Tuesday, February 18, 2020

यजुर्वेद के पितर





यजुर्वेद के पितर

लेखक- प्रोफेसर विश्वनाथ विद्यालंकार, लाहौर भूतपूर्व वेदोपाध्याय गुरुकुल कांगड़ी
प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ

पंचमहायज्ञ प्रत्येक गृहस्थी को करने चाहियें- यह विधान मनुस्मृति आदि ग्रन्थों में मिलता है। इन पञ्चमहायज्ञों में पितृयज्ञ भी है। पौराणिकों के मतानुसार पितृयज्ञ मृत-पितरों के सम्बंध में किया जाता है। परन्तु ऋषि दयानन्द का यह मन्तव्य है कि पितृयज्ञ का विधान जीवित पितरों के सम्बंध में है, नकि मृत पितरों के सम्बंध में। यजुर्वेद में पितरों का बहुत स्पष्ट रूप से वर्णन है। इस लिए इस लेख में "यजुर्वेद के पितरों" पर कुछ विचार किया जाएगा।

(१) पितर का अर्थ
'पितर' शब्द से केवल पिता-व्यक्तियों का अर्थात् केवल पुरुष-व्यक्तियों का ही ग्रहण नहीं होता, अपितु माता और पिता इन दोनों व्यक्तियों का अर्थात् पुरुष और स्त्री इन दोनों व्यक्तियों का ग्रहण होता है। व्याकरण की दृष्टि से पितृयज्ञ शब्द में "पितृ" शब्द का एक शेष मानना चाहिए। जैसे कि माता च पिता च = पितरौ; तथा मातरश्च पितरश्च = पितर:। इसलिए पितृयज्ञ का अर्थ हुआ "वह यज्ञ जो कि माता और पिता तथा इनके पूर्वजों के सम्बन्ध में किया जाय"।

(२) पितृयाण और पितर
पितरों के सम्बन्ध में "पितृयाण" शब्द का बहुत प्रयोग होता है। पितृयाण का अर्थ है "पितरों का याण", "पितरों का मार्ग" अर्थात् पितरों के जीवन का मार्ग। प्रश्नोपनिषद्, प्रथम प्रश्न ९वीं कण्डिका इस सम्बन्ध में निम्न प्रकार है-

"संवत्सरो वै प्रजापतिस्तस्यायने दक्षिणं चोत्तरं च। तद्दे ह वै तदिष्टापूर्ते कृतमित्युपासते ते चान्द्रमसमेव लोकमभिजयन्ते। त एव पुनरावर्तन्ते तस्मादेत ऋषयः प्रजाकामा दक्षिणं प्रतिपद्यन्ते। एष ह वै रयिर्य: पितृयाण:।।"
अर्थात् "संवत्सर को प्रजापति कहते हैं। उस संवत्सर के दो अयन हैं। एक दक्षिण (अयन) और दूसरा उत्तर (अयन)। तो जो लोग इष्टकर्मों और + आपूर्त कर्मों को अपने कर्तव्यकर्म मानते हैं वे चन्द्रमा-सम्बन्धी लोक पर विजय पाते हैं। वे ही बार बार इस लोक की ओर आते हैं। इसलिए ये ऋषि जो कि प्रजा की कामना वाले हैं- वे दक्षिण मार्ग को (अपने जीवन मार्ग के रूप में) स्वीकार करते हैं। यह दक्षिण मार्ग ही रयि है, जिसे पितृयाण भी कहते हैं।"

इस उद्धरण में पितृयाण के सम्बन्ध में निम्नलिखित कथन है-
(क) संवत्सर अर्थात् वर्ष प्रजापति है, प्रजाओं का पति है, रक्षक है।
(ख) संवत्सर के दो अयन होते हैं। एक दक्षिण अयन और दूसरा उत्तर अयन। संवत्सर इन दो अयनों के द्वारा प्रजाओं का पति अर्थात् रक्षक बना है। दक्षिण अयन शीत काल का समय है जबकि सूर्य दक्षिण की ओर अयन अर्थात् प्रयाण करता है, और उत्तर अयन ग्रीष्म काल का अयन है जबकि सूर्य उत्तर की ओर अयन अर्थात् प्रयाण करता है। संवत्सर अपने इन दोनों रूपों द्वारा प्रजाओं का पति बना हुआ है, प्रजाओं का रक्षक बना हुआ है। अर्थात् संवत्सर शीतकाल और ग्रीष्मकाल इन दो रूपों द्वारा प्रजाओं की रक्षा कर रहा है।
(ग) जो लोग "इष्ट" अर्थात् यज्ञयागों तथा होमादि कर्मों को अपना कर्तव्यकर्म समझते हैं, तथा साथ ही "आपूर्त्त" या "पूर्त्त" अर्थात् "सामाजिक उपकार के कर्मों को भी अपना कर्तव्य कर्म समझते हैं वे चन्द्रमालोक पर विजय पाते हैं।
(घ) इष्ट और आपूर्त कर्मों को अपने कर्तव्यकर्म समझने वाले लोग बार-बार गृहस्थ धर्म में आते हैं।
(ङ) ऋषि कोटि के लोग - प्रजा की कामना के कारण दक्षिण मार्ग को अपने जीवन का मार्ग मानते हैं और वे इस मार्ग पर चलते हैं।
(च) इस दक्षिण मार्ग को ही रयि भी कहते हैं और पितृयाण भी।
इन कथनों की व्याख्या यह है कि एक प्रकार के लोग तो वे होते हैं, जो कि ब्रह्मचर्य आश्रम समाप्त कर गृहस्थ धर्म में प्रवेश कर यज्ञ आदि कर्मों तथा नानाविध समाजोपकार कर्मों को करते हैं; तथा दूसरे प्रकार के लोग वे होते हैं जो कि ब्रह्मचर्याश्रम समाप्त कर सीधा संन्यासाश्रम में प्रवेश कर अध्यात्मचिन्तन में लगकर फिर संसार का उपकार करते हैं। इनमें से पहिले प्रकार के लोग "दक्षिणायन" मार्ग के अवलम्बी हैं, और दूसरे प्रकार के लोग उत्तरायण मार्ग के अवलम्बी हैं। संवत्सर जैसे अपने दोनों मार्गों द्वारा प्रजाओं की रक्षा करता है, केवल एक मार्ग से संवत्सर प्रजाओं की रक्षा नहीं कर सकता, इसी प्रकार मनुष्य समाज के दोनों प्रकार के व्यक्ति मिलकर ही दक्षिणायन मार्ग और उत्तरायण मार्ग का अवलम्बन कर समग्र प्रजाओं की रक्षा करते हैं, केवल एक मार्ग से अर्थात् केवल गृहस्थधर्म के मार्गों से या केवल आरम्भ से ही संन्यासधर्म के मार्ग से प्रजाओं की रक्षा नहीं हो सकती।
गृहस्थधर्मावलम्बी व्यक्तियों के जीवन मार्ग को "दक्षिण" मार्ग कहा गया है। संवत्सर का दक्षिण अयन ह्रास का अयन है। सूर्य दक्षिण दिशा में जाकर अपनी शक्ति और तेज की दृष्टि से ह्रास को प्राप्त होता है। परन्तु ह्रास को प्राप्त होकर शरत् काल में अन्नों तथा फल और फूलों और वनस्पतियों को उत्पन्न करता है। इसी प्रकार गृहस्थधर्मावलम्बी व्यक्ति गृहस्थमार्ग को प्राप्त कर अपनी शारीरिक शक्ति आदि का तो ह्रास करते हैं। परन्तु इस ह्रास के द्वारा वे संसार को नई-नई शक्तियों वाली नाना विध प्रजाओं, अर्थात् सन्तानों को देकर संसार का उपकार और भला करते हैं। बिना गृहस्थधर्म के कोई मनुष्य उत्पन्न ही नहीं हो सकता। मनुष्य कोटि के लोग भी गृहस्थधर्म के परिणाम हैं, ऋषि कोटि के लोग भी गृहस्थधर्म के परिणाम हैं, देव कोटि के लोग भी गृहस्थधर्म के परिणाम हैं। ज्ञानी, ध्यानी, विद्वान्, व्यापारी, योद्धा, देशभक्त, कलाकौशलविज्ञ, संन्यासी आदि सब व्यक्ति, गृहस्थधर्म के ही परिणाम हैं। इसलिए गृहस्थधर्म में अपनी शक्ति के ह्रास की उपेक्षा कर और इससे संसार की सत्ता और संसार के उपकार को लक्ष्य में स्थापित कर गृहस्थधर्म में प्रवेश करना चाहिए। गृहस्थधर्म का मार्ग इस ह्रास की दृष्टि से और उत्पादक की दृष्टि से दक्षिण है।

इसी प्रकार संवत्सर का उत्तर-अयन शक्ति का प्रतिनिधि है। सूर्य जब उत्तर-अयन की ओर गति करने लगता है तो इसकी शक्ति और तेज बढ़ने लगता है तो उत्तर-अयन की पूरी अवधि तक पहुंच कर सूर्य जून मास के तेज और प्रकाश से तपने और चमकने लगता है, इसका तेज शरीर को असह्य हो जाता है, प्रकाश आंखों को चुंधिया देता है। इस समय सूर्य अपने पूर्ण तेज में होता है। इस प्रकार उत्तर अयन - शक्ति संचार, शक्ति वृद्धि और शक्ति के पूर्ण यौवन का प्रतिनिधि है। यह मार्ग उन व्यक्तियों का मार्ग है जो कि ब्रह्मचर्य से ही संन्यास धर्म में चले जाते हैं और गृहस्थधर्म का अवलम्बन नहीं करते। यतिवर ऋषि दयानन्द उत्तर-अयन के व्यक्ति थे। ऐसे व्यक्तियों के बिना संसार में शक्ति और तेज का संचार नहीं होता। इस उत्तर-अयन के जीवनमार्ग का वर्णन किया जाएगा।

इसी प्रकार गृहस्थधर्मावलम्बी व्यक्तियों के जीवनमार्ग को "चन्द्रमस" कहा गया है और गृहों, शालाओं, कोठियों को चन्द्रमस लोक कहा गया है। गृहस्थों के रहने सहने के स्थान को भी "लोक" या "गृहस्थलोक" कहते हैं। विवाह हो चुकने पर पत्नी को अथर्ववेद ने "पतिलोक" में विराजने का अधिकार दिया है। पतिलोक वह स्थान है, घर है, जो कि पति का है, जहांकि पति रहता है। इसी पति लोक को चन्द्रमस लोक कहा गया है। चन्द्रमा स्पष्ट घटता, बढ़ता, नष्ट होता हुआ तथा उत्पन्न होता हुआ, पूर्णता में तथा पूर्णनाश रूप में दृष्टिगोचर होता है। पतिलोक में या गृहस्थधर्म में ये ही दृश्य दृष्टिगोचर होते रहते हैं। कोई रोग के कारण शक्ति की दृष्टि से घट रहा होता है, कोई स्वास्थ्य के कारण बढ़ रहा होता है, कोई संतान नष्ट हो जाती है, तो कोई उत्पन्न होती है, कई सन्तानों में पूर्णता दृष्टिगोचर होती है और कईयों का अमावस्या के चन्द्र की न्याय पूर्ण ह्रास दृष्टिगोचर होता है। इस साधर्म्य की दृष्टि से गृहस्थधर्म के जीवनमार्ग को "चन्द्रमस" कहा गया है और इसी दृष्टि के गृहस्थाश्रम को चन्द्रमस लोक कहा गया है। गृहस्थी यदि वेदोक्त संयम की विधि से गृहस्थ धर्म का पालन करें तो वे गृहस्थाश्रम पर विजय पा जाते हैं, नहीं तो वे गृहस्थी जो कि असंयमी हैं, विषयलोलुप हैं- वे गृहस्थ मार्ग में जाकर हार खा जाते हैं। उनके लिए जीना भी दूभर हो जाता है।

गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके वेदोक्त कर्मों को अपना कर्तव्य कर्म समझकर करना चाहिए। इन कर्मों में चित्त लगाकर श्रद्धा और भक्ति से कर्मों को करना चाहिए। जिन लोगों को गृहस्थाश्रम का धर्म रुचिकर है, जो कि गृहस्थाश्रम के कर्मों द्वारा अपने संस्कारों का संचय करते हैं ऐसे व्यक्ति अपने संस्कारों से प्रेरित होकर बार बार जन्म लेकर फिर गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर इस आश्रम द्वारा संसार का उपकार करते हैं। यह पुनरावर्त्तन है, अर्थात् गृहस्थधर्म में पुनः पुनः आना है।
परन्तु स्मरण रहे कि वेद ने इस सर्वोपकारी गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने का अधिकार केवल ऋषिकोटी के व्यक्तियों को दिया है। अनृषि गृहस्थी गृहस्थ की महिमा को गृहस्थ के उद्देश्य को नहीं समझ सकते। वे नहीं समझ सकते कि गृहस्थ धर्म का उद्देश्य है "प्रजोत्पादन" न कि भोग। प्रजोत्पादन का अभिप्राय है उत्तम सन्तानों को पैदा करना। अनृषियों की सन्तानें भोगवासना का परिणाम होती हैं, और ऋषियों की सन्तानें दिव्य भावनाओं का परिणाम होती हैं। ऊपर के प्रश्नोपनिषद् के उद्धरण में गृहस्थाश्रम का अधिकार केवल ऋषि कोटि के व्यक्तियों को दिया गया है।

यह दक्षिण मार्ग या चन्द्रमसलोक ही रयिमार्ग या रयिलोक है। इसको पितृयाण भी कहा गया है। इस प्रकार प्रश्नोपनिषद् में गृहस्थाश्रम को दक्षिण मार्ग, चन्द्रमसलोक, रयिमार्ग और पितृयाण- इन शब्दों द्वारा कहा गया है।
इस व्याख्या द्वारा यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि "पितर" वे व्यक्ति हैं जो कि गृहस्थधर्म का जीवन व्यतीत करते हैं तथा वे भी जो कि इस गृहस्थ मार्ग से गुजर कर अगले आश्रमों में जाते हैं।

(३) देवयान
ऊपर के लेख में "पितृयाण" और "पितर"- इन शब्दों के अभिप्रायों की व्याख्या हो चुकी है। इन शब्दों के सम्बन्धी शब्द हैं "देवयान" और "देव" शब्द। इनके सम्बन्ध में प्रश्नोपनिषद्, प्रथम प्रश्न, कण्डिका १० इस प्रकार है-

"अथोत्तरेण तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया विद्ययात्मानमन्विष् यादित्यमभिजयन्ते। एतद्वै प्राणानामायतनमेतदमृत मभयमेतत्परायणमेतस्मान्न पुनरावर्तन्त इत्येष निरोध: तदेष श्लोक:।।"
अर्थात् "उत्तर मार्ग के द्वारा, तप द्वारा, ब्रह्मचर्य द्वारा, श्रद्धा द्वारा तथा विद्या द्वारा आत्म का अन्वेषण कर आदित्य पर विजय पाते हैं। यह उत्तरमार्ग प्राणों का घर है, यह अमृत है, अभय है, यह परम-अभय है, इसमें पुनरावर्त्तन नहीं होता, यह निरोध मार्ग है।"

यह वर्णन देवमार्ग का है। प्रश्नोपनिषद् के प्रथम प्रश्न की ९वीं कण्डिका में पितृयाण का वर्णन है और इस १०वीं कण्डिका में देवयान का वर्णन है। इसमें निम्नलिखित भाव दर्शाए गए हैं-
(क) देवयान के मार्ग का नाम "उत्तर मार्ग" भी है।
(ख) उत्तरमार्ग का अभिप्राय है तप का मार्ग, ब्रह्मचर्य का मार्ग, श्रद्धा का मार्ग और विद्या अर्थात् आत्मविद्या का मार्ग।
(ग) उत्तरमार्ग का उद्देश्य है "आत्मा का अन्वेषण", नकि गृहस्थ धर्म।
(घ) इस उत्तरमार्ग को आदित्यमार्ग भी कहते हैं। उत्तरमार्गगामी आदित्यमार्ग पर विजय पाते हैं।
(ङ) उत्तरमार्ग से प्राणों का या शक्ति का संचय होता है, शीघ्र मृत्यु नहीं होती अर्थात् मनुष्य दीर्घजीवी हो जाता है, तथा मनुष्य भय रहित हो जाता है।
(च) इसको पर-अयन भी कहते हैं।
(छ) इस मार्ग में जाकर पुनरावर्त्तन नहीं होता। पितृयाण मार्ग में जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति अपने संस्कारों के वश माता-पिता होने के मार्ग में फिर आता रहता है, परन्तु देवयान या उत्तरमार्ग में जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति माता पिता होने के मार्ग में कभी लौट कर नहीं आता। जब वह अपने वर्तमान जीवन में ज्ञानपूर्वक पितृयाण के मार्ग को त्याग चुका है और उसने अपने जीवन का उद्देश्य देवयान मार्ग बना लिया है, और इस वर्तमान जीवन में देवयान मार्ग सम्बन्धी संस्कार उसकी आत्मा में और भी दृढ़मूल हो चुके हैं तो वह अपने भावी जन्मजन्मान्तरों में किस प्रकार गृहस्थ मार्ग में अर्थात् पितृयाण मार्ग में पदार्पण कर सकता है। इसलिए "न पुनरावर्तन्ते" द्वारा देवयान मार्ग का वर्णन उचित ही प्रतीत होता है।
(ज) इस उत्तरमार्ग का नाम निरोधमार्ग भी है। इस मार्ग में सांसारिक वृत्तियों का निरोध कर आत्मान्वेषण के मार्ग में पदार्पण करना पड़ता है, इसलिए उत्तरमार्ग को निरोध का मार्ग कहा गया है।

(४) पितृयाण और देवयान में भेद
(१) "पितृयाण" मार्ग को दक्षिण का मार्ग कहा गया है और "देवयान" मार्ग को उत्तर का मार्ग कहा है। सूर्य जब दक्षिण मार्ग का पथिक बनता है तो वह "पितृयाण" मार्ग का प्रतिनिधि होता है, और सूर्य जब उत्तर मार्ग का पथिक बनता है तो वह "देवयान" मार्ग का प्रतिनिधि होता है। पहला मार्ग शक्तिक्षय और उत्पादकत्व का सूचक है, और दूसरा मार्ग शक्ति संचय और तेज का सूचक है।
(२) पितृयाण कर्म मार्ग है, और देवयान ज्ञानमार्ग है।
(३) पितृयाण को चन्द्रमस मार्ग कहते हैं और देवयान को आदित्यमार्ग।
(४) पितृयाण वाले बार बार गृहस्थ धर्म में आते हैं, परन्तु देवयानी लोग अपने निवृत्तिमार्ग के संस्कारों की प्रबलता के कारण बार-बार उत्पन्न होकर भी गृहस्थ में नहीं आते।
(५) पितृयाण वाले गृहस्थ में अपनी शक्ति का व्यय करते हैं परन्तु देवयान वाले इस शक्ति का संचय करते हैं, इस प्रकार देवयान मार्ग वाले दीर्घजीवी हो जाते हैं और निर्भय होकर विचरते हैं।
(६) पितृयाण "रयि मार्ग" है और देवयान "प्राण मार्ग" है।

इस प्रकार "पितर" और "देव" तथा पितृयाण और देवयान शब्दों द्वारा जीवित पितरों तथा जीवित देवों का ही वर्णन प्रतीत होता है, मृत पितर तथा मृत देवों का नहीं, यह सिद्धान्त हृदयंगत हो चुका होगा। जीवित पितरों के सम्बन्ध में निम्नलिखित प्रमाण उपस्थित किये जाते हैं-

(५) शतपथ ब्राह्मण और जीवित पितर
शतपथ ब्राह्मण २/४/२/२४ तथा २/६/१/४२ में लिखा है कि "गृहाणां ह पितर ईशत" अर्थात् पितर गृहों के अधीश्वर हैं, अधिपति हैं, स्वामी हैं। इस प्रमाण द्वारा ज्ञात होता है कि गृहस्थ धर्म के अवलम्बी जन पितर कहलाते हैं, और ये जीवित व्यक्ति सम्भव हैं, मृत नहीं।

(६) शांखायन श्रौतसूत्र और जीवित पितर
शांखायन श्रौतसूत्र १६/२/४-६; तथा शतपथब्राह्मण १३/४/३/६ में लिखा है कि-

यमो वैवस्वतो राजेत्याह तस्य पितरो विशस्तऽइमऽप्रासतऽइति स्थविराऽउपसमेना भवन्ति तानुपदिशति यजूँषि वेद:-
इसका अर्थ यह है कि "यम" अर्थात् प्रजाओं का नियन्त्रण करने वाला तथा स्व यमनियमों का पालन करने वाला, और "वैवस्वत" अर्थात् विवस्वान् के सदृश प्रतापी आदि ब्रह्मचारी व्यक्ति राजा होना चाहिए। उसके पितर हैं प्रजाजन, अर्थात् ये जो कि उसके सभी आसनों पर विराजते हैं, अर्थात् स्थविर व्यक्ति, जो कि वयोवृद्ध तथा ज्ञानवृद्ध व्यक्ति उन्हें राजा उपदेश में कहता है कि तुम्हारा वेद यजुर्वेद है।

इससे प्रतीत होता है कि राजा के सामने आसनों पर बैठे हुए, उसके सलाह स्थविर प्रजानन पितर कहलाते हैं। राजा के सम्मुख बैठे हुए स्थविर प्रजानन जीवित व्यक्ति ही हो सकते हैं, मृत व्यक्ति नहीं।
इस उद्धरण में यह भी कहा गया है कि राजा इन ज्ञानवृद्ध और वयोवृद्ध पितर को उपदेश रूप में कहता है कि तुम्हारा वेद यजुर्वेद है। इससे ज्ञात होता है कि यजुर्वेद में विशेषकर पितरों का वर्णन होगा। इसलिए यजुर्वेद के उन मन्त्रों के भी प्रमाण यहां दिए जाते हैं जिनसे कि सिद्ध होगा कि यजुर्वेद की दृष्टि से भी पितर जीवित व्यक्ति ही हैं; मृत व्यक्ति नहीं।

(७) यजुर्वेद और जीवित पितर
यजुर्वेद अध्याय २,२९ से ३४ तक के मन्त्र पिण्डपितृयज्ञपरक हैं। पौराणिक विद्वान् तो पिण्ड पितृयज्ञ में मृतपितरों के उपलक्ष में गुंदे आटे के पिण्ड का दान करते हैं और साथ ही वस्त्र दान की पद्धति को पूरा करने के लिए वस्त्रों का स्थान में धागा पिण्डों के साथ समर्पण में धर देते हैं। इन मन्त्रों में जीवित पितरों को घर बुलाकर उनके सत्कार का वर्णन है। इस सत्कार में पुत्र-पौत्र आदि अपने वानप्रस्थी तथा संन्यासी पितरों को घरों में लाकर उन्हें भोजन कराते हैं और साथ ही उनकी आवश्यकता के अनुसार उनको वस्त्रों का दान करते हैं। इस पक्ष की पुष्टि में कतिपय मन्त्र प्रमाण रूप में उद्धृत किये जाते हैं-

अत्र पितरो मादयध्वं यथाभागमावृषायध्वम्। अमीमदन्त पितरो यथाभागमावृषायिषत। -यजु० २/३१
"हे पितरो! इस घर में अपने आप को आनन्दित तथा तृप्त करो तथा यथेच्छ भोजन करो। पितरों ने अपने आप को आनन्दित तथा तृप्त कर लिया है तथा यथेच्छ भोजन किया है।"

इस मन्त्र के प्रथमार्ध में गृहस्थी "पितरों" के प्रति कहते हैं कि आप हमारे घरों में पधारे हैं कृपा कर अपने आपको भोजन द्वारा तृप्त तथा आनन्दित कीजिये। मन्त्र के द्वितीयार्ध भाग में गृहस्थी परस्पर परामर्श कर रहे हैं कि पितरों ने यथेच्छ भोजन द्वारा अपने आपको आनन्दित तथा तृप्त कर लिया है। यह परामर्श उस समय होता है जबकि पितर अपना अपना भोजन समाप्त कर चुकते हैं।

इस मन्त्र का वर्णन केवल जीवित पितरों के सम्बन्ध में ही समुचित हो सकता है।

नमो व: पितरो रसाय, नमो व: पितर: शोषाय नमो व: पितरो जीवाय नमो व: पितर: स्वधायै नमो व: पितरो घोराय नमो व: पितरो मन्यवे नमो व: पितर: पितरो नमो वो गृहान्न: पितरो दत्त सतो व: पितरो देष्मैतद्व: पितरो वास:। -यजु० २/३२
"हे पितरो! तुम हमारी समाज के जीवन के लिए रस रूप हो हम तुम्हारे इस रस रूप के प्रति नमस्कार करते हैं; झुकते हैं, हे पितरो! तुम हमारे पापों और दुष्कर्मों का शोषण करने वाले हो तुम्हारे इस शोषणरूप के प्रति नमस्कार हो; हे पितरों! तुम हमें उपदेशों द्वारा जीवनदान करते हो तुम्हारे इस जीव रूप के प्रति नमस्कार हो; हे पितरो! तुम हमें सात्विक वस्त्रों का सेवन का उपदेश करते हो तुम्हारे स्वधारूप के प्रति नमस्कार हो; हे पितरो! दुष्टों और दुष्टभावों क प्रति तुम घोररूप हो तुम्हारे इस घोररूप के प्रति नमस्कार हो; हे पितरो! तुम सात्विक क्रोध करने वाले हो तुम्हारे इस मन्युरुप के प्रति नमस्कार हो; नमस्कार हो तुम्हें हे पितरो! हे पितरो! नमस्कार हो तुम्हें; हे पितरो! वानप्रस्थी हो जाने पर या संन्यासी हो जाने पर आप हमें घर दे दो, हमें घरों का उत्तराधिकारी बना दो, "मत:" अर्थात् जब तक तुम जीवित रहोगे तब तक तुमको हे पितरो! हम देते रहेंगे; हे पितरो! तुम्हारे प्रति वस्त्रों का यह समर्पण है, आप इन्हें पहनिये।"

इस मन्त्र में "पितर" समाज के प्रति कितने उपकारी हैं इसका वर्णन कर अन्य में पितरों से उनके पुत्र-पौत्र जायदाद का उत्तराधिकार मांगते हैं, और साथ ही  पितरों को आश्वासन देते हैं कि आप जब तक जीवित रहेंगे आपको हम सब जीवन सामग्री देते रहेंगे तथा वस्त्र आदि देते रहेंगे। वस्त्र देकर पुत्र-पौत्र पितरों के प्रति कहते हैं कि "आधत्त", इन वस्त्रों का आधान कर लीजिये, इन्हें पहन लीजिये। यह समग्र वर्णन मृत पितरों में कभी चरितार्थ नहीं हो सकता।

आधत्त पितरो गर्भं कुमारं पुष्करस्त्रजम्। यथेह पुरुषोऽसत्।। यजु० २/३३
"हे गुरु पितरो! तुम इस कुमार को- जिसे कि हमने प्रसन्नता से कमल माला पहनाई है - अपने गुरुकुल में इस प्रकार रखो जैसे कि माता गर्भ को अपने उदर में रखते हैं, ताकि यह पौरुष शक्ति से सम्पन्न होकर गुरुकुल- माता से उत्पन्न हो।"

क्या मृत पितर गुरुकुलों के आचार्य हो सकते हैं और वे नवप्रविष्ट बालकों को ऐसी सुरक्षा कर सकते हैं जैसे कि माता अपने उदरस्थ बालक की सुरक्षा करती है।
यजुर्वेद के १९वें अध्याय में भी पितरों का वर्णन है। इस अध्याय के भी कतिपय उद्धरणों का यहां उल्लेख किया जाता है। यथा-

पितृभ्य: स्वधायिभ्य: स्वधा नम: पितामहेभ्य: स्वधायिभ्य: स्वधा नम: प्रपितामहेभ्य: स्वधायिभ्य: स्वधा नम:। अक्षन् पितरोऽमीमदन्त पितरोऽतीतृपन्त पितर: पितर: शुन्धध्वम्। -यजु० १९/३६
"स्वधा अन्न का सेवन करने वाले पितरों के प्रति "स्वधा" अन्न हम देते हैं और नमस्कार करते हैं, स्वधा अन्न का सेवन करने वाले पितामहों के प्रति स्वधा अन्न हम देते हैं और नमस्कार करते हैं स्वधा अन्न का सेवन करने वाले प्रपितामहों के प्रति स्वधा अन्न हम देते हैं और नमस्कार करते हैं। पितरों ने भोजन कर लिया है, पितर प्रसन्न तथा सन्तुष्ट हो गए हैं, पितर तृप्त हो गए हैं, हे पितरों! (भोजन कर चुकने पर जल से हाथ आदि की शुद्धि द्वारा) शुद्ध होओ।"

पितरों के प्रति उनके सेवन योग्य सात्त्विक भोजन देकर उन्हें तृप्त करना तथा भोजन के उपरान्त जल द्वारा उनके हाथ आदि को शुद्ध कराना कभी भी मृत पितरों में सम्भव नहीं है।
साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि इस मन्त्र में केवल तीन पितरों का ही वर्णन है। पौराणिक पद्धति में भी तीन ही पितरों के सम्बन्ध में पितृयज्ञ के करने की परिपाटी है। ये तीन पितर हैं पिता, पितामह तथा प्रपितामह अर्थात् पिता, दादा, परदादा। यह क्यों? पितृयज्ञ जीवित पितरों के सम्बन्ध में होता है- इस सिद्धान्त में तो इस प्रश्न का हल सुलभ है, परन्तु मृत पितरों के सम्बन्ध में इस प्रश्न का कोई समुचित समाधान नहीं मिल सकता। मनुस्मृति में कहा है कि गृहस्थ पुरुष पंचमहायज्ञों का अधिकारी है। पंचमहायज्ञों में पितृयज्ञ का भी समावेश है। वैदिक विधि के अनुसार वसु ब्रह्मचर्य समाप्त करने पर जब ब्रह्मचारी गृहस्थ में प्रवेश करेगा तो उसकी आयु उस समय २४वें वर्ष की समाप्ति पर हो जाएगी। एक वर्ष के भीतर सन्तान का उत्पन्न होना भी सम्भव होगी। इस समय नव-गृहस्थी की आयु २५वें वर्ष की समाप्ति पर होगी। मनुस्मृति में लिखा है कि-

अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रयेत्।
अर्थात् सन्तान की जब सन्तान हो जाय, तब वानप्रस्थ धारण करना चाहिए।

जब नवगृहस्थी की आयु २५ वर्षों की होगी, तब इसके पिता की आयु ५० वर्षों की होगी, और पितामह की ७५ वर्ष की और प्रपितामह की १०० वर्षों की। वेदों में मनुष्य की औसतन आयु १०० वर्षों की ही कही गई है। यथा- जीवेम शरद: शतम्।
इस प्रकार वैदिक प्रथा के अनुसार जब पुत्र पंचमहायज्ञों में पितृयज्ञ के करने का अधिकारी होता है तब वैदिक औसतन आयु के अनुसार नवगृहस्थी के पिता, पितामह और प्रपितामह का जीवित होना अधिक सम्भावित है। प्रपितामह के पूर्वजों का जीवित रहना अधिक सम्भावित नहीं। इसीलिए पितृयज्ञ में तीन पूर्वजों को ही अन्नदान की तथा उनकी सेवा की प्रथा रखी गई है। यदि पितृयज्ञ मृत पितरों के सम्बन्ध में करना वेद को अभीष्ट होता तो पितृयज्ञ में पिता, पितामह और प्रपितामह का नाम न लेकर इनके स्थान में इनके पूर्वजों का नाम लेना चाहिए था, जिनके कि मृत हो चुकने की सम्भावना अधिक है। परन्तु विधि भाग में ऐसा नहीं है। इससे स्पष्ट परिणाम निकलता है कि वैदिक विधि में केवल जीवित पितरों का ही पितृयज्ञ में यजन करने का विधान है।

उदीरतामवरऽउत्परासऽउन्मध्यमा: पितर: सोम्यास:। असुं यऽईयुरवृकाऽऋतज्ञास्ते नोऽवन्तु पितरो हवेषु।। -यजु० १९/४९
"अवर, पर और मध्यम पितर - जिन्होंने कि सोमव्रत लिया है, जिन्होंने अपने वीर्य की सुरक्षा का व्रत लिया है- वे हमें प्रवचन करें। जो कि सोमव्रत के कारण एक नई प्राण शक्ति को प्राप्त हुए हैं, जो वृक अर्थात् भेड़िये की न्याई क्रोध करने वाले नहीं हैं, जो सत्य के ज्ञाता हैं, वे पितर हमारे बुलाने पर हमारी रक्षा करें।"

ऊपर के तीन प्रकार के पितरों को अर्थात् पिता, पितामह और प्रपितामह को इस मन्त्र में अवर आदि शब्द द्वारा स्मरण किया गया है। अवर का अर्थ है छोटी उम्र वाले अर्थात् पिता, पर का अर्थ है बड़ी उम्र वाले अर्थात् प्रपितामह तथा मध्यम का अर्थ है मंझली उम्र वाले अर्थात् पितामह। ये तीनों गृहस्थ जीवन छोड़ने के पश्चात् पुनः ब्रह्मचर्य व्रत का धारण करते हैं- इसलिए इन्हें "सोम्यास:" कहा गया है। वेद की परिभाषा में सोम शब्द का अर्थ वीर्य भी होता है। अंग्रेजी का "semen" शब्द "सोम" शब्द का ही अपभ्रंश प्रतीत होता है, वेद के सोम शब्द का पूर्वरूप "सोमन्" है जो कि "semen" के साथ अधिक सादृश्य रखता है। इस मन्त्र के अर्थ पर भी विचार करने से यही परिणाम निकलता है कि पितृयज्ञ में जीवित पितरों का ही सम्बन्ध है।
अपने पक्ष की पुष्टि में यजुर्वेद के निम्नलिखित प्रमाण और दिए जाते हैं। यथा-

बर्हिषद: पितरऽऊत्यर्वागिमा वो हव्या चकृमा जुषध्वम्। तऽआगतावसा शन्तमेनाथा न: शंयोररपो दधात।। -यजु० १९/५५
"वन में रहने वाले पितर हमारी रक्षा करने के लिए हमारी ओर आए हैं (हमारे घरों में आ रहे हैं), हे पितरों! तुम्हें हम ये खाने के पदार्थ देते हैं, प्रीति से इनका सेवन करो। वे पितर अपनी शान्तिमयी रक्षा के साथ आये हैं, तुम आकर हमें शान्ति दो, भावी दुःखों से हमारी रक्षा करो, और हमें निष्पाप बनाओ।"

उपहूता: पितर: सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिपु प्रियेषु। तऽआगमन्तु तऽइह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु तेऽवन्त्वस्मान्।। -यजु० १९/५७
"सोमव्रती पितर- जो कि अपने वनस्थ के प्रिय खजानों (अर्थात् ज्ञान, ध्यान, तपस्या, विचार आदि) में विचरते हैं- श्रद्धा से बुलाए गए हैं। वे आवें, इस घर में आकर हमारे कथनों को सुनें, वे अधिकार पूर्वक हमें उपदेश दें वे हमारी रक्षा करें।"

आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येमं यज्ञमभिगृणीत विश्वे। मा हिंसिष्ट पितर: केन चिन्नो यद्वऽआग: पुरुषता कराम।। -यजु० १९/६२
"हे पितरो! अपने घुटने टेक कर और दक्षिण दिशा में (बिछाए आसनों पर) बैठकर इस पितृयज्ञ में हमें उपदेश कीजिए। हे पितरों! किसी भी अपराध के कारण हमारी हिंसा न करो जिस अपराध को तुम्हारे प्रति हमने पुरुष सुलभ भ्रम के कारण किया है अर्थात् पितृयज्ञ में सत्कार आदि की न्यूनता आदि के कारण जो अपराध हमसे हो गया है।"

आसीनासोऽअरुणीनामुपस्थे रयिं धत्त दाशुषे मर्त्याय। पुत्रेभ्य: पितरस्तस्य वस्व: प्रयच्छत तऽइहोर्जं दधात।। -यजु० १९/६३
"हे पितरों! किरणों की गोद में अर्थात् वानप्रस्थ आश्रम आदि में खुली हवा और खुली किरण की गोद में बैठकर तुम लोग अपने दानी-भक्तों के प्रति अपने उपदेशरत्नों का प्रदान किया करो। हे पितरों! अपने पुत्रों के प्रति उनके उत्तराधिकार रूप में उन्हें जो धन मिलता है वह उन्हें दे दो।"

इदं पितृभ्यो नमोऽअस्त्वद्य ये पूर्वासो यऽउपरास ईयु:। ये पार्थिवे रजस्या निषत्ता ये वा नूनं सुवृजनासु विक्षु।। -यजु० १९/६८
"आज अर्थात् पितृयज्ञ में हम पितरों के प्रति नमस्कार करते हैं, उन पितरों के प्रति जो कि हमारे पूर्वज हैं अर्थात् अवर रूप पूर्वज हैं, तथा उनसे भी परे के पूर्वज अर्थात् मध्यम और पर पूर्वज हैं जो कि चले गए हैं, अर्थात् गृहस्थजीवन त्याग चुके हैं तथा जो इस पार्थिक लोक में ही अभी तक स्थित हैं, अर्थात् जीवित हैं और जो निश्चित रूप से अभी प्रजाजनों में ही विराजते हैं।"

ये मन्त्र स्पष्ट दर्शा रहे हैं कि पितृयज्ञ का वैदिक स्वरूप यही है कि जीवित पितरों की श्रद्धा से सेवा और शुश्रूषा करना, न कि मृत पितरों की।

पाद टिप्पणियां-
१. अग्निहोत्रं तप: सत्यं वेदानां चानुपालनम्। आथित्यं वैश्वदेवश्च इष्टमित्यभिधीयते।।
२. वापीकूपतडागादि देवतायतनानि च। अन्नप्रदानमारामा: पूर्त्तमित्यमिधीयते।
३. ब्रह्मापरं युज्यतां ब्रह्म पूर्वं ब्रह्मान्ततो मध्यतो ब्रह्म सर्वतः।
अनाव्याधां देवपुरां प्रपद्य शिवा स्योना पतिलोके वि राज।।१४/१/६४।।

-'आर्य' (साप्ताहिक) १९४४ के सिद्धान्त विशेषांक से साभार

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