Sunday, September 22, 2019

श्राद्ध व्यवस्था



◼️श्राद्ध व्यवस्था◼️
✍🏻 लेखक - स्वामी दर्शनानन्द जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
🔥यां मेधां देवगणाः पितरश्चोपासते। तया मामद्य मेधयाऽग्ने मेधाविनं कुरु स्वाहा॥
-यजु:० ३२।१४
अर्थ-हे ज्ञानस्वरूप (अग्ने) परमात्मन्! जिस मेधा नामक धारणावती बुद्धि को देवगण अर्थात् विद्वान् लोग प्राप्त हैं और जिसे प्राचीन ऋषि-मुनि प्राप्त थे, आप उस धारणावती बुद्धि से हमें बुद्धिमान् कीजिए।
धर्माऽधर्म के विचारने में समर्थो! सत्यशीलो! वेदादि सत्यशास्त्रों को माननेवालो! वर्णाश्रमी धर्म के सहायको! आप लोग थोड़े समय के लिए संसार के संस्कारों को अलग करके सत्याऽसत्य विचार करनेवाली बुद्धि की कसौटी को हाथ में लेकर अपने नित्य-नैमित्तिक व्यवहारों को जाँचो, और संसार की प्रणाली से जगत्कर्ता की महिमा की स्वाभाविक गुणों के अनुसार खोज करो! विचार करके देखो कि ईश्वर ने कैसे-कैसे उत्तम नियम तुम्हें दुःखों से छुड़ाने के लिए बनाये हैं! कैसी-कैसी उत्तम-उत्तम वस्तुएँ तुम्हें जगद्रूपी शत्रु से बचने के लिए दी हैं! परमात्मा के नियमों पर ध्यान दो! परमात्मा ने जगत् में जब जीव को उत्पन्न किया तो साथ ही उसकी अल्पज्ञता को देखकर माता-पिता के हृदय में प्रीति उत्पन्न कर दी जिससे यह असमर्थ जीव उनकी सहायता पाकर समर्थ हो जाए। ईश्वर की इस कृपा के बदले जीव प्रभु की उपासना और वेदरूपी ज्ञान का प्रचार-प्रसार करता है।
संसार के लोग भली-भाँति जानते हैं कि संसार में जो बीज भूमि में डाला जाता है वह बीज थोड़े दिनों के पश्चात् कई गुणा होकर मिलता है। जड़ भूमि भी दिये हुए बीज का बदला देती है और बीज के बोने आदि में जो परिश्रम हुआ है उसके प्रतिफल में बोये हुए बीज से कई गुणा बीज लौटा देती है। इसी प्रकार समुद्र सूर्य की किरणों को जो जल समर्पण करता है, सूर्य उसके बदले में उसकी पुष्टि वृष्टि द्वारा करता है। जिस पशु का मनुष्य अन्नादि से पालन करता है वह पशु उसकी सेवा करके उसे बदला देता है। जिस कुत्ते को दो दिन टुकडा डाल दो वह उसके बदले उसके घर की रखवाली करता है। इसी भाँति संसार के जड़-चेतन पदार्थ बदले के नियम से बँधे हुए हैं।
प्यारे पाठको! जब सभी माता-पिता बालक का पालन-पोषण कर उसे असमर्थावस्था से समर्थावस्था में पहुँचा देते हैं, अज्ञान के गर्त से निकालकर ज्ञान के शिखर पर बैठा देते हैं, माता पिता स्वयं लाखों दुःख उठाकर दिन-रात पुत्र को सुख देने का यत्न करते हैं। माता गर्मी के दिनों में जबकि आग बरसती है पुत्र को पङ्खा डुलाकर सुलाती है; सर्दी के दिनों में जब बालक बिस्तर को गीला करता है तो आप उस गीले स्थान पर लेटती है, पुत्र को अच्छे स्थान पर सुलाती है। यह कैसा सच्चा प्रेम है! गम्भीरता से विचार कीजिए! ईश्वर की माया का कैसा विचित्र चमत्कार है कि पिता अपने जीवन में नाना प्रकार के कष्ट उठाकर जो कमाता है वह बालक के पालन-पोषण और संस्कारों के करने, पढ़ाने, विवाहादि कार्यों में खर्च कर देता है! जो कुछ बच रहता है उसका भी पुत्र को स्वामी बना देता है। कैसा मोहजाल है कि सारी आयु उसके निमित्त लगा देता है। क्या इसका बदला मनुष्य को नहीं देना चाहिए? जब भूमि आदि जड़ पदार्थ संसार में बदला देते हैं, तो मनुष्य को चेतन होकर क्या बदला नहीं देना चाहिए? जब कुत्ते आदि नीच योनि के जीव कृतघ्नता नहीं करते तो क्या मनुष्य को यह उचित है कि जिन माता-पिता ने लाखों कष्ट उठाये हैं, यह उनका बदला न दे?
यदि आप विचार करके देखेंगे तो अवश्य कहेंगे कि मनुष्य को अवश्य बदला देना चाहिए। जैसे माता-पिता प्रीतिवश पुत्र का कष्ट मिटाते हैं, पुत्र को भी श्रद्धापूर्वक उसका बदला देना चाहिए। भारतवर्ष के लोग सनातन से आर्यधर्म को मानते चले आते हैं। यह आर्यधर्म ईश्वरीय विद्या अर्थात् वेदों के अनुकूल सदा से चला आता है। वेदों में उस बदले का नाम जो पुत्र को माता-पितादि के निमित्त करना चाहिए, पितृश्राद्ध के नाम से कथन किया है। हे आर्यावर्त्त वासियो! आपके बड़े-बड़े ऋषि-मुनि सनातन से श्राद्ध करते आये हैं, परन्तु भारत में मत-मतान्तरों के कारण परस्पर विरोध फैलने से यह रीति कुछ उलटी हो गई है। अब इस छोटे-से लेख में प्रश्नोत्तर की शैली में पौराणिक और आर्यसामाजिक के विचार से इसका तत्त्व दिखलाते हैं।
एक दिन एक पौराणिक महात्मा एक वैश्य की दूकान पर बैठे स्वामी दयानन्दजी को बुरा भला कहकर वैश्य को समझा रहे थे कि आर्यसमाजी पितरों का श्राद्ध नहीं करते। मुँह से कहते हैं हम वेद को मानते हैं, परन्तु वेद में लिखे श्राद्ध को कभी नहीं करते। ये नास्तिक हैं, इनका दर्शन करने में पाप है, इत्यादि। उस समय एक आर्यसामाजिक भी आ निकले। उन्होंने ये बातें सुनकर कहा-महाराज! क्यों झूठ बोलते हो? यदि आपको अपने पक्ष की सत्यता पर भरोसा हो तो शास्त्रार्थ करके निर्णय कर लीजिए। पौराणिक ने कहा-अच्छा शास्त्रार्थ हो जाए; तुम कुछ पढ़े भी हो? इसके पश्चात् प्रश्नोत्तर होने लगे।
🧔🏻आर्य-कहो महात्माजी! पितृकर्म नित्य है वा नैमित्तिक?
👳🏻‍♂️पौराणिक-यह नित्य कर्म है।
🧔🏻आर्य-तो महाराज! सबको प्रतिदिन करना चाहिए?
👳🏻‍♂️पौराणिक-हाँ, प्रतिदिन करना चाहिए। यदि सम्भव न हो तो वर्ष में १५ दिन पितृपक्ष के होते हैं, उनमें जिस दिन पितर मरे हों उस दिन कर ले।
🧔🏻आर्य-महाराज! जिसके पितर जीते हों वह किस दिन करे?
👳🏻‍♂️पौराणिक-उसे करने का अधिकार नहीं, वह न करे।
🧔🏻आर्य-तो महाराज! मनुष्य के लिए जो पञ्चयज्ञ करना नित्यकर्म में लिखा है, वह उसे न करे?
👳🏻‍♂️पौराणिक-अन्य यज्ञ तो कर ले, परन्तु पितृयज्ञ उसके पितादि कर लेंगे।
🧔🏻आर्य-तो महाराज! शेष चार यज्ञ भी वही कर लेंगे।
👳🏻‍♂️पौराणिक-नहीं, शेष अवश्य करने चाहिएँ।
🧔🏻आर्य-महाराज ! जब एकांश छोड़ने में दोष न होगा तो सर्वांश छोड़ने में भी दोष नहीं होगा?
👳🏻‍♂️पौराणिक-सन्ध्यादि कर्म कर ले, शेष माता-पिता ने कर लिये?
🧔🏻आर्य-तो क्या पुत्र के किये हुए कर्मों का फल पिता को और पिता के किये कर्मों का फल पुत्र को मिल सकता है?
👳🏻‍♂️पौराणिक-हाँ भाई! होता है, तभी तो संसार करता है।
🧔🏻आर्य-क्या महाराज! पितरों का मरे पर श्राद्ध हो, जीते जी नहीं?
👳🏻‍♂️पौराणिक-हाँ भाई! मरे हुए पितरों का श्राद्ध होना चाहिए, क्योंकि जीते जी तो वे स्वयं खा-पी लेते हैं। जब मरने के पश्चात् पितृलोक में उन्हें भूख लगती है तो पुत्र का दिया अन्न उन्हें मिल जाता है। इस कारण उनके मरने के पश्चात् ब्राह्मणों को खिलाइए।
🧔🏻आर्य-महाराज! सब लोग मरकर पितृलोक को जाते हैं। चाहे वे धर्मात्मा हों वा पापी, सब एक स्थल में जाएँ, यह अन्याय है! और आप यह बताएँ कि पितृलोक में पितर कब तक रहते हैं?
👳🏻‍♂️पौराणिक-इसका काल तो ठीक ज्ञात नहीं। पण्डितों से सुनते हैं सैकड़ों वर्षों तक रहते हैं।
🧔🏻आर्य-जब आपको ज्ञान नहीं कि वे कब तक रहेंगे तो आप उनको बिना जाने माल क्यों भेजते हैं?
👳🏻‍♂️पौराणिक-इसमें कुछ हानि नहीं, जब तक पितृलोग वहाँ रहेंगे तब तक पहुँचेगा, पश्चात् हमारा पुण्य होगा।
🧔🏻आर्य-कृपया बताइए, क्या मृतकों के साथ जीवितों का सम्बन्ध बना रहता है?
👳🏻‍♂️पौराणिक-हाँ, सम्बन्ध बना रहता है।
🧔🏻आर्य-तो मरने के दिन तिनका तोड़कर ऐसा क्यों कहते हैं कि जिसने किया उसको मिले, या जैसा करता है वैसा फल पाता है।
👳🏻‍♂️पौराणिक-यह संसार का व्यवहार है।
🧔🏻आर्य-महाराज! पिता-पुत्र का सम्बन्ध जीव में रहता है या शरीर में? या जीव और शरीर विशिष्ट में?
पौराणिक-जीव और शरीर-विशिष्ट में।
🧔🏻आर्य-जब जीव और शरीर-विशिष्ट में पिता-पुत्र का सम्बन्ध रहता है तो जब शरीर नष्ट हो गया, जीव अलग हो गया, उस समय सम्बन्ध तो न रहा। जब सम्बन्ध न रहा तो उसका नाम पितृश्राद्ध कैसे होगा?
👳🏻‍♂️पौराणिक-क्या जो श्राद्ध वेदों में लिखा है, वह झूठ हो सकता है?
🧔🏻आर्य-क्या वेदों में मरे हुए पितरों का श्राद्ध लिखा है?
👳🏻‍♂️पौराणिक-क्या जीवित का भी श्राद्ध होता है?
🧔🏻आर्य-श्राद्ध तो जीवित का ही होता है और जीवित का ही सम्बन्ध है।
👳🏻‍♂️पौराणिक-इसका क्या प्रमाण है?
🧔🏻आर्य-इसमें ईश्वर का सृष्टि-नियम और तुम्हारा तीन पीढ़ी के पितरों का श्राद्ध करना ही प्रमाण है।
👳🏻‍♂️पौराणिक-इसमें ईश्वर का सृष्टि-नियम किस प्रकार से प्रमाण है?
🧔🏻आर्य-देखो! बालपन में जब पुत्र असमर्थ था तब माता-पिता ने पाला, रक्षा की। इसी प्रकार जब वृद्धावस्था में माता-पिता असमर्थ होते हैं, तब पुत्र अपने धर्म के अनुसार श्रद्धापूर्वक उनकी सेवा करे।
👳🏻‍♂️पौराणिक-क्या पितरों की श्रद्धापूर्वक सेवा करने का नाम पितरों का श्राद्ध है और वह जीवित पुरुषों का होना चाहिए, इसमें क्या प्रमाण है?
🧔🏻आर्य-तुम्हारा तीन पीढ़ी के पितरों का श्राद्ध करना, औरों का न करना।
👳🏻‍♂️पौराणिक-इससे क्या जीवित पितरों का श्राद्ध सिद्ध होता है?
🧔🏻आर्य-हाँ! ठीक-ठीक यह हमारे पक्ष को सिद्ध करता है।
👳🏻‍♂️पौराणिक-किस प्रकार करता है? युक्तिपूर्वक तो बताओ!
🧔🏻आर्य-देखो! वेदों में मनुष्य की आयु सौ वर्ष की लिखी है और न्यून-से-न्यून पच्चीस की अवस्था में विवाह करना लिखा है, तो कम-से-कम २६ वर्ष में पुत्र और ५२ में पौत्र तथा ७८ मे प्रपौत्र हो सकता है। अब जब तक इसके पुत्र हों, तब तक उसका प्रपितामह अर्थात् परदादा मर गया। इसका परपोता अपने पिता, पितामह और प्रपितामह तीन पीढ़ी तक की श्रद्धापूर्वक सेवा कर सकता है और इससे पञ्चमहायज्ञ, जोकि नित्यकर्म हैं सध सकते हैं। इससे भी ज्ञात होता है कि एक पुरुष कितने समय तक अपने पितरों की सेवा कर सकता है। इसमें पितलोक में जो पापी और पुण्यात्माओं के एक-साथ रहने से ईश्वर के न्याय में दोष आता है, वह भी न रहेगा।
👳🏻‍♂️पौराणिक-तुम्हारी इन बातों से तो गरुडपुराण झूठा प्रतीत होता है। क्या व्यासजी का बनाया झूठा हो सकता है?
🧔🏻आर्य-तुम्हारे गरुडपुराण का मिथ्या होना तो उसकी बातों से स्वयं सिद्ध ही है और कृष्णजी की बनाई गीता और गौतम ऋषि के बनाये न्यायदर्शन के देखने से यह सर्वथा मिथ्या प्रतीत होता है।
👳🏻‍♂️पौराणिक-क्योंकर मिथ्या है? तनिक कहो!
🧔🏻आर्य-सुनो! तुम्हारे गरुड़ पुराण में लिखा है कि जब जीव मरता है तब यम के दूत उसे लेने आते हैं और फिर लिखा है वैतरणी नदी के किनारे तक पहुँचाते हैं। जिसके पुत्र वैतरणी पार कराने को गोदान कर देते हैं वह पार जाता है, नहीं तो नदी में डूब जाए। भला, यदि कोई पूछे महाराज! क्या यम के दूत निकम्मे हैं? जिसे यमद्वार में ले-जाने के लिए वे आये थे, वह नदी में डूब जाए तो फिर यम के दूत क्यों आये थे? जो वह यहाँ नदी में डूब जाए तो यम के दूतों के साथ कौन यमलोक जाए? वैतरणी में डूबकर कहाँ जाना होगा? क्योंकि जीव तो नित्य है और नदी आदि में शरीर डूबता है तो यहाँ फेंक दिया जाता है। हमारे बहुत-से भोले भाई यह कह देंगे कि दशगात्र करने से दश रोज में शरीर तैयार हो जाएगा, परन्तु दश रोज तक जीव कहाँ रहेगा? जो लोग वन में मृत्यु पाते हैं, जिनका दशगात्रादि कभी कुछ नहीं हुआ, वे कहाँ जाएंगे? हमारे पौराणिक भाई कहेंगे कि वे प्रेत बन जाएँगे। उनसे प्रेतभाव पूछा जाए तो वे योनि बता देंगे, परन्तु गौतम ऋषि के सूत्र से
🔥पुनरुत्पत्तिः प्रेत्यभावः। -न्यायदर्शन १।१९
यह सिद्ध होता है कि प्रेत्यभाव पुनर्जन्म का नाम है। इस सूत्र के व्याख्यान में इस बात का वात्स्यायन मुनि ने अच्छी प्रकार से निर्णय कर दिया है और कृष्णचन्द्र महाराज गीता में लिखते
🔥वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽ पराणि॥
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
-गीता २।२२
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, इसी प्रकार जीवात्मा पुराने शरीर को छोड़कर नये शरीर को धारण करता है।
*हे देश के सुजनो! आप जीवित माता-पिता का सत्कार और उनकी सेवा कीजिए, धर्म के सिवाय और सब पदार्थ देकर भी उनका मान कीजिए। जहाँ तक बन पड़े उनकी आज्ञा का पालन करो, कभी भी उनका अनादर न करो, इसी में तुम्हारा कल्याण है। यही मनुष्य-जीवन का फल है।*
✍🏻 लेखक - स्वामी दर्शनानन्द जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥

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