राजनीति और ब्रह्मनीति
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श्रीकृष्ण जैसे महान,आदर्श चरित्रधारी सच्चे नेता ने भारत के उद्धार के लिए यत्न किया।महाभारत राज्य (भारत एवं भारत से बाहर भारतीय राज्य) के पुनरुद्धार के लिए महान् यत्न किया।सफलता भी मिली।
एक बार नहीं दो बार मिली।एक तो राजसूययज्ञ के समय,लेकिन युधिष्ठिर के एक दिन के जुए के लेख ने सब चौपट कर दिया।फिर महाभारत युद्ध हुआ और महाभारत राज्य की स्थापना हुई।
श्रीकृष्ण महाराज की आँख बन्द हुई और यह विशाल भवन फिर भूमि पर गिर पड़ा।
दूसरी बार चाणक्य और चन्द्रगुप्त ने मिलकर उसी महाभारत राज्य के लिए प्रयत्न किया। इस बार महाभारत राज्य तो नहीं बन पाया,किन्तु भारत राज्य फिर बन गया।
चाणक्य की आँख बन्द हुई और यह विशाल भारत मन्दिर फिर भूमि पर गिर पड़ा।
तीसरी बार छत्रपति शिवाजी ने फिर उस महाभारत राज्य के पुनरुद्धार के लिए यत्न किया।इस बार महाभारत राज्य तो नहीं,किन्तु महाराष्ट्र राज्य तो बन ही गया।
परन्तु शिवाजी की आँखें बन्द हुई और यह पवित्र महाराष्ट्र मन्दिर फिर भूमि पर गिर पड़ा।
ऐसा क्यों हुआ?वेद कहता है-
यत्र ब्रह्म च क्षत्रञ्च सम्यञ्चौ चरतः सह।
तं लोकं पुण्यं प्रज्ञेषं यत्र देवाः सहाग्निना।।-(यजु० २०/२५)
अर्थ:-हे प्रभो ! जहाँ ब्रह्मशक्ति और क्षात्रशक्ति परस्पर सहयोग से काम करती हों मुझे उस पवित्र देश में जन्म लेना अथवा उस पवित्र देश से मेरा प्रगाढ़ परिचय करा देना,जहाँ देवों का लोक-कल्याण-भावनारुप यज्ञाग्नि के साथ पूर्ण सहयोग हो।
ब्रह्मनीति का सूत्र है-यथा प्रजा तथा राजा।ब्राह्मण अपने विद्याबल,तपोबल,चरित्रबल से ऐसी प्रजा उत्पन्न करता है जो ठीक राजा चुनती है और दुष्ट राजा को अपनी जागरूकता से नष्ट कर देती है।
राजनीति ऐसी सुन्दर व्यवस्था उत्पन्न करती है कि -ब्राह्मजन उत्तम राजनीति का पूर्ण विकास करने में समर्थ होते हैं।
श्रीकृष्ण सच्चे क्षत्रिय थे,राजनीति ने अपना पूर्ण चमत्कार
दिखाया,ब्रह्मनीति ने साथ नहीं दिया,विदुर शूद्र ही रहे,दुर्योधन क्षत्रिय कहलाया,कृष्ण चिल्लाते रह गये-
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।।
परन्तु करते क्या?यह काम तो ब्राह्मणों का था।ब्रह्मनीति प्रगाढ़ निद्रा में पड़ी थी।
चाणक्य और चन्द्रगुप्त मिले।राजनीति और कूटनीति मिलकर चली,परन्तु ब्रह्मनीति चुप थी।चन्द्रगुप्त भी विफल ही रहा।
शिवाजी ने राजनीति का चमत्कार दिखाया,परन्तु ब्रह्मनीति फिर भी चुप थी अथवा उल्टी बह रही थी। शिवाजी को यज्ञोपवीत देने का विरोध हुआ।किसलिए?शिवाजी शूद्र है।
कलौ वा अंतयोः स्थितिः।
कलियुग में दो ही वर्ण हैं,एक ब्राह्मण,दूसरा शूद्र।भला हो बेचारे जागा भट्ट का,शिवाजी विधिपूर्वक छत्रपति तो बन गये और यदि कहीं शंकराचार्य का बस चलता तो-
तस्या हि शूद्रस्य वेद उपशृण्वतस्त्रपुजतुभ्यां
श्रोत्रपरिपूरणम्,उच्चारणे जिह्वाच्छेदो धारणे शरीरभेदः ।-(ब्रह्मसूत्र शंकरभाष्य अपशूद्राधिकरण)
शूद्र यदि वेद का मन्त्र सुन ले तो उसके कान में लाख या सीसा पिघलाकर भर दो,वेद का मन्त्र उच्चारण करे तो जीभ काट दो,वेद की पुस्तक उठाकर चले तो हाथ काट दो,यह नियम लागू होता।
बेचारी अकेली राजनीति क्या करती?पवित्र महाराष्ट्र मन्दिर फिर भूमि पर गिर पड़ा।
अन्त में एक सच्चे ब्राह्मण ने वेदघोष सुनाया-
यथेमां वाचं कल्याणीमावादानि जनेभ्यः।
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च।।-(यजु० २६/२)
अर्थ:-प्रभु कहते हैं-हे मेरे भक्तो ! तुम ऐसा मार्ग पकड़ो जिससे ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य,शूद्र तुम्हारे अपने और तुम्हारे पराये सब तक पहुँचे।
दयानन्द के रूप में ब्रह्मनीति ने पग उठाया।प्रजा जागी।इस बार तो भारत भी मिला।खण्ड भारत मिला,परन्तु यह आन्दोलन प्रजा का आन्दोलन है।अब राजनीति की प्रतिक्षा है।जिस दिन इस ब्रह्मनीति में राजनीति आ मिली उस दिन खण्ड भारत फिर से भारत और भारत से फिर महाभारत राज्य बनकर रहेगा,परन्तु यह विशाल साम्राज्य शस्त्रबल से नहीं शास्त्रबल से फैल सकेगा,इसलिए इसमें रुधिर प्रवाह नहीं,किन्तु ज्ञानगंगा का प्रवाह होगा।यह कार्य चिर साध्य है,परन्तु चिरजीवी भी है।
मानव राष्ट्र के भक्तो ! राजनीति को ब्रह्मनीति में मिला दो,देखो कैसा दृढ़ भवन बनता है,जिसे भूकम्प हिला न सके और आग जला न सके।
कोई आज सुने या न सुने सच्चा मार्ग यही है और केवल यही है।उपसर्ग छोड़ो और इस मार्ग को अपनाओ।
(वैदिक समाजवाद से उद्धृत
स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती)
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