Wednesday, December 27, 2017

शुद्धि प्राचीन आर्य विधान है




शुद्धि प्राचीन आर्य विधान है

"घर वापसी", शुद्धि, परावर्तन अनेक नामों से हम लोग एक प्राचीन संस्कार से आज परिचित है। प्राचीन काल में अनार्यों को आर्य बनाने की प्रक्रिया को शुद्धि कहा जाता था। इस प्रक्रिया में आत्मचरित को पवित्र करना शुद्ध कहलाता था। आज विधर्मी जैसे मुस्लिम अथवा ईसाई हो चूके हमारे भाइयों को पुन: वैदिक सनातन धर्म में प्रविष्ट करने को “शुद्ध” करना कहा जाता है। 28 दिसंबर 2014 के Midday अख़बार में मुंबई के रहने वाले संस्कृत विद्वान श्री गुलाम दस्तगीर जी का बयान छपा कि हिन्दू धर्मग्रंथों में शुद्धि का विधान नहीं है। हम इस लेख के माध्यम से गुलाम साहिब जी की इस भ्रान्ति का निवारण करना चाहते हैं की शुद्धि का विधान न केवल प्राचीन हैं अपितु इसका वैदिक ग्रंथों में अनेक स्थलों पर वर्णन मिलता हैं जिससे न केवल उनकी भ्रान्ति दूर हो सके अपितु उनके निकष्ट सज्जन भी इस भ्रान्ति का शिकार न हो।

वेदों में "शुद्धि" का सन्देश

1. हे विद्वानों! जो गिरे हुए है उनको फिर से उठाओ। जिन्होंने पाप किया है अथवा जिनका जीवन मैला हो गया है उनको फिर से जीवन दो या "शुद्ध" करो।ऋग्वेद 10/137/1
2. हे इन्द्र! शत्रुओं के निवारणार्थ हमें शक्ति दीजिये जो हिंसारहित एवं कल्याणकारक है। जिससे तुम दासों (अनार्यों) को आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनाते हो, जो मनुष्य की वृद्धि का हेतु है।ऋग्वेद 6/22/10
3. परमेश्वर के नाम को आगे बढ़ाते हुए सब संसार को आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनाओ। ऋग्वेद 9/63/5

श्रोत्र-सूत्र ग्रंथों में शुद्धि का विधान
1. भ्रष्ट द्विजों की संतान को शुद्ध कर यज्ञोपवीत दे देना चाहिये। आपस्तम्भ 1/1/1
2. प्रायश्चित से प्रायश्चित्कर्ता शुद्ध होकर अपने असली वर्ण को प्राप्त करता है। आपस्तम्भ 1/1/2
3. उपद्रव, व्याधि, मुसीबत आदि में शरीर की रक्षार्थ जो विधर्मी बने वह शांति होने पर शुद्ध होने के लिए प्रायश्चित कर ले। पराशर स्मृति 7/41
4. देश में उपद्रव आदि के काल में जिनका यज्ञोपवीत उतारा गया वह मास भर दुग्ध पान का व्रत करे, गोपालन करे और पुन: यज्ञोपवीत धारण करे। हारीत स्मृति
5. जिनको मलेच्छों ने बलपूर्वक गोहत्या, मांसभक्षण आदि नीचकर्म किये हो वह वर्णानुसार कृच्छ व्रत कर शुद्ध हो जाये। देवल स्मृति श्लोक 9-11
6. गोवध आदि समतुल्य पातकियों की शुद्धि चान्द्रायण आदि व्रतों से होती हैं। याज्ञवल्क्य स्मृति प्र -5

भविष्य पुराण में शुद्धि का वर्णन

1.कण्व ऋषि द्वारा मलेच्छों की शुद्धि का वर्णन। भविष्य पुराण प्रतिसर्ग खंड 4 अध्याय 21 श्लोक 17-21
2. अग्निवंश के राजाओं द्वारा बौद्धों की शुद्धि का वर्णन। भविष्य पुराण प्रतिसर्ग खंड 4 अध्याय 21 श्लोक 31-35
3. कृष्ण चैतन्य के सेवक,रामानंद के शिष्य, निम्बादित्य, विष्णु स्वामी द्वारा मलेच्छों की शुद्धि का वर्णन। भविष्य पुराण प्रतिसर्ग खंड 4 अध्याय 21 श्लोक 48-59

इतिहास में शुद्धि के प्रमाण

1. कश्मीर के राजा द्वारा ब्राह्मणों के सहयोग से लिखवाया गया ग्रन्थ रणबीर सागर में शुद्धि का समर्थन इन शब्दों में किया गया है की सभी ब्राह्य जातियाँ प्रायश्चित कर शुद्ध हो सकती है। रणबीर सागर प्रायश्चित प्रा 12
2. इतिहास में शंकराचार्य एवं कुमारिलभट्ट द्वारा बुद्धों की शुद्धि।
3. इतिहास में हुण, काम्बोज आदि जातियाँ शुद्ध होकर आर्य हुई।
4. शिवाजी द्वारा नेताजी पालकर जैसे सरदारों को इस्लाम से वैदिक धर्म में दोबारा से शुद्ध कर लिया गया।
इस प्रकार के अनेक उदहारण प्राचीन ग्रंथों एवं इतिहास से दिए जा सकते है
जिससे यह सिद्ध होता है कि प्राचीनकाल में शुद्धि का विधान हमारे देश में प्रचलित था। आधुनिक भारत में शुद्धि के प्राचीन संस्कार को पुनर्जीवित करने का और खोये हुए भाइयों को वापिस से स्वधर्मी बनाने का सबसे प्रथम एवं क्रांतिकारी प्रयास स्वामी दयानंद द्वारा किया गया जिसके लिए समस्त हिन्दू समाज का उनका आभारी होना चाहिए।

डॉ विवेक आर्य

http://www.mid-day.com/articles/conversion-has-no-basis-in-hindu-scriptures/15871196

रामप्रसाद बिस्मिल जी के जीवन के कुछ संस्मरण





*रामप्रसाद बिस्मिल जी के जीवन के कुछ संस्मरण*

19 दिसंबर-बलिदान दिवस
🎯नशा छोङ राष्ट्र भक्त कैसे बने🌷
पं० रामप्रसाद बिस्मिल जी का जन्म उत्तरप्रदेश में स्थित *शाहजहांपुरा* में 11 जून 1897 ई. को हुआ था। इनके पिता का नाम *मुरलीधर* तथा माता का नाम *मूलमती* था। इनके घर की आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं थी। बालकपन से ही इन्हें गाय पालने का बड़ा शौक था। बाल्यकाल में बड़े उद्दंड थे। पांचवी में दो बार अनुत्तीर्ण हुए। थोड़े दिनों बाद घर से चोरी भी करने लगे तथा उन पैसों से गंदे उपन्यास खरीदकर पढ़ा करते थे, भंग भी पीने लगे। रोज़ाना 40-50 सिगरेट पीते थे। एक दिन भांग पीकर संदूक से पैसे निकाल रहे थे, नशे में होने के कारण संदूकची खटक गई। माता जी ने पकड़ लिया व चाबी पकड़ी गई। बहुत से रूपये व उपन्यास इनकी संदूक से निकले। किताबों से निकले उपन्यासादि उसी समय फाड़ डाले गए व बहुत दण्ड मिला। ( _परमात्मा की कृपा से मेरी चोरी पकड़ ली गई, नहीं तो दो-चार साल में न दीन का रहता न दुनिया का_ –आत्मचरित्र)
परंतु विधि की लीला और ही थी। एक दिन शाहजहांपुरा में *आर्यसमाज* के एक बड़े सन्यासी *स्वामी सोमदेव* जी आए। बिस्मिल जी का उनके पास आना-जाना होने लगा। इनके जीवन ने पलटा खाया, *बिस्मिल जी आर्यसमाजी बन गए और ब्रह्मचर्य का पालन करने लगे।* प्रसिद्ध क्रांतिकारी भाई परमानन्द जी की लिखी पुस्तक *तवारीखे हिन्द* को पढ़कर बिस्मिल जी बहुत प्रभावित हुए। पं० रामप्रसाद ने प्रतिज्ञा की कि ब्रिटिश सरकार से क्रांतिकारियों पर हो रहे अत्याचार का बदला लेकर रहूँगा।
🎯गुरु कौन था?🌷
फाँसी से पुर्व *बिस्मिल जी नित्य जेल में वैदिक हवन करते थे।* उनके चेहरे पर प्रसन्नता व संतोष देखकर *जेलर ने पूछा की तुम्हारा गुरु कौन है?* बिस्मिल जी ने कहा कि *जिस दिन उसे फाँसी दी जाएगी, उस दिन वह अपने गुरु का नाम बताएगा*, और हुआ भी ऐसा ही। फाँसी देते समय जेलर ने जब अपनी बात याद दिलाई तो बिस्मिल जी ने कहा कि *मेरा गुरु है स्वामी दयानन्द।*
🎯 *आर्य समाज के कट्टर अनुयायी और पिता से विवाद*🌷
*स्वामी दयानंद जी की बातों का राम प्रसाद पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि ये आर्य समाज के सिद्धान्तों को पूरी तरह से अनुसरण करने लगे* और आर्य समाज के कट्टर अनुयायी बन गये। इन्होंने आर्य समाज द्वारा आयोजित सम्मेलनों में भाग लेना शुरु कर दिया। इन सम्मेलनों में जो भी सन्यासी महात्मा आते रामप्रसाद उनके प्रवचनों को बड़े ध्यान से सुनकर उन्हें अपनाने की पूरी कोशिश करते।
बिस्मिल का परिवार सनातन धर्म में पूर्ण आस्था रखता था और इनके पिता कट्टर पौराणिक थे। *उन्हें किसी बाहर वाले व्यक्ति से इनके आर्य समाजी होने का पता चला तो उन्होंने खुद को बड़ा अपमानित महसूस किया।* क्योंकि वो रामप्रसाद के आर्य समाजी होने से पूरी तरह से अनजान थे। अतः घर आकर उन्होंने इनसे आर्य समाज छोड़ देने का लिये कहा। लेकिन बिस्मिल ने अपने पिता की बात मानने के स्थान पर उन्हें उल्टे समझाना शुरु कर दिया। अपने पुत्र को इस तरह बहस करते देख वो स्वंय को और अपमानित महसूस करने लगे। उन्होंने क्रोध में भर कर इनसे कहा –
*“या तो आर्य समाज छोड़ दो या मेरा घर छोड़ दो।”*
इस पर बिस्मिल ने अपने सिद्धान्तों पर अटल रहते हुये घर छोड़ने का निश्चय किया और *अपने पिता के पैर छूकर उसी समय घर छोड़कर चले गये।* इनका शहर में कोई परिचित नहीं था जहाँ ये कुछ समय के लिये रह सके, इसलिये ये जंगल की ओर चले गये। वहीं इन्होंने एक दिन और एक रात व्यतीत की। इन्होंने नदी में नहाकर पूजा-अर्चना की। जब इन्हें भूख लगी तो खेत से हरे चने तोड़कर खा लिये।
दूसरी तरफ इनके घर से इस तरह चले जाने पर घर में सभी परेशान हो गये। *मुरलीधर को भी गुस्सा शान्त होने पर अपनी गलती का अहसास हुआ* और इन्हें खोजने में लग गये। दूसरे दिन शाम के समय जब ये आर्य समाज मंदिर पर स्वामी अखिलानंद जी का प्रवचन सुन रहे थे *इनके पिता दो व्यक्तियों के साथ वहाँ गये और इन्हें घर ले आये।*तब से उनके पिता ने उनके क्रांतिकारी विचारों का विरोध करना बन्द कर दिया।
🎯फाँसी का दिन🌷
19 दिसंबर को फाँसी वाले दिन प्रात: 3 बजे बिस्मिल जी उठते है। शौच , स्नान आदि नित्य कर्म करके यज्ञ किया। फिर ईश्वर स्तुति करके वन्देमातरम् तथा भारत माता की जय कहते हुए वे फाँसी के तख्ते के निकट गए। तत्पश्चात् उन्होने कहा – *“मै ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश चाहता हूँ।”* फिर पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी तख्ते पर चढ़े और _‘विश्वानिदेव सवितर्दुरितानि...’_ वेद मंत्र का जाप करते हुए फंदे से झूल गए।
ऐसी शानदार मौत लाखों में दो-चार को ही प्राप्त हो सकती है। स्वातंत्र्य वीर पं. रामप्रसाद बिस्मिल जी के इस महान बलिदान ने भारत की आजादी की क्रांति को और तेज़ कर दिया। बाद में चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, राजगुरु व सुखदेव जैसे हजारों देशभक्तों ने उनकी लिखी अमर रचना *‘सरफ़रोशी की तमन्ना’* गाते हुए अपने बलिदान दिये।
पं रामप्रसाद बिस्मिल आदर्श राष्ट्रभक्त तथा क्रांतिकारी साहित्यकार के रूप में हमेशा अमर रहेंगे।
दुखद है आज भारत के आधिकांश लोगो ने उन्हें और उनके प्रेरणा स्त्रोत दोनों को भूला दिया है।

वैदिक धर्म की विषेशताएं



*🌷वैदिक धर्म की विषेशताएं🌷*

*(1)* वैदिक धर्म संसार के सभी मतों और सम्प्रदायों का उसी प्रकार आधार है जिस प्रकार संसार की सभी भाषाओं का आधार संस्कृत भाषा है जो सृष्टि के प्रारम्भ से अर्थात् १,९६,०८,५३,११७ वर्ष से अभी तक अस्तित्व में है।संसार भर के अन्य मत,पन्थ किसी पीर-पैगम्बर,मसीहागुरु,महात्मा आदि द्वारा चलाये गये हैं,किन्तु चारों वेदों के अपौरुषेय होने से वैदिक धर्म ईश्वरीय है,किसी मनुष्य का चलाया हुआ नहीं है।

*(2)* वैदिक धर्म में एक निराकार,सर्वज्ञ,सर्वव्यापक,न्यायकारी ईश्वर को ही पूज्य(उपास्य) माना जाता है,उसके स्थान में अन्य देवी-देवताओं को नहीं।

*(3)* ईश्वर अवतार नहीं लेता अर्थात् कभी भी शरीर धारण नहीं करता।

*(4)* जीव और ईश्वर(ब्रह्म) एक नहीं हैं बल्कि दोनों की सत्ता अलग-अलग है और मूल प्रकृति इन दोनों से अलग तीसरी सत्ता है।ये तीनों अनादि हैं तीनों ही एक दूसरे से उत्पन्न नहीं होते।

*(5)* वैदिक धर्म के सब सिद्धान्त सृष्टिक्रम के नियमों के अनुकूल तथा बुद्धि सम्मत हैं।जबकि अन्य मतों के बहुत से सिद्धान्त बुद्धि की घोर उपेक्षा करते हैं।

*(6)* हरिद्वार,काशी,मथुरा,कुरुक्षेत्र,अमरनाथ,प्रयाग आदि स्थलों का नाम तीर्थ नहीं है।जो मनुष्यों को दुःख सागर से पार उतारते हैं उन्हें तीर्थ कहते हैं।विद्या,सत्संग,सत्यभाषण,पुरुषार्थ,विद्यादान,जितेन्द्रियता,परोपकार,योगाभ्यास,शालीनता आदि शुभ तीर्थ हैं।

*(7)* भूत-प्रेत डाकिन आदि के प्रचलित स्वरुप को वैदिक धर्म में स्वीकार नहीं किया जाता है।भूत-प्रेत शब्द आदि तो मृत शरीर के कालवाची शब्द हैं और कुछ नहीं।

*(8)* स्वर्ग के देवता अलग से कोई नहीं होते।माता-पिता,गुरु,विद्वान तथा पृथ्वी,जल,अग्नि,वायु आदि ही स्वर्ग के देवता होते हैं,जिन्हें यथावत रखने व यथायोग्य उपयोग करने से सुख रुपी स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

*(9) स्वर्ग और नरक:* स्वर्ग और नरक किसी स्थान विषेश में नहीं होते,सुख विशेष का नाम स्वर्ग और दुःख विशेष का नाम नरक है और वे भी इसी संसार में शरीर के साथ ही भोगे जाते हैं।स्वर्ग-नरक के सम्बन्ध में गढ़ी हुई कहानियों का उद्देश्य केवल कुछ निष्कर्मण्य लोगों का भरण-पोषण करना है।

*(10) मुहूर्तः* जिस समय चित्त प्रसन्न हो तथा परिवार में सुख-शान्ति हो वही मुहूर्त है।ग्रह नक्षत्रों की दिशा देखकर पण्डितों से शादी ब्याह,कारोबार आदि के मुहूर्त निकलवाना शिक्षित समाज का लक्षण नहीं है।,क्योंकि दिनों का नामकरण हमारा किया हुआ है,भगवान का नहीं अतः दिनों को हनुमान आदि के व्रतों और शनि आदि के साथ जोड़ना व्यर्थ है।अर्थात् अवैदिक है।

*(11) राशिफल एवं फलित ज्योतिष:* ग्रह नक्षत्र जड़ हैं और जड़ वस्तु का प्रभाव सभी पर एक सा पड़ता है अलग-अलग नहीं।अतः ग्रह नक्षत्र देखकर राशि निर्धारित करना एवं उन राशियों के आधार पर मनुष्य के विषय में भांति-भांति की भविष्यवाणियां करना नितान्त अवैज्ञानिक है।जन्मपत्री देखकर वर-वधू का चयन करने के बजाए हमें गुण-कर्म-स्वभाव एवं चिकित्सकीय परीक्षण के आधार पर ही रिश्ते तय करने चाहिएं।जन्मपत्रियों का मिलान करके जिनके विवाह हुए हैं क्या वे दम्पति पूर्णतः सुखी हैं?विचार करें राम-रावण व कृष्ण-कंस की राशि एक ही थी।

*(12) चमत्कार:* दुनिया में चमत्कार कुछ भी नहीं है।हाथ घुमाकर चेन,लाकेट बनाना एवं भभूति देकर रोगों को ठीक करने का दावा करने वाले क्या उसी चमत्कार विद्या से रेल का इंजन व बड़े-बड़े भवन बना सकते हैं?या कैंसर,ह्रदय तथा मस्तिष्क के रोगों को बिना आपरेशन के ठीक कर सकते हैं?यदि वह ऐसा कर सकते हैं तो उन्होंने अपने आश्रमों में इन रोगों के उपचार के लिए बड़े-२ अस्पताल क्यों बना रखे हैं?वे अपनी चमत्कारी विद्या से देश के करोड़ों अभावग्रस्त लोगों के दुःख-दर्द क्यों नहीं दूर कर देते?असल में चमत्कार एक मदारीपन है जो धर्म की आड़ में धर्मभीरु जनता के शोषण का बढ़िया तरीका है।

*(13) गुरु और गुरुडम:* जीवन को संस्कारित करने में गुरु का महत्वपूर्ण स्थान है।अतः गुरु के प्रति श्रद्धाभाव रखना उचित है।लेकिन गुरु को एक अलौकिक दिव्य शक्ति से युक्त मानकर उससे 'नामदान' लेना,भगवान या भगवान का प्रतिनिधि मानकर उसका अथवा उसके चित्र की पूजा अर्चना करना ,उसके दर्शन या गुरु नाम का संकीर्तन करने मात्र से सब दुःखों और पापों से मुक्ति मानना आदि गुरुडम की विष-बेल है अर्थात् वैदिक मान्यताओं के विरुद्ध है।अतः इसका परित्याग करना चाहिए।

*(14) मृतक कर्म :* मनुष्य की मृत्यु के बाद उसके मृत शरीर का दाहकर्म करने के पश्चात् अन्य कोई करणीय कार्य शेष नहीं रह जाता।आत्मा की शान्ति के लिए करवाया जाने वाला गरुड़पुराण आदि का पाठ या मन्त्र जाप इत्यादि धर्म की आड़ लेकर अधार्मिक लोगों द्वारा चलाया जाने वाला प्रायोजित पाखण्ड है अर्थात् वैदिक मान्यताओं के विरुद्ध है।

*(15)* राम,कृष्ण,शिव,ब्रह्मा,विष्णु आदि ऐतिहासिक महापुरुष थे न कि वे ईश्वर या ईश्वर के अवतार थे।

*(16)* जो मनुष्य जैसे शुभ या अशुभ (बुरे) कर्म करता है उसको वैसा ही सुख या दुःख रुप फल अवश्य मिलता है।ईश्वर किसी भी मनुष्य के पाप को किसी परिस्थिति में क्षमा नहीं करता है।

*(17)* मनुष्य मात्र को वेद पढ़ने का अधिकार है,चाहे वह स्त्री हो या शूद्र।

*(18)* प्रत्येक राष्ट्र में राष्ट्रोन्नति के लिए गुण-कर्म-स्वभाव के आधार पर चार ही प्रकार के पुरुषों की आवश्यकता है इसीलिए वेद में चार वर्ण स्थापित किये हैं-१.ब्राह्मण,२.क्षत्रिय,३.वैश्य ,४.शूद्र ।

*(19)* व्यक्तिगत उन्नति के लिए भी मनुष्य की आयु को चार भागों में बांटा गया है इन्हें चार आश्रम भी कहते हैं।२४ वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्य आश्रम,२५ से ५० वर्ष की अवस्था तक गृहस्थाश्रम,५० से ७५ वर्ष की अवस्था तक वानप्रस्थाश्रम और इसके आगे संन्यासाश्रम माना गया है।

*(20)* जन्म से कोई भी व्यक्ति ब्राह्मण,क्षत्रिय,वैश्य या शूद्र नहीं होता।अपने-अपने गुण-कर्म-स्वभाव से ब्राह्मण आदि कहलाते हैं,चाहे वे किसी के भी घर में उत्पन्न हुए हों।

*(21)* भंगी,चमार आदि के घर उत्पन्न कोई भी मनुष्य जाति या जन्म के कारण अछूत नहीं होता।जब तक गन्दा है तब तक अछूत है चाहे वह जन्म से ब्राह्मण हो या भंगी या अन्य कोई।

*(22)* वैदिक धर्म पुनर्जन्म को मानता है।अच्छे कर्म अधिक करने पर अगले जन्म में मनुष्य का शरीर और बुरे कर्म करने पर पशु,पक्षी,कीट-पतंग आदि का शरीर,अपने कर्मों को भोगने के लिए मिलता है।जैसे अपराध करने पर मनुष्य को कारागार में भेजा जाता है।

*(23)* गंगा-यमुना आदि नदियों में स्नान करने से पाप नहीं धुलते।वेद के अनुसार उत्तम कर्म करने से व्यक्ति भविष्य में पाप करने से बच सकता है।जल से तो केवल शरीर का मल साफ होता है आत्मा का नहीं।

*(24)* पंच महायज्ञ करना प्रत्येक गृहस्थी के लिए आवश्यक है।

*(25)* मनुष्य के शरीर,मन तथा आत्मा को संस्कारी(उत्तम) बनाने के लिए गर्भाधान संस्कार से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त १६ संस्कारों का करना सभी गृहस्थजनों का कर्तव्य है।

*(26)* मूर्तिपूजा,सूतियों का जल विसर्जन,जगराता,कांवड लाना,छुआछूत,जाति-पाति,जादू-टोना,डोरा-गंडा,ताबिज,शगुन,जन्मपत्री,फलित ज्योतिष,हस्तरेखा,नवग्रह पूजा,अन्धविश्वास,बलि-प्रथा,सतीप्रथा,मांसाहार,मद्यपान,बहुविवाह आदि सामाजिक कुरीतियां वैदिक राह से भटक जाने के बाद हिन्दू धर्म के नाम से बनी हुई हैं वेदों में इनका नाम भी नहीं है।

*(27)* वेद के अनुसार जब मनुष्य सत्यज्ञान को प्राप्त करके निष्काम भाव से शुभकर्मों को प्राप्त करता है और महापुरुषों की भांति उपासना से ईश्वर के साथ सम्बन्ध जोड़ लेता है।तब उसकी अविद्या (राग-द्वेष आदि की वासनाएं) समाप्त हो जाती है।मुक्ति में जीव ३१ नील,१० खरब,४० अरब वर्ष तक सब दुःखों से छूटकर केवल आनन्द का ही भोग करके फिर लौटकर मनुष्यों में उत्तम जन्म लेता है।

*(28)* जब-जब मिलें तब-तब परस्पर 'नमस्ते शब्द' बोलकर अभिवादन करें।यही भारत की प्राचीनतम वैदिक प्रणाली है।

*(29)* वेद में परमेश्वर के अनेक नामों का निर्देश किया है जिनमें मुख्य नाम 'ओ३म्' है।शेष नाम गौणिक कहलाते हैं अर्थात् यथा गुण तथा नाम।

INDIA KNOW THYSELF



● An attempt to appraise the work of versatile genius like Dayanand ! ●
● People decry Dayanand, but follow Dayanand's ideas. ●
● Rishi Dayanand was a symbol of Indian India. ●
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- Suraj Bhan

INDIA KNOW THYSELF
How difficult it is to appraise the work of versatile genius like Dayanand ! A saint and a scholar, a socio-religious reformer and an educationist - what branch of human activity was not comprised in his comprehensive programme ! But beneath all this work there is the undercurrent of an idea, which was the mainspring of all his activities - the desire to see India restored to herself. "Know Thyself - India" was his clarion call. He found India ashamed of herself suffering from an inferiority complex. He revealed to her, her pristine glory, he gave her a vision of a glorious future - only if India would be herself. He found India weltering in the marshes of ignorance, bound by shackles of superstition, let in upon her people the light of his unique knowledge, exhorted them not to hug their chains, advised them to be themselves. Thousands were awakened out of their slumber, millions refused to awake, but were shaken, all the same. They refused to know themselves, the Saviour knew they would have to know themselves if they cared to survive. Let them not be converted by Dayanand, they should be converted by some proto-type of his after his death, if Hinduism had to exist.
Hinduism has paid the Arya Samaj the highest tribute, that of imitation by stealing its programme. People decry Dayanand, but follow Dayanand's ideas. That is his triumph. The most hostile camps take up the work that he stood for, and still continue to thunder against him. That is his victory. What the Rishi preached has become a part of our life - no wonder if some fail to appreciate the greatness of his achievement. Chroniclers have not done him justice yet. But the sun is bound to emerge resplendent out of the vapours of suspicion, false prestige and intolerance.
Dayanand found India - the so-called educated India being swapt by the West. "Know yourselves," the Saviour thundered. "Surrender not your souls," he called out to the apes, "your salvation lies not in imitation, but in being yourselves." People mocked at him, they called him a fool and a crank. And when today Gandhi, the idol of India - that glorious embodiment of what Hinduism stands for - preaches the same message, when Tagore - India's saintly poet - exhorts us not be mere images, and when Sir Radhakrishnan, the prince among Indian philosophers, deplores that "our hatred for British rule is combined with a strange love for British Institutions," we feel the seer that Dayanand was. There lies his glory. He saw the Indian problem as very few saw it. "Back to yourselves" was his cry. People said, going back could not be reconciled with moving forward. Dayanand saw no inconsistency in the two, and history has justified his belief.
The Rishi was a symbol of Indian India. He was an Indian to the core. The spirit that breathed in him was essentially indigenious and both in his ideas and his methods he was entirely Aryan. "Though in his breadth of vision and originality of outlook he was so much ahead of his people, he was yet so thoroughly Indian that there was nothing in him which in the remotest degree could be traced to foreign influence. "In spite of the great height from which he addressed his people he addressed them as his own. He knew and understood what they were and what they were not. His diagnosis was unique, and so was his remedy - the history of the last eighty years is a living testimony to the truth of this fact.
[Source: Dayanand - His Life and Work, p. 82-84, presented by: Bhavesh Merja]
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राम और मांसाहार



● राम और मांसाहार ●
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- स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
श्रीराम मांस खाते थे अथवा नहीं - यह विषय अत्यन्त विवादास्पद है । कुछ लोगों की धारणा है कि वे क्षत्रिय वे अत: मांस खाते थे, परन्तु हमारे विचार में यह धारणा अशुद्ध है । यहां हम रामायण के कुछ स्थलों पर विचार करेंगे । जब श्रीराम को वन-गमन की आज्ञा हुई तब वे अपनी माता कौसल्या से आज्ञा लेने के लिए राजप्रासाद मे आये । माता ने उन्हें बैठने के लिए आसन और खाने के लिए कुछ वस्तुएँ दीं, उस समय श्रीराम ने कहा -
चतुर्दश हि वर्षाणि वत्स्यामि विजले वने ।
मधुमूलफलैर्जीवन् हित्वा युनिवदामिषम् ॥
- अयो. 20.29-30
माता अब तो मुझे चौदह वर्ष तक घोर वन में वास करना पड़ेगा । अत: मैं आमिष भोजन को छोड़कर मुनिजन-कथित कन्द-मूल, फल आदि खाकर ही अपना जीवन-निर्वाह करूंगा ।
इस श्लोक में 'आामिष' शब्द को देखकर मांस-भक्षण करने वाले कहते हैं कि श्रीराम मांस-भक्षण करते थे तभी तो उन्होंने कहा - "मैं आमिष को छोड़कर कन्दमूल-फलों से निर्वाह करूंगा।" यदि इस श्लोक का ऐसा ही अर्थ माना जाय तो रामायण में आगे चलकर मांस-भक्षण के जितने प्रसंग आते हैं वे सब प्रक्षिप्त सिद्ध हो जाते हैं । फिर महलों में मांस खाने का प्रसंग सम्पूर्ण रामायण में कहीं भी नहीं है, अतः इस श्लोक से ही श्रीराम के मांसाहार का निषेध हो जाता है ।
कोश में आमिष का एक अर्थ 'प्रिय वा मनोहर वस्तु' भी है, अत: उपर्युक्त श्लोक का ठीक अर्थ यह होगा कि मैं मिष्ठान्न आदि प्रिय वा मनोहर वस्तुओं को छोड़कर मुनियों जैसा आहार करूंगा । यही अर्थ ठीक एवं श्रीराम की भावना के अनुकूल है । इसके लिए एक अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत है । पंडित भगवद्दत्त जी द्वारा सम्पादित रामायण के पश्चिमोत्तरीय संस्करण में यह श्लोक इस प्रकार है -
स्वादूनि हित्सा भोज्यानि फलमूलकृताशनः ॥
- अयो. 20.21
यहाँ स्पष्ट ही स्वादु पदार्थों को छोड़कर फल-मूल खाने का वर्णन है। “छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम् ।" मूल के कट जाने पर वृक्ष में न शाखा ही उग सकती है और न पत्ते ही आ सकते हैं । इस श्लोक से तो श्रीराम के मांस-भक्षण की जड़ ही कट गई है ।
रामायण में सीताजी द्वारा गंगा पर सुरा के घड़े और मांस-युक्त भात चढ़ाने का वर्णन आता है, परन्तु यह प्रकरण वाममार्गियों द्वारा मिलाया गया है । सीताजी द्वारा गंगा पर शराब और मांस-युक्त भात की बलि देना सीताजी की भावनाओं के सर्वथा प्रतिकूल है । सीताजी वन जाने के लिए श्रीराम से प्रार्थना करते हुए कहती हैं -
फलमूलाशना नित्यं भविष्यामि न संशयः।
- अयो. 27.15
मैं वन में उत्पन्न फलों और मूलों को खाकर अपना निर्वाह कर लूंगी इसमें तनिक भी संशय नहीं है ।
पित्रा नियुक्ता भगवन् प्रवेक्ष्यामस्तपोवनम् ।
धर्ममेव चरिष्यामस्तत्र मूलफलाशना:।
- अयो. 54.16
जब श्रीराम महर्षि भरद्वाज के आश्रम में पहुँचे तो उन्होंने अपना परिचय देकर और वनवास की बात बताकर कहा -
भगवन् ! हम लोग पिता के आदेशानुसार तपोवन में प्रवेश करेंगे और वहां फलमूल खाकर धर्माचरण करेंगे ।
श्रीराम ने अपने मित्र गुह से भी कहा था -
कुशचीराजिनधरं फलमूलाशिनं च माम् ।
विद्धि प्राणिहितं धर्मे तापसं वनगोचरम् ।
- अयो. 50.44-45
मैं तो कुश, चीर और मृगचर्म धारण करता हूं और फल तथा कन्दमूल खाता हूं । आप मुझे पिता की आज्ञा से धर्म-पालन में सावधान एवं वन में विचरनेवाला तपस्वी समझें ।
श्रीराम की दो प्रतिज्ञाएँ प्रसिद्ध हैं। एक तो उन्होंने अपनी माता कैकेयी के समक्ष प्रकट की थी -
रामो द्विर्नाभिभाषते ।
- अयो. 18.30
राम दो प्रकार की बात नहीं करता, जो कहता है वही करता है ।
दूसरी प्रतिज्ञा उन्होंने सीताजी के समक्ष इस रूप में रक्खी थी -
अप्यहं जीवितं जह्यां त्वां वा सीते सलक्ष्मणम् ।
न तु प्रतिज्ञां संश्रृत्य ब्राह्मणेभ्यो विशेषत: ॥
- अर. 10.19
मुझे भले ही अपने प्राण त्यागने पड़ें अथवा लक्ष्मण सहित तुम्हें ही क्यों न छोड़ना पड़े, किन्तु मैं अपनी प्रतिज्ञा नहीं त्याग सकता, विशेषकर उस प्रतिज्ञा को जो ब्राह्मणों के सामने की जाये ।
श्रीराम ने फलमूल आदि खाने की प्रतिज्ञा न केवल अपनी माता और गुह के समक्ष की है अपितु महर्षि भरद्वाज के समक्ष भी अपनी प्रतिज्ञा को दोहराया है जो ब्राह्मण ही नहीं, ऋषि हैं, अतः स्पष्ट सिद्ध है कि श्रीराम मांस नहीं खाते थे ।
वन को चलते समय श्रीलक्ष्मण जी ने भी अपनी उपयोगिता बताते हुए कहा था -
आहरिष्यामि ते नित्यं मूलानि च फलानि च ।
वन्यानि यानि स्वाहार्हाणि तपस्विनाम् ॥
- अयो. 31.26
मैं आपके लिए कन्दमूल-फल और तपस्वियों के भोजन करने योग्य वन में उत्पन्न होनेवाले शाक-पात आदि वस्तुएँ नित्य ला दिया करूँगा ।
इस प्रकार श्रीराम आदि की प्रतिज्ञाओं को देखते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वे मांस नहीं खाते थे । जहां उनके मांस खाने का उल्लेख है वह स्थल निश्चितरूप से प्रक्षेप है ।
[स्रोत : मर्यादापुरुषोत्तम राम, पृ. 128-131, प्रस्तुति : भावेश मेरजा]
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Tuesday, December 26, 2017

हिन्दू धर्मरक्षक महाराजा सूरजमल के बलिदान की अमर गाथा



हिन्दू धर्मरक्षक महाराजा सूरजमल के बलिदान की अमर गाथा

"दिल्ली के बादशाह नवाब नजीबुद्दौला के दरबार में एक सुखपाल नाम का ब्राह्मण काम करता था। एक दिन उसकी लड़की अपने पिता को खाना देने महल में चली गयी। मुग़ल बादशाह उसके रूप पर मोहित हो गया। और ब्राह्मण से अपनी लड़की कि शादी उससे करने को कहा और बदले में उसको जागीरदार बनाने का लालच दिया और न मानने पर गर्दन कटवाने का डर दिखाया। भयभीत ब्राह्मण क्या करता ? मान गया और अपनी बेटी की शादी मुग़ल बादशाह से करने को तैयार हो गया । जब लड़की ने यह बात सुनी तो उसने शादी से इंकार कर दिया इससे क्रोधित होकर बादशाह ने लड़की को जिन्दा जलाने का आदेश दिया । मौलवियो ने बादशाह से कहा ऐसा तो यह मर जायेगी । आप इस को जेल में डालकर कष्ट दो और इस पर हरम में आने का दबाव डालो । बादशाह बात मान गया और लड़की को जेल में डाल दिया ।लड़की ने जेल कि जमादारनी से कहा कि क्या इस देश में कोई ऐसा राजा नहीं है जो हिन्दू लड़की कि लाज बचा सके । जमादारनी ने कहा ऐसा वीर तो सिर्फ एक ही है लोहागढ़ नरेश महाराजा सूरजमल जाट । बेटी तू एक पत्र लिख वो पत्र मैं तेरी माँ को दे दूंगी । लड़की के दुखो को देख वहाँ काम करने वाली जमादारनी ने लड़की कि मदद कि और लड़की ने महाराजा सूरजमल के नाम एक पत्र लिखा और उसकी माँ वो पत्र लेकर महाराजा सूरजमल से पास गयी ।उसकी कहानी सुन सूरजमल ने ब्रहामण की लड़की छुड़ाने के लिए अपनेदूत वीरपाल गुर्जर को दिल्ली भेजा ।वहाँ दिल्ली दरबार में जब गूर्जर ने महाराजा सूरजमल जाट का पक्ष रखते हुए लड़की को छोड़ने की बात कही तो बादशाह ने कहा कि"सूरजमल जाट हमसे क्या ब्रहामणी छुडवाएगा , सूरजमल जाट को जाकर कहना कि अपनी जाटनी महारानी को भी हमारे पास लेकर आए ।"अपनी जाटनी महारानी के अपमान में यह शब्द सूनकर गुर्जर मुसलमानों के भरे दरबार में क्रोध से टूट पड़ा । तब बादशाह ने गुर्जर कि हत्या का दी और मरते मरते गूर्जर दूत ने कहा कि "वो पूत जाटनी का है , तेरी नानी याद दिला देगा"अपने दूत गूर्जर की हत्या की सूचना और महारानी के अपमान की बात जब भरतपुर में महाराजा सूरजमल ने सुनी तो गुर्रा के खेड़े हुए और बोले :-"चालो र जाट - हिला दो दिल्ली के पाट" और दिल्ली पर जाटों ने चढाई कर दी ।गोर गोर जाट चले अपनी लाड़ली सुसराल चले हाथो में तलवार लेक रमुगलो के बनने जमाई। सूरजमल जाट अपने साथ अपनी जाटनी महारानी को भी युद्ध में ले गया । भरतपुर के जाटों ने दिल्ली घेर ली और बादशाह के पास संदेश भिजवाया कि मैं अपनी जाटनी महारनी को साथ लेकर आया हूँ और अब देखता हूँ कि तू मुझसे जाटनी लेकर जाता है या नाक रगड़कर ब्रहामण की हिन्दू कन्या सम्मान सहित लौटाकर जाता है । 25 दिसंबर 1763 को दोनों सेनाओं के बीच युद्ध हुआ और महाराजा सूरजमल युद्ध जीत गए ।बादशाह नजीबुद्दौला ने महाराजा सूरजमल के पैर पकड़ लिये और बोला मैं तो आप की गाय हूँ। मुझे छोड़ दो महाराजा । बादशाह ने सम्मान सहित ब्राह्मण की लड़की को सूरजमल को लौटा दिया। बादशाह ने पैरों में पड़कर महाराजा सूरजमल से संधि की भीख मांगी और उन्हें उनके साथ दिल्ली चलने का न्योता दिया । युद्ध जीतकर महाराजा सूरजमल ने अपनी सेना को लौटा दिया और खुद जीत की खुशी में मग्न होकर मुस्लिम बादशाह पर ताबेदारी दिखाने के लिए कुछ सैनिकों को लेकर उनके साथ चल दिए। रास्ते में हिडन नदी के तट पर उन्हें धोखा देकर सूरजमल जी की हत्या कर दी। यह हिन्दू धर्म की जातिय एकता का अनुठा उदाहरण है कि एक ब्राह्मण की बेटी की लाज बचाने के लिए जाटों ने बलिदान दिया। जाट राजा सूरजमल अपने विश्वासपात्र गूर्जर को भेजते है । जाटनी के अपमान में गूर्जर वीरगति को प्राप्त हो गया। गूर्जर की मौत से जाट दिल्ली पर चढ़ाई कर देते है।

हिन्दू समाज मेंआज जो केवल जाति जाति की बात करते है। उन्हें हमारे इतिहास से सीख लेनी चाहिए।

ऐसे हिन्दू वीर सूरजमल को और ऐसी हिन्दू एकता को शत शत नमन ।

25 दिसंबर को क्रिशमिस डे को गौण करके हिन्दू धर्म के महान योद्धा को श्रद्धांजलि दे।

जय राजा सूरजमल ! जय हिन्दू एकता।

Saturday, December 23, 2017

ईसाईयों से धार्मिक चर्चा



ईसाईयों से धार्मिक चर्चा
ईसाई मत में ईश्वर की परिभाषा, ईश्वर के गुण, कर्म और स्वाभाव को लेकर बहुत भ्रम है। जानिए कैसे?
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सवाल:- भगवान (God) कौन है ?
ईसाई:- जीसस है।
सवाल:- क्या जीसस, मैरी का बेटा है ?
ईसाई:- हां।
सवाल:- तो फिर मैरी को किसने बनाया ?
ईसाई:- भगवान ने बनाया।
सवाल:- OK, तो फिर भगवान कौन है ?
ईसाई:- जीसस है।
सवाल:- क्या जीसस का जन्म हुआ था ?
ईसाई:- हां, हुआ था।
सवाल:- तो जीसस के पिता कोन हैं ?
ईसाई:- जीसस के पिता भगवान है।
सवाल:- तो फिर भगवान कोन है ?
ईसाई:- जीसस है।
सवाल:- क्या जीसस भगवान का सेवक है ?
ईसाई:- हाँ है।
सवाल:- क्या जीसस सूली पर मरे थे ?
ईसाई:- हाँ, मरे थे।
सवाल:- जीसस को पुनर्जीवित किसने किया ?
ईसाई:- भगवान ने किया।
सवाल:- क्या जीसस दूत (संदेशवाहक) थे?
ईसाई:- हाँ, थे।
सवाल:- तो उनको पृथ्वी पर किसने भेजा था ?
ईसाई:- भगवान ने भेजा।
सवाल:- तो भगवान कौन है ?
ईसाई:- जीसस है।
सवाल:- क्या जीसस ने धरती पर किसी की पूजा की थी?
ईसाई:- हाँ।
सवाल:- किसकी पूजा की थी ?
ईसाई:- भगवान की।
सवाल:- तो भगवान कौन है ?
ईसाई:- जीसस है।
सवाल:- क्या भगवान का कोई प्रारम्भ है ?
ईसाई:- नही है।
सवाल:- तो 25 दिसम्बर को कौन जन्मा था ?
ईसाई:- जीसस जन्मे थे ।
सवाल:- क्या जीसस ही भगवान है ?
ईसाई:- हाँ, जीसस ही भगवान है।
सवाल:- भगवान कहाँ है ?
ईसाई:- स्वर्ग में है।
सवाल:- स्वर्ग में कितने भगवान हैं ?
ईसाई:- वहां सिर्फ एक ही भगवान है।
सवाल:-जीसस कहाँ है ?
ईसाई:- वो अपने पिता (भगवान) के दायीं तरफ विराजमान है।
सवाल:- तो स्वर्ग में कितने भगवान हैं ?
ईसाई:- वहां सिर्फ एक ही भगवान है।
सवाल:- वहां पर कितनी कुर्सियां हैं ?
ईसाई:- वहां सिर्फ एक कुर्सी है।
सवाल:- जीसस कहाँ है ?
ईसाई:- वे भगवान के पास बैठे हैं।
सवाल:- तो वे दोनों एक कुर्सी पर कैसे बैठ सकते हैं ?
ईसाई:- भगवान पर इतने सवाल ? आपको शैतान ने गुमराह कर रखा है। भगवान के बारे में इतना गलत सिर्फ शैतान ही सोच सकता है । आप शैतान के जाल में फंसे हुए हैं।

Wednesday, December 20, 2017

मनु और बुद्ध के स्त्री सम्बन्धी विचारों का तुलनात्मक अध्ययन




मनु और बुद्ध के स्त्री सम्बन्धी विचारों का तुलनात्मक अध्ययन

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महर्षि मनु कृत मनु स्मृति में--
यत्र नार्य्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्रऽफलाः क्रियाः। मनुस्मृति 3/56

अर्थात जिस समाज या परिवार में स्त्रियों का सम्मान होता है, वहां देवता अर्थात् दिव्यगुण और सुख़- समृद्धि निवास करते हैं और जहां इनका सम्मान नहीं होता, वहां अनादर करने वालों के सभी काम निष्फल हो जाते हैं।

पिता, भाई, पति या देवर को अपनी कन्या, बहन, स्त्री या भाभी को हमेशा यथायोग्य मधुर-भाषण, भोजन, वस्त्र, आभूषण आदि से प्रसन्न रखना चाहिए और उन्हें किसी भी प्रकार का क्लेश नहीं पहुंचने देना चाहिए। -मनुस्मृति 3/55

जिस कुल में स्त्रियां अपने पति के गलत आचरण, अत्याचार या व्यभिचार आदि दोषों से पीड़ित रहती हैं। वह कुल शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाता है और जिस कुल में स्त्री-जन पुरुषों के उत्तम आचरणों से प्रसन्न रहती हैं, वह कुल सर्वदा बढ़ता रहता है। -मनुस्मृति 3/57

जो पुरुष, अपनी पत्नी को प्रसन्न नहीं रखता, उसका पूरा परिवार ही अप्रसन्न और शोकग्रस्त रहता है और यदि पत्नी प्रसन्न है तो सारा परिवार प्रसन्न रहता है। - मनुस्मृति 3/62

पुरुष और स्त्री एक-दूसरे के बिना अपूर्ण हैं, अत: साधारण से साधारण धर्मकार्य का अनुष्ठान भी पति-पत्नी दोनों को मिलकर करना चाहिए।-मनुस्मृति 9/96

ऐश्वर्य की कामना करने हारे मनुष्यों को योग्य है कि सत्कार और उत्सव के समयों में भूषण वस्त्र और भोजनादि से स्त्रियों का नित्यप्रति सत्कार करें। मनुस्मृति

पुत्र-पुत्री एक समान। आजकल यह तथ्य हमें बहुत सुनने को मिलता है। मनु सबसे पहले वह संविधान निर्माता है जिन्होंने जिन्होंने पुत्र-पुत्री की समानता को घोषित करके उसे वैधानिक रुप दिया है- ‘‘पुत्रेण दुहिता समा’’ (मनुस्मृति 9/130) अर्थात्-पुत्री पुत्र के समान होती है।

पुत्र-पुत्री को पैतृक सम्पत्ति में समान अधिकार मनु ने माना है। मनु के अनुसार पुत्री भी पुत्र के समान पैतृक संपत्ति में भागी है। यह प्रकरण मनुस्मृति के 9/130 9/192 में वर्णित है।

आज समाज में बलात्कार, छेड़खानी आदि घटनाएं बहुत बढ़ गई है। मनु नारियों के प्रति किये अपराधों जैसे हत्या, अपहरण , बलात्कार आदि के लिए कठोर दंड, मृत्युदंड एवं देश निकाला आदि का प्रावधान करते है। सन्दर्भ मनुस्मृति 8/323,9/232,8/342

नारियों के जीवन में आनेवाली प्रत्येक छोटी-बडी कठिनाई का ध्यान रखते हुए मनु ने उनके निराकरण हेतु स्पष्ट निर्देश दिये है।

पुरुषों को निर्देश है कि वे माता, पत्नी और पुत्री के साथ झगडा न करें। मनुस्मृति 4/180 इन पर मिथ्या दोषारोपण करनेवालों, इनको निर्दोष होते हुए त्यागनेवालों, पत्नी के प्रति वैवाहिक दायित्व न निभानेवालों के लिए दण्ड का विधान है। मनुस्मृति 8/274, 389,9/4

मनु की एक विशेषता और है, वह यह कि वे नारी की असुरक्षित तथा अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षधर नहीं हैं और न उन बातों का समर्थन करते हैं जो परिणाम में अहितकर हैं। इसीलिए उन्होंने स्त्रियों को चेतावनी देते हुए सचेत किया है कि वे स्वयं को पिता, पति, पुत्र आदि की सुरक्षा से अलग न करें, क्योंकि एकाकी रहने से दो कुलों की निन्दा होने की आशंका रहती है। मनुस्मृति 5/149, 9/5- 6 इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि मनु स्त्रियों की स्वतन्त्रता के विरोधी है| इसका निहितार्थ यह है कि नारी की सर्वप्रथम सामाजिक आवश्यकता है -सुरक्षा की। वह सुरक्षा उसे, चाहे शासन-कानून प्रदान करे अथवा कोई पुरुष या स्वयं का सामर्थ्य।

उपर्युक्त विश्‍लेषण से हमें यह स्पष्ट होता है कि मनुस्मृति की व्यवस्थाएं स्त्री विरोधी नहीं हैं। वे न्यायपूर्ण और पक्षपातरहित हैं। मनु ने कुछ भी ऐसा नहीं कहा जो निन्दा अथवा आपत्ति के योग्य हो।
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बौद्ध मत में नारी सम्बन्धी विचार ( साभार श्री कार्तिक अय्यर )

ये सब हमने बौद्ध मत के मान्य ग्रंथों से ही लिखा है राहुल सांकृत्यायन, कौसल्यायन आदि आदि ने जो लिखा, वो हमने नकल कर दिया। यदि इनमें बुराई हो, तो बुराई का दोष उन ग्रन्थों का है. प्रकाशक लेखक अनुवादक आदि सभी बौद्ध हैं.

१:- स्त्री वर्ग संतापी,ईर्ष्यालु,मूर्ख,मत्सरी और बुद्घिहीन है।
(अंगुत्तरनिकाय चक्कतुनिपात)
२:- स्त्रियां धूर्त,झूठी,कारस्थानी,अप्रामाणिक,गुप्त व्यवहार करने वाली है। "
(जातककथा ६२/१९२)
३:-"भिक्षुओं! काले सांप में पांच दुर्गुण हैं। अस्वच्छता,दुर्गंध,बहुत सोने वाला,भयकारक और मित्रद्रोही(विश्वासघाती)। ये सारे दुर्गुण स्त्रियों में भी हैं। वे अस्वच्छ,दुर्गंधयुत,बहुत सोने वाली,भय देने वाली और विश्वासघाती है।"
(अंगु.पांचवा निपात,दीपचारिका वग्गो,पठण्हसुत्त ५/२३/९)

**स्त्रियां नरकगामी हैं**
१:- अधिकतर स्त्रियों को मैंने नरक में देखा है। उसके तीन कारण हैं जिससे स्त्रियां नरकगामी बनती हैं:-
-वो पूर्वाह्न काल में, सुबह, कृपण और मलिन चित्त की होती है।
-दोपहर में मत्सर युक्त होती हैं।
-रात को लोभ और काम युक्त चित्त की होती है।
(संयुक्त निकाय,मातुगामसंयुत्त,पेयाल्लवग्गो , तीहिधम्मोसुत्त ३५/१/४)

**स्त्रियों को बुद्ध बनने का अधिकार नहीं है**
१:- स्त्री कभी भी बुद्ध नहीं बन सकती।
(पाली जातक,अट्ठकथानिदान,निदानकथा १९)
वैदिक मान्यता में स्त्रियाँ ऋषियों के समान ऋषिका भी हैं.

२:- स्त्री बुद्ध नहीं बन सकती। केवल तभी बन सकती है जब पुरुष का जन्म ले ले। स्त्री चक्रवर्ती सम्राट भी नहीं बन सकती । केवल पुरुष ही राजा बन सकता है। केवल पुरुष ही शक्र,मार,ब्रह्मा बन सकता है।
(अंगुत्तरनिकाय, एककनिपात,असंभव वग्गो,द्वितीय वर्ग, १/१५/१)

**बौद्ध धम्मसंघ में स्त्रियों की स्थिति**

१:- स्त्री को संन्यास लेने की शर्त बताते हुये बुद्ध कहते हैं कि-
-भले ही भिक्षुणी सौ साल की ही क्यों न हो,अपने से छोटे उम्र के भिक्षु को नमस्कार करेगी। उसके आते ही उठ जायेगी।
-किसी भी स्थिति में स्त्री भिक्षु का अनादर न करे,न उसको अपशब्द कहे।
-भिक्षु को कोई भिक्षुणी कभी भी उपदेश न करे। भिक्षु ही भिक्षुणी को उपदेश दे सकता है।
(अंगुत्तरनिकाय, आठवां निपात,गोतमीवग्गो,गोतमीसुत्त)

२:- बुद्ध मना कर देते हैं कि भिक्षु अपने से बड़ी आयु की भिक्षुणी को नमस्कार करे,आदर करे।
( विनयपिटक, चुल्लवग्गो,भिक्षुणी स्कंधक पेज ५२८, राहुल सांकृत्यायन)

**स्त्रियों की निंदा**
१:- स्त्रियां पुरुष का मन विचलित करती हैं।स्त्री का गंध,आवाज,स्पर्श विचलित करता है। स्त्री मोह में डालती है।
(अंगुत्तरनिकाय एककनिपात रुपादिवर्ग १)
२:- जब भिक्षु भिक्षापात्र लेकर जाये,कोई कन्या या युवती दिखे तो कोई और भिक्षु उसके साथ होना चाहिये ।

(संयुक्तनिकाय २०-२०)
३:- स्त्री मार का बंधन है यानी बुरी शक्ति है। जिसके हाथ में तलवार हो,पिशाच हो,विष देने वाला हो,उससे बात कर लो। पर स्त्री से कभी मत बोलो।
(अंगुत्तरनिकाय पांचवानिपात,विवरणवग्गो मातापुत्तसुत्त ५/६/५)