिए आर्यसमाज ने भूमि खरीदकर आर्य नगर की स्थापना की।

जम्मू के महाशय रामचंद्र अखनूर में मेघों में सुधार कार्य को करने लगे। आपने उनके लिए विद्यालय खोला। अब आप अपनी सरकारी सेवा के अतिरिक्त अपना पूरा समय इन पहाड़ों में घूम घूम कर मेघों के दुःख , दर्द के साथी बन उनकी सेवा, सहायता तथा उन्हें पढ़ाने व उनकी बीमारी आदि में उनकी हर संभव सहायता करने लगे थे। इस सब का परिणाम यह हुआ कि जो लोग दलितों को उन्नति करता हुआ न देख सकते थे , उन्होंने सरकार के पास आप की शिकायतें भेजनी आरम्भ कर दीं , मुसलमानों को आप के विरोध के लिए उकसाने लगे , आप के व्याख्यानों का भी विरोध आरम्भ कर दिया ।

एक बार अछूतोद्धार के लिए जम्मू से रामचन्द्र जी भी अपने आर्य बन्धुओं व विद्वानों सहित बटौहड़ा के लिए रवाना हो गए । इनके साथ लाला भगतराम, लाला दीनानाथ, लाला अनन्तराम, ओ३मप्रकाश तथा सत्यार्थी जी आदि थे । मार्ग में ही आर्योपदेशक सावनमल जी भी अपने दल के साथ आ कर मिल गए । इस मध्य ही पता चला कि गांव में विरोधियों ने भारी षड्यन्त्र रच रखा है तथा हालात बेहद खराब हैं । इस कारण लौट जाने का निर्णय लेकर यह सब वापिस चल पड़े किन्तु इस की सूचना भी तत्काल गांव में राजपूतों को मिल गई । वह तो भड़के ही हुए थे अत: भगतू नामक एक व्यक्ति के नेतृत्व में मुसलमान, गुर्जरों के डेढ़ सौ के लगभग राजपूतों के सवारों व पैदल लोगों ने पीछे से इन पर आक्रमण कर दिया । सब पर लाठियाँ बरसाईं गई । सब और से एक ही आवाज आ रही थी कि खजान्ची को बचने नहीं देना । इस को मारो । यह सुन भगतराम जी उन्हें बचाने के लिए आगे आए किन्तु उन पर भी भारी मात्रा में लाठियों की मार पड़ी । अन्त में रामचन्द्र जी उनके हाथ आ गये तथा उन पर लोहे की छड़ों से प्रहार किया गया । वह जब बुरी तरह से घायल व बेहोश हो गये तो यह आक्रमणकारी इन्हें मरा समझ कर लौट गए । घायल व बेहोश वीर रामचन्द्र जी को अस्पताल में भर्ती किया गया । यहां निरन्तर छ: दिन तक बेहोश रहते हुए मौत से युद्ध करते रहे किन्तु अन्त में प्रभु की व्यवस्था ही विजयी हुई तथा मात्र 23 वर्ष की आयु में यह योद्धा आर्य समाज को अपना जीवन समझते हुए तथा दलितों को ऊँचा उठाने का यत्न करते हुए अन्त में दिनांक 20 जनवरी 1923 को रात्रि के 11 बजे वीरगति को प्राप्त हुआ। अछूतों के उद्धार के लिया किसी सवर्ण द्वारा दिया गया बलिदान स्वामी दयानन्द के शिष्य का ही हो सकता है।

आर्यसमाज ने 1947 में कभी मुस्लिम बने चंदेल राजपूतों को भी शुद्ध कर दिया था। शेख अब्दुल्ला ने उन्हें पुन: मस्जिद ले जाकर मुसलमान बना डाला। आर्य समाज के अछूतों के उद्धार के कार्य को अगर हिन्दू समाज का सहयोग मिलता तो न जाने कितने मुसलमानों को शुद्ध कर दिया जाता। कश्मीर का प्रथम मुस्लिम शासक रींचान बौद्ध था जो हिन्दू बनना चाहता था। देवास्वामी धर्मगुरु ने उसे हिन्दू बनाने से इनकार कर दिया तो बुलबुल शाह फकीर ने उसे मुसलमान बना दिया। उसी से कश्मीर में सर्वप्रथम इस्लाम को प्रवेश और प्रोत्साहन मिला। यही गलती बाद में भी हुई। एक समय जब कश्मीर के राजा ने मुस्लिम बने हिन्दुओं को शुद्ध करने का निर्णय लिया तो इन्हीं संकीर्ण विचारधारा वाले ब्राह्मणों ने झेलम में कूद कर आत्महत्या करने की धमकी दी थी। इस धमकी से राजा को अपना निर्णय वापिस लेना पड़ा। हज़ारों मुस्लिम हिन्दू बनने से रह गए। फारूक अब्दुल्ला, गुलाम नबी आज़ाद आदि के पूर्वज यही हिन्दू थे। जो बाद में कट्टर मुसलमान बन गए। यही गलती आर्यसमाज का विरोध कर की गई। आपने अपने बिछुड़े भाइयों को गले नहीं लगाया। उनके लिए अपने द्वार बंद रखे। तो वो गैरों के चले गए। उसी का परिणाम 1990 में सामने मिलता है। जब कश्मीरी पंडितों को अपने पूर्वजों की धरती छोड़कर भागना पड़ा। अब भी समय है। इस इतिहास से सीख लीजिये। जो जातियां अपने इतिहास की गलतियों से सीख नहीं लेती उनका भविष्य भी अंधकारमय हो जाता है।

No comments:

Post a Comment