Monday, February 22, 2021

हम सब ऋणी जिनके: शास्त्रार्थ महारथी पं धर्मभिक्षु जी लखनवी






हम सब ऋणी जिनके: शास्त्रार्थ महारथी पं धर्मभिक्षु जी लखनवी 

#डॉ_विवेक_आर्य 

(20 जून को निर्वाण दिवस पर विशेष रूप से प्रकाशित)

आर्यसमाज के इस्लाम और बाइबिल के मर्मज्ञ विद्वानों में शास्त्रार्थ महारथी पं धर्मभिक्षु जी लखनवी का नाम अद्वितीय विद्वानों में शामिल रहा है। आपका जन्म 1901 की भ्राद्रमास कृष्ण पक्ष की षष्ठी को हुआ था। आप के चाचा बनारसी दास जी (स्वामी निर्भयानन्द) लखनऊ में श्रीमद्दयानन्द अनाथालय के संस्थापक थे । उनके संपर्क में आकर धर्मभिक्षु जी आर्य विचारधारा के बन गए। स्वामी जी ने आपके लिए संस्कृत पंडित और अरबी उर्दू के लिए एक मौलवी को निर्धारित कर दिया। जिससे आप वैदिक सिद्धांतों और क़ुरान के आधिकारिक विद्वान बन गए। आपने क़ुरान को समझने के लिए अरबी भी सीखी। बाइबिल का अध्ययन आपने अपने से लिया।  पं जी अब लखनऊ के चौराहों से भाषण देने लगे एवं मुसलमानों और ईसाईयों से शास्त्रार्थ करने लगे। आप बाद में आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के उपदेशक बन गए। आपने पं लेखराम जी की स्मृति में नाटक लिखा। इसका जब सिटी आर्यसमाज लखनऊ में प्रदर्शन हुआ तो मुसलमानों ने ईंटें भी चलाई थी। 

एक बार आपको शहर के कोतवाल ने गिरफ्तार कर लिया। आपके पतले हाथों में हथकड़ियाँ नहीं आई तो आप हंसकर बोले-दोस्त इसे और भी छोटी करो यह लखनऊ की नाजुक कलाइयाँ हैं जहाँ वाजिद अली बादशाह छुन्नुक छइयां नाचते थे। आपको किसी प्रकार बेड़ियाँ पहनाकर ले जाने लगे तो आप विपक्षी बोले हथकड़ियां पहले हुए शर्म नहीं आती है। तब आपने हंस कर उत्तर दिया- लज्जा कायरों को आती है, जल्ला चूड़ी पहनंने वाले हिजड़ों को आती है, लज्जा अंध सेवकों को आती है।  धार्मिक और सत्य पर बलिदान होने वाले धार्मिक पुरुषों को लज्जा नहीं आती। अपितु आप लोगों को यह बेड़ियाँ दिखाई देती हैं। परन्तु सत्यपरायण, धर्मनिष्ठ सत्याग्रहियों के लिये यह सोने के कंगन हैं।  इसके साथ ही पं जी एक तराना गाने लगे-

क़दमों पै उस ऋषि के दीन सिर झुका मुसाफिर। और आर्य्या बने सब दिल में कहें मुनाजिर।   

आपको जेल में बंद कर दिया गया तो आप ने अन्न जल ग्रहण करने से मना कर दिया। कहाँ की जब तक मेरी बात को सिद्ध नहीं माना जायेगा और मैं बाहर आकर स्नान, संध्या , हवन नहीं कर लूंगा। तब तक अन्न जल ग्रहण नहीं करूँगा। तब आपने एक गीत रचा जिसकी पंक्तियाँ थी- बेड़ियाँ क्यों कर न पहिने हम धर्म के वास्ते। जान तक देते है आशिक जब सनम के वास्ते। 

पं जी ने अनेक पुस्तकें उर्दू में लिखी थी जैसे असली क़ुरान जिसमें 48 आयतें स्वयं बनाई थी, चश्मायें क़ुरान, मिर्जा कादियानी को हमल, आसमानी दुल्हन, कलामुल्लाह रहमान वेद या क़ुरान जो 400 पृष्ठ की पुस्तक थी जिसमें वेद का ईश्वरीय ज्ञान तथा क़ुरान का इंसानी कलाम होना सिद्ध किया था।  आप पं लेखराम की स्मृति में 'आर्य मुसाफिर' के नाम से पत्र का संपादन किया था जिसके मुख पृष्ठ पर पं लेखराम जी का बलिदान चित्र था और उसके साथ ये पंक्तियाँ लिखी थी-

'नगाड़ा धर्म का बजता है, आये जिसका जी चाहे। सदाकत वेद अक़दस है, आजमाये जिसका जी चाहे। 

ढिंढोरा हो जगत में बस, मुसाफिर आ गया इस जां। बहस शिरको वतालत पर, करवाले जिसका जी चाहे।।

पं लेखराम, पं गुरुदत्त के समान पं जी भी सदा वैदिक धर्म के प्रचार में निरंतर कार्यरत रहते थे। आप का विवाह श्रीमती सुभद्रा देवी से हुआ और आपको एक पुत्री भी हुई जिसका नाम लक्ष्मी रखा गया था। आप की पुत्री जब 6 माह की थी तो उसे चेचक निकल गया। पं जी 15 दिन के पश्चात आर्यसमाज के उत्सव से घर आये। दूसरे दिन आपको पुन: सीतापुर में शास्त्रार्थ करने जाना था। पत्नी ने लड़की की हालात गंभीर बताई। पं जी ने कहा कि तुम्हें ईश्वर पर विश्वास नहीं है। वही रक्षा करेंगे और वो स्वस्थ हो जाएगी। मैं अगर नहीं गया तो जाने कितने लोग मुसलमान हो जायेंगे। यह संसार तो परीक्षा का स्थान है। आप गए और शास्त्रार्थ में विजयी हुए। पीछे आपकी पुत्री भी स्वस्थ हो गई। शास्त्रार्थ में ईंटें खूब बरसी पर आप सुरक्षित रहे। पं जी अनेक मुसलमानों को शुद्ध कर अपने घर भी ले आते थे। कुछ लोग ऐसा करने से रोकते और पं लेखराम की याद दिलाते। आप कहते मेरी तो प्रबल इच्छा है कि मैं वैदिक धर्म का प्रचार करते करते बलिदान हो जाऊँ। 

पं जी लखनऊ में जून 1930 में अंग्रेज सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन करते हुए गिरफ्तार हुए। आपने बाजार से कुछ मंगवाकर खाया जिससे आपको हैजा हो गया। उससे आपका असमय देहांत 20 जून को हैजा से मेडिकल कॉलेज में उपचार के दौरान केवल 30 वर्ष की अल्पायु में हो गया। आर्य समाज से एक महान प्रचार, चिंतक, शास्त्रार्थ महारथी सड़ के लिए छीन गया। आपने सैकड़ों शास्त्रार्थ किये और मुल्ला मौलवियों-पादरियों की बोलती बंद कर दी। 

आपके शास्त्रार्थों और शंका समाधान के कुछ रोचक प्रसंग-

1. शास्त्रार्थ बदायुँ- यह शास्त्रार्थ एक संस्कृत जानने वाले कादियानी मौलवी से हुआ था। मौलवी ने ऋग्वेद का सूक्त प्रस्तुत कर कहा की इसका ऋषि जाल बाध्य मत्स्य है और हंसी उड़ाते हुये कहा कि वेद का पैगम्बर मछलियां भी थी। खुदा का आदेश मछलियों पर आया। पं जी ने कहा कि मत्स्य ऋषि का नाम था जैसे एक पैगम्बर थे अबूहुरैरा तो यह उनका नाम था न कि वह बिलौटे थे। इस  कहा यह गलत है। पं जी ने अरबी कोष लेकर दिखवा दिया जिसमें हुरैरा का अर्थ बिल्ली लिखा था। इस पर मौलवी ने क्षमा मांगी थी। 

2. एक बार एक मौलवी ने सत्यार्थ प्रकाश में से पढ़कर सुनाया कि जो प्रतिदिन हवन नहीं करता वह पापी है। और एक आहुति 6 माशे की होनी चाहिये अब बताओं कौन सा आर्य समाजी है जो रोजाना 8,9 तोले घी की आहुति देता है। अगर नहीं तो वह पापी है। पं जी ने कहा कि सत्यार्थ प्रकाश का एक शब्द आप छोड़ गये। यहाँ लिखा है घृतादि केवल घी नहीं। मौलवी ने कहा आदि से मतलब। पं जी ने कहा आदि का अर्थ है घी के अलावा यह चीजें-अब पं जी ने शतपथ ब्राह्मण की श्रुतियाँ बोलनी शुरू कर दी। जिसमें महाराज जनक और महर्षि याज्ञवल्क्य का संवाद है। 

वेन्सि अग्निहोत्रं  याज्ञवल्क्य?  अर्थात क्या याज्ञवल्क्य अग्निहोत्र जानते हो?  अग्निहोत्र क्या है? हे सम्राट मैं अग्निहोत्र को जानता हूँ? अर्थात जब दूध से घी बनेगा तब अग्निहोत्र होगा। महाराज जनक ने कहा- मुनिवर याज्ञवल्क्य यदि दूध न हो तो हवन किस प्रकार करोगे? महर्षि याज्ञवल्क्य बोले गेहूं और जौ से हवन कर देंगे। राजा ने कहा यदि गेहूं, जौ न हो तो कैसे हवन करोगे?  याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया जंगल की जड़ी बूटियों से हवन कर देंगे। जनक बोले जंगल की जड़ी-बूटियां न हो तो हवन कैसे करोगे? याज्ञवल्क्य ने कहा जल से हवन कर देंगे।  जनक बोले! यदि जल न ही तो हवन कैसे करेंगे? याज्ञवल्क्य ने कहा सत्य से श्रद्धा में हवन कर देंगे। पं जी बोले मौलवी साहिब हवन इस भावना को बनाने के लिये किया जाता है कि मनुष्य दूसरों के लिये त्याग करना सीखें। पं जी का समाधान सुनकर सभी श्रोता धन्य हुए। मौलवी पं जी के वचन सुनकर आपने सत्यार्थ प्रकाश की आदि शब्द की खूब व्याख्या की कहकर प्रशंसा करते हैं।  

3. लखनऊ में एक शास्त्रार्थ में एक मौलवी ने पूछा कि सनातन धर्मी कहते हैं कि वेद का जहूर (उद्भव) ब्रह्मा जी से हुआ, और आप आर्य कहते हैं कि अग्नि, आदित्य, वायु और अंगिरा से। तो पहिले आप यह तय करिये कि वेद का इल्हाम हुआ किस पर? आप दोनों  दावेदार हो मगर यह पता न लगा पाये कि वेद का इल्हाम किस पर हुआ? पं जी ने उत्तर दिया कि हम दोनों की बात सही है आपके समझने में फेर है।  सनातन धर्मीपहली सृष्टि की बात कहते हैं।  ब्रह्मा नाम है सृष्टि रचने वाले भगवान का। उसी भगवान ने वेदों का प्रकाश किया। हम दूसरे स्टेज की बात कहते हैं- अग्नि, आदित्य, वायु और अंगिरा ने वेदों  का मनुष्यों में किया।  पं जी को सुनकर सभी जय-जयकार करने लगे। 

4. गोरखपुर में शास्त्रार्थ का विषय ईश्वर का नाम था। मौलवी बोले कि ईश्वर का जाती नाम अल्लाह है। पंडित जी बोले ईश्वर का निज नाम ओ३म् है। पं जी ने कहा की ईश्वर का निज नाम वही हो सकता है जो बोलने में सुगम हो। जिसे बच्चे और प्रति देश के लोग बोल सकें।   ओ३म् नाम सरल सब देश के बोलने वालों के लिये एक सा है। अल्लाह नाम तो ऐसा है कि चिराग के सामने बैठकर अल्लाह कहो तो चिराग बुझ जायेगा। पैदा होने वाले बच्चे चाहे जिस मज़हब के हो अपने रोने में ओ३म् की ध्वनि बोलते हैं। इसी बीच समाज के मंत्री ने सोडा की बोतल लेकर मौलवी साहिब को पीने के लिए दे दी। पीते ही मौलवी जी के मुँह से डकार आई तो ओ३म् की ध्वनि उसमें भी मिली। पं जी मौलवी से पूछा की आपके मुँह से भी ओ३म् निकला अल्लाह नहीं निकला। इस पर सभी हंस पड़े। 

5. लखनऊ में पुनर्जन्म पर पं जी का एक मौलवी से शास्त्रार्थ हो रहा था। मौलवी बोले की यदि पुनर्जन्म होता तो कुछ बातें तो पिछले जन्म की याद रहनी चाहिए। परन्तु एक भी याद नहीं रहती। इसलिए पुनर्जन्म का मानना गलत है। पं जी ने उत्तर दिया कि यदि पुनर्जन्म की बातें याद रहें तो बैर विरोध और झगडे आरम्भ हो  जाये। कभी समाप्त न हो। इसलिए एक जन्म के कार्य-व्यवहार , वैर-विरोध , मोह सभी को भुला दिया जाता है।  हाँ संस्कार अवश्य जाते है और योगियों को याद रहता है जैसे गीता में श्री कृष्ण जी ने कहा है। 

इस पर मौलवी कुतर्क करते हुए बोले कि थोड़े बहुत मौलवी तो आप भी होंगे।  आपको एक आध बात तो याद होगी ही। पं जी ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया हाँ एक बात याद है। पिछले जन्म में मैं ओका बाप था। आप छोटे से थे आपको खांसी आ रही थी। आप रेवड़ियां खाने के लिए मचलने लगे। तब मैंने काम मरोड़े थे। अपनी अम्मा से पूछ लेना। मौलवी बिगड़कर बोला तुम मेरी लुगाई हे और मैं तुम्हारा खसम था। मैंने तुम्हें कई बार पीटा था। इस पर पं जी ने घोषणा कर दी कि भाईयों मौलवी जी को पिछले जन्म की याद आ गई। इससे पुनर्जन्म सिद्ध हो गया। हिन्दुओं ने तालियां बजा दी और मौलवी का चेहरा देखने लायक था। 

6. लखनऊ में एक शास्त्रार्थ में पं जी ने दावा किया कि अजरुये कुरान खुदा शैतान है। उस पर हलचल मच गई कि पं जी ने खुदा को शैतान कहा। तब पं जी ने प्रमाण क़ुरान से दिया कि सूरये एराफ सातवीं सूरत और सूरत-स्वाद में साफ़ साफ़ लिखा है कि खुदा शैतान है। उस पर मुसलमानों ने क़ुरान में देखा तो उत्तर देने लायक नहीं रहे।  तब वे नमाज का बहाना बनाकर जाने लगे। तब पं जी ने फिर कहा कि शैतान काफिर से डरता ह।  क़ुरान में साफ़ लिखा है। अन्य में पं जी ने कहा कि खुदा शैतान हैं और शैतान खुदा है। किया गुमराह-दोनों ने जहाँ को, क़ुरान से यह वर मिला है। इस पर शास्त्रार्थ समाप्त हो गया। 

7.बाराबंकी आर्यसमाज के उत्सव पर शास्त्रार्थ हुआ। पं जी ने मौलवी से पूछा आपका कलमा (गुरु मन्त्र) क्या है? तब मौलवी ने कलमा लाइलाह इलल्लाह सुना दिया। तब पं जी ने पूछा कि यह कलमा आपकी क़ुरान शरीफ में कहीं दिया है? तो मौलवी ने कहा हाँ। तब पं जी ने खड़े होकर उत्तर दिया कि अगर मौलवी जी सारे क़ुरान में कलमा दिखा दे तो मैं मुसलमान बन जाऊँगा। मौलवी कई देर तक क़ुरान देखते रहे पर उन्हें नहीं मिला। इस पर शास्त्रार्थ समाप्त हो गया। 

8. गोरखपुर में आर्यसमाज में पं जी का मौलवी से शास्त्रार्थ हुआ। विषय वेद और क़ुरान में एकेश्वरवाद था। मौलवी बोले की क़ुरान में एकेश्वरवाद है। पं जी ने उत्तर दिया कि क़ुरान के खुदा तो पेशकार (हज़रत मुहम्मद) के बिना कोई निर्णय करने में असमर्थ थे। क़ुरान का खुदा तो हजरत के घरेलू झगड़ों का निपटारा कराने वाला तथा अपने मुस्लिम अनुयायियों को यह कहता है कि बिना हज़रत मुहम्मद के तुम उनकी बीवियों से बात न करो। न दावत खाने जाओ। क़ुरान का खुदा रूठी हुई हजरत की बीवियों को सांत्वना देता है कि तुम्हें जेवर आदि की चिंता नहीं करनी चाहिए इत्यादि। इस प्रकार से क़ुरान के अनेक प्रमाणों से पं जी ने यह सिद्ध कर दिया कि वेद ही एकेश्वरवाद का सन्देश देते है। 

यह पं धर्मभिक्षु जी के जीवन में हुए शास्त्रार्थों के कुछ प्रसंग हैं। जो उनकी स्मृति में उनकी पत्नी माता सुभद्रा देवी जी द्वारा लिखी उनकी छोटी सी जीवनी 'पंडित धर्म भिक्षु लखनवी का जीवन चरित्र' से लिए गए है। आज की वर्तमान पीढ़ी पं जी के नाम और कार्यों से परिचित नहीं है। उनकी सबसे प्रसिद्ध पुस्तक कलामुल्लाह रहमान वेद या क़ुरान उर्दू में थी। इस पुस्तक का उर्दू से हिंदी में अनुवाद होकर इसका दोबारा प्रकाशन होना चाहिए। आर्यसमाज की महान विभूति पं धर्मभिक्षु जी की स्मृति इसी प्रकार से चिरस्थायी होगी। 


इमाम-ए-हिन्द और इक़बाल


 


इमाम-ए-हिन्द और इक़बाल 


#डॉ_विवेक_आर्य 


राम मंदिर निर्माण निधि के लिए धन संग्रह करते हुए राष्ट्रीय मुस्लिम मंच द्वारा श्री राम जी के लिए 'इमाम-ए-हिन्द' का प्रयोग किया गया। हिन्दू समाज इस शब्द से प्राय: परिचित ही नहीं है। इतिहास में यह सम्बोधन अल्लामा इक़बाल द्वारा अपनी इस रचना में श्री राम जी के लिए प्रयोग किया गया था।   


लबरेज़ है शराबे-हक़ीक़त से जामे-हिन्द। सब फ़ल्सफ़ी हैं खित्ता-ए-मग़रिब के रामे हिन्द ।।

ये हिन्दियों के फिक्रे-फ़लक उसका है असर,रिफ़अत में आस्माँ से भी ऊँचा है बामे-हिन्द ।

इस देश में हुए हैं हज़ारों मलक सरिश्त,मशहूर जिसके दम से है दुनिया में नामे-हिन्द ।

है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़,अहले-नज़र समझते हैं उसको 'इमामे-हिन्द '।

एजाज़ इस चिराग़े-हिदायत का है ,यहीरोशन तिराज़ सहर ज़माने में शामे-हिन्द ।

तलवार का धनी था, शुजाअत में फ़र्द था,पाकीज़गी में, जोशे-मुहब्बत में फ़र्द था ।

-अल्लामा इकबाल

 

[शब्दार्थ :लबरेज़ है शराबे-हक़ीक़त से जामे-हिन्द । सब फ़ल्सफ़ी हैं खित्ता-ए-मग़रिब के रामे हिन्द ।।= हिन्द का प्याला सत्य की मदिरा से छलक रहा है। पूरब के सभी महान चिंतक इहंद के राम हैं; फिक्रे-फ़लक=महान चिंतन; रिफ़अत=ऊँचाई; बामे-हिन्द=हिन्दी का गौरव या ज्ञान; मलक=देवता; सरिश्त=ऊँचे आसन पर; एजाज़=चमत्कार; चिराग़े-हिदायत=ज्ञान का दीपक; सहर=भरपूर रोशनी वाला सवेरा; शुजाअत=वीरता; फ़र्द=एकमात्र, अद्वितीय; पाकीज़गी= पवित्रता]


अल्लामा इकबाल सियालकोट, पंजाब, ब्रिटिश भारत में पैदा हुआ था। एक कश्मीरी शेख परिवार में पाँच भाई बहन की सबसे बड़ी संतान इकबाल के पिता शेख नूर मुहम्मद एक समृद्ध दर्जी थे। उनका परिवार इस्लाम के प्रति कट्टरता के लिए जाना जाता था। इकबाल के दादा सहज राम सप्रू श्रीनगर से  थे। दवाब  के चलते उन्होंने अपने परिवार के साथ इस्लाम में मर परिवर्तित कर लिया था और अपना शेख मुहम्मद रफीक रख लिया था। वह पंजाब के सियालकोट पश्चिम में अपने परिवार के साथ चले गए। कुछ लोग कहते है कि अपने प्रारंभिक उम्र में इकबाल के विचार सेक्युलर थे। क्योंकि उन्होंने ही सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा गीत लिखा था। पाठक जरा इस तराने को गौर से पढ़े-


सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा। हम बुलबुलें हैं इसकी यह गुलसिताँ हमारा

परबत वह सबसे ऊँचा, हम्साया आसमाँ का वह संतरी हमारा, वह पासबाँ हमारा

गोदी में खेलती हैं इसकी हज़ारों नदियाँ गुल्शन है जिनके दम से रश्क-ए-जनाँ हमारा

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना। हिंदी हैं हम, वतन है हिन्दोसिताँ हमारा। 


इस तराने की अंतिम पंक्ति की मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर करना पिछले 1200 वर्षों में हमारे महान पूर्वजों द्वारा दिए गए बलिदान का अपमान नहीं तो क्या है? जिन्होंने अपने धर्म, गौ, वेद,चोटी, जनेऊ मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राण दे दिए। उनके बलिदानों को इतना सस्ते में कैसे लिया जा सकता है?  यह ऐतिहासिक सत्य है कि मज़हब के नाम पर, दीन के नाम पर, गैर मुस्लिम होने के नाम पर हमारे ऊपर अत्याचार हुए। आखिर क्या कारण था कि कोई हिन्दू अगर इस्लाम स्वीकार कर लेता तो उसे ऊँचा ओहदा, जजिया से मुक्ति, निक़ाह करने के लिए औरतें से लेकर पान खाकर थूकने के लिए हीरे जड़ित स्वर्ण पात्र मिलते थे। जो हिन्दू अस्वीकार कर लेता तो उसे वीर शिरोमणि शम्भाजी, गुरु तेग बहादुर, बंदा बैरागी, वीर गोकुला, हकीकत राय के समान वीरगति, जेल, तिरस्कार, गुलामी, बलात्कार, जजिया कर और मैला ढोने जैसे काम करने के लिए विवश किया जाता था। 


इसलिए यह तराने हमसे खिलाफत के दौर में हिन्दू-मुस्लिम एकता के नाम पर गवाए जाते थे। 1918 के बाद हमारे देश के राजनीतिक पटल में गाँधी जी का अकस्मात् आना और एकदम से अर्श छू जाना किसी चमत्कार से कम नहीं था। उस समय गाँधी ने एक ऐतिहासिक गलती की। उन्होंने सोचा की देश की स्वतंत्रता के मुसलमानों का सहयोग आवश्यक है।  इसलिए उन्होंने तुर्की के खलीफा को हटाए जाने को लेकर चलाये जा रहे खिलाफत आंदोलन जो विशुद्ध रूप से मुसलमानों का विदेशी जमीन पर चल रहा धार्मिक आंदोलन था। उससे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन को नत्थी कर दिया। जो सेक्युलर नेता आज कहते है कि धर्म को राजनीति से दूर रखना चाहिए उन्हें यह स्मरण रहना चाहिए कि यह धर्म को राजनीति से नत्थी करने का काम सर्वप्रथम गाँधी ने ही किया था। देश की स्वतंत्रता का आंदोलन गाँधी के कहने पर अली बंधुओं जैसे मतान्ध नेताओं के हाथों सौंप दिया गया। धनी हिन्दुओं को ख़िलाफ़त के धन देने, जेल जाने और आंदोलन करने को प्रेरित किया गया। आंदोलन तो असफल होना ही था क्योंकि तुर्की  की जनता ही उसे नहीं चाहती थी। पर उत्तेजित हुई मोमिनों की भीड़ निहत्थे हिन्दुओं पर टूट पड़ी। 1921 में आज से ठीक 100 वर्ष पहले मोपला के नाम से केरल के मालाबार में दंगे प्रारम्भ हुए जो 1947 के देश विभाजन तक चले। इन दंगों में अंग्रेज मौन रहकर आनंद लेते रहे और हिन्दुओं को दंगाई प्रताड़ित करते रहे। 


इमाम इमाम-ए-हिन्द और मज़हब नहीं सिखाता का तराना गाने वाला इक़बाल अब अपने असली रूप में सामने आया। मुसलमानों के लिए अलग सरजमीन की  

मांग इक़बाल ने अपने प्यादे जिन्ना जिसका इस्लाम से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं था रखवाई थी। अब इक़बाल उसी तर्ज पर मंच से गाता था।


चीन-और अरब हमारा। हिंदुस्तान हमारा। मुस्लिम है हम। वतन है सारा जहाँ हमारा। 


1930 में मुस्लिम लीग के मंच से अध्यक्षीय भाषण देते हुए इक़बाल ने ही कहा था कि मैं पंजाब, बलूचिस्तान, सिंध और फ्रंटियर को एक अलग देश के रूप में देखना चाहता हूँ। इक़बाल खुले आम यह घोषणा करता था कि मुसलमानों को जिन्ना के हाथ मजबूत करने चाहिए ताकि वो उन्हें पाकिस्तान बनाकर दे सके। इक़बाल ने हिन्दू मुस्लिम की भिन्न निर्वाचन प्रणाली के लिए मुसलमानों को प्रेरित किया था जिसके चलते पाकिस्तान का निर्माण हुआ। 


इक़बाल की कट्टरता के दो उदाहरण हम देना चाहेंगे।  शुद्धि एवं हिन्दू संगठन के आंदोलन चलाने वाले स्वामी श्रद्धानन्द के हत्यारे अब्दुल रशीद और महाशय राजपाल के हत्यारे इलमदीन की इक़बाल ने खुलेआम  वकालत की थी। इलमदीन को जब फांसी से न बचा पाए तो उसकी लाश पर इक़बाल ने एक वाक्या बोला था कि ' असि वेखदे रह गए, ए तरखना दा मुण्डा बाजी ले गया' अर्थात हम पढ़े लिखे देखते रह गए। यह बढ़ई का अनपढ़ लड़का बाजी मार गया। इक़बाल के इन दृष्टिकोण से हमें स्पष्ट ज्ञात होता है कि उसकी मनोवृति क्या थी। जो आदमी हिन्दुओं के हत्यारों का पक्ष लेने में कभी पीछे नहीं रहता था।  इक़बाल का देहांत 1938 में हो गया। वो पाकिस्तान बनते तो नहीं देख पाया। पर वो लाखों निरपराध वृद्धों, बच्चों, स्त्रियों की लाशों, अबलाओं के बलात्कारों, अबोध बालकों को अनाथ, धनिकों को निर्धन बनाने के बाद पाकिस्तान का राष्ट्र पिता बनने पर कैसा महसूस करता होगा। यह पाठक स्वयं सोच सकते है।

Wednesday, February 17, 2021

हम सब ऋणी


हम सब ऋणी

-डॉ० राजेन्द्रप्रसाद [भारत के प्रथम राष्ट्रपति]

स्वामी दयानन्द की सबसे बड़ी विशेषता उनकी दूरदर्शिता थी। यह देखकर आश्चर्य होता है कि विदेशी शासन के विरोध में सक्रिय संघर्ष के समय जिन बातों पर महात्मा गांधी ने अधिक बल दिया और उन्हें रचनात्मक कार्य की संज्ञा दी, प्रायः वे सभी काम स्वामी दयानन्द के कार्यक्रम में ५० वर्ष पूर्व शामिल थे।

देश भर के लिए एक सामान्य भाषा की आवश्यकता स्वामी दयानन्द ने महसूस की और हिन्दी को ही राष्ट्र अथवा आर्य भाषा होने के योग्य माना।
इसके अतिरिक्त अछूतोद्धार, स्त्री शिक्षा, हाथ के बने कपड़े अथवा स्वदेशी का प्रयोग इत्यादि बातों पर भी उन्होंने काफी बल दिया और वे स्वयं भी जीवन भर इन बातों पर पूरा अमल करते रहे।

उनकी कृतियों और उपदेशों से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि वे विचारों से राष्ट्रवादी थे और विदेशी शासन के स्थान पर स्वराज्य अथवा भारतीयों के ही राज्य का स्वप्न देखते थे।

समाज सेवा के क्षेत्र में स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज ने जो कार्य किया उसके महत्व से इन्कार नहीं किया जा सकता। उस कार्य के लिए और देश को जो उससे लाभ पहुंचा उसके लिए हम सब स्वामी दयानन्द के ऋणी हैं।

[स्त्रोत- 'सार्वदेशिक' (साप्ताहिक) : सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा दिल्ली का मुख पत्र का ३० अगस्त - ६ सितम्बर, १९६६ का वेद कथा विशेषांक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]