Tuesday, December 24, 2019

यम-यमी सूक्त

◼️यम-यमी सूक्त◼️

✍🏻 लेखक - महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी

प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’

ऋग्वेद मण्डल १० का १०वाँ सूक्त ऋक्सर्वानुक्रमणी के अनुसार वैवस्वत यमयमी के संवादपरक है। यम और यमी भाई बहन हैं। यमी यम से शारीरिक सम्बन्ध की कामना करती है, यम उसे इस सम्बन्ध के लिये मना करता है। ऐसा सभी भाष्यकारों ने व्याख्यान किया है। निरुक्त ११।३४ में यास्क ने भी आख्यानपक्ष में ऐसा ही व्याख्यान दर्शाया है। [🔥यमी यमं चकमे। तां प्रत्याचचक्ष इत्याख्यानम्।]
प्रकरणश एव तु मन्त्रा निर्वक्तव्याः नियम के अनुसार स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इस तथाकथित यमयमी संवादसूक्त का विषय अपनी चतुर्वेद विषयसूची के अन्तर्गत ऋग्वेदविषयसूची में जलादिपदार्थ विद्या विषय का निरूपण किया है।[द्र०-दयानन्दीय लघुग्रन्थसंग्रह, पृष्ठ १३२] इस तथाकथित संवाद सूक्त से पूर्व (ऋ० १०।९) का सूक्त का देवता आपः है । अतः इस सूक्त में पठित यमयमी का संबन्ध भी आप: के साथ होना युक्त है। ऋक्सर्वानुक्रमणी के अनुसार इस सूक्त का ऋषि यम और ऋषि का यमी विवस्वान् के पुत्र और पुत्री हैं।
विवस्वान् आदित्य है। आदित्य की किरणों से पृथिवीस्थ जल तपकर दो भागों में बँट कर ऊपर जाता है।[🔥'कृष्णं नियान हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति'। ऋ० १।१६४।४७] ये दो भाग ही यम यमी हैं। एक योनि आप: से उत्पन्न होने के कारण भाई बहन हैं। इन्हें ही अन्यत्र मित्र और वरुण कहा है।[उर्वशी = विद्यत् के संयोग से मित्र और वरुण का मिलन हुआ तो उससे द्रवरूप गिरा हुआ बिन्दु वसिष्ठ = जल उत्पन्न हुआ । 🔥'उतासि मैत्रावरुणो वसिष्ठो वश्या ब्रह्मन् मनसोऽधिजात:' ऋ० ७।३३।११] आधुनिक वैज्ञानिक नामावली में ये हाईड्रोजन और आक्सीजन गैसें हैं। हाईड्रोजन आक्सीजन की अपेक्षा हल्की होती है। अत: यम (हाईड्रोजन) अन्तरिक्ष स्थान से अतिक्रमण करता हुआ धुलोक तक पहुंचता है। अत: यम को निघण्टु (५।४,६) में अन्तरिक्ष एवं द्य दोनों स्थानों में पढ़ा है। यमी (आक्सीजन) भारी होने से अन्तरिक्ष स्थान तक ही गति करती है। स्त्री प्रत्यय महत्त्व अर्थ में भी होता है।[🔥हिमारण्ययोमहत्त्वे॥ महाभाष्य ४।१।४६॥ महद् हिमं हिमानी,महदरण्यम् अरण्यानी। महत्त्वं = घनत्वम्।] जब यम सूर्य की किरणों के साथ वापस लौटता है[🔥'त आववृत्रन्त्सदनादृतस्यादि घृतेन पृथिवी व्युद्यते' ॥ ऋ० १।१६।४७], तब अन्तरिक्ष में यमी के साथ विद्युत् के योग से यम का मेल होता है और उससे दोनों के मेल से पुष्कर (अन्तरिक्ष) से द्रव रूप वसिष्ठ ( =अतिशय वासयिता =जल) की उत्पत्ति होती है।[द्र० -पूर्व पृष्ठ टि. ४ में उद्धृत मन्त्र का उत्तरार्ध- 🔥'द्रप्स स्कन्न दैव्येन ब्रह्मणा विश्वे देवा: पुष्करे त्वाददन्त' ॥ऋ० ७।३३।११] इसे ही 🔥आ घा ता गच्छानुत्तरा युगानि यत्र जामयः कृण्वन्नजामि (ऋ० १०।१०।१०) से सूचित किया है।
यमयमी सूक्त से पूर्व सूक्त में ही केवल आप: का वर्णन नहीं है, अपितु उत्तर के ११-१२-१३-१४ सूक्तों में भी प्रकारान्तर से यम द्रप्स घृतस्नू द्यावाभूमी का सम्बन्ध उपलब्ध होता है। इस प्रकार यह दशवाँ सूक्त संदश (सडासी के दोनों छोर) के मध्य में पठित होने से जलविद्या विषयक ही है। इस दृष्टि से स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेद विषयसूची में जलादिपदार्थविद्या विषय का जो उल्लेख किया है, वह सर्वथा युक्त है। इसमें यमयमी के संवाद पक्ष में जो घृणित पक्ष उपस्थित किया जाता है, वह भी नहीं है । आवश्यकता है, स्वामी दयानन्द सरस्वती की दिव्य दृष्टि के अनुसार पूरे सूक्त की व्याख्या की।
स्वामी दयानन्द सरस्वती संकलित चतुर्वेद विषयसूची के आधार पर यमयमी सूक्त के संबन्ध में जो विचार प्रस्तुत किया गया है, उससे दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं
◼️(क) वेदभाष्य रचने के उपक्रम से पूर्व स्वामी दयानन्द सरस्वती ने चारों वेदों की जो विषयसूची संकलित की थी, उसके लिये उन्होंने बड़ी गम्भीरता से पूर्वापर के सम्बन्ध को ध्यान में रखा था।
◼️(ख) इस चतुर्वेदविषयसूची के आधार पर ऋग्वेद के शेष भाग, सामवेद तथा अथर्ववेद, जिनका वे अपने जीवन में भाष्य नहीं कर पाये, के सम्बन्ध में उनके मूलभूत मन्त्र-विषय का परिज्ञान हो जाता है। इस प्रकार यह चतुर्वेद विषयसूची उनकी दृष्टि को समझने में विशेष सहायक है।
✍🏻 लेखक - महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥

वेदों में सब विद्याओं का मूलतः निर्देश है






◼️वेदों में सब विद्याओं का मूलतः निर्देश है◼️
✍🏻 लेखक - महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
सभी प्राचीन विविध विद्यानों के पाकर ग्रन्थों के प्रणेता ऋषि मुनि और आचार्यों का मन्तव्य रहा है कि वेद सभी विद्याओं का आकर हैं । इस समय जितनी विद्याओं के प्राचीन ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वे सब अपना उद्गम वेद से घोषित करते हैं। इससे स्पष्ट है कि वेदों में सभी विद्याओं का मूल उपदेश विद्यमान है। इसीलिये समाजशास्त्र के आद्य प्रवक्ता भगवान् स्वाम्भुव मनु ने कहा है- 🔥सर्वज्ञानमयो हि सः (२।७)[द्रष्टव्य- मेधातिथि वा गोविन्दराज की मनुस्मृति की व्याख्या]। अर्थात् वेद सब ज्ञानों से परिपूर्ण है।
इसी सिद्धान्त का भगवान् कृष्णद्वैपायन मुनि ने भी प्रतिपादन किया है। -
🔥'यानीहागमशास्त्राणि याश्च काश्चित् प्रवृत्तयः।
तानि वेदं पुरस्कृत्य प्रवृत्तानि यथाक्रमम्॥'
महाभारत, अनु० १२२।४
अर्थात्-'लोक में जितने भी पागमशास्त्र (-विभिन्न विषयों के आद्य मूल ग्रन्थ) और लोक-प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं, वे सब वेद के आधार पर ही प्रारम्भ हुई हैं।'
परम ब्रह्मनिष्ठ याज्ञवल्क्य मुनि ने भी कहा है -
🔥'न वेदशास्वादन्यत्तु किञ्चिच्छास्त्रं हि विद्यते।
निःसृतं सर्वशास्त्रं तु वेदशास्त्रात् सनातनात् ॥'
बृहद्योगियाज्ञवल्क्यस्मृति १२।१
अर्थात्- 'वेदशास्त्र से भिन्न कोई शास्त्र प्रमाण नहीं है । समस्त शास्त्र सनातन वेद से ही निकले हैं।’
यदि इस तरह से वेद ही सब तरह के ज्ञान के निधि हैं, तो किस कारण महर्षिगण उन-उन शास्त्रों का प्रवचन कर गये ? तो कहते हैं-
जब सर्गादि में अपरिमित शक्ति के प्रभाव से प्रभावित सामर्थ्य वाले, धर्मसत्त्वशुद्ध तेज से युक्त,[द्र०-पाराशरीय ज्योतिषसंहिता का वचन– 🔥'पुरा खलु अपरिमितशक्ति प्रभाप्रभाववीर्या.....धर्मसत्त्वशुद्धतेजस: पुरुषा बभूवुः । तेषां क्रमादपचीयमान सत्त्वाना उपचीयमानरजस्तमस्कानां....।' (भट्ट उत्पल कृत बृहत्संहिताटीका, पृष्ठ १५ पर उधृत)।] अपरिमित बुद्धिवाले, धर्म का साक्षात् किये हुये मानव थे, तब वे वेदों से ही सीधा सब तरह का ज्ञान प्राप्त किया करते थे। उस समय वेद को छोड़ कर अन्य कोई शास्त्र न था। जब उत्तरकाल में मानव क्रमशः सत्त्वहीन, प्रवर्धमान रजोगुण और तमोगुण से युक्त, अल्पमतिवाले, उपदेशों के द्वारा भी वेदों के मन्त्रों में विद्यमान विविध विद्याओं को जानने में असमर्थ हो गये, तब उस तरह के अल्प मेधावाले मनुष्यों को विविध विद्याओं का ज्ञान कराने के लिये विविध शास्त्रों का प्रवचन महर्षि लोगों ने किया।
इसी शास्त्रावताररूप इतिहास का भगवान् यास्कमुनि ने निरुक्त में इस प्रकार प्रतिपादन किया है-
🔥'साक्षात्कृतधर्माण ऋषयो बभूवुस्तेऽवरेभ्योऽसाक्षात्कृतधर्मभ्य उपदेशेन मन्त्रान् संप्रादुः। उपदेशाय ग्लायन्तोऽवरे बिल्मग्रहणायेमं प्रन्थं समाम्ना. सिषु'दं च वेदाङ्गानि च।' निरुक्त १।२०॥
अर्थात्- 'सृष्टि के प्रारम्भ में साक्षात्कृतधर्मा ( = मन्त्रार्थ का साक्षात दर्शन करनेवाले) ऋषि हुये थे। उन्होंने असाक्षात्कृतधर्मा ( == मन्त्रार्थ को साक्षात् न जाननेवाले) मनुष्यों के लिये उपदेश से मन्त्रों के अर्थ जताए । उत्तरकाल के अथवा हीनमेधावाले, उपदेश से ग्लानि करते हुए ( = हमें उपदेशमात्र से वेद समझ में नहीं पाता, ऐसा समझनेवाले) लोगों ने इस निघण्टु-निरुक्त ग्रन्थ का, और वेद तथा वेदाङ्गों का अभ्यास [मूलधात्वर्थानुसारी पदार्थ । यह अर्थ निरुक्तश्लोकवार्तिक में उपलब्ध होता है। द्र० - पूर्व पृष्ठ ७८] किया।
इसी इतिहास के अनुसार भगवान् याज्ञवल्क्य ने भी कहा है-
🔥'दुर्बोधं तु भवेद्यस्मादध्येतुं नैव शक्यते ।
तस्मादुद्धृत्य सर्व हि शास्त्रं तु ऋषिभिः कृतम् ।।
बृहद्योगियाज्ञवल्क्यस्मृति १२।२॥
'जिनके लिये ज्ञान दुर्बोध्य हुआ, और जो वेदों का अध्ययन न कर पाये, उन के लिये सब वेदों से ज्ञान लेकर ऋषि लोगों ने शास्त्र बनाये।'
महाभारत (शान्ति २८४।९२) में भी भगवान् वेदव्यास जी ने लिखा है- 'वेदात् षडङ्गान्युद्धृत्य', अर्थात् 'वेदों से वेदाङ्गों की रचना की।'
और भी- सम्प्रति शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष, धर्मशास्त्र, पदार्थविज्ञान, साहित्य, कला, शिल्प, राजनीति, आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद. वास्तुशास्त्र इत्यादि विषयों के जो मुख्य ग्रन्थ मिलते हैं, वे सब अपने-अपने विषयों की वेदमूलकता की मुक्तकण्ठ से घोषणा करते हैं । विस्तारभय से कुछ ही प्रमाण प्रस्तुत करते हैं
◼️(१) ज्योतिषाचार्य आर्यभट्ट अपने ग्रन्थ के अन्त में 'ज्योतिषशास्त्र का मूल वेद है', ऐसा कहते हैं।
◼️(२) आयुर्वेदशास्त्र अथर्ववेद का उपाङ्ग है, ऐसा भगवान सुश्रुत कहते हैं-- "इह खल्वायुर्वेदो नाम यदुपाङ्गमथर्ववेदस्य । सू० अ० १॥
◼️(३) न्याससूत्रकार भगवान गोतम भी अतीन्द्रियविषयक विज्ञान का प्रतिपादन करनेवाले वेदभाग के प्रामाण्य को बताने के लिये कहते है -
🔥'मन्त्रायुर्वेदप्रामाण्याच्च तत्प्रामाण्यमाप्तप्रामाण्यात् ॥ न्याय० २।१।६८॥
मन्त्रों में जो आयुर्वेद प्रत्यक्षरूप से उपदिष्ट किया गया है, उसके प्रामाण्य की सत्यता लोक में प्रसिद्ध है। उसके प्रमाणित होने से अतीन्द्रिय विज्ञान का प्रतिपादक वेदभाग भी प्रमाणित हो जाता है । क्योंकि जो प्राप्त ईश्वर प्रत्यक्षविषयभूत आयुर्वेद, जो वेद का ही एक विभाग है, का कर्ता है, वही इन्द्रियातीत विषय के प्रतिपादन करनेवाले भाग का भी है । इसलिये एक कर्ता होने से अतीन्द्रिय विषयक वेदभाग का भी प्रामाण्य स्वीकार करना पड़ता है।
◼️(४) पदार्थविज्ञान प्रतिपादक वैशेषिकशास्त्र भी वेद-मूलक है, ऐसी भगवान् कणाद मुनि प्रतिज्ञा करते हैं। जैसे- 🔥‘तद्वचनादाम्नायस्य प्रामाण्यम् ।' वै० १।१।३॥
इसका अर्थ इस प्रकार है- ‘अथातो धर्म व्याख्यास्यामः', अर्थात् 'अब धर्म का व्याख्यान करेंगे' ऐसी प्रतिज्ञा करके तद्वचनात - वैशेषिक प्रतिपाद्य पदार्थधर्म का प्रतिपादन करने से आम्नाय = वेद का प्रामाण्य है।
यहाँ यह भी जानना चाहिये कि भगवान् कणाद ने केवल 'वेदपदार्थ धर्म के प्रतिपादक हैं' यह प्रतिज्ञामात्र ही नहीं की, अपितु कई प्रकरणों में विभिन्न पदार्थों के धर्मों का प्रतिपादन करने के लिये श्रुति-प्रामाण्य भी दर्शाया है । जैसे
(क) प्रोलों की उत्पत्ति तेज के संयोग से ही होती है, ऐसा प्रतिपादन करके आकाश के पानी में तेज का संयोग होता है, इसका प्रतिपादन करते हुए 🔥'वैदिकं च' (५।१।१०) सूत्र से वैदिक वचनों का प्रमाण दर्शाया है। यथा
🔥या अग्नि गभं दधिरे विश्वरूपास्ता न प्रापः शं स्योना भवन्तु'। - तै० सं० ५।६।१
🔥‘आपो ह यद बहतीविश्वमायन् गर्भ दधाना जनयन्तीरग्निम्।' - ऋ० १०।१२१।७
🔥'वषाग्नि वृषणं भरनपां गभ समुद्रियम् ।' यजु, १।१४६
🔥'योऽनिध्मो दीदयद अप्स्वन्तः।' ऋ० १०।३०।४
इन मन्त्रों में जलों में दिव्य अग्नि का संयोग दर्शाया है। इस विषय का प्रतिपादन वेदों में अनेक मन्त्रों में मिलता है।
(ख) शरीर दो प्रकार के हैं- योनिज और अयोनिज, ऐसा बताते हुए अतीन्द्रिय जो अयोनिज शरीर है, उसका प्रतिपादन करते हुए वेद 🔥लिङ्गाच्च (४।२।११) इस सूत्र से अयोनिज शरीर के प्रामाण्य के लिये निम्न वैदिक मन्त्र का संकेत किया है
🔥'ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः ।
ऊरू तदस्य यद श्यः पद्भ्यां शूद्रोऽजायत ।।' ऋ० १०।९०।१२
इस मन्त्र में 'अस्य' इस पद से 'विराट' नामक पुरुष का परामर्श होता है। वही विराट् पुरुष वैदिकग्रन्थों के सर्ग-प्रकरणों में प्रजापति हिरण्यगर्भ-सुवर्णाण्ड-महदण्ड आदि शब्दान्तरों से कहा गया है।
इसी दृष्टि से स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने पुणे (पूना) के पाँचवें प्रवचन में कहा था -
पदार्थज्ञान के विषय में वेदों में बड़ी दक्षता है।[द्रष्टव्य 'ऋषि दयानन्द सरस्वती के शास्त्रार्थ और प्रवचन।पृष्ठ ३१२, पं० १२, १३ । इस पृष्ठ की तीसरी टिप्पणी भी द्रष्टव्य है।]
◼️(५) भगवान् मनु ने राज्य-व्यवस्था की दृष्टि से लिखा है -
🔥सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च ।
सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदहति ॥१२।१००
अर्थात् सेनापतित्व, राज्यशासन, दण्ड का विधान, चक्रवर्ती-राज्य का शासन, इन सब के लिये वही योग्य होता है, जो वेदशास्त्र को जानता है।
इससे स्पष्ट है कि वेदों में राजनीति के समस्त अङ्गों का यथावत् संकलन है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज के तीसरे नियम में कहा है-वेद सब सत्य विद्यानों के ग्रन्थ हैं । वेद में विविध विद्याओं का मूल है, इसके निदर्शनार्थ स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में कतिपय विद्यानों का निदर्शन कराया है। उनकी चतुर्वेद विषयसूची भी इसके लिये महद् उपकारी है।
✍🏻 लेखक - महामहोपाध्याय पण्डित युधिष्ठिर मीमांसक जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥

Wednesday, December 18, 2019

स्वामी आत्मानंद: एक वीतराग सन्यासी



स्वामी आत्मानंद: एक वीतराग सन्यासी


-डॉ विवेक आर्य


स्वामी आत्मानंद आर्यसमाज के श्रेष्ठ वीतराग सन्यासियों में से एक थे। उनका समस्त जीवन लोकहित में बिता। आपका गहन वेदाध्ययन, दर्शनों और व्याकरण आदि अंगों पर पूर्ण अधिकार, अखंड ब्रह्मचर्य, महान तप, अद्वितीय उदारता, विरक्तता, दयालुता, अक्रोध, क्षमा जैसे गुणों से अनेक लोग आपकी और सहज रूप से आकर्षित हो जाते थे। स्वामी जी ने ऋषि दयानन्द के सिद्धांतों का न केवल विस्तीर्त अध्ययन किया अपितु उन्हें अपने जीवन में व्यवहार में भी अपनाया। आपका योग में गंभीर परिशीलन अनेक योगियों को प्रेरणा देने वाला था।


प्रारंभिक जीवन


स्वामी जी का जन्म मेरठ जिले के अंछाड़ नामक ग्राम में 1879 में पं दीनदयालु जी के यहाँ हुआ था। आपका नामकरण मुख्तयार के रूप में हुआ, फिर मुक्तिराम बना और अंत में आत्मानंद बन गए। आप जैन दर्शन की पुस्तकों के विद्वान थे। आपको उन्हीं का स्वाध्याय करते हुए सत्यार्थ प्रकाश पढ़ने को मिला। आप उसे पढ़कर आर्यसमाज में स्वामी दर्शनानन्द जी के पास बनारस आ गए। बनारस में अध्ययन करते समय 12 वर्ष तक जो भी पत्र आपके पास घर से आते थे। आप उन्हें एक मटकी में डालते रहे। 12 वर्ष के पश्चात आपने उन पत्रों को पढ़ा तब आपको ज्ञात हुआ कि कौन कौन सम्बन्धी अब जीवित नहीं है। स्वामी जी इन समाचारों को पढ़कर कहते कि परमात्मा ने इस बंधन से मुक्त कर दिया।


स्वामी जी का प्रेरणादायक व्यक्तित्व


स्वामी जी अल्पभाषी थे। आप वाणी में माधुर्य, प्रेम और सबके हित की भावना रखते थे। आप कहते थे कि संसार के हर प्राणी के लिए उपकारी और संतुलित वाणी बोलनी चाहिए। विद्वान्, उपदेशक, समाज सेवी और वक्ताओं को तो वाणी पर पूर्ण संयम होना चाहिए। आप अपने भाषण में स्वामी दर्शनानंद और पंडित रामचंद्र दहेलवी जी के शास्त्रार्थों के ऐतिहासिक प्रमाण देते थे। आप कहते थे कि शास्त्रार्थ समर में विपक्षी की तीखें बाणों के समक्ष बड़े बड़े योध्या संयम खो देते थे मगर स्वामी दर्शनानंद और पंडित रामचंद्र दहेलवी जी की वाणी पर तो विरोधी भी मुग्ध थे। एक बार एक शास्त्रार्थ के मुस्लिम अध्यक्ष ने स्वामी जी से कहा, " वह स्वामी जी आपने तो तुम्हारा ही सिर और तुम्हारी ही जूती" उक्ति को चरित्रार्थ कर दिया तब स्वामी जी ने उत्तर दिया कि नहीं, बिलकुल नहीं, हम तो आपकी ही माला और आपका ही कंठ, इस उक्ति में विश्वास रखते हैं।

एक बार गुरुकुल के उत्सव पर किसी के पैर लगने से घड़ा टूट गया और दूध बह गया। महाशय क्रोध के मारे गलियां देने लगे। स्वामी जी अपने कक्ष से बाहर निकल कर उस सज्जन को बोले। प्रिय! दूध तो फिर से वापिस आ सकता है। लेकिन याद रखना। गालियां देने से जो मन बिगड़ जाता है। वह दूसरा नहीं मिल सकता। गुस्सा मन को विकृत कर देता है और सदा दुःख देता हैं। इसलिए क्रोध से अपने मन को बिगड़ने मत दो। वह व्यक्ति स्वामी जी के चरणों में गिर पड़ा और बोला कि यह मन अच्छा कैसे बनता है? स्वामी जी ने उत्तर दिया कि स्वाध्याय, साधना और सत्संग से।


गुरुकुल यमुनानगर में मुख्यमंत्री कैरों से लेकर अन्य नेता आते रहते थे। आप उनसे केवल 3 बातें पूछते थे। आप स्वस्थ है। आपको यहाँ आने में कोई कष्ट तो नहीं हुआ। आपके ठहरने का प्रबंध हो गया क्या? आप सदा संक्षिप्त ही बोलते थे। कोई फरियाद, कोई शिकायत कुछ नहीं। स्वामी जी कहते थे अगर किसी व्यक्ति की योग गति की परीक्षा लेनी हो तो उसके आगे दूसरे योगी की प्रशंसा कर दो। अगर वह सुनकर प्रसन्न हो तो समझों उसकी योग में गति हैं। अगर अप्रसन्न हो तो समझो अभी उसे अधिक अभ्यास की आवश्यकता हैं।

स्वामी जी प्रशंसा अथवा शोक दोनों स्थितियों में स्थितप्रज्ञ रहते थे। आपकी एक पुस्तक प्रकाशित हुई तो उसमें केवल दानदाता का चित्र था। आपका नहीं। एक ब्रह्मचारी ने आपके समक्ष ऐसी शिकायत कर दी। आप पुस्तक देखकर बोले कि यह सारी पुस्तक मेरा चित्र नहीं तो किसका हैं? दानदाता का तो केवल एक चित्र है।


स्वामी जी और रावलपिंडी का गुरुकुल


स्वामी दर्शनानन्द जी द्वारा स्थापित चोहा भक्तां गुरुकुल के आप वर्षों आचार्य रहे। फिर इस गुरुकुल को रावलपिंडी से 13 किलोमीटर दूर रावल गांव के समीप पोठोहार ले गए। इस गुरुकुल की ख्याति उस मुस्लिम बहुल क्षेत्र में भी दूर दूर तक फैल गई थी। उनका विश्वास था कि जहाँ स्वामी जी है, उनका गुरुकुल है, वहां वहां उनकी बहन, बेटियां सुरक्षित है। एक बार उनके गुरुकुल में एक मुसलमान अपने दो बच्चों को प्रविष्ट करवाने आया। स्वामी जी ने गुरुकुल में पढ़ने वाले बच्चों को वैदिक प्रचारक बनाया जाता हैं। ऐसा बताया तो वह बोला कि मैं यह जानता हूँ कि अगर मुसलमान भाइयों को पता चला तो मुझे इस कारण मौत के घाट न उतार दे। हिन्दू मुझे न पचा पायें। पर मैं यह जानता हूँ कि यहाँ मुक्तिराम नबी रहता है, जो रात्रि को 12 या 2 बजे घोड़े पर बैठकर 20-30 मील जाकर उपचार करता है। जो यह नहीं देखता कि रोगी हिन्दू है या मुसलमान हैं। ऐसे महापुरुष के गुरुकुल में ये बच्चे इंसान अवश्य बनेंगे। 1947 के पश्चात यह गुरुकुल वैदिक आश्रम यमुनागर के रूप में स्थानांतरित हो गया।


स्वामी जी और आर्यसमाज के आंदोलन


स्वामी जी ने हैदराबाद आंदोलन में भाग लिया। निज़ाम की जेलों में आटे में रेत-बजरी मिलकर कैदियों को भोजन दिया जाता था। जिससे स्वामी जी रोगी बन गए। आप उच्च रक्तचाप से इसी कारण पीड़ित रहे। हिंदी आंदोलन के समय स्वामी जी का कुशल नेतृत्व देखने को मिला। जिसका परिणाम हरियाणा राज्य की स्थापना के रूप में कालांतर में निकला।




स्वामी जी द्वारा रचित साहित्य


स्वामी जी ने संध्या के तीन अंग के नाम से पुस्तक लिखी थी जिसमें प्राणायाम, अघमर्षण तथा मनसा परिक्रमा मन्त्रों की व्याख्या थी। संध्या अष्टांग योग के नाम से आपने इसी पुस्तक के परिवर्द्धित संस्करण को प्रकाशित किया था जिसमें पतंजलि योग को अष्टांग योग के तुल्य बताया गया था। वैदिक गीता के नाम से आपने गीता के वैदिक सिद्धांतनुकूल श्लोकों की व्याख्या की थी। मनोविज्ञान और शिवसंकल्प के नाम से यजुर्वेद के शिवसंकल्प मन्त्रों की विशद व्याख्या आपने की थी। गोमेध यज्ञ पद्यति, आदर्श ब्रह्मचारी आपकी अन्य कृति हैं। स्वामी जी के लेखों के संग्रह को आत्मानंद लेखमाला के नाम से आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब द्वारा प्रकाशित किया गया था। आपका अभिनन्दन ग्रन्थ गुरुकुल झज्जर से प्रकाशित हुआ था।


अंतिम यात्रा


स्वामी जी वृद्धावस्था में रोगी हो गए। स्वामी ओमानंद उन्हें उपचार के लिए गुरुकुल झज्जर ले आये। स्वामी जी का निधन 16 दिसंबर, 1960 को गुरुकुल झज्जर में हुआ। अगले दिन उनका पार्थिव शरीर दिवान हाल आर्यसमाज में दर्शनार्थ रखा गया। शव यात्रा यही से आरम्भ होकर निगम बोध घाट पर अंतेष्टि के रूप में संपन्न हुई।
स्वामी जी वेद की शिक्षा कि जो मनुष्य अपनी दृढ़ता से सत्य विद्या का अनुष्ठान और नियम से ईश्वर की आज्ञा का पालन करता है। उसकी आत्मा में से अविद्या रूपी अन्धकार का नाश अंतर्यामी परमेश्वर कर देता है, जिससे वह पुरुष धर्म और पुरुषार्थ को कभी नहीं छोड़ता। स्वामी जी वेद के इसी पावन उपदेश का अनुसरण करते हुए आदर्श महापुरुष कहलाए।

Monday, December 16, 2019

17 December: JOHN SAUNDERS MURDERED AND LALA LAJPAT RAI DEATH AVENGED



17 December: JOHN SAUNDERS MURDERED AND LALA LAJPAT RAI DEATH AVENGED

Dr. Vivek Arya

Today is 17th December. Its a memorable day in our History. Tyrant British ruler was taught lesson for his cruelty.
British Government appointed a commission named after Simon. It faced protest all over the country. In Lahore Lala Lajpar Rai famous freedom fighter and Aryasamaj leader protested against the Commission.
The Commission was to arrive at Lahore on 30th October 1928. A very big procession was organized at Lahore to boycott the Simon Commission. But the Government Officials had proclaimed the application of Sec. 144, and the police were ordered to prevent any demonstration. There was a clash between the protectionists and the police, and many workers, including Lala Lajpat Rai, were beaten by the police.
Lala Ji roared from stage post protest that "The shots that hits me are the last nails to the coffin of British empire". Soon Lala Lajpat Rai died on 17th November due to injuries. Mr. Scott, the Senior Superintendent of Police Lahore, was held responsible for the Police beatings and Mr. Saunders, an assistant Superintendent of police, was popularly regarded as connected with the beating of Lalaji. On the evening of 17th December, 1928 Mr. Saunders was murdered just before the Police Office, Chanan Singh, a constable, who wanted to pursue the assailants, was also murdered, after which the culprits escaped and could not be traced.

Next morning the police discovered .several posters pasted on walls at different places in the city on which it was written, "Saunders is dead, Lalaji is avenged."

Ever since the day of Lala Lajpat Rai's death, the revolutionary group was considering the plan of avenging the death of Lalaji by killing the Police Officeres "who were responsible for Lalaji's beating that led ultimately to his death. They had two-fold object in this: first to give the popular movement a turn towards violence, and second, to show to the world that Lalaji's beating was not taken lying by India. The action was incident­ally to advertise the existence of a revolutionary party in India.

For this purpose it was decided that Bhagat Singh and Shivaram Rajguru should attempt on the life. of Mr. Scott, the S. S. P., with revolvers. Pt, Chandra Shekhar Azad the absconder in the Kakori Conspiracy Case of 1926, was to direct the whole action and to work as a rear guard.

The whole plot was carefully thought out and complete arrangements were made for the same. Originally, it was the intention of these three youths to fight out a pitched battle with the police and if possible, to lay down their lives fighting. In this idea they were inspired by the story of Jatinder Nath Mukherjee and his associates who, instead of flying before the police and save their skin boldly faced them and in a pitched revolver fight, laid down their lives; sometime in 1916. They believed that in this way they would be able to rouse up the imagination of the youth and bring them into the ranks of the revolutionaries.

But the plan failed in two respects. Instead of Mr. Scott they murdered Mr. Saunders. Then, as the police did not follow them up, their desire for a pitched fight; could not be fulfilled. Only one Police Officer, namely Mr. Fern, came out of the Police Office after the shots had been fired that killed Mr. Saunders. But two bullets whirling by his head proved too strong an argument for returning back. Only Chanan Singh dared to follow them up. He was entreated to give up the chase; but on his refusing to do so, he was also killed by bullet shots.


The three then went to the D. A. V. College Boarding House, which was in lose proximity to the Police Office, waiting for the police to appear. But when nobody came, they returned to their place of shelter on two bicycles, one of which was taken as a forced loan from a cycle dealer.

No sooner had Bhagat Singh and his party left the D. A. V. College Boarding House, the police appeared on the scene in full force, surrounded the boarding house, began to search every nook and corner, and blocked all exits and entrances. Not only that. Strong police force was posted on all roads leading in and out of Lahore, the railway stations became full of C. I. D. men, and .all young men leaving Lahore were carefully scrutinized. But the three young men frustrated all the attempts of the police and safely got away from Lahore.


The stratagem that Bhagat Singh adopted was as clever as it was bold. He dressed up as a young Government Official, adopted a big official name, put labels of that name on his trunks and in the company of a beautiful lady Durga Babhi, en trained a first class compartment at the Central Railway Station in the face of those very C. I D.Officials who were specially deputed to arrest the assassin of Mr. Saunders. He had a fully dressed orderly in the person of Rajguru, with the inevitable tiffin carrier in his hand; of course, all were fully armed for all emergency. Chandra Sekhar Azad adopted a simple method. He got up a pilgrim party for Muttra, with old ladies and gentlemen, and in the capacity of a Brahmin Pandit in an orthodox style, escorted them,—and himself—out of Lahore !

Tuesday, December 3, 2019

भगवान् श्री कृष्ण: महान प्रेरणादायक व्यक्तित्व



भगवान् श्री कृष्ण: महान प्रेरणादायक व्यक्तित्व 

डॉ विवेक आर्य

एक मित्र ने शंका के माध्यम से पूछा कि क्या आप श्री कृष्ण जी को भगवान् मानते है?

मेरा उत्तर इस प्रकार से है-

महाभारत में श्री कृष्ण जी के विषय में लिखा है-

वेद वेदांग विज्ञानं बलं चाप्यधिकं तथा। नृणां हि लोके कोSन्योSस्ति विशिष्ट: ।।

अर्थात आज के समुदाय में वेद वेदांग के ज्ञान तथा शारीरिक शक्ति एवं सामरिक अस्त्र-शस्त्र की कुशलता में श्री कृष्ण सबसे उत्कृष्ट हैं।  कोई भी दूसरा कृष्ण के तुल्य नहीं हैं।  भीष्म पितामह के मुख से कहे गए यह शब्द अक्षरत: श्री कृष्ण जी के गुणों को सिद्ध करते हैं।

यो वै कामान्न भयान्न लोभान्नार्थकारणात्।
अन्यायमनुवत्र्तेत स्थिरबुद्धिरलोलुपः।
धर्मज्ञो धृतिमान् प्राज्ञः सर्वभूतेषु केशवः।। (महाभारत उद्योग. अ. 83)

पाण्डवों की ओर से दूत रूप में जाने के लिए उत्सुक श्री कृष्ण के विषय में वेदव्यास जी कहते है कि श्री कृष्ण लोभ रहित तथा स्थिर बुद्धि हैं। उन्हें सांसारिक लोगों को विचलित करने वाली कामना, भय, लोभ या स्वार्थ आदि कोई भी विचलित नहीं कर सकता, अतएव श्री कृष्ण कदापि अन्याय का अनुसरण नहीं कर सकते। इस पृथ्वी पर समस्त मनुष्यों में श्री कृष्ण ही धर्म के ज्ञाता, परम धैर्यवान और परम बुद्धिमान हैं।

श्री कृष्ण में एक ओर वेद विज्ञान था, दूसरी ओर बल की भी अधिकता। भगवान् में भग शब्द में 6 गुण हैं। ऐश्वर्य,जप, बल, श्री, वैराग्य और यश। इनमें ज्ञान और बल प्रधान है। अन्य गुण इन्हीं दो से सम्बंधित है। ज्ञान में ऐश्वर्य और वैराग्य निहित है। बल में श्री और यश आ जाते हैं। ब्रह्म और क्षत्र इन्हीं दोनों का अपर नाम हैं। इन सभी गुणों का कृष्ण में समन्वय था इसलिए हम उन्हें भगवान् कहकर पुकारते हैं। ईश्वर नहीं कहा गया है।

 स्वामी दयानंद जी ने अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में श्री कृष्ण जी महाराज के बारे में लिखते है कि पूरे महाभारत उनका गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश है।  जिसमें कोई अधर्म का आचरण श्री कृष्ण जी ने जन्म से मरण पर्यन्त बुरा काम कुछ भी किया हो,ऐसा नहीं लिखा।

 महाभारत या भागवत में कहीं भी श्री कृष्ण जी द्वारा मूर्तिपूजा करना नहीं लिखा हैं। अपितु श्रीमद्भागवत में श्री कृष्ण जी की दिनचर्या का दशम स्कंध अध्याय 70 में श्लोक 4 से 6 में वर्णन इस प्रकार मिलता हैं-

श्री कृष्ण जी ब्रह्म मुहर्त उठे और शौच आदि से निवृत हो प्रसन्न अन्त: करण से तमस से परे आत्मा अर्थात परमात्मा का ध्यान किया। -4

परमात्मा के विशेषण-

जो एक है, स्वयं ज्योति स्वरुप है, अनंत है, अव्यय परिवर्तन रहित है, अपनी स्थिति से भक्तों के पापों नष्ट करता है,  उसका नाम ब्रह्मा है, इस संसार की रचना और विनाश के हेतुओं से अपने अस्तित्व का प्रमाण दे रहा है और भक्तों को सुखी करता हैं। -5

और निर्मल जल में स्नान करके यथा विधिक्रिया के साथ दो वस्त्र धारण करके संध्या की विधि की और श्रेष्ठ श्री कृष्ण ने हवन किया और मौन होकर गायत्री का जाप किया। -6

 गीता में भी श्री कृष्ण जी ब्रह्मा के नाम का जाप करने का सन्देश आठवें अध्याय में इस प्रकार से देते है-

ओम इस एक अक्षर ब्रह्म शब्द को बार बार जप करता हुआ और मेरा अनुसरण करता हुआ जो शरीर को छोड़कर परलोक को जाता है। वह मोक्ष को पाता है।

 श्री कृष्ण जी का जीवन धर्मयुक्त राजनीती से प्रेरित था। आपके महान नीतिकार के कुछ गुण महाभारत में इस प्रकार से प्रदर्शित होते हैं-

१. पांचाल देश में द्रौपदी स्वयंवर में असफल नृपों के घोर क्षोभ और युद्ध से पांडवों का संरक्षण। -आदि पर्व अध्याय 199
२. पांडवों को आधा राज्य दिलाना और इंद्रप्रस्थ की स्थापना। - आदि पर्व अध्याय 206
३. जरासंध वध और राजाओं की मुक्ति। -सभा पर्व अध्याय 24
४. राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों और श्रेष्ठ विद्वानों के पग प्रक्षालन का कार्यभार संभालना।  -सभा पर्व अध्याय 35
५. शिशुपाल वध।  -सभा पर्व अध्याय 45
६. वनवास में पांडवों से भेंट। हस्तिनापुर में जुए खेलने को न रोक पाने पर खेद व्यक्त करना। - वन पर्व अध्याय 13
७. पांडवों में हीन भावना उत्पन्न करने के लिए संजय की आलोचना। - उद्योग पर्व अध्याय 19
८. संधि दूत बनाकर कौरवों की सभा में ओजस्वी भाषण देना। - उद्योग पर्व अध्याय 5
९. दुर्योधन को फटकार। - उद्योग पर्व अध्याय 129
१०. दुर्योधन द्वारा बंदी बनाने पर असफल होने पर श्री कृष्ण द्वारा सिंह गर्जन। - उद्योग पर्व अध्याय 130
११. हस्तिनापुर में माता कुंती, विदुर से मिलकर पांडवो के लिए सन्देश लाना।- उद्योग पर्व अध्याय 132-133
१२. कर्ण को पांडवों का सहयोग देने के लिए प्रेरणा देना।  - उद्योग पर्व अध्याय 140
१३. अर्जुन को युद्ध के आरम्भ होने से पहले क्षत्रिय के धर्म पालन की प्रेरणा देना। - भीष्म पर्व अध्याय 25-42
१४. नीतिनिपुणता से भीष्म वध।- भीष्म पर्व अध्याय 107
१५. नीतिनिपुणता से द्रोण वध।- द्रोण पर्व अध्याय 190
१६.  नीतिनिपुणता से जयद्रथ  वध।- द्रोण पर्व अध्याय 146
१७. नीतिनिपुणता से कर्ण वध।- कर्ण पर्व अध्याय 91
१८. युधिष्ठिर द्वारा व्यथित होने पर आत्महत्या की घोषणा करने पर कृष्ण द्वारा समझाना।-  कर्ण पर्व अध्याय 70
१९.  नीतिनिपुणता से शल्य वध।- शल्य पर्व अध्याय 91
२०. कर्ण की अमोध इन्द्र शक्ति से घटोत्कच का वध और अर्जुन की रक्षा।-द्रोण पर्व अध्याय 180
२१.   नीतिनिपुणता से दुर्योधन वध।- शल्य पर्व अध्याय 18
२२. युधिष्ठिर को भीष्म के पास ले जाकर धर्मनीति, युद्धनीति, राजनीती का उपदेश दिलाना।- शांतिपर्व अध्याय 46-50
२३. युधिष्ठिर को अश्वमेध यज्ञ की प्रेरणा देना। - अश्वमेध पर्व अध्याय 71
२४. पुत्रमोह से ग्रस्त धृतराष्ट्र से भीम के प्राणों की रक्षा।-स्त्रीपर्व अध्याय 12
२५. अश्वथामा की चपलता पर उसे झाड़ लगाकर अपने घोर ब्रह्मचर्य व्रत का वर्णन करना। - सौप्तिक पर्व अध्याय 12

इस प्रकार से श्री कृष्ण जी जैसा नीतिकार, सदाचारी वेद वेता, धर्मज्ञ, कर्मयोगी, विनम्र, निर्लोभी, धर्मरक्षक, सद्गृहस्थ, ईश्वर उपासक, महात्मा, महापुरुष अपने श्रेष्ठ गुणों के कारण भगवान कहलाने  के अधिकारी है।


Thursday, November 28, 2019

धर्म और अधर्म



◼️धर्म और अधर्म◼️
🎙व्याख्याता - शास्त्रार्थ महारथी पं॰ रामचंद्र देहलवी जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’

      धर्म-जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन और पक्षपात-रहित न्याय सर्वहित करना है, जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिए यही एक मानने योग्य है, उसको धर्म कहते हैं। 

      आइये, हम धर्म और अधर्म के स्वरूप पर विचार करें और सदैव धर्माचरण करने का निश्चय करें। 

      श्री स्वामी दयानन्द जी महाराज ने धर्म का लक्षण करते हुए सबसे पूर्व ईश्वर की आज्ञा का यथावत पालन करना आवश्यक समझा, जिससे ईश्वर का मानना स्वतः सिद्ध है। उस ईश्वर को न मानने वाला इस लक्षण के अनुकल धर्मात्मा नहीं समझा जा सकता। 

      बहुधा ऐसे मनुष्य दुनिया में मिलेंगे, जिनका ईश्वर में विश्वास नहीं, परन्तु वे भी सृष्टि नियमों को मानते हैं और उन पर चलते हैं । ऐसे पुरुष पूर्ण धर्मात्मा नहीं कहे जा सकते, चूकि उन्होंने नियामक के आवश्यक अंग को नहीं माना जिसके बिना, किसी भी नियम का निर्माण होना असम्भव है । 

      अनुमान-प्रमाण विशेषकर मनुष्य के लिए ही है, जो कारण से कार्य और कार्य से कारण का अनुमान करके अपने कार्यों की सिद्धि करता है। प्रत्येक समय यह आवश्यक नहीं कि कार्य और कारण दोनों की प्रतीति एक ही साथ हो । यदि दुनिया में कहीं ऐसा नियम होता कि दोनों एक ही साथ होते तो अनुमान प्रमाण की आवश्यकता ही न होती। 

      जैसे बादलों को देखकर होने वाली वर्षा का और हुई वर्षा को देखकर उसके कारण रूप बादलों का अनुमान होता है, इसी प्रकार दु:ख को देखकर पाप-कर्मों का, और पापकर्मों को देखकर दुःखों का अनुमान होता है । यदि कोई दुःखों को देखकर पाप-कर्मों का अनुमान करे, या सन्तान को देखकर माता-पिता का, तो उसको पूर्ण ज्ञानी नहीं कह सकते । इसी प्रकार यदि कोई सृष्टि नियमों को देख कर और स्वीकार करके भी उनके नियामक को स्वीकार न करे, तो वह भी पूर्ण ज्ञानी न समझा जायेगा। और जो पूर्ण ज्ञानी ही नहीं, वह पूर्ण धर्मात्मा ही कैसे हो सकता है ? चूकि धर्मात्मा के लिए ज्ञानपूर्वक कर्मों की हो तो प्रधानता है। 

      यदि कोई यह शंका करे कि ईश्वर ने कानून तो बना दिया, पर वह अब कुछ नहीं करता और न आगे करने की आवश्यकता है। प्रत्येक कार्य उस ही नियम के अनुसार होता चला आ रहा है। और 
आगे भी होता रहेगा, तो क्या हानि ? इसका उत्तर यह है कि कानून स्वयं कुछ नहीं कर सकता जब तक कि चेतनकर्ता उसको अमल में न लाते, जैसे कि ताजीरात हिन्द किसी अपराधो का कुछ नहीं कर सकती, जब तक कि पुलिस उसको पकड़ कर जज के सामने पेश न करे और जज उसको उसके अपराध के अनुसार दण्ड न देदे । इसी प्रकार परमात्मा का कानून भी ईश्वर के स्वयं अमल में लाए बिना कुछ नहीं कर सकता। 

      जो ईश्वर को कानून का बनाने वाला तो मानता है लेकिन चलाने वाला नहीं मानते, उनको यह विचारना चाहिए कि जिस बुद्धि ने कानून का निर्माण किया है, वह ही बुद्धि उसको चला सकती है। प्रकृति जड़ होने से स्वयं न कोई कानून (नियम) बना सकती है और न किसी के बनाये नियम पर स्वयं स्वतन्त्रता से चल सकती है। जीवात्मा भी अल्पज्ञ होने से बिना ईश्वर से शरीर तथा ज्ञान प्राप्त किए न कोई नियम बना सकता है, न चल तथा चला सकता है। जीवात्मा इस प्रकार की ईश्वरीय सहायता प्राप्त करके भी, जो नियम बनाता या चलाता है, उसको भी वह अन्य पुरुषों की सहायता से ही कार्यरूप में परिणत करता है। कई स्थानों पर स्वयं अल्पज्ञ और अल्पशक्ति होने के कारण, अपनी इच्छा के विरुद्ध फल की प्राप्ति और असफलता का पात्र बनता है। जैसे आपने देखा होगा कभी-कभी बिना किसी इच्छा के स्वयं ठोकर लग जाती है तथा भोजन करते समय दांतों के तले जीभ कटकर कष्ट देती है। जिससे कि यह सिद्ध है कि कभी-कभी जीवात्मा अपने शरीर पर भी पूर्ण अधिकार नहीं रख पाता। पर परमात्मा सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान् होने के कारण इकला ही सब नियमों को बनाता और स्वयं उन्हें चलाता है, यह हममें और परमात्मा में भेद है। 

      अब प्रश्न उठता है कि ईश्वर की आज्ञा कौन सी मानी जाय ? मुसलमान भाई कहते हैं कि कुरान ईश्वर का हुक्म है। ईसाई भाई बाईबिल को खुदा की पुस्तक बतलाते हैं, इस ही तरह अन्य मजहब भी। परन्तु इन सबको पुस्तकों में परस्पर भेद और विरोध होने के कारण सबकों ईश्वर की आज्ञा नहीं कहा जा सकता। 

      ईश्वर आज्ञा वह ही हो सकती है जो ईश्वर की भांति सार्वभौम हो, एकदेशी न हो । अर्थात् सब मनुष्यों के लिए हितकर हो, किसी विशेष देश या जाति का पक्षपात न हो तथा उसके दया, न्यायादि गुणों के विरुद्ध न हो, अर्थात् वेदानुकूल हो। 

◼️पक्षपात रहित न्याय - यह बहुत कम देखा जाता है कि मनुष्य न्याय करे और वह पक्षपात रहित हो । मनुष्य अल्पज्ञ और अल्पशक्तिमान होने के कारण कई दोषों से युक्त होता है । धन का लालच, रिश्तेदारी मित्रता, दूसरे का भय और मोह आदि उसको पूर्ण न्याय नहीं करने देते। ईश्वर इन त्रुटियों से रहित होने के कारण पक्षपात रहित न्याय करता है । अतः जो पुरुष ईश्वरीय गुणों के अनुकूल अपने गुण बनाकर संसार में कार्य करता और अपने जीवन को व्यतीत करता है वह एक समय पूर्वोक्त सम्पूर्ण दोषों से युक्त होकर पक्ष-पापरहित न्याय करने लग जाता है। पक्षपाती पुरुष अपना दायरा अत्यन्त संकुचित रखता है। यह केवल अपने में या जिसके साथ वह पक्षपात करता है, उस ही तक सीमित रहता है। परन्तु पक्षपात रहित कर्म करने वाला यजुर्वेद के - 

🔥यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्नेवानुपश्यति। 
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न वि चिकित्सति ॥ 
(यजु० ४० मन्त्र ६) 

      अनुसार अपने को सब प्राणियों में और सब प्राणियों को अपने में समझता है । एक देशी जीवात्मा के लिए यह असम्भव है कि वह ईश्वर की तरह सब वस्तुओं में व्याप्त हो जाय । उसके लिए एक यह ही प्रकार है कि वह अपने को "सर्वप्रिय" "सर्वहितकारी" बना सके, यह ही इसकी सर्वव्यापकता है। 

◼️सर्वहित - जिस न्याय में किसी का अहित न हो, वह पक्षपात रहित न्याय है। इसका दूसरा नाम सर्वहित है । ईश्वर इतना गम्भीर है कि दिन-रात सबका न्याय करता हुआ भी प्रत्येक जीव के हित को लक्ष्य से रख एक जीव के बुरे कर्मों को दूसरे पर प्रकट नहीं करता, चूकि वह जानता है कि बुराई के छुड़ाने में ऐसी बात साधक नहीं होती, अपितु बाधक होती है । जो जीव धर्म का आचरण करना चाहे, उसको “सर्वहितकारी" अवश्य होना चाहिए । प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य एक दूसरे की निन्दा करने के लिए घर-घर मारे-मारे फिरते हैं और उनको तब तक चैन नहीं पड़ता, जब तक दस-बीस स्थानों पर किसी की निन्दा न कर आवें । परन्तु वे यह नहीं विचारते कि ऐसा करने से किसी का भी कोई हित नहीं होता, बल्कि अपनी ही आदत खराब होती है, और परस्पर रागद्वेष की वृद्धि होकर वैमनस्य बढ़ता है। 

      स्वार्थी पुरुष भी पूर्ण न्याय या सर्वहित नहीं कर सकता। वह अन्यों के लाभ की अपेक्षा स्वार्थ को अधिक मूल्यवान समझता है और दूसरे के बड़े-बड़े लाभ को अपने तुच्छ से तुच्छ लाभ पर कुर्बान कर देता है । बहुत से मतों के प्रवर्तकों ने अपने मान और प्रतिष्ठा के लिए अपनी न्यूनताओं (कमजोरियों) को भी अपने अनुयायियों का एक धार्मिक नियम बना दिया और कोम की आगे होने वाली उन्नति में एक जबर्दस्त रोड़ा अटकाया जिसके फलस्वरूप आज कुछ लोग "शारदा एक्ट" जैसे आवश्यक और अत्युपयोगी कानून को भी अपने मजहब के विरुद्ध मानकर उसका विरोध करते और कहते हैं कि हमारे पूर्वज इस प्रकार की कम उम्र वाली कन्याओं से शादी कर गये हैं, अतः यह कानून उनके विरुद्ध होगा, इसलिए हम नहीं मान सकते। इसके विरुद्ध ऋषि लोग ईश्वरभाव से प्रेरित हो तथा सर्वहित को लक्ष्य में रखकर जो कुछ कार्य कर गये, वह उन सम्पूर्ण दोषों से रहित था, जिनसे सामान्य पुरुष प्रायः शीघ्र मुक्त नहीं हो पाते। 

◼️प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित - प्रत्यक्षादि प्रमाण जो आगे आयेंगे, उनकी व्याख्या वहां की जावेगी। यहां केवल यह ध्यान रखना चाहिए कि किसी चीज के लिए परीक्षा द्वार बन्द नहीं। किसी भी काम को खूब सोच समझ और परीक्षा करके करना चाहिए । यदि हम उन परीक्षाओं में ठीक और यथार्थ उतरे, तो धर्म और यदि न उतरे तो उसे अधर्म (अकर्तव्य) समझना चाहिए। इसलिए कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्म का स्वयं उत्तरदाता हो, स्वयं परीक्षा करके ही प्रत्येक कार्य को करने की आज्ञा दी गई है। चाहे रेलवे का प्रबन्ध इन्जीनियरिंग के अधीन रखा गया है ओर आदमी दिन रात लाइन ओर पुलों की देखभाल करते रहते हैं, पर फिर भी ड्राइवर को सर्च लाइट और अपनी आंखों से देखकर चलाने की आज्ञा दी जाती है ताकि उसका वैयक्तिक उत्तरदायित्व उसके कार्य के साथ रहे। 

◼️वेदोक्त - वेद जो कि "विद् सत्तायाम, विद ज्ञाने, विद विचारणे" तथा "विदललाभे" इन धातुओं से सिद्ध होता है जिनका अर्थ हुआ कि जो सत्ता ज्ञान विचार और लाभ के सहित हो अर्थात् सर्वप्रथम वेद द्वारा हमें प्रत्येक वस्तु की सत्ता का उपदेश होता है, तत्पश्चात उन वस्तुओं तथा उनके गुण और व्यवहारादि का ज्ञान होता है । ज्ञान होने के अनन्तर ही हम उसके सूक्ष्म विषयों पर विचार करने में समर्थ हो पाते हैं, अन्त में इसी क्रम से हमें उस ज्ञान और विचार के अनरूप लाभ की प्राप्ति होती है। इस प्रकार उस वेद से उपदिष्ट कर्मों को जो कि मोटे शब्दों में ज्ञानानुकूल और विचार पूर्वक हों उन्हें धर्म कहा जाता है । इस ही लिए महात्मा मनु ने अपनी स्मृति में- 🔥"वेदोअखिलो धर्म मूलम्" तथा 🔥"धर्म जिज्ञासासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः" कहा अतएव प्रत्येक व्यक्ति को इस प्रकर के वेदोक्त कर्मों को करना ही अपना धर्म समझना और उसका अनुष्ठान करना चाहिए। 

◼️अधर्म - जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा को छोड़कर और पक्षपात सहित अन्यायी होकर बिना परीक्षा करके अपना हित करना है जो अविद्या, हठ, अभिमान, क्रूरतादि दोषों से युक्त होने के कारण वेद विद्या से विरुद्ध है और सब मनुष्यों को छोड़ने के योग्य है, वह अधर्म कहाता है। 

      यद्यपि किसी विशेष व्याख्या की आवश्यकता नहीं चूकि धर्म समझ लेने के बाद सिर्फ इतना विशेष याद रखना चाहिए कि जो धर्म से विपरीत अर्थात उल्टा हो उसे अधर्म कहते हैं। ऋषि दयानन्द ने मत-मतान्तरों को इसी कसौटी पर कस उन्हें मत-मतान्तर के नाम से निर्देश किया या मजहब बतलाया। चूकि उन सम्पूर्ण मजहबों में जो कि अपने को धर्म के नाम से पुकारते थे, उपयुंक्त दोष थे, जैसे कोई ईश्वर की सत्ता को ही न मानते थे, अर्थात् नास्तिक थे। जब वे ईश्वर ही को न मानते थे तो फिर ईश्वर की आज्ञा को ही कैसे मानते । लिहाजा ऋषि ने उन्हें भी कहा कि तुम्हारा मत धर्म नहीं कहा जा सकता कि वह धर्म के एक आवश्यक अंग से रहित है, अतः वह मजहब है। इस ही प्रकार जो लोग ईश्वर की सत्ता को मानते थे पर उसको आज्ञाओं में पक्ष-पात मानकर किसी एक देश या जाति के लोगों से पक्षपात या प्रेम और दूसरों से नफरत प्रकट करते थे, या ईश्वर के नाम पर यज्ञों में अथवा देवो-देवताओं के सामने पशु हत्या आदि करके अपनी क्रूरता और मूर्ति पूजा आदि करके जड़ में चेतना को मानकर अपनी अविद्याप्रियता का परिचय देते थे, उन्हें तथा जिनके ग्रन्थों में निरी असम्भव और विश्वास न करने लायक बातें भरी पाई, ऋषि ने कहा कि तुम्हारा मत भी सिर्फ मत यानी मजहब है । वह धर्म का स्थान नहीं ले सकता । इसीलिए वह सम्पूर्ण मनुष्य के लिए मान्य न होकर सिर्फ तुम लोगों ही की स्वार्थ पूर्ति के लिए हो सकता है । अतः प्रत्येक समझदार मनुष्य को इस प्रकार मजहबों या मत-मतान्तरों को दूर से ही प्रणाम करके छोड देना चाहिए जिससे कि उसका जीवन व्यर्थ बर्बाद न हो। 

🎙व्याख्याता - शास्त्रार्थ महारथी पं॰ रामचंद्र देहलवी जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’

॥ओ३म्॥

Monday, November 18, 2019

Swami Dayanand and Ramanujacharya



Swami Dayanand and Ramanujacharya 

D.S.Balaji Arya 

Recently Shri Nishchalaland Ji Sarawati; Shankaracharya of Govardhan Math Puri has made a statement about Shri Ramanujacharya and Swami Dayanand. According to him, Swamy Dayanand followed the theories and interpretation of Ramanujacharya, except Avtar and Idol worship. Nishchalanand Ji is very much correct but there is a very a little glitch in his statement.

Swami Dayanand did not follow Ramanujacharya or any other medieval saint while interpreting the Vedas. The only source and texts Swamy Dayanand followed were Vedas. Keeping in mind the logics and natural laws which govern the multiverse, he came to the most obvious conclusions concerned with the Vedic Dharma.

Undoubtedly, Ramanujacharya was one of the very few saints who preserved and conserved the Vedic Religion in his times. Ramanujacharya and his established Sri Vaishnav sect is the reason nobody can today Shri Ram and Krishna in major parts of South India. Shri Ramanujacharya revived the Vedic Varnashram while destroying the ruthless birth Based Caste system. Shri Ramanujacharya denounced Animal Sacrifice and many such misconceptions about Vedas. Shri Ramanujacharya revived the tradition of Women Education, which was prohibited by many anti-Vedic forces.

So if Swami Dayanand seems to be akin to Ramanujacharya, it's nothing but a matter of pride. As it is undoubtedly at par with the divine Vedas.

Similarities between Shri Ramanujacharya and Swami Dayananda

(1). Both Swami Dayananda and Ramanujacharya acknowledged the existence of three eternal realities - Jivatma, Prakruti and Paramatma.

(2). Both gave more emphasis on the Shrutis (Vedas, Upanishads). Unlike other medieval sects like Shaiv, Shakti with moved far away from Vedas got stuck into their respective Purans alone.  

(3).Swami Dayananda rejected all the Puranas. While Ramanuja accepted the Puranas partially only by explicitly rejecting anything which goes against Vedas. The only Puran that his sect fully accepts is Vishnu Puran. They even reject portions of Bhagwad Puran. They don't believe in the existence of Puranic characters which do not find mention in Itihaasas or Shrutis, like Radha.

(4). Both worked for eradication of untouchability and upliftment of Shudras. Ramanujacharya ensured that every devotee is allowed inside temples and is treated respectfully, irrespective of caste or creed. Ramanuja challenged the existing notion of his times that only a Brahmin by birth is eligible for Moksha. He said that every true devotee of Narayana (God) can achieve Moksha and that it has nothing to do with one's caste. In his sect, it is believed that a true devotee of Narayana (irrespective of his or her caste) is superior to all mortal humans including Brahmins. Ramanuja belonged to the tradition which was started by 12 Azhvars, of whom the most venerated is Nammazhvar (Shatkopa muni), who was a Shudra by caste. Ramanuja's entire sect worships Nammazhvar as a liberated devotee who shows the path to Narayana.

(5). Dayananda believed that individual Moksha is a very selfish pursuit, one must strive for Moksha for all. Going against the wishes of his Guru, Ramanuja made the mantra of 'Om Namo Narayana' public, stating that liberation of all the people is more important to him than his liberation.

(6). At old age, Ramanuja used to take support from his brahmin followers while walking to the river for bathing. But during his way back home, he used to take support from his Shudra followers. One day, one of his followers asked him that why he puts himself on the shoulders of a Shudra just after cleaning himself in the river. He answered that water cleans his body while taking support from a Shudra cleans his ego of being born in a high caste, which he said is akin to internal dirt.

(7). Both of Ramanujacharya and Dayananda give special emphasis on Yajna. The recently held Chaturved Swahakar yajna by VHP in New Delhi was conducted by Sri Vaishnava pundits under the supervision of Chinna Jeeyar Swami.

(8). Both Ramanujacharya And Swami Dayanand condemned any existence of Animal Sacrifice in Vedas and considered a Vegetarian diet the only Sattvik way of life.

Minute Differences between both of these great Saint - 

(1). Dayananda believed God is internally formless. Ramanuja believed God has the most beautiful form.

(2). Dayananda believed God never takes avatars, but Ramanuja supported this view, which seems to be his way of collecting and uniting the people at his time.

(3). Dayananda condemned Idol worship. Ramanuja taught that God can be perceived in fiveways, out of which one is Archa (worshippable idol). Even Shri Ramanujacharya never mentioned idol worship as a part of Vedas but he upheld the authorities of certain Agamas which mentions Idol Worship.

Swami Dayanand in his revolutionary book Satyarth Prakash's Chapter 11 critically analyses all the major sects of Hinduism. In which he analyzes the Vishishtadvait philosophy of Sri Ramanujam too. Comparing it with the typical Advait philosophy which propagates Brahma and Jeeva as one. With a line - Brahma Satyam, Jagat Mitya, which means god is true and the world is a myth. Whereas Sri Ramanujacharya calls Jeeva, Brahma and Maya all as nitya(Consistent). 

These are a few facts about Shri Ramanujacharya and Swami Dayanand. Which seems to be very much similar as both are close to the Vedas leaving away the pollutants.