Tuesday, December 24, 2019

वेदों में सब विद्याओं का मूलतः निर्देश है






◼️वेदों में सब विद्याओं का मूलतः निर्देश है◼️
✍🏻 लेखक - महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
सभी प्राचीन विविध विद्यानों के पाकर ग्रन्थों के प्रणेता ऋषि मुनि और आचार्यों का मन्तव्य रहा है कि वेद सभी विद्याओं का आकर हैं । इस समय जितनी विद्याओं के प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वे सब अपना उद्गम वेद से घोषित करते हैं। इससे स्पष्ट है कि वेदों में सभी विद्याओं का मूल उपदेश विद्यमान है। इसीलिये समाजशास्त्र के आद्य प्रवक्ता भगवान् स्वाम्भुव मनु ने कहा है- 🔥सर्वज्ञानमयो हि सः (२।७)[द्रष्टव्य- मेधातिथि वा गोविन्दराज की मनुस्मृति की व्याख्या]। अर्थात् वेद सब ज्ञानों से परिपूर्ण है।
इसी सिद्धान्त का भगवान् कृष्णद्वैपायन मुनि ने भी प्रतिपादन किया है। -
🔥'यानीहागमशास्त्राणि याश्च काश्चित् प्रवृत्तयः।
तानि वेदं पुरस्कृत्य प्रवृत्तानि यथाक्रमम्॥'
महाभारत, अनु० १२२।४
अर्थात्-'लोक में जितने भी पागमशास्त्र (-विभिन्न विषयों के आद्य मूल ग्रन्थ) और लोक-प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं, वे सब वेद के आधार पर ही प्रारम्भ हुई हैं।'
परम ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवल्क्य मुनि ने भी कहा है -
🔥'न वेदशास्वादन्यत्तु किञ्चिच्छास्त्रं हि विद्यते।
निःसृतं सर्वशास्त्रं तु वेदशास्त्रात् सनातनात् ॥'
बृहद्योगियाज्ञवल्क्यस्मृति १२।१
अर्थात्- 'वेदशास्त्र से भिन्न कोई शास्त्र प्रमाण नहीं है । समस्त शास्त्र सनातन वेद से ही निकले हैं।’
यदि इस तरह से वेद ही सब तरह के ज्ञान के निधि हैं, तो किस कारण महर्षिगण उन-उन शास्त्रों का प्रवचन कर गये ? तो कहते हैं-
जब सर्गादि में अपरिमित शक्ति के प्रभाव से प्रभावित सामर्थ्य वाले, धर्मसत्त्वशुद्ध तेज से युक्त,[द्र०-पाराशरीय ज्योतिषसंहिता का वचन– 🔥'पुरा खलु अपरिमितशक्ति प्रभाप्रभाववीर्या.....धर्मसत्त्वशुद्धतेजस: पुरुषा बभूवुः । तेषां क्रमादपचीयमान सत्त्वाना उपचीयमानरजस्तमस्कानां....।' (भट्ट उत्पल कृत बृहत्संहिताटीका, पृष्ठ १५ पर उधृत)।] अपरिमित बुद्धिवाले, धर्म का साक्षात् किये हुये मानव थे, तब वे वेदों से ही सीधा सब तरह का ज्ञान प्राप्त किया करते थे। उस समय वेद को छोड़ कर अन्य कोई शास्त्र न था। जब उत्तरकाल में मानव क्रमशः सत्त्वहीन, प्रवर्धमान रजोगुण और तमोगुण से युक्त, अल्पमतिवाले, उपदेशों के द्वारा भी वेदों के मन्त्रों में विद्यमान विविध विद्याओं को जानने में असमर्थ हो गये, तब उस तरह के अल्प मेधावाले मनुष्यों को विविध विद्याओं का ज्ञान कराने के लिये विविध शास्त्रों का प्रवचन महर्षि लोगों ने किया।
इसी शास्त्रावताररूप इतिहास का भगवान् यास्कमुनि ने निरुक्त में इस प्रकार प्रतिपादन किया है-
🔥'साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवुस्तेऽवरेभ्योऽसाक्षात्कृतधर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान् संप्रादुः। उपदेशाय ग्लायन्तोऽवरे बिल्मग्रहणायेमं प्रन्थं समाम्ना. सिषु'दं च वेदाङ्गानि च।' निरुक्त १।२०॥
अर्थात्- 'सृष्टि के प्रारम्भ में साक्षात्कृतधर्मा ( = मन्त्रार्थ का साक्षात दर्शन करनेवाले) ऋषि हुये थे। उन्होंने असाक्षात्कृतधर्मा ( == मन्त्रार्थ को साक्षात् न जाननेवाले) मनुष्यों के लिये उपदेश से मन्त्रों के अर्थ जताए । उत्तरकाल के अथवा हीनमेधावाले, उपदेश से ग्लानि करते हुए ( = हमें उपदेशमात्र से वेद समझ में नहीं पाता, ऐसा समझनेवाले) लोगों ने इस निघण्टु-निरुक्त ग्रन्थ का, और वेद तथा वेदाङ्गों का अभ्यास [मूलधात्वर्थानुसारी पदार्थ । यह अर्थ निरुक्तश्लोकवार्तिक में उपलब्ध होता है। द्र० - पूर्व पृष्ठ ७८] किया।
इसी इतिहास के अनुसार भगवान् याज्ञवल्क्य ने भी कहा है-
🔥'दुर्बोधं तु भवेद्यस्मादध्येतुं नैव शक्यते ।
तस्मादुद्धृत्य सर्व हि शास्त्रं तु ऋषिभिः कृतम् ।।
बृहद्योगियाज्ञवल्क्यस्मृति १२।२॥
'जिनके लिये ज्ञान दुर्बोध्य हुआ, और जो वेदों का अध्ययन न कर पाये, उन के लिये सब वेदों से ज्ञान लेकर ऋषि लोगों ने शास्त्र बनाये।'
महाभारत (शान्ति २८४।९२) में भी भगवान् वेदव्यास जी ने लिखा है- 'वेदात् षडङ्गान्युद्धृत्य', अर्थात् 'वेदों से वेदाङ्गों की रचना की।'
और भी- सम्प्रति शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष, धर्मशास्त्र, पदार्थविज्ञान, साहित्य, कला, शिल्प, राजनीति, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद. वास्तुशास्त्र इत्यादि विषयों के जो मुख्य ग्रन्थ मिलते हैं, वे सब अपने-अपने विषयों की वेदमूलकता की मुक्तकण्ठ से घोषणा करते हैं । विस्तारभय से कुछ ही प्रमाण प्रस्तुत करते हैं
◼️(१) ज्योतिषाचार्य आर्यभट्ट अपने ग्रन्थ के अन्त में 'ज्योतिषशास्त्र का मूल वेद है', ऐसा कहते हैं।
◼️(२) आयुर्वेदशास्त्र अथर्ववेद का उपाङ्ग है, ऐसा भगवान सुश्रुत कहते हैं-- "इह खल्वायुर्वेदो नाम यदुपाङ्गमथर्ववेदस्य । सू० अ० १॥
◼️(३) न्याससूत्रकार भगवान गोतम भी अतीन्द्रियविषयक विज्ञान का प्रतिपादन करनेवाले वेदभाग के प्रामाण्य को बताने के लिये कहते है -
🔥'मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्याच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात् ॥ न्याय० २।१।६८॥
मन्त्रों में जो आयुर्वेद प्रत्यक्षरूप से उपदिष्ट किया गया है, उसके प्रामाण्य की सत्यता लोक में प्रसिद्ध है। उसके प्रमाणित होने से अतीन्द्रिय विज्ञान का प्रतिपादक वेदभाग भी प्रमाणित हो जाता है । क्योंकि जो प्राप्त ईश्वर प्रत्यक्षविषयभूत आयुर्वेद, जो वेद का ही एक विभाग है, का कर्ता है, वही इन्द्रियातीत विषय के प्रतिपादन करनेवाले भाग का भी है । इसलिये एक कर्ता होने से अतीन्द्रिय विषयक वेदभाग का भी प्रामाण्य स्वीकार करना पड़ता है।
◼️(४) पदार्थविज्ञान प्रतिपादक वैशेषिकशास्त्र भी वेद-मूलक है, ऐसी भगवान् कणाद मुनि प्रतिज्ञा करते हैं। जैसे- 🔥‘तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम् ।' वै० १।१।३॥
इसका अर्थ इस प्रकार है- ‘अथातो धर्म व्याख्यास्यामः', अर्थात् 'अब धर्म का व्याख्यान करेंगे' ऐसी प्रतिज्ञा करके तद्वचनात - वैशेषिक प्रतिपाद्य पदार्थधर्म का प्रतिपादन करने से आम्नाय = वेद का प्रामाण्य है।
यहाँ यह भी जानना चाहिये कि भगवान् कणाद ने केवल 'वेदपदार्थ धर्म के प्रतिपादक हैं' यह प्रतिज्ञामात्र ही नहीं की, अपितु कई प्रकरणों में विभिन्न पदार्थों के धर्मों का प्रतिपादन करने के लिये श्रुति-प्रामाण्य भी दर्शाया है । जैसे
(क) प्रोलों की उत्पत्ति तेज के संयोग से ही होती है, ऐसा प्रतिपादन करके आकाश के पानी में तेज का संयोग होता है, इसका प्रतिपादन करते हुए 🔥'वैदिकं च' (५।१।१०) सूत्र से वैदिक वचनों का प्रमाण दर्शाया है। यथा
🔥या अग्नि गभं दधिरे विश्वरूपास्ता न प्रापः शं स्योना भवन्तु'। - तै० सं० ५।६।१
🔥‘आपो ह यद बहतीविश्वमायन् गर्भ दधाना जनयन्तीरग्निम्।' - ऋ० १०।१२१।७
🔥'वषाग्नि वृषणं भरनपां गभ समुद्रियम् ।' यजु, १।१४६
🔥'योऽनिध्मो दीदयद अप्स्वन्तः।' ऋ० १०।३०।४
इन मन्त्रों में जलों में दिव्य अग्नि का संयोग दर्शाया है। इस विषय का प्रतिपादन वेदों में अनेक मन्त्रों में मिलता है।
(ख) शरीर दो प्रकार के हैं- योनिज और अयोनिज, ऐसा बताते हुए अतीन्द्रिय जो अयोनिज शरीर है, उसका प्रतिपादन करते हुए वेद 🔥लिङ्गाच्च (४।२।११) इस सूत्र से अयोनिज शरीर के प्रामाण्य के लिये निम्न वैदिक मन्त्र का संकेत किया है
🔥'ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद श्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत ।।' ऋ० १०।९०।१२
इस मन्त्र में 'अस्य' इस पद से 'विराट' नामक पुरुष का परामर्श होता है। वही विराट् पुरुष वैदिकग्रन्थों के सर्ग-प्रकरणों में प्रजापति हिरण्यगर्भ-सुवर्णाण्ड-महदण्ड आदि शब्दान्तरों से कहा गया है।
इसी दृष्टि से स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने पुणे (पूना) के पाँचवें प्रवचन में कहा था -
पदार्थज्ञान के विषय में वेदों में बड़ी दक्षता है।[द्रष्टव्य 'ऋषि दयानन्द सरस्वती के शास्त्रार्थ और प्रवचन।पृष्ठ ३१२, पं० १२, १३ । इस पृष्ठ की तीसरी टिप्पणी भी द्रष्टव्य है।]
◼️(५) भगवान् मनु ने राज्य-व्यवस्था की दृष्टि से लिखा है -
🔥सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च ।
सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदहति ॥१२।१००
अर्थात् सेनापतित्व, राज्यशासन, दण्ड का विधान, चक्रवर्ती-राज्य का शासन, इन सब के लिये वही योग्य होता है, जो वेदशास्त्र को जानता है।
इससे स्पष्ट है कि वेदों में राजनीति के समस्त अङ्गों का यथावत् संकलन है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज के तीसरे नियम में कहा है-वेद सब सत्य विद्यानों के ग्रन्थ हैं । वेद में विविध विद्याओं का मूल है, इसके निदर्शनार्थ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में कतिपय विद्यानों का निदर्शन कराया है। उनकी चतुर्वेद विषयसूची भी इसके लिये महद् उपकारी है।
✍🏻 लेखक - महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥

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