*रामप्रसाद बिस्मिल जी के जीवन के कुछ संस्मरण*
19 दिसंबर-बलिदान दिवस
![](https://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/fb0/1/16/1f3af.png)
![](https://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/f6f/1/16/1f337.png)
पं० रामप्रसाद बिस्मिल जी का जन्म उत्तरप्रदेश में स्थित *शाहजहांपुरा* में 11 जून 1897 ई. को हुआ था। इनके पिता का नाम *मुरलीधर* तथा माता का नाम *मूलमती* था। इनके घर की आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं थी। बालकपन से ही इन्हें गाय पालने का बड़ा शौक था। बाल्यकाल में बड़े उद्दंड थे। पांचवी में दो बार अनुत्तीर्ण हुए। थोड़े दिनों बाद घर से चोरी भी करने लगे तथा उन पैसों से गंदे उपन्यास खरीदकर पढ़ा करते थे, भंग भी पीने लगे। रोज़ाना 40-50 सिगरेट पीते थे। एक दिन भांग पीकर संदूक से पैसे निकाल रहे थे, नशे में होने के कारण संदूकची खटक गई। माता जी ने पकड़ लिया व चाबी पकड़ी गई। बहुत से रूपये व उपन्यास इनकी संदूक से निकले। किताबों से निकले उपन्यासादि उसी समय फाड़ डाले गए व बहुत दण्ड मिला। ( _परमात्मा की कृपा से मेरी चोरी पकड़ ली गई, नहीं तो दो-चार साल में न दीन का रहता न दुनिया का_ –आत्मचरित्र)
परंतु विधि की लीला और ही थी। एक दिन शाहजहांपुरा में *आर्यसमाज* के एक बड़े सन्यासी *स्वामी सोमदेव* जी आए। बिस्मिल जी का उनके पास आना-जाना होने लगा। इनके जीवन ने पलटा खाया, *बिस्मिल जी आर्यसमाजी बन गए और ब्रह्मचर्य का पालन करने लगे।* प्रसिद्ध क्रांतिकारी भाई परमानन्द जी की लिखी पुस्तक *तवारीखे हिन्द* को पढ़कर बिस्मिल जी बहुत प्रभावित हुए। पं० रामप्रसाद ने प्रतिज्ञा की कि ब्रिटिश सरकार से क्रांतिकारियों पर हो रहे अत्याचार का बदला लेकर रहूँगा।
![](https://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/fb0/1/16/1f3af.png)
![](https://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/f6f/1/16/1f337.png)
फाँसी से पुर्व *बिस्मिल जी नित्य जेल में वैदिक हवन करते थे।* उनके चेहरे पर प्रसन्नता व संतोष देखकर *जेलर ने पूछा की तुम्हारा गुरु कौन है?* बिस्मिल जी ने कहा कि *जिस दिन उसे फाँसी दी जाएगी, उस दिन वह अपने गुरु का नाम बताएगा*, और हुआ भी ऐसा ही। फाँसी देते समय जेलर ने जब अपनी बात याद दिलाई तो बिस्मिल जी ने कहा कि *मेरा गुरु है स्वामी दयानन्द।*
![](https://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/fb0/1/16/1f3af.png)
![](https://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/f6f/1/16/1f337.png)
*स्वामी दयानंद जी की बातों का राम प्रसाद पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि ये आर्य समाज के सिद्धान्तों को पूरी तरह से अनुसरण करने लगे* और आर्य समाज के कट्टर अनुयायी बन गये। इन्होंने आर्य समाज द्वारा आयोजित सम्मेलनों में भाग लेना शुरु कर दिया। इन सम्मेलनों में जो भी सन्यासी महात्मा आते रामप्रसाद उनके प्रवचनों को बड़े ध्यान से सुनकर उन्हें अपनाने की पूरी कोशिश करते।
बिस्मिल का परिवार सनातन धर्म में पूर्ण आस्था रखता था और इनके पिता कट्टर पौराणिक थे। *उन्हें किसी बाहर वाले व्यक्ति से इनके आर्य समाजी होने का पता चला तो उन्होंने खुद को बड़ा अपमानित महसूस किया।* क्योंकि वो रामप्रसाद के आर्य समाजी होने से पूरी तरह से अनजान थे। अतः घर आकर उन्होंने इनसे आर्य समाज छोड़ देने का लिये कहा। लेकिन बिस्मिल ने अपने पिता की बात मानने के स्थान पर उन्हें उल्टे समझाना शुरु कर दिया। अपने पुत्र को इस तरह बहस करते देख वो स्वंय को और अपमानित महसूस करने लगे। उन्होंने क्रोध में भर कर इनसे कहा –
*“या तो आर्य समाज छोड़ दो या मेरा घर छोड़ दो।”*
इस पर बिस्मिल ने अपने सिद्धान्तों पर अटल रहते हुये घर छोड़ने का निश्चय किया और *अपने पिता के पैर छूकर उसी समय घर छोड़कर चले गये।* इनका शहर में कोई परिचित नहीं था जहाँ ये कुछ समय के लिये रह सके, इसलिये ये जंगल की ओर चले गये। वहीं इन्होंने एक दिन और एक रात व्यतीत की। इन्होंने नदी में नहाकर पूजा-अर्चना की। जब इन्हें भूख लगी तो खेत से हरे चने तोड़कर खा लिये।
दूसरी तरफ इनके घर से इस तरह चले जाने पर घर में सभी परेशान हो गये। *मुरलीधर को भी गुस्सा शान्त होने पर अपनी गलती का अहसास हुआ* और इन्हें खोजने में लग गये। दूसरे दिन शाम के समय जब ये आर्य समाज मंदिर पर स्वामी अखिलानंद जी का प्रवचन सुन रहे थे *इनके पिता दो व्यक्तियों के साथ वहाँ गये और इन्हें घर ले आये।*तब से उनके पिता ने उनके क्रांतिकारी विचारों का विरोध करना बन्द कर दिया।
![](https://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/fb0/1/16/1f3af.png)
![](https://static.xx.fbcdn.net/images/emoji.php/v9/f6f/1/16/1f337.png)
19 दिसंबर को फाँसी वाले दिन प्रात: 3 बजे बिस्मिल जी उठते है। शौच , स्नान आदि नित्य कर्म करके यज्ञ किया। फिर ईश्वर स्तुति करके वन्देमातरम् तथा भारत माता की जय कहते हुए वे फाँसी के तख्ते के निकट गए। तत्पश्चात् उन्होने कहा – *“मै ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश चाहता हूँ।”* फिर पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी तख्ते पर चढ़े और _‘विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि...’_ वेद मंत्र का जाप करते हुए फंदे से झूल गए।
ऐसी शानदार मौत लाखों में दो-चार को ही प्राप्त हो सकती है। स्वातंत्र्य वीर पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी के इस महान बलिदान ने भारत की आजादी की क्रांति को और तेज़ कर दिया। बाद में चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, राजगुरु व सुखदेव जैसे हजारों देशभक्तों ने उनकी लिखी अमर रचना *‘सरफ़रोशी की तमन्ना’* गाते हुए अपने बलिदान दिये।
पं रामप्रसाद बिस्मिल आदर्श राष्ट्रभक्त तथा क्रांतिकारी साहित्यकार के रूप में हमेशा अमर रहेंगे।
दुखद है आज भारत के आधिकांश लोगो ने उन्हें और उनके प्रेरणा स्त्रोत दोनों को भूला दिया है।
No comments:
Post a Comment