● प्रातःकालीन मंत्राः ●
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प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं हवामहे प्रातर्मित्रावरुणा प्रातरश्विना ।
प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातस्सोममुत रुद्रं हुवेम ॥ १ ॥[ऋग्वेद : मण्डल ७, सूक्त ४१, मंत्र १-५]
प्रातर्भगं पूषणं ब्रह्मणस्पतिं प्रातस्सोममुत रुद्रं हुवेम ॥ १ ॥[ऋग्वेद : मण्डल ७, सूक्त ४१, मंत्र १-५]
भावना - हे ईश्वर ! आप स्वप्रकाशस्वरूप – सर्वज्ञ हैं । परम ऐश्वर्य के दाता और परम ऐश्वर्य युक्त हैं । आप प्राण और उदान के समान हमें प्रिय हैं । आप सर्वशक्तिमान् हैं । आपने सूर्य और चन्द्र को उत्पन्न किया है । हम आपकी स्तुति करते हैं । आप भजनीय हैं, सेवनीय हैं, पुष्टिकर्त्ता हैं । आप अपने उपासक, वेद तथा ब्रह्माण्ड के पालनकर्त्ता हैं । आप हमारे अन्तर्यामी और प्रेरक हैं । हे जगदीश्वर ! आप पापियों को रुलानेवाले तथा सर्वरोगनाशक हैं । हम प्रातः वेला में आपकी स्तुति-प्रार्थना करते हैं ।
प्रातर्जितं भगमुग्रं हुवेम वयं पुत्रमदितेर्यो विधर्ता ।
आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुरश्चिद्राजा चिद्यं भगं भक्षीत्याह ॥ २ ॥
आध्रश्चिद्यं मन्यमानस्तुरश्चिद्राजा चिद्यं भगं भक्षीत्याह ॥ २ ॥
भावना - हे ईश्वर ! आप जयशील हैं । आप ऐश्वर्य के दाता हैं । आप तेजस्वी – ज्ञानस्वरूप हैं । आपने अन्तरिक्ष के पुत्र-रूप सूर्य को उत्पन्न किया है । आप ही ने सूर्यादि लोकों को विशेष रूप से – सब ओर से धारण किया है । आप सभी को जानते हो । आप दुष्टों को दण्ड देते हो । आप सब के प्रकाशक हो । मैं आपके भजनीय स्वरूप का सेवन करता हूं – उपासना करता हूं । आप सबको उपदेश करते हैं कि – ‘मैं सूर्यादि जगत् को बनाने और धारण करते वाला हूं, आप लोग मेरी उपासना किया करो, मेरी आज्ञा में चला करो ।’ हे भगवान् ! इसलिए हम आपकी स्तुति करते हैं ।
भग प्रणेतर्भग सत्यराधो भगेमां धियमुदवा ददन्नः ।
भग प्र णो जनय गोभिरश्वैर्भग प्र नृभिर्नृवन्तः स्याम ॥ ३ ॥
भग प्र णो जनय गोभिरश्वैर्भग प्र नृभिर्नृवन्तः स्याम ॥ ३ ॥
भावना - हे ईश्वर ! आप भजनीय स्वरूप, सबके उत्पादक और सत्याचार में प्रेरक हैं । आप ऐश्वर्यप्रद हैं । आप सत्य धन को देनेवाले हैं । आप सत्याचरण करनेवालों को ऐश्वर्य देनेवाले हैं । हे परमेश्वर ! आप हमें प्रज्ञा का दीजिए । प्रज्ञा के दान से आप हमारी रक्षा कीजिए । आप हमारे लिए गाय, अश्व आदि उत्तम पशुओं के योग से राज्य-श्री को उत्पन्न कीजिए । आपकी कृपा से हम लोग उत्तम मनुष्य बनें, वीर बनें ।
उतेदानीं भगवन्तः स्यामोत प्रपित्व उत मध्ये अह्नाम् ।
उतोदिता मघवन्त्सूर्यस्य वयं देवानां सुमतौ स्याम ॥ ४ ॥
उतोदिता मघवन्त्सूर्यस्य वयं देवानां सुमतौ स्याम ॥ ४ ॥
भावना - हे ईश्वर ! आपकी कृपा से और अपने पुरुषार्थ से हम लोग इसी समय – प्रातःकाल में तथा दिनों के मध्य में प्रकर्षता अर्थात् उत्तमता प्राप्त करें, ऐश्वर्ययुक्त और शक्तिमान् होवें । हे परम पूजित ! आप असंख्य धन देनेवाले हो । आप हम पर कृपा कीजिए कि हम सूर्यलोक के उदय काल में पूर्ण विद्वान् धार्मिक आप्त लोगों की अच्छी उत्तम प्रज्ञा और सुमति में सदा प्रवृत्त रहें ।
भग एव भगवां अस्तु देवास्तेन वयं भगवन्तः स्याम ।
त्वं त्वा भग सर्व इज्जोहवीति स नो भग पुर एता भवेह ॥ ५ ॥
त्वं त्वा भग सर्व इज्जोहवीति स नो भग पुर एता भवेह ॥ ५ ॥
भावना - हे जगदीश्वर ! आप सकल ऐश्वर्य सम्पन्न हैं । इसलिए सब सज्जन आपकी निश्चय करके प्रशंसा – स्तुति करते हैं । आप ऐश्वर्यप्रद हैं । इस संसार में तथा हम जिस किसी ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि आश्रम में स्थित हैं, उसमें आप अग्रगामी और आगे-आगे सत्य कर्मों में बढ़ानेवाले हूजिए । आप सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त और समस्त ऐश्वर्य के दाता हैं । अतः आप ही हमारे ‘भगवान्’ – पूजनीय देव हूजिए । उसी हेतु से हम विद्वान् लोग सकल ऐश्वर्य सम्पन्न होके सब संसार के उपकार में तन-मन-धन से प्रवृत्त होवें । यही आपसे प्रार्थना है !
[नोट – यहां मन्त्र की 'भावना' स्वामी दयानन्द सरस्वती जी रचित ‘संस्कारविधिः’ के आधार पर संकलित कर प्रस्तुत की गई है । मन्त्र के शब्दों के अर्थ जानने के लिए ‘संस्कारविधिः’ का गृहाश्रम-प्रकरणम् द्रष्टव्य है । - भावेश मेरजा ]
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