मुलहिद और मुस्लिम नवजागरण
शंकर सरन
यूरोप में पूर्व-कैथोलिक संज्ञा जानी-मानी है। यानी ऐसे लोग जो पहले क्रिश्चियन थे, पर अब उस में विश्वास नहीं रखते। वे अब स्वतंत्र बुद्धिवादी या नास्तिक हैं। तो क्या दुनिया के डेढ़ अरब मुस्लिमों में ऐसे लोग नहीं, जो इस्लाम में विश्वास छोड़ चुके? जो इस्लाम से अधिक अपने विवेक को और इस्लामी निर्देशों से ऊपर मानवीय नैतिकता को मानते हों? उत्तर है कि मुस्लिमों में भी ऐसे लोग शुरू से हैं, खुद प्रोफेट मुहम्मद के समय से। इतने कि उन पर मुहम्मद ने कई बार कहा है। उन के लिए दो नाम भी हैं, ‘मुनाफिक’, और ‘मुलहिद’। मुनाफिक, जो ऊपर से इस्लाम पर विश्वास जताते हैं पर दरअसल उन्हें विश्वास नहीं है। मुलहिद, जो खुल कर इस्लाम पर विश्वास छोड़ चुके हैं।
यहाँ दो बातें नोट करने की हैं। पहली, मुहम्मद ने ऐसे लोगों को खत्म कर डालने का हुक्म दिया था। इसीलिए शरीयत में इस्लाम छोड़ने की सजा मौत है। दूसरी, जैसे ही मुहम्मद की मृत्यु हुई, अनेक अरब कबीलों ने इस्लाम छोड़ने की घोषणा कर दी। इस्लाम छोड़ने वालों में मुहम्मद की आखिरी बीवी कुतैला बिन्त कैस भी थी! प्रथम खलीफा अबू बकर को साल भर तक अरब में युद्ध लड़ना पड़ा, ताकि इस्लाम छोड़ने की गति रोकी जा सके।
इस प्रकार, शुरू से ही इस्लाम मुसलमानों के लिए कैदखाने जैसा मतवाद बना और वैसा ही रहा है। जिस में जाने का रास्ता है, निकलने का बंद है। वह भी मार डालने की धमकी से। कहना चाहिए कि इस के सिवा इस्लाम को बनाए रखने का कोई उपाय नहीं है! इस में ऐसा कुछ नहीं जो मानवीय विवेक को स्वीकार हो सके। तब भी इस्लाम चौदह सौ वर्षों से क्यों बना हुआ है – यह एक अलग विषय है। जिस पर अलग से विचार करना चाहिए।
फिलहाल प्रसंग यह कि मार डालने के ‘कानून’ के बावजूद हालिया दशकों में मुलहिदों की संख्या बढ़ रही है। कनाडा के मौलवी बिलाल फिलिप्स के अनुसार उन की बाढ़, बल्कि ‘सुनामी’ आ सकती है। यह चिन्ता निराधार नहीं। एक आकलन के अनुसार अभी केवल पाकिस्तान में 28 हजार मुलहिद हैं। ईरान में और बाहर रहने वाले ईरानी मूल के मुस्लिमों में यह संख्या बहुत बड़ी है। अमेरिका में प्यू रिसर्च सेंटर ने एक सर्वे में पाया कि मुस्लिम परिवारों के लगभग एक चौथाई युवा अपने को इस्लाम से नहीं जोड़ते।
इस में आगे वृद्धि होना पक्की बात है। इस का सबसे बड़ा श्रेय इंटरनेट और उस पर उपलब्ध तमाम जानकारियों, पुस्तकों, विचार-विमर्श को है जिन्हें प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। यद्यपि सऊदी अऱब, ईरान, पाकिस्तान, मलेशिया, आदि कई देशों में स्वतंत्र नजरिए से लिखने-बोलने वाले मुस्लिमों के लिए जेल और मौत की सजा है। पर इस से बात बनने वाली नहीं। इस्लाम के सिद्धांत और वास्तविक इतिहास अब विश्लेषण, परख से बचाकर नहीं रखे जा सकते। इस्लामी मत मानने वाले मुसलमानों की निंदा बिलकुल नहीं होनी चाहिए। लेकिन उस मत, विचार को यह सुविधा नहीं है।
पिछले दशकों में इब्न वराक, अनवर शेख, अली सिना, जैसे कुछ ही जाने-माने मुलहिद थे। अब उन की संख्या लगातार बढ़ रही है। आज अमेरिका में अय्यान हिरसी अली, वफा सुलतान, मरवी सरमद, कनाडा में ताहिर असलम गोरा, अली अमजद रिजवी, इंग्लैंड में रिजवान इदेमीर, तथा पाकिस्तानी मूल के गालिब कमाल, और हैरिस सुलतान को पढ़ने, सुनने वाले असंख्य हैं। ईरानी मूल के रिजवान इदेमीर के कार्यक्रम ‘एपोस्टेट प्रोफेट’ के नियमित दर्शकों की संख्या 2 लाख से अधिक है। उन के कुछ वीडियो लाखों लोगों ने देखे हैं।
अनेक मुलहिदों के नियमित कार्यक्रम यू-ट्यूब पर आते हैं। उन में ‘स्पार्टाकस एक्स-मुस्लिम’, गालिब कमाल, और हैरिस सुलतान के हजारों नियमित दर्शक हैं। इन में अधिकांश मुसलमान ही होंगे। जो अब तक इस्लाम के प्रति आलोचनात्मक विचारों को सुनने से बचा कर रखे गए थे। उन के प्रश्न दबाए या झूठी बातों से ठंढे किये जाते थे। अब इंटरनेट के कारण वे बैठे-बैठे सारा सच-झूठ परख सकते हैं।
दूसरे, विविधता के आदर में वैचारिक विविधता का आदर भी है। इसलिए मुसलमानों में भी नास्तिकों, स्वतंत्र विचार के लोगों, और इस्लाम की आलोचना करने वालों का भी स्थान होना चाहिए। तभी मुसलमानों की उन्नति होगी। उन का समाज सहज, स्वस्थ, विकासशील बनेगा। जैसे मध्य युग में यूरोप में चर्च क्रश्चियनिटी की जकड़ से निकलने के बाद यूरोप की उन्नति हुई।
इसी प्रक्रिया का एक दस्तावेज पाकिस्तानी मूल के ऑस्टेलियाई लेखक हैरिस सुलतान की चर्चित पुस्तक ‘द कर्स ऑफ गॉड: ह्वाय आई लेफ्ट इस्लाम’ (Xlibris.com.au, ऑस्टेलिया, 2018) है। इस की भूमिका में अली अमजद रिजवी ने लिखा है कि जैसे छापाखाने के आविष्कार ने बाइबिल के आलोचनात्मक विमर्श का रास्ता खोला, उसी तरह इंटरनेट ने कुरान को सबके समझने के लिए खोल दिया है। सन् 1980 के दशक तक स्थिति यह थी कि सभी पाकिस्तानी मुस्लिम घरों में कुरान रखा रहता था, पर किसी को मालूम न था कि उस में क्या है। अधिकांश कुछ उड़ती-उड़ती बातें ही जानते थे। उतना ही जितना मौलवी बताते थे। फिर, अरबी कुरान का अनुवाद भी गोल-मोल रहता था, ताकि कुछ बातें दबी रहें। जिसे जानकर किसी भले आदमी को धक्का लग सकता था। खासकर गैर-अरब देशों में, जहाँ मुसलमानों में अपने देशों की पंरपरा के कई मानवीय मूल्य प्रतिष्ठित थे।
रिजवी ध्यान दिलाते हैं कि जब यूरोप के मध्य युग में क्रिश्चियनिटी को चुनौती दी गई, तो उसे ‘नवजागरण’ का युग कहा गया। उस का लाभ नए चिंतन, और आविष्कारों के रूप में यूरोप और सारी दुनिया को मिला। अब वही चीज मुस्लिम समाज में हो सकने को कोई और नाम देना अनुचित है। हैरिस सुलतान ने इस्लामी सिद्धांतों की आलोचना नास्तिकवादी नजरिए से की है। वे सभी रिलीजनों को मनुष्य के विकास में बाधा मानते हैं। उन में वैज्ञानिकों वाली प्रश्नाकुलता है, जिस से वे बचपन से ही इस्लामी विश्वासों पर भी प्रश्न पूछते थे। जैसे, हर चीज को अल्लाह ने बनाया, तो अल्लाह को किस ने बनाया? इस के उत्तरों से उन्हें संतुष्टि नहीं होती थी। ज्यादा पूछने पर माँ उन्हें चुप रहने कहतीं, नहीं तो ‘कोई तुम्हें मार डालेगा।’
बड़े होने पर हैरिस ने इस्लामी किताबों को खुद पढ़ा तो एक अनोखी चीज पाई। अच्छे-अच्छे पाकिस्तानी अपने काम और जीवन-मूल्यों में अनेक बिन्दुओं पर वस्तुतः इस्लाम-विरोधी हैं। लेकिन अपने को विश्वासी मुसलमान समझते हैं। उन में नेता, व्यापारी, खिलाड़ी, कलाकार, किसान, आदि हर तरह के लोग हैं। वे ऐसे कई विचारों के हामी हैं, जो शरीयत विरुद्ध है। पर उन्हें पता नहीं कि वे विचार शरीयत यानी इस्लाम के विरुद्ध हैं।
हैरिस की दलील है कि ऐसे बीच-बीच के मुसलमानों को या तो इस्लाम से मुक्त होना चाहिए, या फिर तालिबान, इस्लामी स्टेट की तरह पक्का मुसलमान बनना चाहिए। अभी वे दोहरा जीवन जी रहे हैं। विश्वास में वे मुसलमान है, परन्तु रुचि में मानवतावादी हैं (इसी को तबलीगी, देवबंदी, वहाबी, आदि जमातें ‘काफिर’ प्रभाव कहकर उन्हें पक्का मुसलमान बनाने में लगी रही हैं)। हैरिस के अनुसार यदि कोई अल्लाह है, तो वह इस से तो खुश नहीं होगा कि आप उस की कुछ बात मानें और बाकी बातें छोड़ दें। इसलिए मुसलमानों को अंततः विवेक और इस्लाम के बीच चुनाव करना होगा।
इस्लाम में स्वतंत्र चिंतन की मांग
हैरिस सुलतान की पुस्तक ‘द कर्स ऑफ गॉड: ह्वाय आई लेफ्ट इस्लाम’ में वैज्ञानिक तर्कों से इस्लामी विचारों और परंपराओं की समालोचना है। उन की पड़ताल के बिन्दु हैं – 1. क्या अल्लाह के होने का कोई सबूत है? 2. क्या इस्लाम में बताई गई नैतिकता अच्छी है? 3. क्या इस्लाम में दी गई जानकारियाँ सही हैं ?
उन्होंने पाया कि अल्लाह की तमाम बातों से तो बच्चे जैसी वह मानसिकता मालूम होती है, जो मामूली बात पर भी रूठने, चिल्लाने, धमकी देने लगता हो: ‘मेरी पूजा करो, वरना मार डालूँगा’! उस में अपना अस्तित्व दिखा सकने की भी क्षमता या बुद्धि नहीं है। अल्लाह छिपा हुआ है, मगर शिकायत करता है कि हम उसे नहीं मानते। फिर इस गॉड, यहोवा या अल्लाह ने अपने संदेशवाहक (प्रॉफेट) को एक नामालूम से अरब क्षेत्र में ही क्यों भेजे? बड़े-बड़े इलाकों अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, चीन, आदि में रहने वाले करोड़ों लोगों को संदेश देना क्यों नहीं सूझा? इन महाद्वीपों ने तो सदियों तक मुहम्मद का नाम भी नहीं सुना। तब उन करोडों निर्दोष लोगों को अल्लाह ने अपने संदेश से वंचित, और इस प्रकार, इस्लाम न मानने से जहन्नुम का भागी क्यों बनाया? अतः या तो इस्लाम न मानने में कोई बुराई नहीं, न कोई जहन्नुम है, या फिर अल्लाह को ही दुनिया का पता नहीं है!
फिर, कुरान स्पष्ट नहीं है। सुन्नी और शिया अपना-अपना मतलब निकालते हैं। दोनों सही नहीं हो सकते। यह शुरू से चल रहा है। यानी कुरान आसानी से गलत समझी जा सकती है। यह कोई बढ़िया किताब होने का सबूत नहीं। इसे कमजोर तरीके से लिखा गया, या इस की बातें ही कमजोर हैं। तथ्यगत जानकारियों की दृष्टि से भी कुरान में कोई ऐसा ज्ञान नहीं जिससे वैज्ञानिक, चिंतक, आविष्कारक जैसे लोग बन सकें। एक ओर दावा है कि उस में सारी साइंटिफिक बातें हैं, दूसरी ओर सदियों से दुनिया में कभी कोई मुस्लिम साइंटिस्ट नहीं बना। जो इक्के-दुक्के हुए भी, वे काफिर देशों में, काफिरों की संस्थाओं में पढ़कर, काफिर साइंटिस्टों की सोहबत में ही हुए। यह दिखाता है कि इस्लामी किताबें दुनिया के बारे में भी सही जानकारियों से खाली हैं।
यह तथ्य उस दावे को भी काटता है कि सारी दुनिया, धन-संपत्ति, बढ़िया चीजें, अल्लाह ने मुसलमानों के लिए बनाई हैं। वास्तव में यह सब काफिरों को ही सदिय़ों से, इस्लाम से पहले से और आज भी हासिल हैं। अल्लाह के अनुसार चलते हुए मुसलमानों ने अपने बूते कभी कुछ नहीं बनाया, न आज बना पाते हैं। जबकि बिना अल्लाह की परवाह किए, स्वतंत्र चिंतन और वैज्ञानिक शोध से हर तरह के काफिरों ने सैकड़ों आविष्कार किए, नई तकनीकें और बेहतरीन चीजें बनाईं। इस्लाम से पहले भी और आज भी। काफिर सारी दुनिया में हर क्षेत्र में उपलब्धियाँ हासिल करते रहे हैं। मुसलमान ऐसा क्यों नहीं कर सके?
उलटे ठीक अरब, जहाँ अल्लाह के संदेश और संदेशवाहक मुहम्मद आए, जहाँ अरब को शत-प्रतिशत इस्लामी बनाकर वहाँ से यहूदियों, क्रिश्चियनों और पगानों (अनेक देवी-देवताओं को मानने वाले) को मार भगाया या खत्म किया गया – वही अरब सब से पिछड़े और कमजोर बने रहे! वह भी सदियों से लगातार। इस का संबंध इस्लामी विचार-व्यवहार से है, वरना दक्षिण कोरिया एक मामूली पिछड़े गाँव जैसी चीज से पचास वर्ष में विश्व का एक तकनीकी सुपरपावर बन गया! अब मुसलमान भी इसे समझने लगे हैं कि इस्लाम वैज्ञानिक, तकनीकी, आर्थिक, और सांस्कृतिक पिछड़ेपन का एक कारक है।
सो, कई कारणों से मुसलमानों में मुलहिद बढ़ रही है। एक आकलन से पाकिस्तान में 40 लाख, तुर्की में 48 लाख, मलेशिया में 18 लाख, और सऊदी अरब में 16 लाख लोग नास्तिक हैं। वे स्वतंत्र चिंतन की आजादी की माँग कर रहे हैं। यह सरासर अनुचित है कि कोई इस्लाम न माने, तो उसे मार डालें। यह इस्लाम की कुंठा, टैबू भी दिखाता है। वह सवालों को प्रतिबंधित रखना चाहता है। खुला विचार-विमर्श ही इस अटपटेपन का इलाज है।
हैरिस एक महत्वपूर्ण तथ्य पर ध्यान दिलाते हैं। कई बर्बर प्रथाओं का मजाक उड़ाते रहने से ही अंततः उसे छोड़ा गया। सऊदी अरब में स्त्रियों को जो अधिकार मिल रहे हैं, वह दुनिया हँसी उड़ने से ही संभव हुआ कि स्त्री कार क्यों नहीं चला सकती? दफ्तरों में काम क्यों नहीं कर सकती? अकेले बाजार क्यों नहीं जा सकती? इसलिए व्यर्थ इस्लामी विचारों की आलोचना करना, उन का मजाक बनाना अच्छा है। इस से मुस्लिम शासकों पर मानवीयता का दबाव पड़ता है। इस्लाम के ‘सम्मान’ के नाम पर चुप्पी, या आलोचकों को दंडित करना, मुसलमानों की हानि ही करना है जो अनुचित बंधनों में जकड़े रखे गए हैं। अपनी पुस्तक के औचित्य में हैरिस पूछते हैं कि मुसलमानों को क्या अधिकार है कि वे तो दूसरों को उपदेश देंगे, पर दूसरे उन्हें उपदेश नहीं दे सकते? यदि मुसलमान समझते हैं कि वे सही हैं, और दूसरे गलत, तो इस की जाँच-पड़ताल चलनी चाहिए। तब हो सकता है कि उलटा ही निष्कर्ष मिले।
हैरिस की पुस्तक का बड़ा हिस्सा कुरान में तथ्य जैसी बातों का वैज्ञानिक विश्लेषण है। अन्य हिस्से में सामाजिक, बौद्धिक दावों और इतिहास की समीक्षा है। जैसे, इस्लामी विद्वानों का यह कहना गलत है कि इस्लामी विचार बदले नहीं जा सकते क्योंकि वे ‘अल्लाह के शब्द’ हैं। लेकिन वही विद्वान इस्लामी किताबों में दी गई गुलामी, सेक्स-गुलामी, पत्नी को मारने-पीटने वाले निर्देश, आदि की आज भिन्न व्याख्या करने की कोशिश करते हैं। यह 150 साल पहले नहीं होता था। उन बातों को जस का तस रखा, बताया, समझाया जाता था। लेकिन अब उस से इंकार करते हुए घुमावदार बातें होती हैं। यहाँ तक कहा जाता जाता है कि प्रोफेट मुहम्मद ने ही गुलामी खत्म की! यह न केवल गलत है, बल्कि सौ साल पहले तक किसी इस्लामी व्य़ाख्या में नहीं कहा जाता था। यह एक उदाहरण भर है।
वस्तुतः कुरान और सुन्ना के अनेक कायदे कई मुस्लिम देशों में छोड़े जा चुके। पाकिस्तान या तुर्की के जीवन में संगीत और कला की आम स्वीकृति इस्लाम-विरुद्ध है। पर बदस्तूर चल रही है। यह साबित करता है कि इस्लामी विचार बदले जा रहे हैं, चाहे वे अल्लाह के निर्देश हों या न हों। इस्लाम में एक मात्र ईनाम या उपलब्धि है – मरने पर जन्नत जाना। अल्लाह या प्रोफेट ने यही कहा है। इस के अलावा इस दुनिया में काफिरों को हराकर उन का माल, और उन की स्त्रियों, बच्चों को गुलाम बना कर बेचने से मिला गनीमा। बस। लेकिन उस जन्नत के अस्तित्व का, या वह केवल मुसलमानों के लिए रिजर्व होने का सबूत क्या है? शून्य। तब इस्लाम के लिए सारी लड़ाई, छल-प्रपंच, आदि करते रहना कौन सी बुद्धिमानी है!
हैरिस मुसलमानों को कहते हैं कि उस काल्पनिक जन्नत के लिए इस्लाम द्वारा हराम ठहराई गई सभी चीजों: संगीत, कला, किसी से दोस्ती चाहे वह कोई भी धर्म माने या नास्तिक हो, मिल-जुल कर रहने, आदि से वंचित रहना बेतुकी बात है! अपने पिता और भाई को भी ठुकराएं, यदि वह इस्लाम न मानें (कुरान, 9-23)। इस तरह, आप दुनिया की आधी आबादी को सताने की ठाने रहें, ताकि आप को जन्नत मिले, बड़ी बेढ़ब सीख है। महान लेखक अनातोले फ्रांस को उद्धृत करते हैरिस कहते हैं, ‘‘यदि 5 करोड़ लोग भी कोई मूर्खतापूर्ण बात कह रहे हों, तब भी वह बात मूर्खतापूर्ण ही रहेगी।’’
प्रोफेट मुहम्मद की जीवनी अनुकरणीय नहीं
इस्लामी सीखों में बेढ़ब बातें अपवाद नहीं हैं। उन्हें सारी मानवजाति और ‘सदा के लिए’ एक मात्र ‘अनुकरणीय’ बताया जाता है! स्त्रियों के प्रति व्यवहार लें। कुरान के अनुसार स्त्रियों पुरुषों की मनमानी भोग्या, सेविका भर हैं, क्योंकि पुरुष ‘उन का खर्चा उठाता’ है। इसलिए लगे कि स्त्री सही व्यवहार नहीं कर रही, तो पुरुष उसे पीट सकता है (कुरान, 4-34)। हदीसों में मुहम्मद ने कहा है कि स्त्री को पीटने के लिए पुरुष से कारण नहीं पूछा जा सकता। फिर, स्त्रियों को बुर्का पहनना इसलिए जरूरी है, कि ‘उन्हें पहचान कर सताया न जाएगा।’ (कुरान, 33-59)। मानो बाकी को सताना ठीक हो!
स्त्री-संबंधी इस्लामी निर्देश बड़े हीन और वस्तुवाचक हैं। वह पुरुष के जूते, फर्नीचर, जैसी है जिसे इच्छानुसार रखा जा सकता है। जहाँ पसंद आ जाए उसे लाया, फेंका, बाँटा, भोगा जा सकता हैं। यह अल्लाह का कहना है! (कुरान 33-37, 4-24)। अपनी बीवी को इसलिए भी तलाक दे सकते हैं क्योंकि बाप को पसंद आ गई। ताकि बाप उससे शादी कर सके। बीवियों के साथ-साथ गुलामों, कब्जा की गई दूसरों की स्त्रियों को भी भोगने की मंजूरी है। यह सब ‘सदा के लिए अल्लाह के नियम’ कहना आज इस्लामी विद्वानों को भी संकोच में डलाता है। इसलिए वे इन की गोल-मोल व्याख्या करते हैं।
यह सब कायदे प्रोफेट मुहम्मद के अनुकरण पर आधारित हैं। कुरान में अधिकांश प्रसंग मुहम्मद के जीवन से जुड़े हैं। उन की जीवनी जानने वाले उसे अधिक समझ सकते हैं। पहली बीवी खदीजा के देहांत के बाद मुहम्मद ने जीवन के अगले 13 वर्षों में 23 स्त्रियों के साथ शादी की या भोग किया। सभी का सिलसिलेवार वर्णन हैरिस ने अपनी पुस्तक ‘द कर्स ऑफ गॉड: ह्वाय आई लेफ्ट इस्लाम’ में किया है (पृ. 86-101)। कुछ संबंध ऐसे भी थे, जिन्हें सही ठहराने हेतु मुहम्मद को इलहाम हुआ, यानी अल्लाह ने आयत भेजी। ऐसी ही एक आयत (कुरान, 33-51) पर मुहम्मद की सब से पसंदीदा बीवी आएशा ने मानो तंज करते कहा कि ‘‘लगता है अल्लाह आपकी इच्छाओं, कामनाओं को पूरा करने के लिए अधीर रहता है।’’ (सहीह बुखारी, 6-60-311)। मुसलमानों में गोद न लेने की परंपरा भी मुहम्मद के एक प्रसंग से जुड़ी है। नतीजन मुस्लिम विश्व में लाखों बच्चे सदैव यतीम के यतीम बने रहते हैं। उन्हें कोई गोद नहीं ले सकता, क्योंकि इस्लाम में इस की मनाही है!
इस प्रकार, स्त्रियों, बच्चों, और परिवार का इस्लाम में बहुत नीचा स्थान है। इस के लिए दी गई दलीलें मुहम्मद के समय भी सबको ठीक नहीं लगती थी। गुलाम स्त्रियों, और कब्जा की गई काफिरों की स्त्रियों से किसी मुसलमान का संभोग करना जायज कहा गया। इस की मंजूरी हदीस में है, पर उस से पैदा होने वाले अवैध बच्चे पर कुछ नहीं मिलता, कि उन का क्या होना है? स्पष्टतः उन बलात्कारों से उत्पन्न अनिच्छित, बेपहचान बच्चों की कोई फिक्र अल्लाह या प्रोफेट को नहीं थी। स्त्रियों, बच्चों के प्रति ऐसा दृष्टिकोण कैसा धर्म है – यह पूछना क्या मनुष्य का अधिकार नहीं?
दूसरी ओर, कुरान की उस दलील को परख सकते हैं कि स्त्रियाँ न केवल आत्मनिर्भर हैं, बल्कि वे हजारों पुरुषों को नौकरी दे सकती हैं। अतः कुरान की बातें ‘सदा के लिए’ सही नहीं हैं। (इस्लाम से पहले भी स्वतंत्र कारोबार चलाने वाली स्त्रियाँ अरब में थीं। खुद मुहम्मद ऐसी ही एक स्त्री खदीजा के कर्मचारी थे, जिस ने बाद में उन से विवाह कर लिया। खदीजा का प्रभाव ही था कि प्रोफेट बन जाने के बाद भी खदीजा के जीवित रहते अगले 25 वर्षों तक मुहम्मद दूसरी बीवी नहीं लाए। जबकि उन के गुजरते ही कुछ ही वर्षों में अनेकानेक बीवियाँ आ गईं।)
इसी तरह, बुर्के का तर्क भी विचित्र है। किसी लोभी की नजर न पड़े, इसलिए मुसलमान स्त्रियाँ बुर्का पहनें कुछ ऐसा ही है मानो अपनी कार हमेशा ढँके रखें ताकि चोर न देखे। या धन नहीं कमाएं, ताकि लुटेरे छीन न लें। पर ऐसी ही विचित्र, और डराने वाली दलीलें ही इस्लाम में भरी हैं। अनेक निर्देशों के साथ केवल डर और धमकी का तर्क है।
गैर-मुसलमानों यानी काफिरों के लिए इस्लामी सिद्धांत-व्यवहार सबसे क्रूर हैं। उन के ‘गले में रस्सी’ व ‘जंजीर’ बाँधने, ‘खौलते पानी और आग में डालने’ की बातें हैं। (कुरान, 40-70, 71, 72)। सिर्फ इसलिए कि वे अन्य धर्म मानते हैं। यह ‘सदा के लिए अल्लाह का नियम’ तो दूर, उस समय भी अनुचित था, जब इसे अरबों पर लादा गया। असंख्य आयतें काफिरों पर हिंसा से भरी हुई हैं (कुरान, 22-19,20, 22)। हैरिस के अनुसार, ‘जहन्नुम की आग’ वाली धमकी और वर्णन लगभग 500 आयतों में हैं। लगभग 36 आयतों में काफिरों से लड़कर उन्हें मुसलमान बनाने के आवाहन हैं। (पृ. 74)
यह सब किसी सर्वशक्तिमान अल्लाह के नाम पर बैसिर-पैर की बातें लगती हैं। उपमा देते हुए हैरिस लिखते हैं कि यह ऐसा ही है कि कोई आदमी जाकर चींटियों की बाँबी में इसलिए आग लगा दे क्योंकि उस के पहुँचने पर चींटियों ने बाहर निकल कर उस की जयकार नहीं की। इस्लामी निर्देशों को अनुपयुक्त ठहराने वाले हैरिस के तर्क विश्वासी मुसलमानों के लिए भी विचारणीय हैं। (पृ. 79-81)।
प्रोफेट मुहम्मद को मानवता के लिए सर्वश्रेष्ठ अनुकरणीय व्यक्ति मानने को हैरिस ने अज्ञान से जोड़ा है। पाकिस्तान (भारत भी) में मुस्लिम बच्चों को मुहम्मद की उदारता के बारे में झूठी कहानियाँ सुनाई जाती हैं। जब हैरिस ने उन कहानियों की खोज की तो उलटा पाया, जिसे जानकर उन्हें बड़ा धक्का लगा। (पृ. 82-85)। दयालुता के बदले भयंकर क्रूरता, जिस में दूध-पीते बच्चे की माँ असमा बिन्त मरवान को सोते हुए में मार डालना भी था। बेचारी का कसूर सिर्फ यह था कि उस ने मुहम्मद की आलोचना में एक कविता लिखी थी! ऐसे सभी कवि, आलोचक चुन-चुन कर मुहम्मद के हुक्म से मार डाले गए। तब मृतकों के परिवार वाले मुसलमान बन गए। यह शुरु से ही आतंक द्वारा इस्लाम फैलाने का सबूत है।
ऐसे कई विवरण देकर हैरिस कहते हैं कि अनेक आधुनिक मुसलमान अज्ञान के कारण इस्लाम को ‘शान्ति का मजहब’ कहते हैं। वे इतिहास नहीं जानते। हैरिस ने अपने परिवार के लोगों, दोस्तों, आदि ने असमा बिन्त मरवान जैसे लोगों का नाम लेकर पूछा कि क्या वे उन के बारे में जानते हैं? सब ने इंकार किया। लेकिन मुहम्मद की दयालुता वाली वह झूठी कहानी सब जानते थे! हैरिस के अनुसार, ‘‘मुसलमानों को नियोजित रूप से झूठी बातें सिखाई जाती हैं। जब तक वे सचाई जानने में समर्थ होते हैं तब तक उन की दिलचस्पी खत्म हो चुकती है।’’(पृ. 86)
प्रोफेट मुहम्मद की जीवनी पढ़कर सामान्य मुसलमान को भी कहने में दो बार सोचना पड़ेगा कि वे पूरी मानवता के, सदैव अनुकरणीय, त्रुटिहीन मॉडल थे। आज के पैमाने से तो उन्हें अच्छा कहना भी मुश्किल है। सैन्य जीत, राज्य विस्तार, नरसंहार, बाद में भी मुहम्मदी अनुयाइयों द्वारा काफिरों पर हमले कर-करके बड़ी संख्या में उन की सभ्यता, संस्कृति, चर्च, मंदिर, पुस्तकालय, विश्वविद्यालय, आदि का नाश करके उन्हें मार डालना या जबरन मुसलमान बनाना, आदि सदियों के इतिहास में कुछ भी अनुकरणीय नहीं है। वैसी सीखें ठुकराने का हक मुसलमानों को होना चाहिए। यही हैरिस की माँग है।
कुरान और हैरिस के कई प्रश्न
हैरिस की रुचि वैज्ञानिक विश्लेषण में है। इसीलिए ‘द कर्स ऑफ गॉड: ह्वाय आई लेफ्ट इस्लाम’ में इस पर केंद्रित अध्याय काफी मौलिक है। मुसलमानों को बताया गया है कि कुरान दुनिया की सर्वश्रेष्ठ किताब है, जिस में अल्लाह के शब्द हैं। इसलिए उस में न कोई गलती है, न उस में कुछ बदला या छोड़ा जा सकता है। इस दावे के मद्देनजर यदि कुरान में एक भी आयत में गलती या छोड़ने लायक चीज मिले – तो पूरा दावा गलत साबित होगा। इस परीक्षण में हैरिस कई प्रश्न उठाते हैं।
एक, दुनिया में अनेक अनूठी पुस्तकें कुरान से पहले और बाद भी लिखी गई। उन पुस्तकों में गुलामी, भिन्न विचार वालों को मारना, स्त्रियों पर जबरदस्ती, मनमानी हिंसा, अपशब्द, डरना-डराना, आदि कुछ नहीं है। इस के बदले ऐसी सुंदर दार्शनिक बातें हैं जो हजारों वर्ष बाद भी आज ऊँची समझ और आनन्द देती है। वह तनिक भी पुरानी नहीं लगती और उस में कुछ भी छोड़ने लायक नहीं मिलता। वे बातें बिल्कुल साफ हैं जिन्हें समझने में किसी पुनर्व्याख्या की जरूरत नहीं पड़ती। तो कौन सी पुस्तक श्रेष्ठ है?
दूसरे, यदि अल्लाह सर्वशक्तिमान है तो उस ने अपना संदेश देने के लिए एक छोटा, नामालूम सा अरब क्षेत्र और मनुष्य के माध्यम से मौखिक बोल-बोल कर व्यक्तियों को संदेश दिलवाने की पद्धति क्यों चुनी? आज कोई वीडियो बनाता है, जो एक दिन में दुनिया भर में लाखों लोगों तक पहुँच सकता है। सो पहले तो अल्लाह ने अमेरिका, चीन, भारत, जैसे विशाल समाजों को छोड़ कर एक अत्यंत छोटे से अरब समूह को क्यों चुना। फिर, क्या उस के पास कोई तकनीक नहीं थी जो आज मामूली इंसानों के पास है, कि एक ही बार में संदेश सारी दुनिया में और सीधे पहुँच जाए? यदि अल्लाह भी मनुष्य की तकनीकी सीमा से बाधित और निर्भर है, तो वह सर्वशक्तिमान नहीं है।
तीसरे, जिहाद वाली आयतों पर दोहरे-तिहरे अर्थ क्यों निकाले जाते हैं? जैसे, ‘‘अल्लाह की राह में युद्ध करो, और जान लो कि अल्लाह सुनने वाला और जानने वाला है।’’ (कुरान, 2-244)। इस्लामी स्टेट वाले मौलाना इस का अर्थ काफिरों पर चढ़ाई करना, और कोई अन्य मौलाना अपनी रक्षा करना बताते हैं। अपनी-अपनी पसंद, या समय स्थान देख कर इस का अर्थ बदला जाता है। क्या अल्लाह टॉल्सटॉय या आइंस्टीन की तरह ऐसे वाक्य नहीं बोल सकता जिस के अर्थ पर कोई शक-शुबहा न हो?
चौथे, पृथ्वी और ग्रहों के निर्माण, सूरज के डूबने की जगह, धरती का आकार, मनुष्य के जन्म की प्रक्रिया, आदि संबंधी तथ्यगत गड़बड़ियाँ भी मिलती हैं। इस पर मौलाना और विश्वासी मुसलमान आज की दृष्टि से उस की सफाई देते हैं। यह तो अल्लाह के बदले, मनुष्य का विचार उस में डालने जैसा है।
पाँचवें, जिन आयतों को बाद में ‘शैतानी’ कह कर मुहम्मद ने खारिज किया था (कुरान, 53-20,21 के बीच में वे आयतें थीं), वह मुहम्मद से गलती होने का खुला सबूत है। एक गलती प्रमाण है कि उस के अलावा भी गलतियाँ रही हो सकती हैं। फिर, बाद में मंसूख, निरस्त की गईं आयतें, एक ही विषय पर ‘उस से अच्छी’ आयतें, और अल्लाह की टिप्पणी (कुरान, 2-106), आदि खुद मानती हैं कि पहले वाली आयतें उतनी अच्छी नहीं थीं। तभी तो बाद वाली आयतों के ‘और अच्छे’ होने की दलील दी गई। जानकारों के अनुसार, कुरान में कुल 564 आयतें मंसूख की गई बताई जाती हैं (पृ. 170)। अतः अल्लाह का संदेश भेजना और / अथवा मुहम्मद का सुनना, कहना त्रुटिहीन नहीं था। तब कुरान और मुहम्मद को त्रुटिहीन कैसे कहा जा सकता है?
इन सब के मददेनजर भी अल्लाह के होने, और उस की सर्वशक्तिमानता पर संदेह होता है। हैरिस के हिसाब से अल्लाह सीधे मनुष्यों से संवाद नहीं कर सकता, सो अपना प्रोफेट भेजता है। वह प्रोफेट सदैव जिन्दा नहीं रहेगा, सो वह एक किताब छोड़ जाता है। वह किताब बार-बार विकृत या उस की नई-नई व्याख्या होती है। अतः अल्लाह के संदेश के कई अर्थ बन जाते हैं। विविध ईमाम, मौलाना अपनी-अपनी व्याख्या को ‘अल्लाह का असली संदेश’ कहते हैं। यह देखते हुए तो आज मनुष्यों ने बेहतर काम कर दिखाया जिन के बनाए सॉफ्टवेयर हू-ब-हू संदेश रिकॉर्ड करते हैं जो शायद ही विकृत होते हैं।
फिर, प्रोफेट मुहम्मद के क्रिया-कलापों के भंडार में अनेक बातों की लीपा-पोती की जाती है। इतिहास में किसी मनुष्य के बारे में इतनी जानकारियाँ उपलब्ध नहीं हैं, जितनी मुहम्मद के बारे में। वे कैसे सोते थे, किस पैर में जूता पहले डालते थे, कैसे इत्र लगाते थे, किस चीज पर क्या राय रखते थे, आदि आदि। मुहम्मद के कार्यों में बहुतेरी ऐसी हैं जिन्हें उस समय भी सब ने उचित नहीं माना था। आज भी उन बातों को नजरअंदाज करने या औचित्य दिखाने के लिए तरह-तरह की बौद्धिक कलाबाजी होती है। जैसे, किसी के साथ समझौता मनमर्जी तोड़ देना; अपनी राह जा रहे काफिले को लूट लेना; निःशस्त्र असहाय लोगों का सामूहिक कत्ल करना; किसी को क्रूर यातना देकर मारना; धोखे से किसी को खत्म करवाना; हराए गए लोगों की बीवियों के साथ उन के सामने ही बलात्कार को नजरअंदाज करना; ऐसे बलात्कारों से उत्पन्न अवैध सन्तानों के भवितव्य पर कुछ न कहना; काबा के शान्ति-क्षेत्र होने के पुराने पारंपरिक नियम का उल्लंघन करना; स्त्रियों पर पुरुषों के मनमाने वर्चस्व का कायदा बनाना; आदि। ये सब प्रोफेट मुहम्मद की जीवनी और सब से प्रमाणिक हदीसों में दर्ज हैं। कई बातें अनेक बार दुहराई मिलती हैं। इन में कितनी बातों से मानवता के लिए सदा-सर्वदा अनुकरणीय सर्वश्रेष्ठ पुरुष की छवि पुष्ट होती है?
पुस्तक का एक अत्यंत प्रासंगिक अध्याय ‘इस्लामोफोबिया’ पर है (पृ. 184-94)। यह शब्द आज पूरे लोकतांत्रिक विश्व में मंत्र-सा रटा जाता है, लेकिन पूर्णतः गलत है। ‘फोबिया’ ऐसे भय को कहते हैं जो किसी भ्रम से होता हो। जैसे, किसी को पानी से या अंधेरे से डर लगे। लेकिन इस्लाम से भय तो वास्तविक है! दुनिया के कोने-कोने में जिहादी कुरान का नाम ले-लेकर धोखे से हमला कर सैकड़ों, हजारों की जान लेते रहते हैं। किसी जाँच में अपवाद नहीं मिला कि इस्लामी विश्वास और कुरान केवल बहाना था, असली मकसद कुछ और था। बड़े-बड़े जिहादी नेताओं ने खुद चिट्ठी या दस्तावेज प्रकाशित करके केवल इस्लामी विश्वासों की बात की है। फिर, असंख्य इस्लामी संस्थाएं, संगठन दुनिया से काफिरों को मिटा कर खालिस इस्लामी राज बनाने की घोषणा करते हैं। यही शिक्षा अपने हजारों मदरसों में देते हैं। तालिबान और इस्लामी स्टेट ने आज भी पुरानी सांस्कृतिक धरोहरों को वैसे ही नष्ट किया, जैसे सदियों पहले गजनवियों, खिलजियों, मुगलों ने किया था। स्त्रियाँ उसी तरह वस्तु की तरह उठाई, रौंदी जातीं हैं, जो इस्लामी इतिहास में शुरू से मिलता है।
तब इस्लाम से भय को ‘फोबिया’ कैसे कहा जा सकता है? यह तो मानवता के लिए सचमुच डर का विषय है। कई मुस्लिम देशों में भी मुस्लिम ब्रदरहुड, अल कायदा, तबलीगी जमात, जैसे इस्लामी संगठन प्रतिबंधित हैं। किसी भी स्त्री को इस्लाम से डर लगेगा! मारने-पीटने के निर्देश और स्त्रियों के प्रति व्यवहार के विवरण मूल इस्लामी किताबों में हैं। उसे इस्लामी शासक या मौलाना आज भी लागू करते हैं। अतः किसी स्त्री को इस्लाम से डर न लगना ही अस्वभाविक बात होगी। बशर्ते, वह इस्लामी सिद्धांत और इतिहास जानती हो। इसी प्रकार, इस्लाम छोड़ने वाले मुलहिदों, और मुनाफिकों को भी डर लगेगा। क्योंकि इस्लाम उन्हें मार डालने का हुक्म देता है। काफिरों को तो डरना ही है क्योंकि इस्लाम का उद्देश्य ही उन्हें खत्म करना है। इसलिए, ‘इस्लामोफोबिया’ एक गलत दलील है, जिस की आड़ में इस्लाम पर विचार-विमर्श को बाधित किया जाता है।
असलियत के लिए मूल इस्लामी किताबे पढ़े
'इस्लामोफोबिया’ एक झूठा शब्द है, जिसे अनजान लोगों को बरगलाने के लिए गढ़ा गया। अनजान लोगों में असंख्य भले मुसलमान भी हैं जिन्हें झूठी बातों से गैर-मुसलमानों के विरुद्ध भड़काया जाता है। भारत-पाकिस्तान इस के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं, जहाँ पिछले सौ साल से हिन्दुओं का भयावह संहार होता रहा है। पिछले 75 सालों में लगभग आधा भारतवर्ष हिन्दुओं से खाली कराया जा चुका। बचे भारत में भी निरंतर जिहाद चल रहा है। फिर भी, दोनों देशों में मुसलमानों को विविध प्रकार की झूठी बातों से हिन्दुओं के विरुद्ध शिकायतों से भरा जाता है। इस में सबसे बड़ा कारण वह अज्ञान है, जिस में आम मुसलमान डूबे हुए हैं।
इस का एक उदाहरण हैरिस की पुस्तक ‘द कर्स ऑफ गॉड: ह्वाय आई लेफ्ट इस्लाम’ में है। (पृ. 187-88)। कुछ पहले प्यू रिसर्च सेंटर ने पाकिस्तानियों के सर्वे में पाया कि 84% मुसलमान शरीयत के पक्ष में हैं। लेकिन जो पार्टियाँ शरीयत सचमुच लागू करना चाहती हैं, उन्हें 5 या 7 % से अधिक वोट नहीं मिलते। क्योंकि आम मुसलमानों ने शरीयत का अपना खयाली अर्थ बनाया हुआ है। जब पक्की इस्लामी पार्टियाँ उन्हें शरीयत बताती हैं, तो उन्हें ‘कट्टरपंथी’ कहकर अधिकांश पाकिस्तानी दूर रहते हैं। सर्वे में मात्र 9 % पाकिस्तानी लोग इस्लामी स्टेट के समर्थक मिले, जो सचमुच इस्लाम को हू-ब-हू लागू कर रहा था। वह भी उसे अपने शब्दों में ‘प्रोफेट मेथडोलॉजी’ से। यानी जैसा प्रोफेट मुहम्मद ने किया था। लेकिन 28 % पाकिस्तानी इस्लामी स्टेट के विरुद्ध थे, और 62 % पाकिस्तानी इस से अनभिज्ञ थे कि इस्लामी स्टेट सचमुच इस्लामी है या नहीं। इसी प्रकार, 72 % पाकिस्तानी तालिबान के विरोधी मिले। जबकि तालिबान प्रोफेट मुहम्मद के पक्के इस्लाम की तुलना में नरम ही है। यही स्थिति इंडोनेशिया में मिली जहाँ 72 % लोग शरीयत के पक्षधऱ हैं, मगर केवल 4 % ने इस्लामी स्टेट का समर्थन किया था।
यह विडंबना समझने की है। यदि आप इस्लाम के पक्के समर्थक हैं तो आपको इस्लामी स्टेट जैसी सरकार ही चुननी होगी। लेकिन आम मुसलमान, विशेषकर गैर-अरब देशों के मुसलमान पूरी तरह इस्लाम को नहीं जानते। मौलाना वर्ग उन्हें कटा-छँटा इस्लामी सिद्धांत, और झूठा इतिहास वर्तमान बताकर अपने बस में रखता है। झूठी बातों से उन में शिकायत, नाराजगी और लड़ाकूपन बनाए रखता है। यह सब इस्लामी राजनीति बढ़ाने की रेडीमेड पूँजी-सी इस्तेमाल होती है।
दूसरी ओर, इस्लाम से पूर्णतः अनजान गैर-मुस्लिम लोग उन शिकायतों, नाराजगी के दबाव और सहानुभूतिवश उन्हें सुविधाएं देते जाते हैं। इस तरह, अंततः अपने ही खात्मे का इंतजाम करते हैं। यह उन सभी लोकतांत्रिक देशों में देखा गया है, जहाँ मुस्लिम जनसंख्या एक खास सीमा पार कर गई। वहाँ राष्ट्रीय कानूनों को धता बताकर शरीयत लागू की जाती है। हिंसा, शिकायत और छल की तीन तकनीक से निरंतर इस्लामी दबदबा बढ़ाया जाता है। पश्चिमी देशों में कानून तोड़ने और हर तरह के अपराधों में मुसलमानों का अनुपात बेतरह ऊँचा है। विशेषकर घृणित अपराधों में। इस की प्रतिक्रिया स्वरूप लोगों में ‘मुस्लिमफोबिया’ बना है, जो अधिक सही शब्द है।
‘इस्लामोफोबिया’ के बदले ‘मुस्लिमफोबिया’ इसलिए सही शब्द है, क्योंकि सभी मुसलमान जिहादी या संपूर्ण शरीयत के समर्थक नहीं हैं। हैरिस ने चार प्रकार के मुसलमान पाए हैं: जिहादी, इस्लामी, बेपरवाह, और सेक्यूलर। इन में सबसे बड़ी संख्या बेपरवाहों की है, जो इस्लाम के समर्थक हैं मगर इस की बुरी बातों से लगभग अनजान हैं। सेक्यूलर मुसलमान बहुत कम हैं जो इस्लाम की सचाई जानते हैं और उसे पसंद नहीं करते।
इसलिए, हैरिस का सुझाव है कि बेपरवाह मुसलमानों को इस्लामी की सचाई पूरी तरह जाननी चाहिए, और पक्के इस्लामियों से बहस करनी चाहिए। तभी दुनिया में मिल-जुल कर रहने का माहौल बन सकेगा। ऐसे बहस-विमर्श की एक रूप-रेखा भी उन्होंने दी है (पृ. 195-207)। इस्लामियों की दलीलें लोगों के अज्ञान का फायदा उठाते हुए दी जाती हैं। ताकि संदेहों को किसी तरह खत्म कर उन्हें इस्लामियों का मुखर/मौन समर्थक बनाए रखें। उन से निपटने का उपाय यह है कि मूल इस्लामी किताबों को खुद पढ़ें। वे ज्यादा नहीं हैं। एक हाथ में सारी आ जाएंगी। उन की परख अपने विवेक और वास्तविक घटनाओं से करें। मुल्लों और मुस्लिम नेताओं पर निर्भर न रहें।
वैज्ञानिक विकास के युग में सही सिद्धांत वही है जिसे कसौटी पर कस सकें। ताकि यदि कुछ गलत हो तो दिख जाए। बिना कसौटी के महज ‘फेथ’ वाली बातों पर सच का सर्टिफिकेट नहीं लग सकता। इस्लाम के धार्मिक रिवाजों, जैसे नमाज, रोजा, हज, आदि पर किसी कसौटी की जरूरत नहीं। लेकिन राजनीतिक इस्लाम – यानी काफिरों या स्त्रियों के प्रति व्यवहार, जिहाद, शरीयत, कानून, भौतिक तथ्य और इतिहास – इन सब को कसौटी पर परखना होगा। क्योंकि इस्लाम का दावा उन के ‘स्थाई सच’ होने का है।
लेकिन सच (ट्रुथ) और विश्वास (फेथ) दो अलग-अलग चीजें हैं। धर्म के मामले में फेथ चल सकता है, मगर राजनीति में नहीं। इस के घाल-मेल से ही खुद इस्लामी समाजों में सदैव हिंसा रही है। प्रोफेट मुहम्मद के समय से ही। इसी नाम पर मुसलमान दूसरे मुसलमान को मारते हैं। अधिकांश खलीफा, ईमाम और मुहम्मद के वंश के लोगों की हत्याएं हुईं, जो मुसलमानों ने ही की। वही आज भी पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सीरिया, यमन, तुर्की, नाइजारिया, आदि अनेकानेक मुस्लिम देशों में हो रहा है। क्योंकि राजनीति और धर्म, दोनों में इस्लामी एकाधिकार का दावा है। जबकि इस्लामी राजनीति शुरू से ही छल-प्रपंच-हिंसा से बनी है। उस में कोई सच नहीं है। केवल मनमानी है।
इसलिए, यह दोष इस्लामी मतवाद में है, जिसे ‘कर्स ऑफ गॉड’ या ‘अल्लाह का अभिशाप’ नाम देना गलत नहीं। पिछली 14 सदियों की इस्लामी हिंसा गलत प्रस्थापनाओं पर आधारित है। उस से मुसलमानों को मुक्त होना होगा। चूँकि इस्लाम का बड़ा हिस्सा (कम से कम 86 %) राजनीति ही है, इसलिए व्यवहारतः यह इस्लाम से ही मुक्त होने की बात हो जाती है। इस प्रकार, हैरिस सुलतान एक मुलहिद बनते हैं। उन के अनुसार, अभी मुलहिदों की छोटी संख्या से मायूसी नहीं होनी चाहिए। पाकिस्तान के 19 करोड़ मुसलमानों में केवल 40 लाख सेक्यूलर, नास्तिक, आदि हैं। किन्तु संख्या बढ़ रही है। दूसरे, सच्ची बातों की अपनी ताकत है, जिस के सामने बम-बंदूकें कुछ नहीं कर सकतीं। इसीलिए एक इब्न वराक, एक सलमान रुशदी, तसलीमा नसरीन या वफा सुलतान से सारी दुनिया की मुस्लिम सत्ताएं परेशान हो जाती हैं। आखिर इन लेखकों ने कुछ शब्द ही तो लिखे हैं!
मगर ऐसे सच्चे शब्द, जिन की ताब तमाम मुस्लिम सरकारें और लाखों मदरसों पर शासन करने वाले हजारों आलिम-उलेमा नहीं झेल पाते। अर्थात् जैसे-जैसे सचाई अधिकाधिक मुसलमानों के सामने आएगी, वैसे-वैसे इस्लाम का प्रभाव सिकुड़ेगा। यह गणितीय सच, मैथेमेटिकल सर्टेनिटी, है। इस में काफिर नजरिए से एक बात और जोड़ सकते हैं। बिना किसी दावे, प्रचार या संस्थानों के दुनिया की असंख्य महान पुस्तकें – उपनिषद, महाभारत, रामायण, योगसूत्र, से लेकर बुद्ध, कन्फ्यूशियस, प्लेटो, शेक्सपीयर, टॉल्सटॉय, आइंस्टीन की बातें – दुनिया के लोगों पर स्वतः अपना प्रभाव रखती हैं। उन में अनेक पुस्तकें इस्लाम से सदियों पहले की हैं। उन्हें ‘मनवाने’ को लिए किसी जोर-जबर्दस्ती की जरूरत नहीं पड़ती! जबकि किसी सर्वशक्तिमान अल्लाह के स्थाई सच के रूप में कुरान, और मानवता के सर्वोच्च मॉडल के रूप में मुहम्मद को जबरन बनाए रखने के लिए अंतहीन हिंसा होती रही है। दूसरों पर भी और आपस में भी। एकदम शुरू से। कुरान और मुहम्मद की बातों को कभी छिपा कर, कभी झूठी बातें जोड़कर, तरह-तरह से बना-सँवार कर, नई-नई सफाइयाँ दी जाती हैं। क्या ऐसे मतवाद की असलियत हमेशा छिपी रह सकती है?