लेखकः- डाॅ. सुरेन्द्र कुमार (मनुस्मृति भाष्यकार)
श्री भीमराव रामजी अम्बेडकर को डॉ. अम्बेडकर बनाने में आर्यसमाज और आर्यसमाज द्वारा प्रचारित वर्णव्यवस्था का महत्वपूर्ण योगदान है। जन्मगत जातिवाद के विरुद्ध समरसता और समान-अधिकार का वातावरण निर्मित करने वाले और उन्हें उच्च शिक्षा के लिए सुविधा-सहायता उपलब्ध कराने वाले वही लोग थे जो आर्य समाज से संबद्ध व प्रभावित थे और वर्णव्यवस्था में विश्वास रखते हुए उसे व्यवहार में ला रहे थे। डॉ. अम्बेडकर उच्च शिक्षित लेखक-चिंतक थे, ऐसा नहीं है कि वे प्रत्येक घटना के महत्व को न समझते हों, किंतु फिर भी उन्होंने राजनीति में आने के बाद प्रतिक्रियात्मक शैली को अपनाया। शायद, यह उनकी राजनीतिक विवशता थी, मौलिक प्रेरणा नहीं। इस लेख की कुछ बातें पाठकों को अनकही, अनसुनी लगेंगी, किंतु हैं वे प्रामाणिक।
उन्होंने मनु और उनके द्वारा प्रतिपादित वर्ण-व्यवस्था की प्रशंसा की है। डॉं. अम्बेडकर को केवल उन प्रक्षिप्त श्लोकों पर आपत्ति थी, जो जन्म पर आधारित जातिवाद का विधान और समर्थन करते हैं, जिनके कारण समाज में छूत-अछूत, ऊंच-नीच और अधिकार-हनन का व्यवहार आरंभ हुआ। वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-योग्यता के आधार पर निर्धारित होती है। जबकि जन्मगत जातिवाद इन गुणों की उपेक्षा करके जन्म से ही निर्धारित हो जाता है। डॉ. अम्बेडकर के मतानुसार जन्मगत जातिवाद वर्णव्यवस्था नहीं है, अपितु वर्णव्यवस्था की विकृत और विरोधी व्यवस्था है। वे लिखते हैं-‘‘जाति वर्ण का विकृत रूप है। यह विपरीत दिशा में प्रसार है। जात-पाँत ने वर्णव्यवस्था को पूरी तरह विकृत कर दिया है।’’ (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ. 263) और ‘‘जाति का आधारभूत सिद्धांत वर्ण के आधारभूत सिद्धान्त से मूल से भिन्न है,..... बल्कि मूलरूप से परस्पर विरोधी है।’’ (वही, पृ. 81) वे वर्णव्यवस्था की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं- ‘‘वर्ण और जाति दो अलग-अलग धारणाएं हैं।... दोनों में इतना ही अंतर है जितना पनीर और खड़िया में’’ (वही, पृ. 119)। डॉ. अम्बेडकर का कहना है कि कुछ लोगों ने वर्णव्यवस्था की गलत व्याख्या करके उसे मूर्खतापूर्ण और उपहासास्पद बना दिया है। वास्तव में वर्णव्यवस्था निंदनीय नहीं थी। उन्होंने स्पष्ट लिखा है-‘‘(महात्मा गांधी ने) वर्ण की वैदिक धारणा की व्याख्या करके जो उत्कृष्ट था, उसे वास्तव में उपहासप्रद बना दिया है।.... वर्ण के बारे में महात्मा के विचार न केवल वैदिक वर्ण को मूर्खतापूर्ण बनाते हैं बल्कि घृणास्पद भी बनाते हैं’’ (वही, पृ. 119)। दूसरी ओर, महर्षि दयानंद द्वारा प्रस्तुत व्याख्या को बुद्धिमत्तापूर्ण बताकर डॉ. अम्बेडकर न केवल वर्णव्यवस्था को स्वीकार्य मानते हैं, अपितु महर्षि दयानन्द की भी प्रशंसा करते हैं-
‘‘मैं मानता हूं कि स्वामी दयानंद व कुछ अन्य लोगों ने वर्ण के वैदिक सिद्धांत की जो व्याख्या की है, वह बुद्धिमत्तापूर्ण है और घृणास्पद नहीं है।’’ (जातिप्रथा उन्मूलन, पृ. 119 )
डॉ. अम्बेडकर के मंतव्य के अनुसार, वेदोक्त अथवा महर्षि मनुप्रोक्त वर्ण-व्यवस्था की एक उत्कृष्टता यह थी कि उसमें व्यक्ति को अपनी योग्यता के आधार पर वर्ण परिवर्तन करने की स्वतंत्रता थी जिससे व्यक्ति का विकास और उत्थान अवरुद्ध नहीं होता था- ‘‘व्यक्ति दक्षता के आधार पर अपना वर्ण बदल सकता था और इसलिए वर्णों को व्यक्तियों के कार्य की परिवर्तनशीलता स्वीकार्य थी’’ (अंबेडकर वाङ्मय, खंड 1, पृ. 30)। इसी व्यवस्था ने प्राचीन भारत को विद्या में ‘विश्वगुरु’ धन में ‘सोने की चिड़िया’ और बल में ‘अपराजेय’ बना दिया था। विश्व में किसी देश की सभ्यता इतनी उन्नत नहीं थी।
डॉ. अम्बेडकर अपने ग्रंथों में जब यह लिखते हैं कि मनु महान् विद्वान् था’’ (वही, 7.151), ‘‘मनु आदरसूचक संज्ञा थी’’ (7.179), ‘‘मनुस्मृति सबसे महत्वपूर्ण धर्म ग्रन्थ स्वीकार किया जाना चाहिए’’(7. 228, 8. 65), ‘‘मनु ने जाति के विधान का निर्माण नहीं किया’’(1. 29), तो ऐसा प्रतीत होता है कि उनका अंतःकरण मनु को सभी आरोपों से मुक्त मानता है। जातिवाद मनु की देन नहीं है।
जब से इस देश में जन्म के आधार पर जातिवाद प्रचलित हुआ तबसे इसका सर्वतोमुखी पतन आरंभ हो गया। जितनी अच्छाईयाँ थीं वे वेदोक्त वर्णव्यवस्था के कारण थीं और जितनी बुराइयां पनपीं वे जन्म के आधार पर जातिवाद के कारण पनपीं। जन्म पर आधारित जातिवाद ने व्यक्ति के साथ ऊंच-नीच, जाति-पाँति का भेदभाव आरंभ कर दिया, जिससे एकता में सुदृढ़ भारतीय समाज हजारों जातियों-उपजातियों में विघटित होता गया। मानव-मात्र के लिए शिक्षा प्राप्ति का स्वाभाविक जो अधिकार था, वह कुछ रूढ़वादी लोगों द्वारा छीन लिया गया, जिससे भारत का अधिकांश समाज अज्ञानान्धकार से ग्रस्त हो गया। स्पष्ट है कि कोई भी अज्ञानी-अशिक्षित व्यक्ति अथवा समाज कभी उन्नति नहीं कर सकता, तो परिणाम यह निकला कि देश अवनति की ओर गिरने लगा। इसकी विद्या भी गई, बल भी गया और धन भी लुट गया। अन्ततः इसको विदेशियों-विधर्मियों का गुलाम बनकर जीना पड़ा। दुःख की बात तो यह है कि आज स्वतंत्र होकर भी यह देश अपनी अवनती और परतन्त्रता के कारणों को दूर नहीं कर सका है। जन्मना जातिवाद के दंश से पीड़ित हमारे भाई-बंधु प्रतिदिन विधर्मी बनते जा रहे हैं, भारत माता का एक-एक अंग धीरे-धीरे कटकर या गलकर पृथक् होता जा रहा है, किंतु हम अब भी नहीं चेत रहे। भारत की बची एकता और अखंडता को यदि अब भी बचाया जा सकता है तो उसका एक ही उपाय है- ‘जन्मना जातिवाद का उन्मूलन करके वैदिक वर्णव्यवस्था को स्वीकार करना।’
जन्मना जातिवाद वर्णव्यवस्था का विरोधी और विकृत रूप है, उसमें व्यक्ति की रुचियाँ, योग्यताएं, गुण, विशेषताएँ महत्वहीन होकर उसकी उन्नति अवरुद्ध हो जाती है और बुद्धि कुंठित हो जाती है। व्यवहार में घोड़े-गधे में कोई भेद नहीं रहता। बच्चे ने जिस माता-पिता के यहां जन्म ग्रहण कर लिया, वह उसी दिन से बिना किसी गुण-कर्म-योग्यता के माता-पिता की ऊंची या नीची जाति का बन जाता है और आजीवन बना रहता है। गुण-कर्म-योग्यता का जितना अपमान-तिरस्कार जातिवाद में होता है, वैसा कहीं अन्यत्र नहीं होता। एक बार किसी जाति का कहलाकर, घोर अपराध-पाप करते हुए भी वह ऊंची जाति का व्यक्ति ‘ऊंचा’ बना रहता है और महान् पुरुष बनके भी नीची जाति का व्यक्ति ‘नीचा’ ही कहलाता है। जातिवाद का बंधन कितना कठोरतम है कि यहां धर्म तो बदल जाता है, किंतु जाति नहीं बदल पाती। व्यक्ति और समाज के लिए जातिवाद जैसी दुर्भाग्यपूर्ण समाज-व्यवस्था विश्व में कोई अन्य नहीं है। यह सदा पतन की ओर ही ले जाती है।
वैदिक वर्णव्यवस्था में व्यक्ति को अपनी रुचि और योग्यता के अनुसार उन्नति करने का अवसर प्राप्त होता है और उन्हीं के अनुसार उसको वर्ण और व्यवसाय के चयन का अवसर प्राप्त होता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र इनमें से किसी भी कुल में उत्पन्न बालक गुरुकुल में जाकर जिस वर्ण की शिक्षा या प्रशिक्षण प्राप्त करता है, उसके बाद स्नातक बनते समय आचार्य व उसके उसी वर्ण की घोषणा करता है, जैसे आजकल विश्वविद्यालय में पढ़े गए पाठ्यक्रम के अनुसार बी.ए., बी.कॉम., एल.एल.बी. या एम.बी.बी.एस आदि की उपाधियां प्रदान करते हैं। व्यक्ति प्राप्त उपाधि के अनुसार ही जीवन में व्यवसाय करता है। लगभग यही प्रक्रिया वर्णव्यवस्था में होती है। किसी भी कुल का बालक जो गुरुकुल में प्रवेश नहीं लेता अथवा प्रवेश लेकर भी प्रमाद मन्द बुद्धिता के कारण किसी द्विज वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) का प्रशिक्षण नहीं लेता वह ‘शूद्र’ कहलाता है और उसे जीवन में शारीरिक श्रम पर आधारित रोजगार करना होता है, जैसे आजकल अल्पपठित जन चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी (सेवक, पीयोन, अर्दली, चैकीदार आदि) का रोजगार पाते हैं। वैदिक व्यवस्था में ‘शूद्र’ शब्द का कोई निन्दित घृणित अर्थ नहीं है, इसका अर्थ है- ‘शु द्रवतीति’= जो स्वामी के आदेशानुसार इधर-उधर आ-जाकर शारीरिक श्रम का कार्य करता है। इस प्रकार आर्यों में चार वर्ण होते थे। उनमें, पहला माता-पिता से और दूसरा स्नातक बनना रूप, विद्याजन्म होने से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य द्विज कहलाते थे, विद्याजन्म के अभाव में एकजन्म वाले को शूद्र कहा जाता था। वेदोक्त वर्ण-व्यवस्था में वर्ण के आधार पर ऊंच-नीच, छूत-अछूत का भेदभाव नहीं था, परस्पर सौहार्द का व्यवहार और भाव होता था। उसका आधार वेदमंत्र में द्रष्टव्य है-
रुचं नो देहि ब्राह्मणेषु रुचं राजसु नस्कृधि।
रुचं विश्येषु शूद्रेषु मयि देहि रुचारुचम्।।
अर्थात्- ‘हे ईश्वर! मेरा व्यवहार और विचार ऐसा रहे कि मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सबसे प्रेम- सौहार्द रखने वाला बनूं। मेरा हृदय में प्रत्येक मानव के लिए प्रेम-सौहार्द बना रहे, ऐसी कृपा कीजिए।’
वेदोक्त वर्णव्यवस्था में, एक बार किसी वर्ण का चयन होने के बाद भी जीवन में गुण-दोषों के आधार पर वर्ण-उन्नति और वर्ण-पतन का अवसर रहता था। ऐसा नहीं था कि एक बार कोई व्यक्ति ‘द्विज’ वर्ण में दीक्षित हो गया और वह उस वर्ण के कर्तव्यों का पालन न करते हुए भी उसमें बना रहे। कर्तव्य-पालन न करने वाले और अकरणीय कर्मों (अपराध-पाप) को करने वालों को राजसभा या धर्मसभा वर्ण से पतित कर देती थी, जैसे आजकल सरकार अपने कर्तव्य का पालन न करने वाले या पाप-अपराध करने वाले व्यक्ति की पदावनति (डिमोशन) कर देती है और अच्छा कार्य करने वाले की पदोन्नति (प्रमोशन) करती है। मनुस्मृति का एक श्लोक इस प्रक्रिया पर प्रकाश डाल रहा है-
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्यात् वैश्यात् तथैव तु।। (मनुस्मति 10.45)
अर्थात्- ‘ब्राह्मण के गुण-कर्म-योग्यता अर्जित करने के बाद शूद्र ‘ब्राह्मण’ बन जाता है और अपने विहित कर्मों के त्याग से ब्राह्मण ‘शूद्र’ बन जाता है। इसी प्रकार क्षत्रियों और वैश्यों का भी गुण-कर्म-योग्यता के अनुसार वर्ण परिवर्तन होता है।’
प्राचीन इतिहास में वर्णपरिवर्तन के अनेक उदाहरण भी मिलते हैं। शूद्र-कुल में उत्पन्न होकर भी कवष ऐलूष और मतंग ‘ऋषि’ बने, क्षत्रिय कुल में उत्पन्न राजा विश्वरथ महर्षि विश्वामित्र बना, ऋषि कुल में उत्पन्न होकर भी रावण ‘राक्षस’ कहलाया और क्षत्रियकुल में उत्पन्न होकर भी रघु-पुत्र प्रवृद्ध तथा सगर पुत्र असमंजस् वर्ण से पतित-बहिष्कृत कर दिए गए थे।
इस प्रकार वैदिक वर्णव्यवस्था का व्यक्ति और समाज की उन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है जबकि जाति-व्यवस्था विकास के सारे मार्गों को अवरुद्ध कर देती है। समाज के लिए वर्ण-व्यवस्था वरदान है और जाति-व्यवस्था अभिशाप है। जातिवाद ने हिंदू समाज को विघटित करके टुकड़े-टुकड़े कर दिया है और यह विघटन आज भी जारी है। अनुसूचित और गैर-अनुसूचित वर्गों के तटस्थ राष्ट्रहितैषी बुद्धिजीवी इस स्थिति की चिंता करने भी लगे हैं, किंतु सत्तालोलुप नेता लोकतंत्र की आड़ में सामान्य भावुक जनों को गुमराह कर रहे हैं। कुछ विदेशी शक्तियां भी इस स्थिति का लाभ उठा रही हैं। कुछ वर्ष पूर्व, महाराष्ट्र के विश्वविद्यालय के एक कुलपति जो राज्यसभा सांसद थे, उन्होंने भेंट की इच्छा व्यक्त की। मैं उनसे मिला। वे अनुसूचित समुदाय से हैं और मेरे मनुविषयक शोध-साहित्य के गम्भीर पाठक हैं। काफी चर्चा होने के उपरान्त उन्होंने कहा- ‘‘काश, आपका मनुस्मृति-विषयक यह शोधकार्य डाॅ. अंबेडकर के जीवन-काल में प्रकाशित हो जाता, तो हमारे समुदाय की यह विघटनकारी स्थिति न होती।’’
अभी भी चेतने का समय है। सभी समुदायों के नेता और बुद्धिजीवी भावुकता, स्वार्थ और आत्मकेन्द्रता से ऊपर उठकर उक्त स्थिति को रोक सकते हैं।
साभारः- परोपकारी (पाक्षिक) मई (प्रथम) 2019
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