🌺 जीवात्मा के अस्तित्व में प्रमाण 🌺
✍🏻 लेखक- स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
प्यारे पाठकगण ! आज हम अपने अस्तित्व के प्रमाण, अर्थात् जीवात्मा के अस्तित्व पर कुछ लिखना चाहते हैं। यह तो आपको विदित है कि इस समय संसार में दो प्रकार की सृष्टि ज्ञात होती है। एक जड़, दूसरी चेतन। ऐसा तो कोई मनुष्य है ही नहीं जिसे चेतन के होने से नकार हो। झगड़ा केवल इस बात का है कि चेतनशक्ति जड़ तत्त्वों की संयोगशक्ति से उत्पन्न होती है या यह एक भिन्न शक्ति है? यदि हम यह मान लें कि यह शक्ति भिन्न तत्त्वों से उत्पन्न होती है तो उस समय यह प्रश्न होगा कि यह शक्ति भिन्न तत्त्वों से उत्पन्न होती है अथवा उनके संयोग से उत्पन्न होती है? यदि ऐसा मान लें कि चेतनता भिन्न तत्त्वों में है तो उस दशा में कोई भी वस्तु जड़ हो ही नहीं सकती, क्योंकि चेतनता प्रकृति का गुण हो गया। यदि यह कहा जाए कि मूल भूतों में तो यह शक्ति नहीं, परन्तु संयोग से उत्पन्न होती है तो उस दशा में अभाव से भाव की उत्पत्ति माननी पड़ेगी, जो सर्वथा असम्भव तथा प्रत्यक्ष के विरुद्ध है, क्योंकि इस सम्पूर्ण जगत् के भीतर 'नास्ति से अस्ति' (न कुछ से कुछ) की उत्पत्ति अथवा जो शक्ति मूलभूत में वर्तमान न हो, वह उसके संयोग से होती किसी ने देखी नहीं, इसलिए उसके होने में कोई प्रमाण नहीं। महात्मा कपिलजी भी सांख्यशास्त्र में लिखते हैं
🔥 न भूतचैतन्यं प्रत्येकादृष्टेः सांहत्येऽपि च सांहत्येऽपि च॥ -सां० ५। १२९
अर्थ-अलग-अलग भूतों में चेतनता नहीं देखते, इसलिए उनके मिलाप से भी चेतनता उत्पन्न नहीं हो सकती।
महात्मा कपिलजी इसपर और प्रमाण देते हैं
🔥 अस्त्यात्मा नास्तित्वसाधनाभावात् ॥ -सां० ६।५
'मैं मानता हूँ' सदा ऐसा अनुभव होने से आत्मा का होना अच्छी प्रकार से विदित होता है और उसके न होने में बाधक प्रमाणों का अभाव विदित होता है, इसलिए आत्मा का होना सत्य है।
🔥 देहादिव्यतिरिक्तोऽसौ वैचित्र्यात्। -सां० ६।२।
वह आत्मा शरीर से नितान्त भिन्न वस्तु है, क्योंकि शरीर और आत्मा भिन्न धर्मवाले हैं। शरीर परिणामी है और आत्मा अपरिणामी है। यह अनुमान और शास्त्रों के प्रमाणों से भी सिद्ध है और आत्मा का अपरिणामी होना तो सदैव जाने हुए विषय का ज्ञाता होने से विदित होता है। जिस प्रकार से आँख का विषय रूप है शब्द नहीं, इसी प्रकार पुरुष का विषय बुद्धि की वृत्ति को साक्षात् करना है, इसके अतिरिक्त अन्य वस्तु का सम्बन्ध होने पर भी विषय नहीं होता।
🔥 षष्ठीव्यपदेशादपि॥ -सां० ६ । ३
और षष्ठी विभक्ति के प्रयोग से भी कि यह मेरा शरीर है, यह मेरी बुद्धि है, मेरा मन कहीं गया हुआ था विदित होता है कि आत्मा, इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर भिन्न-भिन्न वस्तुएँ हैं, क्योंकि कोई नहीं कहता कि “मैं मेरा हूँ।''
🔥 न शिलापुत्रवद्धर्मिग्राहकमानबाधात् ॥ ---सां० ६।४
यदि मन को तुम शिलापुत्र की भाँति लगाना चाहो तो नहीं लग सकता। ऐसे स्थलों पर धर्मी के ग्रहण करनेवाले प्रमाण के विरुद्ध होने से यह कथनमात्र है, क्योंकि शिला में पुत्र और जननशक्ति नहीं तो उसके पुत्र का शरीर कैसे हो सकता है!
प्यारे पाठकगण ! महात्मा कपिलजी ने इस बात का प्रमाण दिया है कि यदि चेतनता प्रकृति का गुण है तो सुषुप्ति और मृत्यु का होना कभी सिद्ध न होगा, क्योंकि गुण अपने गुणी से भिन्न नहीं हो सकता। तुमने चेतन को प्रकृति का गुण स्वीकार कर लिया, इसलिए वह तत्त्व (प्रकृति) में सदैव रहेगा ! जब चेतन रहा तो मृत्यु कभी नहीं होगी।
महात्मा गौतमजी ने भी बहुत-सी युक्तियाँ दी हैं कि आत्मा है--
🔥 दर्शनस्पर्शनाभ्यामेकार्थग्रहणात्॥ -न्याय० ३।१।१
जिस वस्तु को आँखों से देखा हो उसे स्पर्शेन्द्रिय अर्थात् त्वचा से स्पर्श करके कहते हैं। कि जिसे मैंने आँखों से देखा था उसे त्वचा से स्पर्श किया, इससे विदित होता है कि इन्द्रियों के विषयों के जाननेवाला जीवात्मा है, यदि न होता तो आँख ने रूप देखा और स्पर्श स्पर्शेन्द्रिय ने किया, फिर किस प्रकार कहा जाता कि जिसे मैंने देखा उसे स्पर्श करता हूँ?
🔥 न विषयव्यवस्थानात्॥ -न्याय० ३।१।२।
इस सूत्र में पूर्वपक्षी प्रश्न करता है कि शरीर से भिन्न कोई आत्मा नहीं, क्योंकि विषय नियत हो चुके हैं। जैसे आँखों के होने से देखते हैं और न होने से नहीं देखते, कान के होने से सुनते हैं वे कान के न होने से नहीं सुनते, रसना [जिह्वा] के होने से रस लेते और रसना के न होने से रस नहीं लेते, इसी प्रकार शेष इन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषय को ग्रहण करती हैं। इस दशा में जब इन्द्रिय के ठीक और शुद्ध होने से विषय का ग्रहण होता है और नहीं होने से नहीं होता, फिर एक चेतन मानने की क्या आवश्यकता है? इस पूर्वपक्ष पर दो प्रश्न उत्पन्न होते हैं-प्रथम यह कि इन्द्रिय जो विषय का ज्ञान प्राप्त करती हैं क्या उनमें चेतनता है? या किसी चेतन की सहायता से ग्रहण करती हैं? इसका उत्तर महात्मा गौतमजी देते हैं
🔥 तद् व्यवस्थानादेवात्मसद्धावादप्रतिषेधः॥ --न्याय० ३।१।३
यदि एक इन्द्रिय सम्पूर्ण विषयों को ग्रहण करनेवाली होती तो इस दशा में चेतन जीवात्मा की आवश्यकता न होती, परन्तु जब एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रियों के विषयों को अनुभव नहीं करती। तो किस प्रकार एक के ज्ञान का दूसरे को बोध हो सकता है? इसलिये सम्पूर्ण विषयों के ग्रहण करनेवाला जीवात्मा अवश्य है। इन्द्रियों को अपने नियत विषय को छोड़कर दूसरे का काम न करना ही इस का प्रमाण है। ‘स्मृति' इन्द्रिय का विषय है या आत्मा का? यदि कहा जावे कि इन्द्रिय का, तो किस इन्द्रिय का? इसपर महात्मा गौतमजी कहते हैं कि
🔥 तदात्मगुणसद्भावादप्रतिषेधः। --३।१ । १४
स्मृति आत्मा का गुण है, क्योंकि दूसरे के अनुभव का दूसरे को ज्ञान या स्मृति नहीं होती और इन्द्रियों के चेतन मानने से बहुत-से चेतन मानने पड़ेंगे, जिससे विषय की व्यवस्था नहीं होगी। इस कारण एक ही चेतन है जो बहुतों को देखता है और वह देखने आदि का निमित्त इन्द्रियों से भिन्न है और वही पूर्व देखे हुए अर्थ का स्मरण करता है।
प्यारे पाठकगण ! बहुत-से मनुष्य यहाँ पर यह प्रश्न करेंगे कि स्मृति मन [मस्तिष्क] का धर्म है, इस कारण जीव कोई नहीं । ऐसा ही पूर्वपक्ष इस सूत्र में किया गया है
🔥 “नात्मप्रतिपत्तिहेतूनां मनसि सम्भवात्।'' --न्याय० ३।१ । १६
देहादि से भिन्न कोई आत्मा नहीं, क्योंकि आत्मा की साधक दलील मन में घट सकती हैं, दर्शन-स्पर्शन से एकार्थ का ग्रहण करना इत्यादि जो आत्मा को ज्ञानी बतलानेवाली युक्तियां हैं उनका होना मन में ही सम्भव है। इसका उत्तर यह है कि यदि तुम्हारा मन भौतिक है तो उसमें ज्ञान का होना, ज्ञान को भूतों का गुण सिद्ध करेगा, जिससे सुषुप्ति और मृत्यु का होना असम्भव हो जाएगा। यदि अभौतिक है तो आत्मा का दूसरा नाम हो जाएगा, क्योंकि शरीर भौतिक है और अभौतिक सदैव इससे भिन्न होगा।
🔥 ज्ञातुर्ज्ञानसाधनोपपत्तेः संज्ञाभेदमात्रम्। -न्याय० ३।१।१७
ज्ञान के साधन ज्ञाता के लिए होते हैं-आँखों से देखना, कान से सुनना, स्पर्शेन्द्रिय से स्पर्श करना, इस प्रकार सब विषयों के मनन करने का साधन मन है। यदि मन ही को ज्ञाता मान लो तो ज्ञाता का नाम आत्मा न सही मन सही। इस दशा में केवल नाम का भेद होगा, मुख्य विषय में तो कुछ भेद न होगा परन्तु उस समय समस्त इन्द्रियों का अभाव हो जाएगा, क्योंकि मन कर्मेन्द्रिय और ज्ञानेन्द्रिय है। ज्ञान अर्थात् मन साधन है। इस प्रकार वादी का साधन इन्द्रियों का भी लोप हो जाएगा।
पुनः उसी की पुष्टि करते हैं
🔥 नियमश्च निरनुमानः॥ -न्याय ३।१।१८
उत्तर-नियम भी अनुमान-(युक्ति)-शून्य है।
प्रतिवादी ने जो यह नियम किया है कि रूपादि के ग्रहण-साधन चक्षुरादि इन्द्रिय हैं, परन्तु सुख-दु:ख के अनुभव तथा मनन करने का कोई साधन नहीं है। यह नियम युक्तिशून्य है, क्योंकि हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि रूपादि विषयों से सुख-दु:ख पृथक् हैं, इसलिए उनके ज्ञान का साधन भी नेत्र आदि इन्द्रियों से भिन्न अवश्य कोई मानना पड़ेगा। जैसे आँख से गन्ध का ज्ञान नहीं होता, उसके लिए दूसरा इन्द्रिय घ्राण माना गया, इसी प्रकार चक्षु और घ्राण दोनों से रस ग्रहण नहीं होता, तब उसके लिए तीसरा इन्द्रिय रसना मानना ही पड़ा, ऐसे ही शेष इन्द्रियों के विषय में समझ लीजिए। इसी प्रकार आँख आदि इन्द्रियों से सुखादि का ग्रहण नहीं होता, अतः उनके ग्रहण करने के लिए भी कोई इन्द्रिय अवश्य मानना पड़ेगा और वह मन है, जिसमें एक-साथ अनेक ज्ञानों की उत्पत्ति हो नहीं सकती, अर्थात् जब जिस इन्द्रिय के साथ उसका संयोग होता है तभी तद्विषयक ज्ञान उत्पन्न होता है और संयोग न होने पर इन्द्रिय के अविकल और समर्थ होने पर भी ज्ञान नहीं होता। इसलिये पूर्व आत्मसिद्धि के लिए जो हेतु दिये गये हैं, वे मन में कदापि नहीं घट सकते।
अब यह बात विचारणीय है कि देहादि संघात से भिन्न जो आत्मा सिद्ध हुआ है, वह नित्य है अथवा अनित्य? विद्यमान वस्तु नित्य वा अनित्य भेद से दो ही प्रकार का होता है। आत्मा की सत्ता सिद्ध होने पर भी वह नित्य है अथवा अनित्य? यह सन्देह अवशिष्ट रहता है। देह से पृथक् होने से पहले तो आत्मा की स्थिति, जिन हेतुओं से उसे सिद्ध किया उन्हीं से सिद्ध हो गई। अब देह के नष्ट होने पर भी आत्मा विद्यमान रहता है इस पक्ष को सिद्ध करते हैं
🔥 पूर्वाभ्यस्तस्मृत्यनुबन्धात् जातस्य हर्षभयशोकसम्प्रतिपत्तेः॥ -न्याय० ३।१।१९
उत्तर-पहले अभ्यास की स्मृति के लगाव से उत्पन्न हुए को हर्ष, भय, शोक की प्राप्ति होने से (आत्मा नित्य है)।।
तत्काल जन्मा बालक (जिसने इस जन्म में हर्ष, भय और शोक आदि के हेतुओं का अनुभव नहीं किया है) हर्ष, भय और शोक आदि से युक्त देखा जाता है और वे हर्षादि पूर्वजन्म में अभ्यास की हुई स्मृति के अनुबन्ध से ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि बिना पूर्वाभ्यास के स्मृति का अनुबन्ध हो नहीं सकता और पूर्वाभ्यास बिना पूर्वजन्म के नहीं हो सकता, अतएव इससे सिद्ध है कि यह आत्मा इस शरीर के नष्ट होने पर भी शेष रहता है, अन्यथा सद्योजात बालक में हर्षादि की प्रतिपत्ति असम्भव है। इससे आत्मा का नित्यत्व सिद्ध होता है।
🔥 प्रेत्याहाराभ्यासकृतात् स्तन्याभिलाषात्। -न्याय० ३।१।२२
मरकर जब प्राणी जन्म लेता है तब उसी समय बिना किसी की शिक्षा वा प्रेरणा के स्वयं दूध पीने लगता है, यह बात पूर्वकृत भोजनाभ्यास के हो नहीं सकती, क्योंकि इस जन्म में तो अभी उसने भोजन का अभ्यास किया ही नहीं, फिर उसकी प्रवृत्ति उसमें क्योंकर हुई? हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि क्षुधा से पीड़ित बालकादि पूर्वकृत आहाराभ्यास के संस्कारों से प्रेरित होकर दुग्धपानादि भोजन करने में प्रवृत्त होते हैं। बिना पूर्वजन्म को माने जातमात्र की भोजन में प्रवृत्ति हो नहीं सकती, इससे अनुमान होता है कि इस शरीर से पहले भी शरीर था, जिसमें इसने भोजन का अभ्यास किया था। जब उस शरीर को छोड़कर यह दूसरे शरीर में आया, तब क्षुधा से पीड़ित होकर पूर्वजन्माभ्यस्त आहार का स्मरण करता हुआ दूध की इच्छा करता है, अतएव देह के नाश से आत्मा का नाश नहीं होता
प्यारे पाठक! महात्मा कणादजी इस विषय में लिखते हैं
🔥 प्रसिद्ध इन्द्रियार्थाः॥ -वैशेषिक० ३।१।१
इन्द्रियों के विषय निश्चित हैं। घ्राण, रसना, चक्षुः, त्वचा तथा श्रोत्र भेद से पाँच प्रकार की इन्द्रियाँ हैं और गन्ध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द ये पाँच उक्त इन्द्रियों के विषय हैं। ये दोनों प्रत्येक पुरुष को ज्ञात हैं; इनके सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं। अब इन्द्रियार्थ प्रसिद्धि को आत्मा की सिद्धि में लिङ्ग कथन करते हैं
🔥 इन्द्रियार्थप्रसिद्धिरिन्द्रियार्थेभ्योऽर्थान्तरस्य हेतुः ॥ -वै० ३।१।२
भाष्य-इन्द्रिय तथा उनके गन्धादि विषयों में यह प्राण है', 'यह गन्ध है' इस प्रकार का ज्ञान इन्द्रिय तथा विषय से भिन्न पदार्थ की सिद्धि में हेतु है, अर्थात् जैसे छेदनक्रिया के साधनभूत कुठारादिकों का प्रयोक्ता उनसे भिन्न होता है वैसे ज्ञान के साधनभूत घ्राणादि इन्द्रियों का प्रेरक उनसे भिन्न है, क्योंकि ‘जो प्रेरक है वह साधनों से भिन्न होता है' यह नियम है। इस नियम के अनुसार जो घ्राणादि इन्द्रियों को गन्धादि विषयों में प्रेरणा करनेवाला उनसे भिन्न पदार्थ है वही आत्मा है और जो गुण है वह द्रव्य के आश्रित होता है। द्रव्य को छोड़कर गुण कदापि नहीं रहता-इस नियम के अनुसार ‘यह घट है', 'यह रूप है' इत्यादि ज्ञानों को आश्रय भी पृथिवी आदि आठ द्रव्यों से अतिरिक्त कोई द्रव्य अवश्य होना चाहिए क्योंकि पृथिवी आदि आठ द्रव्य तथा उनके कार्यभूत शरीरादि उक्त ज्ञान के आश्रय नहीं हो सकते, इसलिए जो उक्त ज्ञान का आश्रय द्रव्य है वही 'आत्मा' है।
दूसरी युक्ति देते हैं--
🔥 "कारणाज्ञानात्' -वै० ३।१।४
शरीर के अवयव अर्थात् हाथ-पैर आदि में ज्ञान न होने से ज्ञात होता है कि आत्मा शरीर से भिन्न है। शरीर के उपादानकारण पृथिवी, जल, आदि पदार्थों में ज्ञान न होने से भी यह सिद्ध होता है, क्योंकि कारण के गुण के अनुकूल ही कार्य में गुण रहते हैं। कारण में ज्ञान नहीं तो कार्य में भी नहीं रह सकता, इससे सिद्ध होता है कि ज्ञानयुक्त शक्ति शरीर से भिन्न है।
🔥 कार्येषु ज्ञानात् ॥ -वै० ३।१।५
यदि शरीर के सूक्ष्म भूतों में ज्ञान को समवेत मानें तो शरीर के कार्य-द्रव्यों में भी ज्ञान को समवेत मानना होगा। इस दशा में प्रकृति के परमाणुओं में ज्ञान गुण मानना पड़ेगा, तब घट पट आदि कोई भी पदार्थ जड़ नहीं रहेगा, क्योंकि जब ज्ञान प्रकृति का गुण हुआ और गुण द्रव्य से पृथक् नहीं हो सकता, तब प्रत्येक पदार्थ में ज्ञान होना अनिवार्य है और ऐसा कदापि नहीं हो सकता।
🔥 अज्ञानाच्च। -वै० ३।१।६
यदि कहा जाए कि घट आदि सम्पूर्ण वस्तुएँ चेतन हैं, उनमें सूक्ष्म रूप से ज्ञान है तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि यह किसी प्रमाण से भी सिद्ध नहीं हो सकता। प्रत्यक्ष से तो घटादि जड़ प्रतीत होते हैं। अनुमान के लिए भी कोई व्याप्ति नहीं और शब्दप्रमाण से भी जड़ और चेतन, दो प्रकार की सृष्टि का होना सिद्ध है। सारांश यह कि किसी प्रमाण से भी घट आदि चेतन सिद्ध नहीं हो सकते।
प्यारे पाठक! उपर्युक्त युक्तियों से जीव का शरीर से भिन्न और अभौतिक होना अच्छी प्रकार से ज्ञात होता है। मृत्यु और सुषुप्ति का होना इस बात को सिद्ध करता है कि शरीर से आत्मा भिन्न है, क्योंकि यदि शरीर को चेतन मानें तो भूतों का कार्य होने से उनके कारण को चेतन मानना पड़ेगा और भूतों के चेतन होने से घट-पट आदि सब चेतन हो जाएँगे, उस स्थिति में जड़ और चेतन में किसी प्रकार का कोई भेद नहीं रहेगा, क्योंकि अब तो जड़ को भोग्य और चेतन को भोक्ता माना जाता है और फिर ज्ञेय और ज्ञान भी नहीं होगा, क्योंकि सब ही चेतन हैं और चेतन द्रष्टा होता है, दृश्य नहीं होता।
✍🏻 लेखक- स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
📖 पुस्तक - दर्शनानन्द ग्रन्थ संग्रह
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ ओ३म् ॥
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