Wednesday, May 28, 2025

हमारा दायित्व?


 

हमारा दायित्व?

लेखक: चौधरी चरण सिंह, पूर्व प्रधानमंत्री, भारत सरकार 

(चौधरी चरणसिंह के जीवन पर महर्षि दयानन्द का गहरा प्रभाव था । जिस समय अजमेर में 'महर्षि दयानन्द सरस्वती अर्द्ध-शताब्दी समारोह' का आयोजन किया गया था, उस अवसर पर चौधरी चरणसिंह ने एक लेख लिखा था- 'हमारा दायित्व' (वाट इज अवर ड्यूटी ?) यह लेख दिल्ली से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक 'हिन्दुस्तान टाइम्स' के 3 जून 1933 के अंक में प्रकाशित हुआ था।)

इस लेख में चौधरी साहब ने आर्य-पथ के अनुयायियों का आह्वान करते हुए लिखा है कि नवीन स्फूर्ति और प्रेरणा के साथ हम अपने महान गुरू के कार्यों की पूर्ति में जुट जायें, जो अजमेर में उनसे अधूरे छूट गए थे; हमारी यात्रा का यही पाथेय है।

महर्षि दयानन्द को कौन नहीं जानता? उन्होंने हमें ऐसे निराकार ईश्वर में विश्वास करने की शिक्षा दी थी, जो कभी जन्म नहीं लेता। उनका नारा था "वेदों की ओर चलो " - आर्य संस्कृति की यही आधार - शिला है, इसी पर उन्होंने अपने धार्मिक तथा सामाजिक सुधारों को आधारित किया है। उन्होंने वर्ण–श्रेष्ठता अथवा ब्राह्मणत्व के लिए केवल योग्यता को कसौटी निर्धारित किया था, जाति विशेष में जन्म को नहीं । हिन्दू राज्य-व्यवस्था की शक्ति को क्षीण करने वाली सामाजिक असमानता की समस्या का समाधान उन्होंने इस प्रकार किया था। उन्होंने महिला वर्ग को भी पुरुषों के समान अधिकार प्रदान करने का समर्थन किया था और इस क्षेत्र में वह गौतम बुद्ध तथा शंकर से भी आगे निकल गए थे।

शिक्षा के क्षेत्र में सुधार लाने के लिए भी महर्षि दयानन्द ने दुस्साध्य प्रयत्न किए थे। उन्होंने अनिवार्य शिक्षा के सिद्धांत का प्रतिपादन किया था और दीर्घकाल से भुला दी गई 'गुरुकुल शिक्षा-पद्धति' का पुनरावर्तन भी किया था, जहां बड़े तथा छोटे बालक - समान स्तर पर-शहरी जीवन के विकृत वातावरण से मुक्त होकर अध्यापकों की व्यक्तिगत समीपता से लाभान्वित होते हुए, शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। उनके अनुसार छात्रों के लिए ब्रह्मचर्य अनेक लाभ प्रदान करने वाला होता है। उन्होंने एक मनीषी के रूप में हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया था ।

सन्तों की लम्बी परम्परा में गैर-हिन्दू लोगों के लिए हिन्दू धर्म के द्वार खोलने वाले वह पहले संत थे । एक समय ऐसा था, जब एक हिन्दू अपने धर्म पर लज्जित होता था और ईसाई मत को अंगीकार करके लज्जा से मुक्ति की खोज किया करता था, किन्तु महर्षि के परिश्रम के लिए धन्यवाद है कि आज एक हिन्दू अपने अन्तर्मन में वैदिक धर्म के सत्य से आश्वस्त होकर और अपने मत के समर्थन में विश्वास के साथ, गर्दन ऊंची उठाकर घूम सकता है।

महर्षि दयानन्द ने इस मत का जमकर विरोध किया था कि यह संसार विकारों का घर है, अतः इससे दूर रहना चाहिए । समाज के प्रति एक सामान्य हिन्दू की इस उदासीनता का परिणाम यह हुआ कि वह सिर्फ अपने मोक्ष के विषय में ही प्रयत्नशील रहा। महर्षि दयानन्द ने प्रतिपादित किया था कि जीवन के प्रति यह नकारात्मक दृष्टिकोण, यह व्यक्तिवादी चेतना, जो जैन तथा बौद्ध धर्मों के प्रचार का विकृत प्रभाव है, भारत के राजनीतिक पराभव का प्रमुख कारण है। महर्षि दयानन्द भारतवर्ष के अतीत के प्रति श्रद्धा रखते थे और उनका विश्वास था कि विश्व के अन्य भागों में ज्ञान का प्रसारक स्रोत भारतवर्ष ही था । उन्होंने अपने देशवासियों की दृष्टि के सामने विलुप्त आर्य वैभव को फिर से प्रस्तुत किया था और उनको आश्वस्त किया था कि यदि हम उस मार्ग पर फिर से आसीन हो जायें और कार्य करना प्रारम्भ कर दें, तो गौरव - वृद्धि की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता ।

समाचार-पत्र के एक स्तम्भ में उस महान आत्मा द्वारा किए गए समस्त हितकर कार्यों को गिनाना एक निरर्थक कार्य होगा, किन्तु यह निश्चित है कि ऐसे महान व्यक्ति के प्रति हमारी श्रद्धा अपेक्षित है। पचास वर्ष पूर्व, क्रूर मृत्यु ने उनको हमारे बीच से उठा लिया था ।

आर्य समाज की सर्वोच्च कार्यकारिणी समिति, जो भारत में आज तक सुसंगठित समिति है, ने आगामी दीपावली के अवसर पर अजमेर में, उस महान गुरू की 'अर्द्ध - शताब्दी स्मरणोत्सव' मनाने का निश्चय किया है। इस सम्बन्ध में आर्य समाज के अनुयायियों का विशेष रूप से तथा अन्यों का सामान्य रूप से क्या दायित्व है? इस स्मरणोत्सव की आवश्यकता तथा उपयुक्तता के विषय में मतभेद हो सकते हैं, किन्तु एक बार जब इसका निश्चय कर लिया गया है, तब हममें से किसी को इसे बुरा कहने की आवश्यकता नहीं है । क्या हम लोग अभी तक इसके विषय में बहस करते रहेंगे? इस विषय में अब समस्त विवाद समाप्त हो जाने चाहिएं और प्रत्येक समाज को, अपनी शक्ति के अनुरूप इसको सार्थक बनाने का प्रयत्न करना चाहिए |

हमें लाखों की संख्या में महर्षि द्वारा रिक्त किए गए स्थान पर एकत्रित होकर, आर्य समाज की शक्ति तथा क्षमता का प्रमाण उसी प्रकार प्रस्तुत करना चाहिए, जिस प्रकार उस स्थान पर एकत्र होकर किया था, जहां वह गुरुवर स्वामी बिरजानन्द के चरणों में बैठे थे।

विचारों की स्वतंत्रता

महर्षि दयानन्द चरम सीमा तक विनम्र थे । अन्यों के समान उन्होंने स्वयं को ऋषि होने, परमात्मा का अवतार होने अथवा अतिमानवीय सत्ता का अंग होने का दावा नहीं किया, हालांकि ऐसा वह सरलतापूर्वक कर सकते थे। इसके विपरीत, उन्होंने बड़ी दृढ़तापूर्वक व्यक्ति-पूजा का विरोध किया। उन्होंने किसी नवीन सत्य अथवा धर्म के उपदेश का दावा नहीं किया, वरन् उसी का उपदेश देते रहे, जिसका प्रतिपादन ऋषियों द्वारा किया गया है। अपने अमोघ होने का दावा भी कभी नहीं किया। उन्होंने आर्य समाज के छठे नियमानुसार सबके विचार स्वातंर्त्य का समर्थन किया था। महर्षि दयानन्द विनम्र थे, क्या इसी कारण हम उनको आदर प्रदान करने से पीछे हट जायेंगे ? महर्षि आत्म- अस्वीकृति की साक्षात प्रतिमा थे, इसलिए यह हमारा दायित्व है कि हम अपनी श्रद्धा तथा भावना के पुष्प उनको समर्पित करें और अपने आचरणों द्वारा इस शंकालु विश्व को यह बता दें कि वह युग के महान व्यक्तियों में से एक हैं।

समस्त प्रकार की लज्जा, अंधविश्वास, भ्रान्त धारणाएं एवं विरोधी संसार के विरुद्ध महर्षि दयानन्द एक ऐसे सुदृढ़ स्तम्भ की भांति खड़े रहे, जिसने समस्त तूफानों को चुनौती दी हो। कैथोलिक ईसाइयों के एक विकारग्रसित रिवाज के विरोध में मार्टिन लूथर ने विद्रोह किया था, लेकिन महर्षि को अनेक धर्मों तथा सामाजिक रीति-रिवाजों के खिलाफ संघर्ष करना पड़ा था। जनता की प्रशंसाएं उनके भाग्य में नहीं आईं। राजनीतिक नेताओं की तरह प्रशंसात्मक भीड़ों की जयकारें पाने की अपेक्षा उनको जूतों, पत्थरों तथा विष के रास्ते से सफलता अर्जित करनी पड़ी थी । महर्षि दयानन्द को तब तक आराम से नहीं बैठना था, जब तक कि धर्म का पूर्णतः संस्कार नहीं हो जाता। उनके विरोध तथा आलोचना का विषय सनातन धर्म की तरह इस्लाम तथा ईसाई धर्म भी बना । विरोधियों को उनकी कठोर आलोचना का प्रभाव अनुभव करना पड़ा था । इस आलोचना से मुक्ति पाने के लिए उनको अपना घर व्यवस्थित करना पड़ा था, यही कारण है कि आज हम देखते हैं कि सभी धर्मों के लोगों का उद्देश्य अपने धर्म का संस्कार करना हो गया है। क्या हम विश्वासपूर्वक यह कह सकते हैं कि हमने स्वामीजी का यह कार्य पूरा कर लिया है? मेरा मत है कि हम अभी ऐसा नहीं कर पाये हैं। आज भी लोग भ्रान्त धर्म की छाया में पल रहे हैं, पुजारीपन यद्यपि विघटित हो रहा है, पर अभी तक पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ। अजमेर में हमारे विद्वानों को एकत्र होकर इस तथ्य पर विचार करना चाहिए कि वे कौन से तरीके हो सकते हैं, जिनके द्वारा इस प्राचीन भूमि पर वर्तमान भ्रान्त धर्मों को मिटाने का कार्य प्रारम्भ किया जाए ?

सत्य की खोज

जब तक महर्षि जीवित रहे, तब तक हमने प्रत्येक सम्भव - घृणा तथा विरोध का व्यवहार उनके साथ किया। जहां कहीं वह प्रकटित हुए, लोगों ने उनका विरोध किया, कोई ऐसा मंच नहीं था, जिससे उन्होंने लोगों को सम्बोधित किया हो और उस पर उनका विरोध न किया गया हो। अपने पार्थिव शरीर के साथ, जब तक वह इस पृथ्वी पर विचरण करते रहे, तब तक घातक की तलवार और विष देने वालों का प्याला उनके भाग्य में लिखा था। मेरठ आर्य समाज अधिवेशन के, अपने अंतिम सम्बोधन में उन्होंने घोषणा की थी कि जब तक वह जीवित हैं, तब तक आर्य समाज तथा उनको घृणा की दृष्टि से देखा जायेगा, लेकिन एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा, जबकि आर्यसमाज के कार्यों का पुष्प - हारों से सम्मान किया जायेगा। ये शब्द पैगम्बर की तरह थे, समय की गति के साथ उनके कार्यों को अधिकतर स्वीकृति मिलती रही है और शीघ्र ही वह असली रूप में जाने जा सकेंगे।

स्वामी जी द्वारा प्रतिपादित आर्य-समाज के सिद्धांतों को विश्व के अनेक विद्वान् मान्यताएं प्रदान करते जा रहे हैं। इस समय, भारत की भूमि पर ऐसा कोई आन्दोलन मौजूद नहीं है, जिसका श्रीगणेश महर्षि द्वारा साठ वर्ष पूर्व न कर दिया गया हो । स्वामीजी ने इस देश को संगठन का वरदान प्रदान किया था । हमको अजमेर में उस महान् सन्यासी को अपनी श्रद्धा, प्रशंसा तथा सम्मान इसलिए समर्पित करने के लिए एकत्र होना चाहिए, जिसके ऐतिहासिक उद्बोधन के फलस्वरूप हम युगों की दासता के प्रति पहली बार सजग हुए थे। ऐसे महर्षि दयानन्द को, जो संस्कृति का प्रतीक बन गया था, हम पूर्णतः बिना किसी विवाद तथा संकोच के अपनी श्रद्धांजलियां समर्पित करेंगे।

मानव–इतिहास में उनका संन्यास अभूतपूर्व था। सत्य के अनुसंधान के प्रति उनके भावुकतापूर्ण शोध ने उन्हें अपना घर जीवन के आरम्भ में ही छोड़ने के लिए अनुप्रेरित किया था और उन्होंने अद्वितीय पावनता का जीवन-यापन भी किया था । उनका अद्वितीय ब्रह्मचर्य, उनकी शिक्षा, उनका दृढ़ विश्वास, उनकी निर्भीकता, परमात्मा के अस्तित्व में अनुपमेय विश्वास के साथ जीवन और अपने उद्देश्य की ईमानदारी आदि कुछ ऐसे गुण थे, जिन्होंने उनको अप्रतिरोध्य शक्ति बनाया था। उनके गतिशील व्यक्तित्व के परिणामस्वरूप आस्थाहीन व्यक्ति भी उनकी प्रशंसा करने के लिए विवश हो गए थे। जो लोग उनकी भर्त्सना करने के लिए आये थे, वे उनकी प्रार्थना करने पर मज़बूर हुए। उन्होंने हमारे लिए लिखा तथा जीवन व्यतीत किया था। इस ऋण से हम किस प्रकार मुक्त हो सकेंगे? निश्चय ही उनके द्वारा निर्धारित मार्ग पर चलकर, उस कार्य को सम्पादित करके, जो उनको बहुत प्रिय था - वैदिक धर्म - जिसके लिए उन्होंने अपना जीवन तथा रक्त समर्पित कर दिया था, का प्रचार करके और जैसी कि वह हमसे अपेक्षा करते थे, सच्चे वैदिक आर्य बनकर ही हम उस ऋण से मुक्त हो सकते हैं। हमको स्वयं महर्षि के उदाहरण से अनुप्रेरित होने की आवश्यकता है। हमें अजमेर में एकत्र होने की आवश्यकता इसलिए है, ताकि हम उस शक्ति के स्रोत से नवीन स्फूर्ति ग्रहण कर सकें। अजमेर में हम अपनी क्षमता का मूल्यांकन कर सकेंगे, अपनी शक्ति का अनुमान लगा सकेंगे और उसके पश्चात् यदि ईश्वर की कृपा हुई, तो भारतवर्ष की युवा पीढ़ी को नास्तिकता के ज्वार से प्रभावित करने वाली विचारधारा के विपरीत एक प्रबल संघर्ष खड़ा कर सकेंगे ।

हमको अजमेर में क्या करना चाहिए, इसके विषय में विस्तार के साथ मैं कुछ भी नहीं कहूंगा। इस विषय में सोचना हमारे अग्रजों का कार्य है । आर्य पुरुष, आर्य महिला तथा आर्य कुमारों से मेरा अनुरोध है कि वे अजमेर की महान यात्रा पर निकल पड़ें और उसके पश्चात् नवीन स्फूर्ति तथा प्रेरणा के साथ उस अपूर्ण कार्य की पूर्ति पर जुट जायें, जिसे हमारे महान गुरू ने अजमेर में अधूरा छोड़ दिया था। साथियो, हमारी तीर्थ-यात्रा का यही पाथेय है।


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