Thursday, January 30, 2020

ईश्वरीय-ज्ञान की आवश्यकता [भाग-२]




◼️ईश्वरीय-ज्ञान की आवश्यकता [भाग-२]◼️
✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
गत पोस्ट से जारी….
◾️(४) विना ईश्वर के आदि ज्ञान में अन्य सम्भवनीय पक्ष और उनका निराकरण -
इस आदि ज्ञान के प्राप्त होने के विषय में कई प्रकार की अन्य सम्भवनीय कल्पनायें भी हो सकती हैं, जिन पर संक्षेप से विचार करते है -
▪️(१) यदि कोई कहे कि बहुत से जीवों के परस्पर सम्पर्क वा मेल से शिक्षा का क्रम चल पड़ेगा, क्योंकि बहुतों की अल्पज्ञता वा सामान्य ज्ञान मिल कर बहुज्ञता वा विशेषज्ञान बन जायगा। परन्तु सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने पर यह बात सत्य प्रमाणित नहीं होती। पशुओं का उदाहरण हमारे सामने है, एक सहस्र गो या भेड़-बकरी मिलकर भी किसी विशेष रचना-रोटी बना लेना, नदी का पुल बांधना, या कोई अन्य आवश्यक साधन बना लेना आदि नहीं कर सकते, यद्यपि स्वाभाविक ज्ञान उन सब में है। इससे सिद्ध है कि सृष्टि के आदि में जीवों के सामान्य ज्ञान से विशेषज्ञान उत्पन्न कभी नहीं हो सकता, जब तक कि उसमें नैमित्तिकज्ञान का सहारा न हो, अर्थात् सामान्य ज्ञान विशेषज्ञान का ग्राहक होता है । इसी आदि नैमित्तिकज्ञान को, जो बुद्धि का सहायक ज्ञान है, हम 'ईश्वरीयज्ञान वेद' कहते हैं। अतएव इसकी आवश्यकता अनिवार्य है।
▪️(२) यदि यह कहा जावे कि जीवात्मा सदा उन्नति करता है, अत: समय पाकर सर्वज्ञ हो जायगा। यह भी ठीक नहीं, क्योंकि जीवात्मा बिना निमित्त के कभी भी उन्नति नहीं कर सकता। वृद्धि क्या है ? अपने उपयोगी अवयवों को प्रकृति से वा कहीं से ग्रहण करने का नाम ही तो वृद्धि है। अत: ज्ञान की वृद्धि भी नये ज्ञान (नैमित्तिक ज्ञान) के द्वारा ही होगी, अन्यथा नहीं। सृष्टि के आदि के इसी ज्ञान को हम 'ईश्वरीय ज्ञान' कहते हैं।
▪️(३) यदि कहा जावे कि मनुष्य अपने आप ही अपने पूर्वजों से आये हुये ज्ञान वा अपने अनुभव द्वारा शनैः शनैः[१] उन्नति कर लेगा, ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता ही क्या है। यद्यपि यह बात साधारण दृष्टि से देखने में ठीक प्रतीत होती है, परन्तु कुछ गहराई से विचारने से यह बात भी ठीक नहीं हो सकती, क्योंकि मनुष्य का ज्ञान उसके अनुभवमात्र का ही फल नहीं है। हम प्रतिदिन देखते हैं कि रोगी को वैद्य किसी हानिकारक वस्तु के खाने से मना कर देता है,परन्तु वह उसको प्रमादवश खा पी लेता है और अपने रोग को दिनों के स्थान में सप्ताहों तक ले जाता है। ऐसी भूल एक बार नहीं अनेकों बार निरन्तर होती देखी जाती है। प्रतिदिन हम यह भी देखते हैं कि दीपक पर पतङ्गा आता है, उसका अनुभव उसकी ज्ञानवृद्धि में कुछ भी सहायता नहीं करता, और न ही उसके भावी (आनेवाले) पतङ्गों की ज्ञानवृद्धि में कुछ भी कारण होता है। उसके अनुभव से आगे आनेवाले पतङ्ग जलने से बच जावें, ऐसा देखने में नहीं आता, अर्थात् वे आगे जलने बन्द नहीं होते। और तो और किसी कुल में चाहे वह कितना ही शिक्षित वा ज्ञान युक्त हो, ब्राह्मण कुल हो या क्षत्रियकुल, विना पढ़े वा सीखे शास्त्रसम्बन्धी ज्ञान वा युद्ध विज्ञानसम्बन्धी अनुभव आनेवाली सन्तति को कुछ भी प्राप्त नहीं हो पाता, जब तक कि वे अपने बड़े वा अन्यों से सीखते नहीं, चाहे उस कुल में शास्त्रों का ज्ञान वा रणविज्ञान अनेकों पीढ़ियों से कितना भी अधिक चला पा रहा हो । उनके कुल में जो भी सन्तति हो, उसे पढ़ना न पड़ता हो, ऐसा कभी देखने में नहीं पाया। किन्तु इससे विपरीत महाविद्वान् और महापुरुषार्थी का पुत्र महामूर्ख और महाआलसी तक देखने में आता है।
⚠️- - ध्यान दें❗️- -⚠️
💎१. शनैः शनै उन्नति वा विकासवाद का सिद्धान्त ठीक नहीं, इस विषय में पाश्चात्यों की दृष्टि से कुछ विचार उपस्थित करते हैं -
🧐(प्रश्न) विकासवादी अपने पक्ष का समर्थन इस तरह करते हैं कि पहिले के लोगों में ज्ञान की कमी थी। अब लोगों में ज्ञान का विकास चरम सीमा पर पहुच चुका है । अत: मानना पड़ेगा कि ज्ञान का क्रमिक विकास होता है।
😎(उत्तर) इसका समाधान यह है कि पहिले के लोग मूर्ख और जङ्गली नही थे, अपितु आजकल के ज्ञानी और सभ्यों से अधिक ज्ञानी और सभ्य थे। इस विषय में स्वयं पाश्चात्य क्या कहते हैं, सो देखिये-
▪️(i) गैल्टन-"यूनानियों की मध्य योग्यता न्यून से न्यून कूती जावे तो हमारी सभ्यता से दो दर्जे ऊपर की अर्थात् लगभग उतनी ऊँची थी, जितनी हमारी जाति अफ्रीका के हब्शियों से ऊँची है ॥"
“It follows from this that the average ability of the Athenian Race on the lowest possible estimate, very nearly two grades higher than our own, that is, about as much as our own race is above that of the African negro. Heriditary Genus by Galton.
▪️(ii) पानफील्ड-"पैथागोरस, अनकसासोरस और विरहो आदि यूनानी विद्वान् भारतवर्ष में शिक्षा प्राप्त कर यूनान के प्रसिद्ध वैज्ञानिक बने ।" History of Philosophy Vol. I पृ० ६५
▪️(iii) डा० वैलेस- "We must admit that the mind, which conceived and expressed in appropriate language rich ideas as are everywhere apparent in these Vedic hymhs, could not have heen in anyway inferior to those of the best of our Miltons and our Tennysons.” Social environments and the moral progress by Dr. Wales.
अर्थात् “वेद की ऋचाओं से जो विचार प्रकट होते हैं, उनके (यदि मनुष्य न लिखे हों तो भी सं०) लेखक हमारे उत्तम से उत्तम धार्मिक शिक्षकों तथा हमार मिल्टन और टेनीसन और सर्वश्रेष्ठ कवियों से किसी प्रकार हीन नहीं थे॥"
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ऐसी दशा में यह नहीं कहा जा सकता है कि ज्ञान अनुभव से बढ़ता है और आप ही आप आनेवाली सन्तति को मिल जाता है। ज्ञान यदि स्वयं प्राप्त होनेवाला होता तो भविष्य में भी अपने आप ही कुल-परम्परा में मिलता रहता, परन्तु ऐसा ज्ञान तो नैमित्तिक है, विना निमित्त के हो ही कैसे सकता है ?
आज इतनी ज्ञान की उन्नति हो जाने पर भी कोई मनुष्य अपने अनुभवमात्र से ज्ञान की वृद्धि नहीं कर सकता, नहीं तो प्रत्येक जङ्गली विना पढे व्याकरण वा गणित का आचार्य क्यों नहीं बन जाता, वा हर कोई व्यक्ति विज्ञान-सम्बन्धी यन्त्रों की रचना क्यों नहीं कर लेता ? इससे यही प्रमाणित होता है कि नैमित्तिक ज्ञान के विना केवल अनुभव से ज्ञान कदापि नहीं बढ़ सकता।
यह बात सुतरां सिद्ध है कि सृष्टि के आदि में जब मनुष्य प्रारम्भिक दशा में था, उसने अपने अनुभवमात्र से ज्ञान में वृद्धि कर ली और वह ज्ञान उसकी कुल-परम्परा में स्वयं हो गया, यह कैसे माना जा सकता है ? ऐसी दशा में यही मानना पड़ता है कि जान की वृद्धि नैमित्तिक होती है और सृष्टि के आदि में वह ज्ञान मनुष्यों को परमदेव परमेश्वर की दया से ही प्राप्त होता है।
▪️(४) यदि यह कहा जावे कि ज्ञान से ज्ञेय जाना जाता है, ज्ञेय के गुणों से भी तो ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है, मानचित्र (नकशे) को देख कर भी तो भूगोल का ज्ञान होता है, भूगोल को पढ़कर भी मानचित्र (नकशे) का ज्ञान प्राप्त होता है । इसी प्रकार प्रारम्भ में सृष्टि को देख कर ज्ञान हो सकता है। सबको नहीं तो तीवबुद्धि वालों को ही पहले हुआ होगा। आदिसृष्टि में मनुष्य ईर्ष्या, द्वेष से रहित थे। उनकी बुद्धि मलीन न होने से दिव्यशक्ति द्वारा संसार में कार्य होते देख कर, उसी से ज्ञान सञ्चित कर लिया, वही क्रमपरम्परा से चला और वेद कहा जाने लगा।
पूर्वपक्षी का यह कहना भी ठीक नहीं, प्रथम तो ज्ञेय से ज्ञान की प्राप्ति बहुकालसाध्य होगी। इसकी अपेक्षा ज्ञान से ज्ञेय का बोध बहुत ही सुगम पड़ता है। यदि आयुर्वेदादि का ज्ञान वस्तुओं को चख-चख कर अर्थात् एक-एक वस्तु के पृथक्-पृथक् परीक्षण से होना होता तो संसार में आज वैद्यकशास्त्र का लोप ही हो चुका होता। इस प्रकार भिन्न-भिन्न प्राप्त ज्ञाताओं के ज्ञान का समन्वय कैसे हो पाता, यह भी विचारने की बात है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अनुभव मात्र से यथेष्ट ज्ञान की वृद्धि नहीं हो सकती । जैसा कि हम ऊपर कह पाये हैं।
विचार करने से ज्ञात होता है कि मनुष्य के साथ प्रकृति का वह सम्बन्ध नहीं, जो उसका पशुओं के साथ है, इसलिये उसकी स्थिति सर्वथा ही प्रकृति के सहारे नहीं रह सकती। इसका कारण यही है कि मनुष्य पशु नहीं है, किन्तु ज्ञानी जीव है, अतः उसे प्रकृति वा कार्यजगत् से कोई प्रेरणा नहीं मिल सकती।
प्रश्न होता है कि जब मनुष्य ने सृष्टि अर्थात् कार्यजगत् को देखकर ही आरम्भ में अपनी ज्ञान-वृद्धि क्रमशः कर ली, तो वर्तमान में भी क्रमशः ज्ञानवृद्धि का वह क्रम क्यों लुप्त हो गया? यदि कोई कहे, कि आदि सृष्टि अमैथुनी थी, इसलिये वह क्रम नहीं रहा। जैसे वर्तमान अवस्था में अमैथुनी सृष्टि नहीं, ऐसे ही ज्ञान की क्रमश उन्नति का वह क्रम भी नहीं। यह भी इसलिये ठीक नहीं कि आरम्भ में तो जोड़े उत्पन्न होने से पूर्व अमैथुनी सृष्टि का होना अनिवार्य है, जब जोड़े सम्पन्न हो गये तो आगे अमैथुनी सृष्टि की आवश्यकता ही नहीं रह जाती, पर पशुओं में तो क्रमशः ज्ञान उत्पन्न होते रहने का क्रम तो चल सकता था, इसमें तो कुछ भी बाधा नहीं थी, वह क्यों बन्द हो गया ? जब से मनुष्य समाज का इतिहास उपलब्ध होता है, तब से आज तक किसी ने भी इस बात को प्रमाणित नहीं किया कि गौ, घोड़े या तोते ने क्रमश: ज्ञानोन्नति द्वारा कोई औषधालय खोल दिया हो, जिसमें मनुष्यों की नहीं तो कम से कम पशुओं की ही चिकित्सा का मार्ग खुल गया हो, और तो और अपनी ही चिकित्सा करली हो, ऐसा भी देखने में नहीं आया।
अतः सृष्टि में कार्यों को देखकर अर्थात् केवल ज्ञेय से ज्ञान की वृद्धि आदि सृष्टि में हो सके, बुद्धि इस बात को स्वीकार नहीं करती।
योगियों को ज्ञेय सृष्टि से जो ज्ञान होता है, वह भी नैमित्तिक ज्ञान के विना कभी नहीं हो सकता। उसमें भी विना पूर्व उपलब्ध ज्ञान के निमित्त तथा योग की शिक्षा के प्राप्त किये बिना किसी भी व्यक्ति को उक्त ज्ञान कभी नहीं हो सकता।
हमारा कहना यह है कि पदार्थों को देखकर अपनी ज्ञानशक्ति को विना किसी निमित्त के बढ़ाया नहीं जा सकता, इसमें दृष्टान्त पशुओं की ज्ञान-वृद्धि का न होना ही है।
देखिये ! सूर्य के निमित्त से चक्षु में पदार्थों को प्रत्यक्ष देखने की शक्ति अधिक हो जाती है, इससे रूपज्ञान तो हो जाता है परन्तु विशेष ज्ञान का अभाव ही रहता है। विशेषज्ञान की शक्ति सब जीवों में स्वतः रहती है, जिसका साधारण मनुष्य को ज्ञान नहीं होता। क्योंकि संसार में रूपज्ञान पशु-पक्षी सबको प्राप्त है, पर उनको प्रत्यक्ष से अतिरिक्त अनुमानादिजन्य ज्ञान-कार्य को देख कारण का ज्ञान, वा लिङ्ग को देख लिङ्गी का बोध - संसार में देखने में नहीं पाता । अतः बुद्धि इस बात को स्वीकार करती है कि यह शिक्षा मनुष्य को कहीं बाहर से प्राप्त होती है । इस आदि बाह्यज्ञान का नाम ही वेद है।
हमारे इस कथन से स्पष्ट है कि आदि ऋषियों को भी जब तक बाह्य सहायता न मिले, ज्ञान की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। विना निमित्त ज्ञान के सामान्य ज्ञान से विशेष ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती। केवल अनुभवमात्र से ज्ञान की वृद्धि नहीं हो सकती, यही हमारा कहना है ।
पूर्वोक्त विषय का निष्कर्ष यह हुआ कि मनुष्य के ज्ञान (बुद्धि) के विकास के साधन वादियों के मतानुसार पाँच प्रकार के ठहरते हैं ▪️(१) माता ▪️(२) पिता ▪️(३) आचार्य ▪️(४) स्वाभाविक ज्ञानबुद्धि, और ▪️(५) प्राकृतिक जगत्।
इनमें माता पिता से जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह भी नैमित्तिक ज्ञान ही है, जिस से ज्ञानवृद्धि की पुष्टि होती है, परन्तु सृष्टि के आदि में माता-पिता का अभाव होने से ज्ञानविकास की प्रक्रिया को सुलझाने में ये दोनों (माता पिता द्वारा ज्ञान होना) हेतु असमर्थ हैं। आचार्य के द्वारा ज्ञान का विकास होता है, जैसा कि- 🔥"प्राचारं ग्राहयति,...... प्राचिनोति बुद्धिमिति वा" (निरु० १।४) में कहा है। यह हेतु हमको सर्वाश में उपादेय है, क्योंकि हम भी तो यही कहते हैं कि सब मनुष्यों का आदिगुरु वा आदि आचार्य परमेश्वर है, जो सबको सृष्टि के आदि में सदा ज्ञान प्रदान करता है। अन्य कोई मनुष्य आदि आचार्य उस समय नहीं हो सकता, क्योंकि उसे दूसरे आचार्य की, उसको तीसरे की अपेक्षा रहेगी। इस प्रकार अनवस्था उत्पन्न होकर परमेश्वर के आचार्यत्व में ही जाकर समाप्ति हो सकती है।
अब हम स्वाभाविक ज्ञान को लेते हैं । यह हम पहले कह चुके हैं, कि स्वाभाविक ज्ञान नैमित्तिक ज्ञान के ग्रहण का साधन तो है, परन्तु वही स्वयं विकसित होकर मनुष्य के व्यवहारादि के ज्ञान के लिये पर्याप्त हो जाता है, यह ठीक नहीं। प्रतिदिन हम देखते हैं कि स्वाभाविक ज्ञानवाले बच्चे वर्तमान हैं, परन्तु उनको पढ़ाने के लिये अन्य की आवश्यकता पड़ती ही है। नहीं तो जङ्गली मनुष्य या पशु के स्वाभाविक ज्ञान में वृद्धि क्यों नहीं होती? भाव यह है कि स्वाभाविक ज्ञान भी नैमित्तिक ज्ञान से ही बुद्धि विकास में समर्थ है, स्वयं नही।
पाँचवाँ प्राकृतिक जगत् भी जानी जानेवाली सामग्री ही तो है, और इसमें भी सन्देह नहीं, कि यह किसी न किसी अंश में ज्ञान का साधन भी हो जाता है, परन्तु सबके लिये यह उसी रूप में साधन होता है, यह ठीक नहीं। अन्यथा इस बात का हमें कोई उत्तर नहीं मिलता कि विद्यालय की दीवार पर टँगा हुमा मानचित्र (नक्शा) वा स्कूल में बना हुआ माडल (नमूना) विना अध्यापक के पढ़ाये बच्चे के ज्ञान को क्यों विकसित नहीं कर देते ? लोक में भी नदी, पहाड़ दिखलाई पड़ते हैं, फिर इनका नाम न जानने वाले व्यक्ति को अपनी संज्ञा का बोध क्यों नहीं करा देते, जिससे कि वह मनुष्य स्वयं बोल उठे, यह नदी है, यह पर्वत है।
प्राकृतिक जगत् से होनेवाले इस ज्ञान के लिये आवश्यक है कि नाम और गुण पहले ज्ञात होने चाहियें। लोक भी इस बात का साक्षी है कि वह किसी भूषण को बनाने से पूर्व उसका नाम मात्र बताता है कि अमुक भूषण बना देना। यह नहीं होता कि सोना पहले भूषण बन जावे और फिर उसकी प्राकृति और नाम निश्चित हो।
अत: नाम और वस्तु साथ-साथ होते हैं और उसका गुण भी उसके साथ-साथ रहता है। इसलिये सारी प्रक्रिया का सुलझाव इस बात में है कि मनुष्य ज्ञान-विकासवाद की इस प्रक्रिया में ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तीनों को अनादि माने, जैसा कि हम वैदिक लोग मानते हैं।
हमारे उपर्युक्त समस्त प्रतिपादन से सिद्ध है कि विना बाह्यज्ञान वा नैमित्तिक ज्ञान के मनुष्यों का व्यवहार कदापि नहीं चल सकता। पादिज्ञान के अन्य सभी काल्पनिक वा सम्भव उपायों की असमर्थता हमने ऊपर सिद्ध की। अत: 🔥"पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्" शास्त्र के इस वचनानुसार उस आदिगुरु परमदेव परमात्मा के विना और कोई शरण नहीं हो सकती, अर्थात् समस्तज्ञान के आदिस्रोत उस परब्रह्म से ही ज्ञान मिले, तभी जीव का कल्याण है, 'नान्यः पन्था विद्यते' और कोई मार्ग नहीं।
✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
(जन्म- १४ अक्तूबर १८९२, मृत्यु- २२ दिसम्बर १९६४)
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥

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