Thursday, January 30, 2020

ईश्वरीय-ज्ञान की आवश्यकता [भाग-२]




◼️ईश्वरीय-ज्ञान की आवश्यकता [भाग-२]◼️
✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
गत पोस्ट से जारी….
◾️(४) विना ईश्वर के आदि ज्ञान में अन्य सम्भवनीय पक्ष और उनका निराकरण -
इस आदि ज्ञान के प्राप्त होने के विषय में कई प्रकार की अन्य सम्भवनीय कल्पनायें भी हो सकती हैं, जिन पर संक्षेप से विचार करते है -
▪️(१) यदि कोई कहे कि बहुत से जीवों के परस्पर सम्पर्क वा मेल से शिक्षा का क्रम चल पड़ेगा, क्योंकि बहुतों की अल्पज्ञता वा सामान्य ज्ञान मिल कर बहुज्ञता वा विशेषज्ञान बन जायगा। परन्तु सूक्ष्मदृष्टि से विचार करने पर यह बात सत्य प्रमाणित नहीं होती। पशुओं का उदाहरण हमारे सामने है, एक सहस्र गो या भेड़-बकरी मिलकर भी किसी विशेष रचना-रोटी बना लेना, नदी का पुल बांधना, या कोई अन्य आवश्यक साधन बना लेना आदि नहीं कर सकते, यद्यपि स्वाभाविक ज्ञान उन सब में है। इससे सिद्ध है कि सृष्टि के आदि में जीवों के सामान्य ज्ञान से विशेषज्ञान उत्पन्न कभी नहीं हो सकता, जब तक कि उसमें नैमित्तिकज्ञान का सहारा न हो, अर्थात् सामान्य ज्ञान विशेषज्ञान का ग्राहक होता है । इसी आदि नैमित्तिकज्ञान को, जो बुद्धि का सहायक ज्ञान है, हम 'ईश्वरीयज्ञान वेद' कहते हैं। अतएव इसकी आवश्यकता अनिवार्य है।
▪️(२) यदि यह कहा जावे कि जीवात्मा सदा उन्नति करता है, अत: समय पाकर सर्वज्ञ हो जायगा। यह भी ठीक नहीं, क्योंकि जीवात्मा बिना निमित्त के कभी भी उन्नति नहीं कर सकता। वृद्धि क्या है ? अपने उपयोगी अवयवों को प्रकृति से वा कहीं से ग्रहण करने का नाम ही तो वृद्धि है। अत: ज्ञान की वृद्धि भी नये ज्ञान (नैमित्तिक ज्ञान) के द्वारा ही होगी, अन्यथा नहीं। सृष्टि के आदि के इसी ज्ञान को हम 'ईश्वरीय ज्ञान' कहते हैं।
▪️(३) यदि कहा जावे कि मनुष्य अपने आप ही अपने पूर्वजों से आये हुये ज्ञान वा अपने अनुभव द्वारा शनैः शनैः[१] उन्नति कर लेगा, ईश्वरीय ज्ञान की आवश्यकता ही क्या है। यद्यपि यह बात साधारण दृष्टि से देखने में ठीक प्रतीत होती है, परन्तु कुछ गहराई से विचारने से यह बात भी ठीक नहीं हो सकती, क्योंकि मनुष्य का ज्ञान उसके अनुभवमात्र का ही फल नहीं है। हम प्रतिदिन देखते हैं कि रोगी को वैद्य किसी हानिकारक वस्तु के खाने से मना कर देता है,परन्तु वह उसको प्रमादवश खा पी लेता है और अपने रोग को दिनों के स्थान में सप्ताहों तक ले जाता है। ऐसी भूल एक बार नहीं अनेकों बार निरन्तर होती देखी जाती है। प्रतिदिन हम यह भी देखते हैं कि दीपक पर पतङ्गा आता है, उसका अनुभव उसकी ज्ञानवृद्धि में कुछ भी सहायता नहीं करता, और न ही उसके भावी (आनेवाले) पतङ्गों की ज्ञानवृद्धि में कुछ भी कारण होता है। उसके अनुभव से आगे आनेवाले पतङ्ग जलने से बच जावें, ऐसा देखने में नहीं आता, अर्थात् वे आगे जलने बन्द नहीं होते। और तो और किसी कुल में चाहे वह कितना ही शिक्षित वा ज्ञान युक्त हो, ब्राह्मण कुल हो या क्षत्रियकुल, विना पढ़े वा सीखे शास्त्रसम्बन्धी ज्ञान वा युद्ध विज्ञानसम्बन्धी अनुभव आनेवाली सन्तति को कुछ भी प्राप्त नहीं हो पाता, जब तक कि वे अपने बड़े वा अन्यों से सीखते नहीं, चाहे उस कुल में शास्त्रों का ज्ञान वा रणविज्ञान अनेकों पीढ़ियों से कितना भी अधिक चला पा रहा हो । उनके कुल में जो भी सन्तति हो, उसे पढ़ना न पड़ता हो, ऐसा कभी देखने में नहीं पाया। किन्तु इससे विपरीत महाविद्वान् और महापुरुषार्थी का पुत्र महामूर्ख और महाआलसी तक देखने में आता है।
⚠️- - ध्यान दें❗️- -⚠️
💎१. शनैः शनै उन्नति वा विकासवाद का सिद्धान्त ठीक नहीं, इस विषय में पाश्चात्यों की दृष्टि से कुछ विचार उपस्थित करते हैं -
🧐(प्रश्न) विकासवादी अपने पक्ष का समर्थन इस तरह करते हैं कि पहिले के लोगों में ज्ञान की कमी थी। अब लोगों में ज्ञान का विकास चरम सीमा पर पहुच चुका है । अत: मानना पड़ेगा कि ज्ञान का क्रमिक विकास होता है।
😎(उत्तर) इसका समाधान यह है कि पहिले के लोग मूर्ख और जङ्गली नही थे, अपितु आजकल के ज्ञानी और सभ्यों से अधिक ज्ञानी और सभ्य थे। इस विषय में स्वयं पाश्चात्य क्या कहते हैं, सो देखिये-
▪️(i) गैल्टन-"यूनानियों की मध्य योग्यता न्यून से न्यून कूती जावे तो हमारी सभ्यता से दो दर्जे ऊपर की अर्थात् लगभग उतनी ऊँची थी, जितनी हमारी जाति अफ्रीका के हब्शियों से ऊँची है ॥"
“It follows from this that the average ability of the Athenian Race on the lowest possible estimate, very nearly two grades higher than our own, that is, about as much as our own race is above that of the African negro. Heriditary Genus by Galton.
▪️(ii) पानफील्ड-"पैथागोरस, अनकसासोरस और विरहो आदि यूनानी विद्वान् भारतवर्ष में शिक्षा प्राप्त कर यूनान के प्रसिद्ध वैज्ञानिक बने ।" History of Philosophy Vol. I पृ० ६५
▪️(iii) डा० वैलेस- "We must admit that the mind, which conceived and expressed in appropriate language rich ideas as are everywhere apparent in these Vedic hymhs, could not have heen in anyway inferior to those of the best of our Miltons and our Tennysons.” Social environments and the moral progress by Dr. Wales.
अर्थात् “वेद की ऋचाओं से जो विचार प्रकट होते हैं, उनके (यदि मनुष्य न लिखे हों तो भी सं०) लेखक हमारे उत्तम से उत्तम धार्मिक शिक्षकों तथा हमार मिल्टन और टेनीसन और सर्वश्रेष्ठ कवियों से किसी प्रकार हीन नहीं थे॥"
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ऐसी दशा में यह नहीं कहा जा सकता है कि ज्ञान अनुभव से बढ़ता है और आप ही आप आनेवाली सन्तति को मिल जाता है। ज्ञान यदि स्वयं प्राप्त होनेवाला होता तो भविष्य में भी अपने आप ही कुल-परम्परा में मिलता रहता, परन्तु ऐसा ज्ञान तो नैमित्तिक है, विना निमित्त के हो ही कैसे सकता है ?
आज इतनी ज्ञान की उन्नति हो जाने पर भी कोई मनुष्य अपने अनुभवमात्र से ज्ञान की वृद्धि नहीं कर सकता, नहीं तो प्रत्येक जङ्गली विना पढे व्याकरण वा गणित का आचार्य क्यों नहीं बन जाता, वा हर कोई व्यक्ति विज्ञान-सम्बन्धी यन्त्रों की रचना क्यों नहीं कर लेता ? इससे यही प्रमाणित होता है कि नैमित्तिक ज्ञान के विना केवल अनुभव से ज्ञान कदापि नहीं बढ़ सकता।
यह बात सुतरां सिद्ध है कि सृष्टि के आदि में जब मनुष्य प्रारम्भिक दशा में था, उसने अपने अनुभवमात्र से ज्ञान में वृद्धि कर ली और वह ज्ञान उसकी कुल-परम्परा में स्वयं हो गया, यह कैसे माना जा सकता है ? ऐसी दशा में यही मानना पड़ता है कि जान की वृद्धि नैमित्तिक होती है और सृष्टि के आदि में वह ज्ञान मनुष्यों को परमदेव परमेश्वर की दया से ही प्राप्त होता है।
▪️(४) यदि यह कहा जावे कि ज्ञान से ज्ञेय जाना जाता है, ज्ञेय के गुणों से भी तो ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है, मानचित्र (नकशे) को देख कर भी तो भूगोल का ज्ञान होता है, भूगोल को पढ़कर भी मानचित्र (नकशे) का ज्ञान प्राप्त होता है । इसी प्रकार प्रारम्भ में सृष्टि को देख कर ज्ञान हो सकता है। सबको नहीं तो तीवबुद्धि वालों को ही पहले हुआ होगा। आदिसृष्टि में मनुष्य ईर्ष्या, द्वेष से रहित थे। उनकी बुद्धि मलीन न होने से दिव्यशक्ति द्वारा संसार में कार्य होते देख कर, उसी से ज्ञान सञ्चित कर लिया, वही क्रमपरम्परा से चला और वेद कहा जाने लगा।
पूर्वपक्षी का यह कहना भी ठीक नहीं, प्रथम तो ज्ञेय से ज्ञान की प्राप्ति बहुकालसाध्य होगी। इसकी अपेक्षा ज्ञान से ज्ञेय का बोध बहुत ही सुगम पड़ता है। यदि आयुर्वेदादि का ज्ञान वस्तुओं को चख-चख कर अर्थात् एक-एक वस्तु के पृथक्-पृथक् परीक्षण से होना होता तो संसार में आज वैद्यकशास्त्र का लोप ही हो चुका होता। इस प्रकार भिन्न-भिन्न प्राप्त ज्ञाताओं के ज्ञान का समन्वय कैसे हो पाता, यह भी विचारने की बात है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अनुभव मात्र से यथेष्ट ज्ञान की वृद्धि नहीं हो सकती । जैसा कि हम ऊपर कह पाये हैं।
विचार करने से ज्ञात होता है कि मनुष्य के साथ प्रकृति का वह सम्बन्ध नहीं, जो उसका पशुओं के साथ है, इसलिये उसकी स्थिति सर्वथा ही प्रकृति के सहारे नहीं रह सकती। इसका कारण यही है कि मनुष्य पशु नहीं है, किन्तु ज्ञानी जीव है, अतः उसे प्रकृति वा कार्यजगत् से कोई प्रेरणा नहीं मिल सकती।
प्रश्न होता है कि जब मनुष्य ने सृष्टि अर्थात् कार्यजगत् को देखकर ही आरम्भ में अपनी ज्ञान-वृद्धि क्रमशः कर ली, तो वर्तमान में भी क्रमशः ज्ञानवृद्धि का वह क्रम क्यों लुप्त हो गया? यदि कोई कहे, कि आदि सृष्टि अमैथुनी थी, इसलिये वह क्रम नहीं रहा। जैसे वर्तमान अवस्था में अमैथुनी सृष्टि नहीं, ऐसे ही ज्ञान की क्रमश उन्नति का वह क्रम भी नहीं। यह भी इसलिये ठीक नहीं कि आरम्भ में तो जोड़े उत्पन्न होने से पूर्व अमैथुनी सृष्टि का होना अनिवार्य है, जब जोड़े सम्पन्न हो गये तो आगे अमैथुनी सृष्टि की आवश्यकता ही नहीं रह जाती, पर पशुओं में तो क्रमशः ज्ञान उत्पन्न होते रहने का क्रम तो चल सकता था, इसमें तो कुछ भी बाधा नहीं थी, वह क्यों बन्द हो गया ? जब से मनुष्य समाज का इतिहास उपलब्ध होता है, तब से आज तक किसी ने भी इस बात को प्रमाणित नहीं किया कि गौ, घोड़े या तोते ने क्रमश: ज्ञानोन्नति द्वारा कोई औषधालय खोल दिया हो, जिसमें मनुष्यों की नहीं तो कम से कम पशुओं की ही चिकित्सा का मार्ग खुल गया हो, और तो और अपनी ही चिकित्सा करली हो, ऐसा भी देखने में नहीं आया।
अतः सृष्टि में कार्यों को देखकर अर्थात् केवल ज्ञेय से ज्ञान की वृद्धि आदि सृष्टि में हो सके, बुद्धि इस बात को स्वीकार नहीं करती।
योगियों को ज्ञेय सृष्टि से जो ज्ञान होता है, वह भी नैमित्तिक ज्ञान के विना कभी नहीं हो सकता। उसमें भी विना पूर्व उपलब्ध ज्ञान के निमित्त तथा योग की शिक्षा के प्राप्त किये बिना किसी भी व्यक्ति को उक्त ज्ञान कभी नहीं हो सकता।
हमारा कहना यह है कि पदार्थों को देखकर अपनी ज्ञानशक्ति को विना किसी निमित्त के बढ़ाया नहीं जा सकता, इसमें दृष्टान्त पशुओं की ज्ञान-वृद्धि का न होना ही है।
देखिये ! सूर्य के निमित्त से चक्षु में पदार्थों को प्रत्यक्ष देखने की शक्ति अधिक हो जाती है, इससे रूपज्ञान तो हो जाता है परन्तु विशेष ज्ञान का अभाव ही रहता है। विशेषज्ञान की शक्ति सब जीवों में स्वतः रहती है, जिसका साधारण मनुष्य को ज्ञान नहीं होता। क्योंकि संसार में रूपज्ञान पशु-पक्षी सबको प्राप्त है, पर उनको प्रत्यक्ष से अतिरिक्त अनुमानादिजन्य ज्ञान-कार्य को देख कारण का ज्ञान, वा लिङ्ग को देख लिङ्गी का बोध - संसार में देखने में नहीं पाता । अतः बुद्धि इस बात को स्वीकार करती है कि यह शिक्षा मनुष्य को कहीं बाहर से प्राप्त होती है । इस आदि बाह्यज्ञान का नाम ही वेद है।
हमारे इस कथन से स्पष्ट है कि आदि ऋषियों को भी जब तक बाह्य सहायता न मिले, ज्ञान की प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। विना निमित्त ज्ञान के सामान्य ज्ञान से विशेष ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती। केवल अनुभवमात्र से ज्ञान की वृद्धि नहीं हो सकती, यही हमारा कहना है ।
पूर्वोक्त विषय का निष्कर्ष यह हुआ कि मनुष्य के ज्ञान (बुद्धि) के विकास के साधन वादियों के मतानुसार पाँच प्रकार के ठहरते हैं ▪️(१) माता ▪️(२) पिता ▪️(३) आचार्य ▪️(४) स्वाभाविक ज्ञानबुद्धि, और ▪️(५) प्राकृतिक जगत्।
इनमें माता पिता से जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह भी नैमित्तिक ज्ञान ही है, जिस से ज्ञानवृद्धि की पुष्टि होती है, परन्तु सृष्टि के आदि में माता-पिता का अभाव होने से ज्ञानविकास की प्रक्रिया को सुलझाने में ये दोनों (माता पिता द्वारा ज्ञान होना) हेतु असमर्थ हैं। आचार्य के द्वारा ज्ञान का विकास होता है, जैसा कि- 🔥"प्राचारं ग्राहयति,...... प्राचिनोति बुद्धिमिति वा" (निरु० १।४) में कहा है। यह हेतु हमको सर्वाश में उपादेय है, क्योंकि हम भी तो यही कहते हैं कि सब मनुष्यों का आदिगुरु वा आदि आचार्य परमेश्वर है, जो सबको सृष्टि के आदि में सदा ज्ञान प्रदान करता है। अन्य कोई मनुष्य आदि आचार्य उस समय नहीं हो सकता, क्योंकि उसे दूसरे आचार्य की, उसको तीसरे की अपेक्षा रहेगी। इस प्रकार अनवस्था उत्पन्न होकर परमेश्वर के आचार्यत्व में ही जाकर समाप्ति हो सकती है।
अब हम स्वाभाविक ज्ञान को लेते हैं । यह हम पहले कह चुके हैं, कि स्वाभाविक ज्ञान नैमित्तिक ज्ञान के ग्रहण का साधन तो है, परन्तु वही स्वयं विकसित होकर मनुष्य के व्यवहारादि के ज्ञान के लिये पर्याप्त हो जाता है, यह ठीक नहीं। प्रतिदिन हम देखते हैं कि स्वाभाविक ज्ञानवाले बच्चे वर्तमान हैं, परन्तु उनको पढ़ाने के लिये अन्य की आवश्यकता पड़ती ही है। नहीं तो जङ्गली मनुष्य या पशु के स्वाभाविक ज्ञान में वृद्धि क्यों नहीं होती? भाव यह है कि स्वाभाविक ज्ञान भी नैमित्तिक ज्ञान से ही बुद्धि विकास में समर्थ है, स्वयं नही।
पाँचवाँ प्राकृतिक जगत् भी जानी जानेवाली सामग्री ही तो है, और इसमें भी सन्देह नहीं, कि यह किसी न किसी अंश में ज्ञान का साधन भी हो जाता है, परन्तु सबके लिये यह उसी रूप में साधन होता है, यह ठीक नहीं। अन्यथा इस बात का हमें कोई उत्तर नहीं मिलता कि विद्यालय की दीवार पर टँगा हुमा मानचित्र (नक्शा) वा स्कूल में बना हुआ माडल (नमूना) विना अध्यापक के पढ़ाये बच्चे के ज्ञान को क्यों विकसित नहीं कर देते ? लोक में भी नदी, पहाड़ दिखलाई पड़ते हैं, फिर इनका नाम न जानने वाले व्यक्ति को अपनी संज्ञा का बोध क्यों नहीं करा देते, जिससे कि वह मनुष्य स्वयं बोल उठे, यह नदी है, यह पर्वत है।
प्राकृतिक जगत् से होनेवाले इस ज्ञान के लिये आवश्यक है कि नाम और गुण पहले ज्ञात होने चाहियें। लोक भी इस बात का साक्षी है कि वह किसी भूषण को बनाने से पूर्व उसका नाम मात्र बताता है कि अमुक भूषण बना देना। यह नहीं होता कि सोना पहले भूषण बन जावे और फिर उसकी प्राकृति और नाम निश्चित हो।
अत: नाम और वस्तु साथ-साथ होते हैं और उसका गुण भी उसके साथ-साथ रहता है। इसलिये सारी प्रक्रिया का सुलझाव इस बात में है कि मनुष्य ज्ञान-विकासवाद की इस प्रक्रिया में ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तीनों को अनादि माने, जैसा कि हम वैदिक लोग मानते हैं।
हमारे उपर्युक्त समस्त प्रतिपादन से सिद्ध है कि विना बाह्यज्ञान वा नैमित्तिक ज्ञान के मनुष्यों का व्यवहार कदापि नहीं चल सकता। पादिज्ञान के अन्य सभी काल्पनिक वा सम्भव उपायों की असमर्थता हमने ऊपर सिद्ध की। अत: 🔥"पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्" शास्त्र के इस वचनानुसार उस आदिगुरु परमदेव परमात्मा के विना और कोई शरण नहीं हो सकती, अर्थात् समस्तज्ञान के आदिस्रोत उस परब्रह्म से ही ज्ञान मिले, तभी जीव का कल्याण है, 'नान्यः पन्था विद्यते' और कोई मार्ग नहीं।
✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
(जन्म- १४ अक्तूबर १८९२, मृत्यु- २२ दिसम्बर १९६४)
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥

ईश्वरीय-ज्ञान की आवश्यकता [भाग-१]




◼️ईश्वरीय-ज्ञान की आवश्यकता [भाग-१]◼️
✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
◾️(१) सृष्टि के आरम्भ में ज्ञान मिलना आवश्यक है -
साधारण मनुष्य भी किसी छोटे से छोटे कार्य का प्रारम्भ करता है, तो वह उसमें सबसे पहले कुछ नियम वा व्यवस्था निश्चित करता है, जिसको लक्ष्य में रखकर सभी कार्यकर्तामों को चलना होता है। यदि माता पिता वा गुरु अपने पुत्र-पुत्रियों वा शिष्यों को विना बताये, कि यह करने योग्य है, यह करने योग्य नहीं, ताड़ना वा दण्ड देते हैं, या कोई मनुष्य अपने भृत्यों को विना बतलाये, कि ऐसा करना, ऐसा नहीं करना, दण्ड देता है, तो उसे कोई बुद्धिमान् नहीं कह सकता। ऐसी अवस्था में दो प्रकार का भाव मन में आवेगा कि या तो उस बालक वा भत्यादि ने कोई अपराध किया है, या दण्ड देनेवाला अन्यायी है। इसी प्रकार जगदीश्वर द्वारा भला इतनी भूल कैसे हो सकती है कि विना नियम या व्यवस्था के बनाये और बताये संसार में जीवों को प्रारम्भ से ही एक जैसे सुख-दुःखयुक्त उत्पन्न न करके, भिन्न-भिन्न सुख या दुःख से युक्त उत्पन्न करता?
अतः सदा सृष्टि के आदि में वेद का ज्ञान प्राप्त होना अनिवार्य है। इसके बिना संसार को कोई व्यवस्था नहीं चल सकेगी, यह व्यवस्था तभी चल सकती है, जब प्रारम्भ में यह ईश्वरीयज्ञान जीवों को प्राप्त हो और साथ ही जीवों में भी उसके ग्रहण की शक्ति विद्यमान हो, जिसे कि हम स्वाभाविक ज्ञान कहते हैं।
◾️(२) बाहयज्ञान के विना नैसर्गिक ज्ञानमात्र से काम नहीं चल सकता -
प्राणिजगत् का अध्ययन करने से हमें पता चलता है, कि चाहे पशु पक्षी हों या मनुष्य, सब जीवों में हम स्वाभाविकज्ञान की मात्रा अवश्य पाते हैं, चाहे वह न्यूनाधिक मात्रा में ही पाई जाती हो, जो न्यूनाधिकता विधाता की रचना के कारण है। मनुष्य उसको न तो समझ ही सकता है, न उसका अन्त ही पा सकता है । वर्तमान जगत् में हम प्रत्येक देह धारी के जन्म से लेकर मरणपर्यन्त दूसरों के सम्पर्क वा सम्बन्ध से, चाहे वे माता पिता हों वा अन्य, ज्ञान की वृद्धि का होना निरन्तर पाते हैं। इस प्राकृतिक नियम से कोई प्राणी नहीं बचा, यह सर्वसम्मत है। इसी प्रकार सर्गारम्भ में जब सब जीव अपने स्वाभाविक ज्ञान से युक्त होते हैं, तब पशुओं के सब व्यवहार तो वर्तमान की भाँति उसी स्वाभाविक ज्ञान मात्र से चल ही जाते हैं, जैसा कि वर्तमान में भी पशु पैदा होते ही तैरना जानते हैं, परन्तु मनुष्य का बच्चा बिना सीखे नहीं तैर सकता। पशुजगत् की विशेषता यह भी है, कि वह अपने स्वाभाविक भोजन को स्वयं पहचान लेता है, पर मनुष्य के बच्चे को अपने खाद्य पदार्थ में भी विवेक ज्ञान नहीं होता। विषयुक्त अन्न को बन्दर तो पहचान कर छोड़ देगा, पर मनुष्य जब तक जिह्वा पर रखकर न देखे, नहीं जान सकता। इसका निष्कर्ष यह है कि पशुजगत् का काम नैसर्गिक विवेक से चल जाता है, पर मनुष्य का व्यवहार विना [१] नैमित्तिक प्रज्ञा (विना किसी के सिखाये) के नहीं चल सकता । अतः आवश्यक है कि सृष्टि के आदि में जो मनुष्य उत्पन्न हुये, उनको इस व्यवहार का ज्ञान किसी शक्ति से मिले। जिस शक्ति से वह मिला, वह ईश्वर है और जो ज्ञान मिला वह वेद है। इस का स्पष्टीकरण योगसूत्र 🔥"पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेवात्" (योगसूत्र १।२६) से हो रहा है।
⚠️- - ध्यान दें❗️- -⚠️
💎१. इस विषय में हम कुछ पाश्चात्यों के विचार भी उपस्थित करते हैं
▪️(i) यूनान के राजा सेमिटिकल, फेड्रिक द्वितीय तथा चतुर्थ जेम्स ने १०-१२ नवजात बालकों को शीशे के मकान में रखा। धाईयों को शिक्षा देने वा सामने बोलने आदि से भी सर्वथा मना कर दिया गया। परिगाम में सभी ज्ञान रहित- बहिरे वा गूगे थे।
▪️(ii) अकबर बादशाह ने भी कुछ बच्चों पर ऐसा ही प्रयोग करके देखा था। वह भी इसी परिणाम पर पहुंचा था।
-Transaction of the Victoria Institute Vol. I, पृ० ३३६
▪️(iii) क्रमश: ज्ञानविकास में कोई प्रमाण नहीं, कई पाश्चात्य ऐसा मानने लगे हैं -
(क) "There is no proof of continuously increasing inte llectual power" (Social environments and moral progress.)
(ख) डा. वालेस ने मैसोपोटामिया की खुदाई में प्राप्त कलाओं और लेखों पर विचार करते हुये उनको आज कल की अच्छी से अच्छी कलाओं के समान माना है।
(ग) सर प्रालिवर लाज ने अपनी पुस्तक Life and Matter में क्रमश: मानविकास का सिद्धान्त माननेवालों से प्रश्न किया है कि विना बताये फोटोग्राफी आदि कलानों का विकास स्वयं कैसे हुआ ?
(घ) डा. बालफोर ने भी लाज के उपर्युक्त मत का समर्थन किया है।
(देखें-वैदिक ज्योति:, पृ० ४.१०) ॥
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हमारा अभिप्राय यह है कि मनुष्य का व्यवहार विना बाह्य सहायता के नहीं चल सकता । सृष्टि के आदि में भी मनुष्य का ज्ञान वा व्यवहार कैसे चला होगा, जब तक कि उसे बाह्य सहायता प्राप्त न हो। अतः बाह्य सहायता अनिवार्य है। प्रादि सृष्टि में प्राप्त इसी बाह्य ज्ञान की सहायता वा नैमित्तिक ज्ञान को हम 'ईश्वरीयज्ञान' या 'वेद' कहते हैं, जो ईश्वर द्वारा दिया जाता है।
◾️(३) उपर्युक विषय में अन्य रीति से विचार -
इस बात को हम एक अन्य प्रकार से भी विचारते हैं कि स्वाभाविक ज्ञान को सहायता की आवश्यकता अनिवार्य है। संसार में हम देखते हैं कि प्रत्येक बाह्य ज्ञानेन्द्रिय को बाह्य सहायता की आवश्यकता है। नेत्र विना सूर्य की सहायता के कुछ भी नहीं देख सकता। यद्यपि दीपक बिजली आदि मनुष्य ने बनाये, पर उनसे मनुष्य का उतना काम नहीं चल सकता, जितना सूर्य से। चक्षु विना सूर्य की सहायता के निकम्मा है। यदि संसार में सूर्य न होता, तो नेत्र का होना न होना बराबर था। यह ठीक है कि यदि नेत्र न होता तो सूर्य के प्रकाश से भी लाभ नहीं उठाया जा सकता था। सूर्य की उष्णता से बहुत से कार्य चलते हैं, पर प्रकाश केवल नेत्र की सहायता का ही कार्य कर सकता है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों की अवस्था है। कान विना आकाश के, त्वचा विना वायु के, जिह्वा विना जल के तथा घ्राण विना पृथिवी के व्यर्थ हैं।
इस विवेचना से यह सिद्ध है कि मनुष्य की प्रत्येक बाह्य ज्ञानेन्द्रिय बिना बाह्य सहायता के कार्य नहीं कर सकती। अब यहाँ इतना और विचारना चाहिये कि इसी प्रकार आन्तरिक करण (ज्ञान, बुद्धि) भी विना बाह्य सहायता के कुछ नहीं कर सकती, क्योंकि बाह्यज्ञान आन्तरिक (स्वाभाविक) ज्ञान के बिना नहीं हो सकता। जब ईश्वर की व्यवस्थानुसार प्राकृतिक नियम ने प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय (बाह्य करण) से पूर्व प्रत्येक इन्द्रिय का सहायक देवता उत्पन्न किया, तो सर्वोत्तम तथा सूक्ष्म पदार्थों के जानने के साधन (स्वाभाविक ज्ञान) का कोई सहायक न बनाता, यह बात मानने योग्य प्रतीत नहीं होती, न ही मानी जा सकती है। मनुष्य दीपक के प्रकाश में जैसे थोड़ी दूर तक की वस्तु देख पाता है, पर सूर्य के प्रकाश में बहुत दूर तक की वस्तु भी स्पष्ट देख सकता है, यही अवस्था बुद्धि की समझनी चाहिये। जिस प्रकार का प्रकाश अर्थात् ज्ञान प्राप्त होगा, वैसा ही स्थूल, सूक्ष्म ज्ञान मनुष्य को होता रहेगा। अत: प्रारम्भ में पूर्ण ज्ञान का मिलना ही आवश्यक है।
इस सारे विवेचन से यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि सृष्टि के आदि में बुद्धि अर्थात् स्वाभाविक ज्ञान की सहायता के निमित्त पूर्णज्ञानापरब्रह्म परमेश्वर द्वारा पूर्ण ज्ञान (वेद) का जीवों को प्राप्त होना अनिवार्य है। इसके विना संसार का कोई व्यवहार चलना ही असम्भव था, यही बात बुद्धिसङ्गत बैठती है।
◾️(४) विना ईश्वर के आदि ज्ञान में अन्य सम्भवनीय पक्ष और उनका निराकरण - [उक्त विषय व लेख का शेष भाग अगली पोस्ट में…]
✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
(जन्म- १४ अक्तूबर १८९२, मृत्यु- २२ दिसम्बर १९६४)
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥

वेदज्ञान का स्वरूप






◼️वेदज्ञान का स्वरूप◼️
✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
अब हम आदि-ऋषियों को जो ज्ञान प्राप्त हुआ, उसका स्वरूप क्या था? इस विषय पर कुछ प्रकाश डालने का यत्न करते हैं। ज्ञान का क्या स्वरूप है, पहले इस बात को समझ लेना आवश्यक होगा। ज्ञान दो प्रकार का कहा जा सकता है- ▪️स्वाभाविकज्ञान तथा ▪️नैमित्तिकज्ञान। स्वाभाविक ज्ञान का स्वरूप हमें पशु-पक्षियों में स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा है, जो खाने-पीने, सन्तानक्रिया तथा पालनादि तक ही रहता है । नैमित्तिक ज्ञान वह है, जो बाह्य निमित्त से प्राप्त हो। ईश्वरीयज्ञान स्वाभाविकज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि स्वाभाविकज्ञान से मनुष्य के मस्तिष्क में ऐसी शक्ति उत्पन्न नहीं हो सकती, जिससे वह अपना ज्ञान अधिक विस्तृत कर सके । इसका प्रमाण सब विना पढ़े लिखे और जङ्गली मनुष्य हैं । वे विना सीखे सौ तक गिनना भी नहीं जान सकते। उधर संसार में विस्तृत और विशाल ज्ञान देखने में आता है, अतः हमें कहना पड़ता है कि यह स्वाभाविक ज्ञान का परिणाम नहीं। अतः आदिज्ञान नैमित्तिकज्ञान ही हो सकता है, जो जगदीश्वर ने सृष्टि के प्रादि में ऋषियों के हृदय में प्रकाशित कर दिया वा उनके हृदयों में प्रविष्ट हुआ। उसे हम प्रविष्ट होनेवाला नैमित्तिकज्ञान कह सकते हैं।
यदि हम वेद को हित-अहित के सम्पादन करनेवाले साधनों के बोधक वाक्य, अर्थात् 🔥"हिताहितसाधन-बोधकत्वं वेदत्वम्" ऐसा कह दें, तो इस अवस्था में ऋषि-मुनियों के वाक्य भी हित-अहित साधन को बतलाने वाले हो सकते हैं, जो ईश्वरोक्त नहीं । अत: वेद उस अपौरुषेय (मनुष्योच्चरित से भिन्न) वाक्यसमूह का नाम है, जो हित-अहित साधनों का बोध कराता हो, अर्थात् 🔥"अपौरुषेयत्वे सति हिताहितसाधनबोधकत्वं वेदत्वम्" ऐसा लक्षण करना होगा। यह लक्षण ऋग्, यजुः, साम, अथर्व चारों पर घटित हो जाने से इनको हम वेद कहते हैं। नित्य-शब्दार्थ सम्बन्ध रखनेवाले अपौरुषेय वाक्यसमूह का नाम वेद है, जिसकी वर्णानुपूर्वी, पद तथा स्वर सब नित्य हैं, क्योंकि पुरुष की विद्या अनित्य होने से वेद ही नित्यज्ञान कहा जा सकता है (निरु० १।१), और यही वेद हम तक परम्परा से बराबर यथावत्रूप में पहुंचता चला आ रहा है।
इस विषय में भिन्न-भिन्न विचारधाराओं का उठना अस्वाभाविक
नहीं। इसीलिये कई एक कहते हैं
◾️(१) ये वेद उन ऋषियों की ही कृति हैं, जो आदि में हुये या जिनके नाम वेदमन्त्रों के ऊपर अभी तक लिखे चले आ रहे हैं। इसका उत्तर हम पूर्व ही दे चुके हैं कि बिना नैमित्तिकज्ञान के आदि ऋषियों का ज्ञान भी कभी नहीं बढ़ सकता। यदि कहो कि ज्ञान तो वह सब परमात्मा का ही था, ऋषियों ने उसे मन्त्ररूप में, रचा। सो जब ज्ञान ईश्वर का था, रचने की विद्या भी ईश्वर से ही उन्होंने सीखी होगी तो वह ज्ञान ईश्वरीय ज्ञान तो हुआ, इसमें भेद क्या पड़ा? समस्त शब्दार्थ-सम्बन्ध की नित्यता उस नित्य परमेश्वर से ही प्रकाशित होने में उपयुक्त रीति से ठीक बैठती है। अतः वह ज्ञान ऋषियों का नहीं कहा जा सकता। वेद ने भी 🔥"अन्वविन्दन् ऋषिषु प्रविष्टाम्" (ऋ० १०७१।३) ऋषियों में प्रविष्ट हुई को मनुष्य ग्रहण करते हैं, ऐसा कहा।
◾️(२) यदि कहा जावे कि ज्ञानमात्र का नाम वेद है, तो प्रश्न होगा कि वह पाया कहाँ से? और उसका स्वरूप क्या है ? क्या सब जीवों के ज्ञान को एकत्रित करने से जो बना, उसका नाम वेद है ? तो यह बात भी ठीक नहीं हो सकती, क्योंकि एक श्रेणी में नौ अयोग्य छात्रों के अपूर्ण ज्ञान को एकत्रित करने से भी वह ज्ञान नहीं बनता, अर्थात् यथार्थरूप में उपलब्ध नहीं हो सकता, जो दसवें एक ही योग्य छात्र द्वारा संगृहीत ज्ञान से हो सकता है।
◾️(३) यदि कहो कि वेद में केवल सिद्धान्तों का ही वर्णन है, आगे जीव स्वयं उनका विस्तार कर लेंगे। इसमें इतना तो ठीक है कि मूलभूल सिद्धान्तों का ज्ञान हो जाने से आगे विस्तार हो सकता है, पर आदि में एक बार तो उसके विस्तार करने का ज्ञान भी मिलना ही चाहिये।
◾️(४) कोई कहते हैं कि मन्त्रों पर लिखे हुये ऋषियों ने ही वेदों को बनाया, वे ही उस-उस मन्त्र के कर्ता हैं, उन्होंने क्रमशः उन्नति करते. करते बहुतसा ज्ञान मन्त्रों सहित पा लिया होगा। वे ही मन्त्र पिछले ऋषियों ने या वेदव्यास ने संग्रह करके ऋग, यजुः, साम, अथर्व नाम की चार संहिताओं के रूप में हमारे पास पहुंचाये होंगे। कालचक्र से जब मनुष्य पिछले ऋषि-मुनियों के ज्ञान को समझने में अशक्त हुये, तब कहने लगे वेदों में अपूर्व अलौकिक ज्ञान है । इन मन्त्रों की रचना करना मनुष्य की शक्ति से बाहिर है, इत्यादि ।
इसका उत्तर यही है कि विना नैमित्तिक ज्ञान के स्वाभाविक बुद्धि से ही ज्ञान की वृद्धि कदापि नहीं हो सकती, यह ऊपर पर्याप्त कहा जा चुका है। जब समस्त ऋषि-मुनि स्वयं इन वेदों को अपौरुषेय अर्थात उस परम देव जगदीश्वर की रचना वा कृति बतला रहे हैं, तो फिर यों ही कहते जाना कि ऋषियों के बनाये हैं, कहाँ तक सङ्गत कहा जा सकता है। इस विषय में ऋषियों के वचन हम आगे उपस्थित करेंगे। जब इन कर्ता कहे जानेवाले, मन्त्रों पर लिखे, ऋषियों के पूर्वजों के काल में भी वेद विद्य मान था, स्वयं वेदव्यास से बहुत पहले वेद एक नहीं चतुर्धा विद्यमान था, तो उन ऋषियों ने या व्यासजी ने वेद बनाये वा संग्रह किया वा विभाग किया, यह सब अप्रमाण ही सिद्ध होता है। इसका अधिक निरूपण हम आगे चल कर करेंगे।
◾️(५) जो महानुभाव वेद की ज्ञानात्मकता का प्रतिपादन करते हैं, वे कहते हैं कि ज्ञान और आत्मा परस्पर अभिन्न एकात्मक हैं। ज्ञान की श्रेणी मनन्त वेद का एक भाग ही तो है। उनकी ज्ञानात्मकता में यह दोष पड़ता है कि जब ब्रह्म से अतिरिक्त और कोई पदार्थ वे स्वीकार ही नहीं करते, तो वह ज्ञान है किसका? इसलिये उनका यह पक्ष ग्राह्य नहीं हो सकता। ईश्वर, जीव, प्रकृति के विषय में सप्रमाण हम प्रारम्भ में कह चुके हैं । अत: यहाँ इतना निर्देश करना ही पर्याप्त होगा।
◾️(६) बहुत से यह भी कहते हैं कि "अनन्ता वै वेदा:", ज्ञान अनन्त है, एक छोटे से ग्रन्थ में सम्पूर्ण ज्ञान आ ही कैसे सकता है ? अतः यही समझना चाहिये कि सृष्टि के आदि में जो ज्ञान मिला, वह चूकि वेद का अंश है, अतः वेद है और उस अनन्त वेद में प्रविष्ट होने का साधन है, न कि सम्पूर्ण वेद । इन चार संहितात्रों को जो वेद कहा जाता है, इसका यह अभिप्राय नहीं कि बस वेद इतना ही है, क्योंकि "अनन्ता वै वेदाः" यह वचन इसमें प्रमाण है और विचार करने पर भी यही समझ में आता है कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं हो सकती, इत्यादि ।
पूर्वपक्षी का यह कथन भी युक्त नहीं, क्योंकि अनन्त प्रभु का ज्ञान भी अनन्त है, यदि इसको लेकर कहा जावे तो ठीक है। परन्तु वेद का ज्ञान तो है ही उतना जितना कि जीवों के लिये अपेक्षित है। वेद ईश्वर का सम्पूर्ण ज्ञान नहीं। ईश्वर की दृष्टि में वह ज्ञान अनन्त नहीं हो सकता। सृष्टि के आदि में जितना ज्ञान जीवों के लिये आवश्यक था और जो परमात्मा के द्वारा दिया गया, हम उसे ही ईश्वरीयज्ञान वेद कहते हैं । स्वयं वेद ने कह दिया कि ऋक-यजुः-साम-अथर्व का ज्ञान परमेश्वर से प्राप्त हुआ। समस्त ऋषि-मुनियों ने इस बात को ही दृढ़तापूर्वक माना है, जिसका वर्णन हम आगे करनेवाले हैं। तो फिर एक वचन "अनन्ता वे वेदाः" को लेकर सारी प्रक्रिया को ही बदल डालना कैसे बुद्धिसङ्गत कहा जा सकता है ? इस वाक्य में भी "अनन्त" शब्द का प्रयोग ओपचारिक है, "अनन्तसखिवत"। 'वेद' शब्द भी वहाँ वैदिक ज्ञान वा वैदिक साहित्य के लिये कहा जा सकता है, क्योंकि वेद के व्याख्यान-शाखा-ब्राह्मण-प्रारण्यक-उपनिषद् आदि-इस वचन के निर्माणकाल में बन चुके थे। वेद चार नहीं, अनन्त हैं, इसका यह अर्थ तो आज तक किसी ने नहीं माना।
वेद के स्वरूप के विषय में इस प्रकार के और भी बहुत से वाद उठ सकते हैं, वा उठाये जा सकते हैं। उनका उत्तर भी दिया जा सकता है। पर यहाँ संक्षेप से इतना ही पर्याप्त होगा।
अब हमें ईश्वरीय ज्ञान के स्वरूप के विषय में इतना तो अवश्य जान लेना चाहिये कि उस में क्या-क्या बातें होनी अनिवार्य हैं, जिससे वह अपौरुषेय ज्ञान अन्यों से पृथक् जाना जा सके। ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करके उसकी ओर से दिया जानेवाला ज्ञान वेद है, ऐसा मान कर यह बात सुगमता से समझ में आ सकती है कि उसमें परमात्मा के सम्पूर्ण गुणों का प्रकाश अवश्य होना चाहिये। दूसरे शब्दों में परमात्मा के किसी गुण के विपरीत वह नहीं होना चाहिये, उसका सृष्टि के आदि में होना आवश्यक है, क्योंकि यदि सृष्टि के आदि में नहीं होता, तो आरम्भ से ही व्यवस्था कैसे चलेगी? सारा व्यवहार कैसे प्रारम्भ होगा? जो सृष्टि के आदि में आरम्भ नहीं हुआ, वह ईश्वरीय ज्ञान नहीं कहला सकता। अब वह ज्ञान यदि बीच-बीच में बदलता रहे, तब भी ठीक नहीं, क्योंकि इससे ईश्वर में अज्ञान वा अपूर्णता सिद्ध होगी। अत: वह ज्ञान पूर्ण और अपरिवर्तनशील होना चाहिये। परमेश्वर के एकरस होने से उसका दिया ज्ञान भी एकरस ही होना आवश्यक है। जैसे सूर्य में किसी प्रकार का अन्धकार वा मैल नहीं रहता, इसी प्रकार यह ज्ञान भी निर्मल तथा सम्पूर्ण विद्याओं से युक्त होना चाहिये, जो सभी जीवों के व्यवहार के लिये आवश्यक हो। प्रत्येक मनुष्य की समझ में न आनेवाले विषयों की विद्याओं का इसमें होना उसका दूषण नहीं, भूषण है।
कहने का भाव यही है कि वह ज्ञान पूर्ण होना चाहिये । अत: वह जीवों की आवश्यकता की पूर्ति के लिये है, अतः अन्त तक वह उनकी आवश्यकताओं को पूरा करता हो । तर्क की कसौटी पर भी पूरा उतरता हो। ऋषि-मुनियों की परम्परा के अनुगत हो। जिसमें किसी जाति वा देशविशेष के लिये नहीं, अपितु सार्वभौम नियमों का प्रतिपादन हो, जो सर्वकाल सर्वदेश में एक जैसा अपेक्षित हो ।
ये सब बातें हों, तभी समझना चाहिये कि वह ईश्वरीय ज्ञान है। इनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को वेद का परीक्षण करना चाहिये कि ये सब नियम इसमें संघटित होते हैं या नहीं ?
ये सभी नियम वेद में पाये जाते हैं, ऋषि-मुनियों का भी यही सिद्धान्त है, अत एव वैदिधर्मियों ने इस धारणा को स्वीकार किया है।
✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
(जन्म- १४ अक्तूबर १८९२, मृत्यु- २२ दिसम्बर १९६४)
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥

वेदज्ञान का प्रकाश कैसे हुआ?

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वेदज्ञान का प्रकाश कैसे हुआ?◼️
✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’

इसके दो ही प्रकार हो सकते हैं, कि या तो जगदीश्वर ने आदि मनुष्यों वा ऋषियों को आजकल की भाँति बैठकर पढ़ाया वा लिखकर दे दिया या लिखा दिया हो, यह सब एक ही प्रकार कहा जा सकता है और ईश्वर के शरीरधारी होने पर ही हो सकता है, और तो किसी प्रकार हो नहीं सकता। ईश्वर के देहधारी होने में उसकी नित्यता और सर्वव्यापकादि गुण रह नहीं सकते, और आगे सृष्टिकतत्व, सर्वशक्तिमत्त्व आदि गुण भी टिक नहीं सकते, ईश्वर का ईश्वरत्व ही नहीं रह सकता, अत: उस का देहधारी होना तो मानने योग्य नहीं हो सकता।
दूसरा प्रकार यह है कि जैसे अनन्तविद्य परमेश्वर ने प्रकृति से इस दृश्यमान सम्पूर्ण कार्य जगत् की रचना की, इस में उसे बाह्य साधनों की कुछ भी आवश्यकता नहीं, इसी प्रकार वेदज्ञान का प्रकाश भी ईश्वर ने ऋषियों के हृदयों में एक दम कर दिया। उसी ज्ञान में जीवसम्बन्धी सभी आवश्यक ज्ञान था और उसी में व्यवहार की भाषा अर्थात् देववाणी के सभी नित्य शब्दार्थ सम्बन्धों को भी पुनः प्रकाशित कर दिया। सब ऋषि-मुनियों का यही सिद्धान्त है -
🔥पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् (योग सू० १।२६)।
योगदर्शन के इस सूत्र का यही अभिप्राय है कि परमात्मा सबका आदिगुरु है, आदि उपदेष्टा है। उसी ने वेदज्ञान का प्रकाश वा उपदेश
किया।
कई महानुभावों का मत है कि सृष्टि की उत्पत्ति में वेद का स्थान मनुष्य की उत्पत्ति से पहले है, पुरुषसूक्त में वेद की उत्पत्ति का वर्णन मनुष्योत्पत्ति से पहिले मिलता है। वे यह भी कहते हैं कि प्रकृति में वर्तमान वेपनों (कम्पनों) के द्वारा उत्पन्न परिणामों की क्रमिक अवस्था का अनुभव वेद है । वेपन (कम्पन)ही शब्द का स्वरूप है । अव्यक्त शब्दों का ऋमिक प्रतिबोध आदि-मनुष्यों के अन्तःकरण में हुआ और वे अन्दर नादरूप में आये, फिर स्थान-प्रयत्न द्वारा प्रकाशित हुये।
यह पक्ष ठीक नहीं । सृष्टि की उत्पत्ति में वेद मनुष्यों से पहले हुये (ईश्वर के ज्ञान में तो थे ही, उनका प्रकाश तो तभी कहा जायगा जब जीवों तक पहुंचे), ऐसा नहीं । पुरुषसूक्त में केवल पदार्थों की उत्पत्ति का वर्णन हम पाते हैं। वहाँ क्रम से यह तात्पर्य नहीं कि घोड़ों के पश्चात् भेड़, बकरियाँ पैदा हुईं, अपितु ये सब उस अनन्त-सामर्थ्य जगदीश्वर से ही उत्पन्न होते हैं, इतना ही अभिप्राय है ।
यदि शब्द अनित्य हो तो वेपन घट सकता है। शब्द के नित्यत्व में ऋषि-मुनि एकमत हैं । हाँ नित्य शब्द में प्रकाश होना घट सकता है।
नाद होकर प्रकाशित होना भी इसलिये ठीक नहीं कि शब्द की उत्पत्ति के विज्ञान को बतानेवाले ऋषियों ने कहा है कि
🔥"प्राकाशवायुप्रभवः शरीरात समुच्चरन् वक्त्रमुपैति नादः।
स्थानान्तरेषु प्रविभज्यमानो वर्णत्वमागच्छति यः स शब्दः॥"
(पाणिनीयशिक्षा)
अर्थात् आकाश और वायु का संयोग होता है, फिर वह वायु शरीर से ऊर्ध्वभाग में ऊपर को उठता हुआ मुख में पहुंचता है, उसे 'नाद' कहते हैं, और वह नाद भिन्न-भिन्न स्थानों में विभक्त होकर वर्णभाव को प्राप्त होता है, अर्थात् शब्द का रूप धारण करता है। यदि केवल यही उपयुक्त वाक्य होता, तब तो वेपनों द्वारा नाद की उत्पत्ति होकर शब्द उत्पन्न हो जाने का सिद्धान्त माना जा सकता था, परन्तु उपर्युक्त सूत्र के साथ ही दूसरा सूत्र है, जो शब्दोत्पति के इससे भी पूर्व अर्थात् वेपन से भी पूर्व के सिद्धान्त को बहुत उत्तम रीति से बतलाता है । वह कहता है
🔥'आत्मा बुद्धया समेत्यार्थान् मनो युङ्क्ते विवक्षया।
मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम्॥......"
(पा०शि०')[१]
⚠️- - ध्यान दें❗️- -⚠️
💎१. यह पाठ शिक्षा के नाम से चिरकाल से व्यवहृत है। तद्यथा-नागेश लघुमञ्जूषा पृ० ११८
🔥आत्मा बुद्धया समेत्यार्थाम् मनो युक्त विवक्षया।
मन: कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम् इति शिक्षायामपि।"
⚠️- - - - - - - -⚠️
आत्मा बुद्धि से अर्थों को सञ्चित (संगहीत, इकट्ठा) करके मन को कहने की इच्छा से प्रेरित करता है। मन शरीराग्नि को उत्तेजना देता है। वह आगे फिर वायु को प्रेरित करता है। वह आगे शब्द का जनक होता है।
कहने का अभिप्राय यह है कि वेपन से पूर्ववर्ती क्रियायें क्या-क्या होनी अनिवार्य हैं, यह विचारना होगा। ऐसी अवस्था में विचारने से पता लगता है कि जब तक पहले बुद्धि (ज्ञान) न हो, वेपन अर्थात् लहरें ही उत्पन्न नहीं हो सकतीं, क्योंकि 🔥"आत्मा बुद्धया समेत्यार्थान्" के अनुसार आत्मा का बुद्धि द्वारा अर्थों को पहले इकट्ठा करना अनिवार्य है, अर्थात् उनके विना वेपन का प्रादुर्भाव ही असम्भव है। होंगे भी तो उन का समन्वय किस से होगा? अर्थात् यदि उस समय आदि सृष्टि में परमात्मगत बुद्धि (ज्ञान) मात्र ही होगा और केवल उसी की प्रेरणा रहेगी तो फिर जीवों में स्वाभाविक ज्ञान का तो प्रभाव ही रहेगा। आगे की ज्ञानवद्धि की प्रक्रिया जीवों में कैसे चलेगी? क्योंकि सब जीवों को एक जैसा ज्ञान वेपन द्वारा प्राप्त होने पर भी, उस ज्ञान का ग्रहण अर्थात् धारण तो एक जैसा कभी नहीं हो सकता।[२] कहने का भाव यह है कि ज्ञानवृद्धि की प्रक्रिया प्रारम्भ से ही माननी पड़ेगी। पदार्थों का और बुद्धि (ज्ञान) का होना प्रारम्भ में ही आवश्यक है। तभी 🔥“आत्मा बुद्धया समेत्यार्थान्" की प्रक्रिया बन सकती है। भाषा की उत्पत्ति भी इसी प्रक्रिया से ही हो सकती है। विना निमित्तज्ञान के यह व्यवस्था नहीं चल सकती, यह हम पूर्व कह पाये हैं । इसलिये यह वेपनों वाली प्रक्रिया ठीक नहीं। ठीक प्रक्रिया यही हो सकती है, कि आदि सृष्टि में जीवों का जो स्वाभाविक ज्ञान था, उसी में जगदीश्वर द्वारा नैमित्तिक ज्ञान का पुट दिया गया। "पूर्वेषामपि गुरुः०" शास्त्र के इस पूर्वोक्त वचन के अनुसार परमात्मा ने ही ज्ञान तथा भाषा का प्रकाश आदि ऋषियों के हृदयों में किया और आगे उन्होंने ही सब जीवों को ज्ञान तथा भाषा का उपदेश किया, जैसा कि पूर्व कह पाये हैं ।
⚠️- - ध्यान दें❗️- -⚠️
💎२. क्योंकि वेपन तो जड़ है। वेपनपक्ष में जीवों में तो स्वाभाविक ज्ञान है नहीं, वह तो वेपन से ही उत्पन्न होगा। सो नैमित्तिक जान सब जीवों का समान होगा । पर नैमित्तिक ज्ञान तो वर्तमान में असमान है, जो प्रत्यक्ष है। सृष्टि के प्रारम्भ में भी हमारे पक्ष में जीवों के पूर्वसंचित कर्मों का फल बुद्धि आदि होने से वह नैमित्तिकज्ञान भिन्न-भिन्न रहता है।
⚠️- - - - - - - -⚠️
इसलिये वेपन (कंपन) द्वारा नाद की उत्पत्ति होकर वेद का ज्ञान उत्पन्न हुआ, यह विचार युक्तिसङ्गत नहीं ठहरता, न ही ऋषि-मुनियों की प्रक्रिया के अनुकूल बैठता है।
हाँ! एक बात विचारने योग्य शेष रह जाती है, वह यह कि जब सर्गारम्भ में वेदज्ञान का प्रकाश एक जैसा हुआ, तो सब मनुष्यों को ही ज्ञान क्यों न हो गया, और चार ही ऋषियों को वह ज्ञान क्यों हुआ? क्यों न मान लिया जावे कि जो-जो भी उस ज्ञान के धारण करने योग्य बुद्धि रखते थे, उन सबको ही (जो चार ही नहीं थे, अपितु अनेक थे) यह सब ज्ञान हुआ ? । यह शङ्का स्वभावत: प्रत्येक विचारशील के हृदय में उत्पन्न होनी अनिवार्य है। हमारे सामने इतना ही है कि शतपथ ब्राह्मण के 🔥"अग्ने. ऋग्वेदः, वायोर्यजुर्वेदः, सूर्यात सामवेदः" (शत० ११।५।८।३) तथा मानव धर्मशास्त्र के 🔥"अग्निवायुरविभ्यस्तु वयं ब्रह्म सनातनम् । दुदोह यज्ञसिद्धयर्थमृग्यजुःसामलक्षणम् ॥" मनु. १।२३॥ इन वचनों से अग्नि वायु-आदित्य अङ्गिरा से वेदों का प्रकाश हुआ। इस विषय में हमें यह शब्दप्रमाण ही मिलता है। सृष्टि के आदि का विस्तृत इतिहास तो है नहीं, जिसे कोई उपस्थित कर सके । शब्दप्रमाण जिसे ऋषि-मुनि सदा से मानते चले आये, हम भी उसी के आश्रय से ही कह सकते हैं कि हमारा इन चार ऋषियों को वेद का आविर्भावक कहना हमारी अपनी कपोल कल्पना नहीं, अपितु शास्त्र के आधार पर है। यदि हम किञ्चित् बुद्धि से भी विचार करें तो यही प्रतीत होता है कि परमात्मा के द्वारा वेद का ज्ञान, चाहे उसका रूप कुछ भी हो, सर्गारम्भ में जीवों को नैमित्तिक ज्ञान के रूप में अवश्य मिलना चाहिये। यदि सबको ही प्रकाश दिया, जैसा कि सूर्य का प्रकाश, और फिर उन आदि जीवों ने अपने में जिन चार को सर्वोत्कृष्ट समझा, उनको प्रमाणीभूत मानकर उनके आगे सिर झुका दिया और सर्वोच्च चार आत्माओं के ज्ञान से ही अपने ज्ञान को परीक्षित करने लगे। जैसे एक श्रेणी में अनेक छात्र एक साथ पाठ पढ़न पर अपने में योग्यतम छात्र को मुख्य मानकर अर्थात प्रमाण वा कसौटी मानकर अपने पढ़े हुये वा जाने हुये विषय के ज्ञान की परीक्षा या मान्यता स्वीकार करते हैं। यद्यपि इसमें कुछ आपत्ति नहीं, परन्तु जब शेष सबमें ग्रहण वा धारण करने की शक्ति ही नहीं थी, तो उन्हें वह ज्ञान प्रारम्भ में स्वयं मिले, इसकी आवश्यकता ही क्या है ? अतः इस विषय की सर्वोत्तम प्रक्रिया यही है कि सर्गारम्भ में प्रभु ने एक साथ ज्ञान का प्रकाश चारों ऋषियों के हृदयों में दे दिया, जो मुक्ति की अवधि समाप्त कर पूर्व से ही इस ज्ञान के पात्र होकर इस सृष्टि में आये थे। क्योंकि उनमें ही ग्रहण और धारण करने की शक्ति सबसे उत्कृष्ट थी। उन्हें इसीलिये यह ज्ञान दिया ताकि किसी भी अवस्था में उसमें किसी न्यूनता की सम्भावना ही न रह जावे । ज्ञान का प्रकाश हो जाने पर आगे उन्होंने ही सब ज्ञान जीवों को दिया, और तत्सम्बन्धी सब कुछ बतला दिया। यही प्रक्रिया सर्वोत्कृष्ट और सुसङ्गत है, क्योंकि वेद ने भी तो 🔥"अन्वविन्दन् ऋषिषु प्रविष्टाम्" (ऋ० १०।७१।३) कहा है, जिसका अर्थ यही है कि वेदवाणी पहले ऋषियों के हृदय में प्रकाशित होती है, मनुष्य लोग उसको पीछे प्राप्त करते वा कर सकते हैं, क्योंकि उससे पूर्व उनमें उसके ग्रहण वा धारण की शक्ति ही नहीं होती।
प्रकृतविषय में एक विचार और उपस्थित करना भी अराङ्गत न होगा। कोई-कोई महानुभाव यह कहते हैं कि सृष्टि के आदि में केवल एक विद्वान् को सम्पूर्ण वेद का ज्ञान मिला, और वह अग्नि था। वे अपने पक्ष की सिद्धि में ऋग्वेद का यह मन्त्र उपस्थित करते हैं
🔥अग्निजीगार तमृचः कामयन्ते अग्निजीगार तमु सामानि यन्ति।
अग्निजीगार तमचं सोम प्राह तवाहमस्मि सख्ये न्यौकाः॥
ऋ० ५।४४।१५॥
उनके कथन का सार इतना ही है कि अग्नि जागता है, उसे ही ऋचायें प्राप्त होती हैं, सामगानादि उसी की कामना करते हैं।
उन महानुभावों की सेवा में हम विनम्र निवेदन करेंगे कि यह भूल "अग्नि" शब्द के अर्थ पर गम्भीर विचार न करने से हो रही है। हम समझते हैं कि 'अग्नि' शब्द का अर्थ केवल ‘भौतिक अग्नि' या 'अग्नि' नाम का कोई व्यक्ति विशेष (Proper Name) ही हो, यह बात नहीं। यह धारणा इस युग के प्रवर्तक ऋषि दयानन्द के पुण्य प्रताप से हट चुकी है । अनेक प्रौढ़ विद्वान् समझे जानेवाले व्यक्तियों ने अग्नि से परमात्मा-विद्वान्-राजा-वैद्य-नेता आदि अनेक अर्थों को स्वीकार किया है (देखो यही यजुर्वेदभाष्य वि. पृ० ४७ टि० १) जिसके विषय में हम आगे चल कर अधिक विचार कर सकेंगे। यहाँ हमको इतना ही कहना है कि 'अग्नि' का अर्थ "नेता' विद्वान् भी होता है। निरुक्तकार यास्कमुनि कहते हैं
🔥"अग्निः कस्मादग्रणीभवति..........विभ्य प्राख्यातेभ्यो जायत इति शाकपूणिरितादक्ताद् दग्धाद्वा नीतात्" । निरु० ७।१४॥
जब हमने समझ लिया कि 'अग्नि' का अर्थ विद्वान् भी है, तो देखें ऊपर वाले वेदमन्त्र की सङ्गति कैसी सुन्दर और बुद्धिग्राह्य बैठती है! अग्नि अर्थात् विद्वान् जागता है। ऋचार्य उसी की कामना करती हैं, उसी को साम प्राप्त होते हैं इत्यादि । विद्वान् ही जागता है, वह वेद के तत्त्व को यथावत् जान सकता है, विद्वानों के हृदय में ही वेद का ठीक-ठीक प्रकाश होता है। वेदमन्त्रों के गान का विज्ञान भी उन्हें ही ठीक-ठीक प्राप्त होता है। 🔥"जागत्ति को वा सदसद्विवेकी" जागता कौन है, जो सत् असत् को विवेकबुद्धि के द्वारा परीक्षण कर सकता है। ऐसा विद्वान ही ऋचाओं के यथावत् अभिप्राय को समझ सकता है। वेद के इस मन्त्र में कसा सुन्दर हृदयग्राह्य भावपूर्ण वर्णन है !! यह कहाँ से पा गया कि 'अग्नि' किसी व्यक्ति-विशेष का नाम है ? वेद में आये अनेकों विशेषण ही इस बात के विरुद्ध प्रबल प्रमाण हैं।
अतः सर्गारम्भ में वेदों का प्रकाश चार ऋषियों द्वारा हुआ, यही बात सर्वोत्तम, शास्त्रसम्मत और बुद्धिग्राह्य है। इसमें सन्देह करने का कोई स्थान नहीं रह जाता।
✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
(जन्म- १४ अक्तूबर १८९२, मृत्यु- २२ दिसम्बर १९६४)
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥