सलंग्न चित्र- कोलकाता में एक मुस्लिम रैली में पाकिस्तानी झंडा लहराते हुए कुछ मुसलमान
राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर: क्या पूरे देश में लागु नहीं होना चाहिए?
डॉ विवेक आर्य
प्रसिद्द पत्रकार प्रीतीश नंदी का "लोगों को बांट नहीं सकती पहचान की राजनीती" के नाम से दैनिक भास्कर, दिल्ली संस्करण में दिनांक 2 मई को अभिव्यक्ति स्तम्भ के अंतर्गत लेख प्रकाशित हुआ। इस लेख में प्रीतीश नंदी ने प्रधानमंत्री मोदी जी की बंगाल की रैली में की गई दो घोषणाओं पर आपत्ति की हैं। पहली बांग्लादेश की सीमा पर बाड़ लगाने की है और दूसरी असम के समान बंगाल में भी राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बनाने जाने को लेकर हैं। नंदी जी के बंगाल और बांग्लादेश में रहने वाले लोग समान भाषा, समान साहित्य, समान संस्कृति , समान इतिहास साँझा करते हैं। ऐसे में उन्हें बाड़ लगाकर विभाजित करना गलत है। उनके अनुसार बांग्लादेश की उत्पत्ति अंग्रेजों के कारण हुई। धर्म का इस्तेमाल कर हम क्यों बंगाल के दो भाग करना चाहते हैं।
प्रीतीश नंदी जैसे लोगों के साथ दिक्कत यह है कि ये लोग एक विशेष राजनीतिक एजेंडा को पूर्ति करने में सदा प्रयत्नशील रहते है। इस एजेंडा के तहत ये लोग न केवल इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं को चालाकी से छुपाते हैं, बल्कि जनता को ऐसे प्रेरणा देते है कि वे कबूतर के समान आंख बंद करले। उन्हें न बिल्ली दिखेगी इसलिए न खतरा दिखेगा। नंदी जी को बता दे कि बंगाल का विभाजन अंग्रेजों ने मज़हबी आधार पर किया था। मगर उसका सहयोग करने वाला तो ढाका का मुस्लिम नवाब ही था। जिसने अंग्रेजों से सस्ती दर पर दो लाख रुपये उठाकर अंग्रेजों का पिछलगू बनना स्वीकार किया था। इसी उद्देश्य से उसने मुस्लिम लीग की स्थापना की थी। जिसने भारत विभाजन के विचार को पोषित किया था। अंग्रेजों को बंगाल की जनता विशेष रूप से राष्ट्रवादी हिन्दुओं का विरोध सहना पड़ा जिसके चलते उन्होंने अपने निर्णय को 1857 जैसे स्थिति न बन जाये वापिस लेना पड़ा। बाद के दशकों में पृथक मुस्लिम निर्वाचन, मुस्लिम बहुसंख्यक इलाकों में मुस्लिम विधायकों को आरक्षण जैसे क़दमों से बंगाल का पूर्वोत्तर भाग एक मज़हबी राष्ट्र बनने की ओर चल पड़ा था। सुहरावर्दी जैसे पक्षपाती नेताओं ने मुस्लिम गुंडों कोस संरक्षण दिया जिससे नोआखली और कोलकाता में भयानक दंगे हुए। इन दंगों में हज़ारों हिन्दुओं की हत्या हुई, हिन्दू औरतों की अस्मत लूटी गई, अनेक मदिर पतीत किये गए, अनेक स्थानों पर गौहत्या हुई। हिन्दुओं को भागकर शरणार्थी बनाना पड़ा। खेद है कि आज भी उसी सुहरावर्दी के नाम पर कोलकाता में सड़क का नामकरण किया गया हैं। 1947 के बाद बंगाल से एकमात्र पाकिस्तान के दलित हिन्दू मंत्री जोगिन्दर नाथ मंडल जिसने मुस्लिम लीग का साथ दिया था और पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दू दलितों को बसने का आग्रह किया था कि ऐसी दुर्गति वहां के मुसलमानों ने कर दी कि वह मंत्रिपद से त्यागपत्र देकर भारत भाग आया। पीछे से हिन्दू दलितों को भेड़ों के समान बलात धर्मांतरण और मज़हबी संकीर्णता झेलने के लिए बंगलादेश में छोड़ दिया। 1971 में पाकिस्तानी सेना ने हिन्दुओं पर अवर्णनीय अत्याचार किये। जिसके चलते उन्हें असम और बंगाल में भागकर शरणार्थी बनना पड़ा। तस्लीमा नसरीन के अनुभवों को पढ़े कि कैसे बांग्लादेश में चुनावों में हिन्दुओं को मताधिकार तक नहीं देना दिया जाता। कैसे दुर्गापूजा के पंडालों और हिन्दू मंदिरों पर हमले होते हैं। कैसे हिन्दू लड़कियों का अपहरण होता है। वर्तमान दशक में बांग्लादेश में वहाबी इस्लाम को डॉ ज़ाकिर नाईक जैसे मज़हबी प्रचारकों ने बड़े स्तर पर बढ़ावा दिया हैं। ढाका कैफ़े में हमला करने वाले ज़ाकिर नाइक से प्रेरित थे। इस प्रचार से गैर मुसलमानों के लिए बांग्लादेश में जीवन जीना मुश्किल हो गया है। इसी कारण से बांग्लादेश से हिन्दू भागकर बंगाल और असम में आ रहा हैं। भारत आना उसकी मज़बूरी है।
इसके विपरीत प्रीतीश नंदी जी इस समस्या पर मौन धारण कर उसके स्थान पर सांझी संस्कृति, सांझा इतिहास की दुहाई दे रहे है। वह यह क्यों भूल जाते है कि कश्मीरी पंडितों और कश्मीरी मुसलमानों की संस्कृति, इतिहास, पूर्वज, आराध्यदेव, जन्मभूमि, पहनावा,खानपान आदि भी कभी एक ही थे। सब एक होते हुए भी कश्मीरी पंडितों को कैसे उन्हीं की धरती से निकाला गया। आप कभी इस पर नहीं लिखते।
सीमा पर बाड़ क्यों आवश्यक है? इस पर भी अपने विचार रखना चाहूंगा। हमारा देश कोई सराय नहीं है। बांग्लादेश से आने वाला मुस्लिम हमारे देश के लिए कैसे खतरा हैं। इसे जानने के लिए आपको इस्लामिक साम्राज्यवाद की मूलविचारधारा को जानना आवश्यक हैं। 2005 में समाजशास्त्री डा. पीटर हैमंड ने गहरे शोध के बाद इस्लाम धर्म के मानने वालों की दुनियाभर में प्रवृत्ति पर एक पुस्तक लिखी, जिसका शीर्षक है ‘स्लेवरी, टैररिज्म एंड इस्लाम-द हिस्टोरिकल रूट्स एंड कंटेम्पररी थ्रैट’। इसके साथ ही ‘द हज’के लेखक लियोन यूरिस ने भी इस विषय पर अपनी पुस्तक में विस्तार से प्रकाश डाला है। जो तथ्य निकल करआए हैं, वे न सिर्फ चौंकाने वाले हैं, बल्कि चिंताजनक हैं।
उपरोक्त शोध ग्रंथों के अनुसार जब तक मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश-प्रदेश क्षेत्र में लगभग 2 प्रतिशत के आसपास होती है, तब वे एकदम शांतिप्रिय, कानूनपसंद अल्पसंख्यक बन कर रहते हैं और किसी को विशेष शिकायत का मौका नहीं देते। जैसे अमरीका में वे (0.6 प्रतिशत) हैं, आस्ट्रेलिया में 1.5, कनाडा में 1.9, चीन में 1.8, इटली में 1.5 और नॉर्वे में मुसलमानों की संख्या 1.8 प्रतिशत है। इसलिए यहां मुसलमानों से किसी को कोई परेशानी नहीं है।
जब मुसलमानों की जनसंख्या 2 से 5 प्रतिशत के बीच तक पहुंच जाती है, तब वे अन्य धर्मावलंबियों में अपना धर्मप्रचार शुरू कर देते हैं। जैसा कि डेनमार्क, जर्मनी, ब्रिटेन, स्पेन और थाईलैंड में जहां क्रमश: 2, 3.7, 2.7, 4 और 4.6 प्रतिशत मुसलमान हैं।
जब मुसलमानों की जनसंख्या किसी देश या क्षेत्र में 5 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब वे अपने अनुपात के हिसाब से अन्य धर्मावलंबियों पर दबाव बढ़ाने लगते हैं और अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगते हैं। उदाहरण के लिए वे सरकारों और शॉपिंग मॉल पर ‘हलाल’ का मांस रखने का दबाव बनाने लगते हैं, वे कहते हैं कि ‘हलाल’ का मांस न खाने से उनकी धार्मिक मान्यताएं प्रभावित होती हैं। इस कदम से कई पश्चिमी देशों में खाद्य वस्तुओं के बाजार में मुसलमानों की तगड़ी पैठ बन गई है। उन्होंने कई देशों के सुपरमार्कीट के मालिकों पर दबाव डालकर उनके यहां ‘हलाल’ का मांस रखने को बाध्य किया। दुकानदार भी धंधे को देखते हुए उनका कहा मान लेते हैं।
इस तरह अधिक जनसंख्या होने का फैक्टर यहां से मजबूत होना शुरू हो जाता है, जिन देशों में ऐसा हो चुका है, वे फ्रांस, फिलीपींस, स्वीडन, स्विट्जरलैंड, नीदरलैंड, त्रिनिदाद और टोबैगो हैं। इन देशों में मुसलमानों की संख्या क्रमश: 5 से 8 फीसदी तक है। इस स्थिति पर पहुंचकर मुसलमान उन देशों की सरकारों पर यह दबाव बनाने लगते हैं कि उन्हें उनके क्षेत्रों में शरीयत कानून (इस्लामिक कानून) के मुताबिक चलने दिया जाए। दरअसल, उनका अंतिम लक्ष्य तो यही है कि समूचा विश्व शरीयत कानून के हिसाब से चले।
जब मुस्लिम जनसंख्या किसी देश में 10 प्रतिशत से अधिक हो जाती है, तब वे उस देश, प्रदेश, राज्य, क्षेत्र विशेष में कानून-व्यवस्था के लिए परेशानी पैदा करना शुरू कर देते हैं, शिकायतें करना शुरू कर देते हैं, उनकी ‘आॢथक परिस्थिति’ का रोना लेकर बैठ जाते हैं, छोटी-छोटी बातों को सहिष्णुता से लेने की बजाय दंगे, तोड़-फोड़ आदि पर उतर आते हैं, चाहे वह फ्रांस के दंगे हों डेनमार्क का कार्टून विवाद हो या फिर एम्सटर्डम में कारों का जलाना हो, हरेक विवादको समझबूझ, बातचीत से खत्म करने की बजाय खामख्वाह और गहरा किया जाता है। ऐसा गुयाना (मुसलमान 10 प्रतिशत), इसराईल (16 प्रतिशत), केन्या (11 प्रतिशत), रूस (15 प्रतिशत) में हो चुका है।
जब किसी क्षेत्र में मुसलमानों की संख्या 20 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है तब विभिन्न ‘सैनिक शाखाएं’ जेहाद के नारे लगाने लगती हैं, असहिष्णुता और धार्मिक हत्याओं का दौर शुरू हो जाता है, जैसा इथियोपिया (मुसलमान 32.8 प्रतिशत) और भारत (मुसलमान 22 प्रतिशत) में अक्सर देखा जाता है। मुसलमानों की जनसंख्या के 40 प्रतिशत के स्तर से ऊपर पहुंच जाने पर बड़ी संख्या में सामूहिक हत्याएं, आतंकवादी कार्रवाइयां आदि चलने लगती हैं। जैसा बोस्निया (मुसलमान 40 प्रतिशत), चाड (मुसलमान 54.2 प्रतिशत) और लेबनान (मुसलमान 59 प्रतिशत) में देखा गया है। शोधकत्र्ता और लेखक डा. पीटर हैमंड बताते हैं कि जब किसी देश में मुसलमानों की जनसंख्या 60 प्रतिशत से ऊपर हो जाती है, तब अन्य धर्मावलंबियों का ‘जातीय सफाया’ शुरू किया जाता है (उदाहरण भारत का कश्मीर), जबरिया मुस्लिम बनाना, अन्य धर्मों के धार्मिक स्थल तोडऩा, जजिया जैसा कोई अन्य कर वसूलना आदि किया जाता है। जैसे अल्बानिया (मुसलमान 70 प्रतिशत), कतर (मुसलमान 78 प्रतिशत) व सूडान (मुसलमान 75 प्रतिशत) में देखा गया है।
किसी देश में जब मुसलमान बाकी आबादी का 80 प्रतिशत हो जाते हैं, तो उस देश में सत्ता या शासन प्रायोजित जातीय सफाई की जाती है। अन्य धर्मों के अल्पसंख्यकों को उनके मूल नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया जाता है। सभी प्रकार के हथकंडे अपनाकर जनसंख्या को 100 प्रतिशत तक ले जाने का लक्ष्य रखा जाता है। जैसे बंगलादेश (मुसलमान 83 प्रतिशत), मिस्र (90 प्रतिशत), गाजापट्टी (98 प्रतिशत), ईरान (98 प्रतिशत), ईराक (97 प्रतिशत), जोर्डन (93 प्रतिशत), मोरक्को (98 प्रतिशत), पाकिस्तान (97 प्रतिशत), सीरिया (90 प्रतिशत) व संयुक्त अरब अमीरात (96 प्रतिशत) में देखा जा रहा है।
प्रीतीश नंदी जैसे लोग चाहते है कि बंगलादेश के मुस्लिम भारत आकर बस जाये। मगर उसका परिणाम क्या होगा। ऊपर दिए गए आकड़ें इस विषय को बखूबी समझा रहे हैं।बंगाल के मालदा, 24 परगना, मुर्शिदाबाद आदि जिले पहले ही मुस्लिम बहुल हो चुके हैं। यही हालात असम के अनेक जिलों की भी है। ऐसे में हिन्दुओं का भविष्य कैसे सुरक्षित होगा। इस पर न केवल विचार होना चाहिए अपितु समाधान भी होना चाहिए। हिन्दू समाज के चिंतकों को पूरे देश की सीमा को बाड़ लगा कर सुरक्षित करने और केवल असम और बंगाल ही नहीं अपितु पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर बनाने के लिए सरकार पर दवाब बनाना चाहिए। जितने भी अवैध बांग्लादेशी और रोहिंग्या शरणार्थी है उन्हें उनके देश वापिस भेजना चाहिए। देश में जनसँख्या नियंत्रण कानून पारित करना चाहिए। यही समय की मांग हैं। अब भी नहीं चेते तो..........
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