Saturday, September 30, 2017

रावण को लेकर घमासान




रावण को लेकर घमासान

डॉ विवेक आर्य

मुझे एक मित्र ने एक पत्र की प्रतिलिपि भेजी। इस पत्र में  एक आदिवासी संगठन ने यह लिखा था की रावण आदि उनके पूर्वज थे। वे लोग आदिवासी है न की हिन्दू है।  उनके पूर्वजों के पुतलों का दशहरे पर दहन नहीं होना चाहिए। क्यूंकि यह उनकी संस्कृति पर आघात है। अगर ऐसा हुआ तो आदिवासी समाज न्यायालय जायेगा।

इस पत्र से एक बात तो स्पष्ट थी कि यह पत्र लिखने वाले तो कठपुतलियां हैं।  इसके पीछे कोई NGO वाला, अम्बेडकरवादी, साम्यवादी, नक्सली या ईसाई दिमाग सक्रिय हैं।  जो इन लोगों के भोलेपन का फायदा उठाकर अपनी दुकानदारी चमकाना चाहता हैं। असल में वन क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी समाज के लोग अशिक्षित एवं पिछड़े हुए हैं। इनकी गरीबी का फायदा उठाकर इन्हें ईसाई बनाने के लिए अम्बेडकरवाद का लबादा लपेट कर ईसाई मिशनरी बड़े पैमाने पर लगी हुई हैं। इन लोगों को कानूनी धाराएं जानने, पुलिस में शिकायत करने , कोर्ट में केस करने की फुरसत कहां। गरीबी इतनी है कि दो समय के भोजन का जुगाड़ हो जाये तो बड़ी बात है। इसलिए इनके मध्य छुपे हुए भेड़िये को यथोचित उत्तर देना अत्यंत आवश्यक हैं।

सबसे पहले लंकापति रावण सारस्वत ब्राह्मण पुलस्त्य ऋषि का पौत्र और विश्रवा का पुत्र था। रावण वेद आदि शास्त्रों का प्रखर ज्ञाता ,प्रकान्ड विद्वान पंडित एवं महाज्ञानी था। वह वेदों की शिक्षा को भूलकर गलत रास्ते पर चल पड़ा था। जिसकी सजा श्री रामचंद्र जी ने उसे दी। फिर किस आधार पर रावण को कुछ नवबौद्ध, अम्बेडकरवादी अपना पूर्वज बताते हैं? कोई आधार नहीं। केवल कोरी कल्पना मात्र है।

दूसरी बात वनवासी कौन है? श्री राम के काल में वानर जाति अर्थात वन में रहने वाली जाति का स्पष्ट उल्लेख है। किष्किन्धा राज्य जंगलों में बसा हुआ था। जिसका राजा सुग्रीव था। शबरी से लेकर वाल्मीकि मुनि का आश्रम भी वन में था। पंचवटी , चित्रकूट आदि में ऋषि मुनियों का प्रवास था।  इससे यही सिद्ध होता है कि प्राचीन काल से वन में अनेक लोगों का प्रवास होता आया हैं। वन में प्रवास करने वालों का शहरों में प्रवास करने वालों से सम्बन्ध था। सभी एक वैदिक धर्म को मानने वाले थे। फिर यह कल्पना करना कि रावण आदिवासियों के राजा थे। जो प्रकृति पूजक थे। एक मिथक नहीं तो क्या है? आदिवासी समाज को हिन्दू समाज से अलग थलग सिद्ध कर उनका धर्मान्तरण करने का यह एक सुनियोजित षड़यंत्र है। इस षड़यत्र को चर्च बढ़ावा दे रहा है।

तीसरी सबसे महत्वपूर्ण बात जानिए। इसे जानकार भी कोई रावण को अपना महान पूर्वज बताये। तो आप उसे मुर्ख ही कहेंगे। रावण यह व्यक्ति था।  जिसने एक विवाहिता स्त्री सीता छदम वेश धारण कर उसका अपहरण किया था। क्या आप ऐसे अपहरणकर्ता को अपना महान पूर्वज बताएँगे? बिलकुल नहीं।

रावण एक विलासी था। अनेक देश - विदेश की सुन्दरियां उसके महल में थीं। हनुमान अर्धरात्रि के समय माता सीता को खोजने के लिए महल के उन कमरों में घूमें जहाँ रावण की अनेक स्त्रियां सोई हुई थी। नशा कर सोई हुई स्त्रियों के उथले वस्त्र देखकर  हनुमान जी कहते हैं।

कामं दृष्टा मया सर्वा विवस्त्रा रावणस्त्रियः ।
न तु मे मनसा किञ्चद् वैकृत्यमुपपद्यते ।।

अर्थात - मैंने रावण की प्रसुप्तावस्था में शिथिलावस्त्रा स्त्रियों को देखा है, किन्तु इससे मेरे मन में किञ्चन्मात्र भी विकार उत्पन्न नहीं हुआ। जब सब कमरों में घूमकर विशेष-विशेष लक्षणों से उन्होंने यह निश्चिय किया कि इनमें से सीता माता कोई नहीं हो सकती।

ऐसा निश्चय हनुमान जी ने इसलिए किया क्यूंकि वह जानते थे की माता सीता चरित्रवान स्त्री है।  न की रावण और उसकी स्त्रियों के समान भोगवादी है। अंत में सीता उन्हें अशोक वाटिका में निरीह अवस्था में मिली।

अगर आपका पूर्वज शराबी, व्यभिचारी, भोग-विलासी, अपहरणकर्ता, कामी, चरित्रहीन, अत्याचारी हो तो आप उसके गुण-गान करेंगे अथवा उस निंदा करेंगे?

स्पष्ट है उसकी निंदा करेंगे। बस हम यही तो कर रहे है। यही सदियों से दशहरे पर होता आया है। रावण का पुतला जलाने का भी यही सन्देश है कि पापी का सर्वदा नाश होना चाहिए।

एक ओर वात्सलय के सागर, सदाचारी, आज्ञाकारी, पत्नीव्रता, शूरवीर, मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम है।
दूसरी ओर शराबी, व्यभिचारी, भोग-विलासी, अपहरणकर्ता, कामी, चरित्रहीन, अत्याचारी रावण है।

किसकी जय होनी चाहिए।  किसकी निंदा होनी चाहिए। इतना तो साधारण बुद्धि वाले भी समझ जाते है।

आप क्यों नहीं समझना चाहते? इसलिए यह घमासान बंद कीजिये और पक्षपात छोड़कर सत्य को स्वीकार कीजिये।

Saturday, September 23, 2017

हिंदु और सिखों में अलगांव वाद पैदा करनेवाले जरा एक बार बज्जर सिंह का चरित्र पढ़ ले



हिंदु और सिखों में अलगांव वाद पैदा करनेवाले जरा एक बार बज्जर सिंह का चरित्र पढ़ ले -

सरदार बज्जर सिंह राठौड़ के विषय में, जिनका देश के इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान है बहुत कम लोग इससे परिचित हैँ।

सरदार बज्जर सिंह राठौड सिक्खो के दसवे गुरू श्री गोविंद सिंह जी के गुरू थे ,जिन्होने उनको अस्त्र शस्त्र चलाने मे निपुण बनाया था। बज्जर सिंह जी ने गुरू गोविंद सिंह जी को ना केवल युद्ध की कला सिखाई बल्कि उनको बिना शस्त्र के द्वंद युद्ध, घुड़सवारी, तीरंदाजी मे भी निपुण किया। उन्हे राजपूत -मुगल युद्धो का भी अनुभव था और प्राचीन भारतीय युद्ध कला मे भी पारंगत थे। वो बहुत से खूंखार जानवरो के साथ अपने शिष्यों को लडवाकर उनकी परिक्षा लेते थे। गुरू गोविंद सिंह जी ने अपने ग्रन्थ बिचित्तर नाटक मे इनका वर्णन किया है। उनके द्वारा आम सिक्खो का सैन्यिकरण किया गया जो पहले ज्यादातर किसान और व्यापारी ही थे और भारतीय martial art गटखा का प्रशिक्षण भी दिया, ये केवल सिक्ख ही नही बल्की पूरे देश मे क्रांतिकारी परिवर्तन साबित हुआ।
बज्जर सिंह राठौड जी की इस विशेषता की तारीफ ये कहकर की जाती है कि जो कला सिर्फ राजपूतों तक सीमित थी उन्होंने मुग़लो से मुकाबले के लिये उसे खत्री सिक्ख गुरूओ को भी सिखाया, जिससे पंजाब में हिन्दुओ की बड़ी आबादी जिसमे आम किसान, मजदूर, व्यापारी आदि शामिल थे, इनका सैन्यकरण करना संभव हो सका।

===पारिवारिक पृष्टभूमि===
बज्जर सिंह जी सूर्यवंशी राठौड राजपूत वंश के शासक वर्ग से संबंध रखते थे। वो मारवाड के राठौड राजवंश के वंशंज थे --
वंशावली--
राव सीहा जी
राव अस्थान
राव दुहड
राव रायपाल
राव कान्हापाल
राव जलांसी
राव चंदा
राव टीडा
राव सल्खो
राव वीरम देव
राव चंदा
राव रीढमल
राव जोधा
राव लाखा
राव जोना
राव रामसिंह प्रथम
राव साल्हा
राव नत्थू
राव उडा ( उडाने राठौड इनसे निकले 1583 मे मारवाड के पतंन के बाद पंजाब आए)
राव मंदन
राव सुखराज
राव रामसिंह द्वितीय
सरदार बज्जर सिंह ( अपने वंश मे सरदार की उपाधि लिखने वाले प्रथम व्यक्ति) इनकी पुत्री भीका देवी का विवाह आलम सिंह चौहान (नचणा) से हुआ जिन्होंने गुरू गोविंद सिंह जी के पुत्रो को शस्त्र विधा सिखाई--।

1710 ईस्वी के चॉपरचिरी के युद्ध में इन्होंने भी बुजुर्ग अवस्था में बन्दा सिंह बहादुर के साथ मिलकर वजीर खान के विरुद्ध युद्ध किया और अपने प्राणों की आहुति दे दी।

स्त्रोत : गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा कृत-बिचित्तर नाटक

Thursday, September 21, 2017

ईश्वर के निराकार रूप की देवी स्वरूप में उपासना कैसे संभव है?





शंका- नवरात्र में देवियों की पूजा की जाति है। क्या यह वेद संगत है। वेदों के अनुसार ईश्वर के निराकार रूप की देवी स्वरूप में उपासना कैसे संभव है?


समाधान-

वेदों में ईश्वर को एक और निराकार बताया गया है। ईश्वर के अनगिनत गुण है। ईश्वर का प्रत्येक नाम उसके प्रत्येक गुण का दर्शन करवाता है। ईश्वर के अनगिनत गुण होने के कारण अनगिनत नाम है। देवी, लक्ष्मी, सरस्वती आदि एक ईश्वर के अनेक नामों से कुछ नाम हैं। स्वामी दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में देवी, शक्ति, श्री, लक्ष्मी, सरस्वती आदि ईश्वर के नामों की व्याख्या दी हैं।



१. – जितने ‘देव’ शब्द के अर्थ लिखे हैं उतने ही ‘देवी’ शब्द के भी हैं। परमेश्वर के तीनों लिंगों में नाम हैं। जैसे-‘ब्रह्म चितिरीश्वरश्चेति’। जब ईश्वर का विशेषण होगा तब ‘देव’ जब चिति का होगा तब ‘देवी’, इससे ईश्वर का नाम ‘देवी’ है।

२.– (शक्लृ शक्तौ) इस धातु से ‘शक्ति’ शब्द बनता है। ‘यः सर्वं जगत् कर्तुं शक्नोति स शक्तिः’ जो सब जगत् के बनाने में समर्थ है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शक्ति’ है।

३.– (श्रिञ् सेवायाम्) इस धातु से ‘श्री’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यः श्रीयते सेव्यते सर्वेण जगता विद्वद्भिर्योगिभिश्च स श्रीरीश्वरः’। जिस का सेवन सब जगत्, विद्वान् और योगीजन करते हैं, उस परमात्मा का नाम ‘श्री’ है।

४.– (लक्ष दर्शनांकनयोः) इस धातु से ‘लक्ष्मी’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो लक्षयति पश्यत्यंकते चिह्नयति चराचरं जगदथवा वेदैराप्तैर्योगिभिश्च यो लक्ष्यते स लक्ष्मीः सर्वप्रियेश्वरः’ जो सब चराचर जगत् को देखता, चिह्नित अर्थात् दृश्य बनाता, जैसे शरीर के नेत्र, नासिकादि और वृक्ष के पत्र, पुष्प, फल, मूल, पृथिवी, जल के कृष्ण, रक्त, श्वेत, मृत्तिका, पाषाण, चन्द्र, सूर्यादि चिह्न बनाता तथा सब को देखता, सब शोभाओं की शोभा और जो वेदादिशास्त्र वा धार्मिक विद्वान् योगियों का लक्ष्य अर्थात् देखने योग्य है, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘लक्ष्मी’ है।

५.– (सृ गतौ) इस धातु से ‘सरस्’ उस से मतुप् और ङीप् प्रत्यय होने से ‘सरस्वती’ शब्द सिद्ध होता है। ‘सरो विविधं ज्ञानं विद्यते यस्यां चितौ सा सरस्वती’ जिस को विविध विज्ञान अर्थात् शब्द, अर्थ, सम्बन्ध प्रयोग का ज्ञान यथावत् होवे, इससे उस परमेश्वर का नाम ‘सरस्वती’ है।

वैदिक काल में ईश्वर के निराकार रूप की पूजा होती थी। कालांतर में ईश्वर के शक्ति रूप की पूजा बंगाल आदि प्रांतों में आरम्भ हुई। जो बाद में दुर्गा पूजा के रूप में प्रचलित हुई।वर्तमान स्वरुप प्राचीन काल का विकृत रूप मात्र हैं।
नवरात्र मुख्य रूप से यह क्षत्रियों का त्यौहार है।

जो देश पर आयी हुई विपत्ति के लिए शास्त्र पूजा दुष्टों को दंड देने के लिए प्रेरित करने के समान हैं। आज बंगाल पर बंगलादेशी मुसलमानों, नास्तिक कम्युनिष्टों, भोगवादियों का खतरा मंडरा रहा हैं। नवरात्रों में हिन्दू समाज जातिगत भेदभाव त्यागकर , संगठित होकर इस खतरे के लिए संकल्प ले। ऐसी ईश्वर कृपा करे।

डॉ विवेक आर्य

Thursday, September 14, 2017

Why Hindus converted to Islam and How Aryasamaj Vedic philosophy is the only way to stop it?




Why Hindus converted to Islam and How Aryasamaj Vedic philosophy is the only way to stop it?

Read few pages for the book of Sir Herbert Spencer which is an eye opening document.

Reference-The people of India by Herbert Spencer page 246-249

The statistics of the Census of 1901 show that during a decade of famine the Muhammadans in India increased by 9 per cent, while the population as a whole rose by only 3 per cent. No doubt these proportions were affected by the fact that the famines were most severe in those parts of the country where
Muhammadans are relatively least numerous, but in the fertile and wealthy region of Eastern Bengal, which has never been touched by real famine, though people of small fixed incomes suffer from high prices, their rate of increase was 12*3 per cent, or nearly double that of the Hindus. The figures illustrating the proportion of children tell a similar tale, and indicate that in that part of India the Muhammadans are not only "more enterprising and therefore better off than their Hindu neighbors," but also more prolific and more careful of their offspring. The reasons are not far to seek. The diet of the Muhammadans is more nourishing and more varied; they are free from the damnosa hereditas of infant marriage enforced by social ostracism ; they are under no temptation to practice female infanticide ; they marry their girls at a more reasonable age, and fewer females become widows while still capable of bearing children. The influence of the itinerant preachers of Islam in its original purity is fast eradicating any tendency to imitate the Hindu prohibition of widow marriage, and Muhammadan widows escape the trials and temptations which beset the Hindu woman who is so unfortunate as to lose her husband while she is still young and attractive. As is pointed out in the Census Report of 1901, "in the case of the intrigues in which Widows so often indulge, the Hindu female who thus becomes enceinte resorts to abortion, while the Musalmani welcomes the prospect of a child as means of bringing pressure upon her paramour and inducing him to marry her."

Conversions from Hinduism to Islam must also contribute in some degree to the relatively more rapid growth of the Muhammadan population. Here no appeal to statistics is possible, but a number of specific instances of such changes of
Religion were extracted by Mr. Gait, c.i.e., from the reports of Hindu and Muhammadan gentlemen in twenty-four districts and published as Appendix II. to the Bengal Census Report of 1901.
The motives assigned in various cases — names and particulars are usually given — may be grouped somewhat as follows : —

(1) Genuine religious conviction of the purity and simplicity of Islam, derived from study of the Muhammadan scriptures or from the preaching of the Maulavis who go round the villages. The conversion of high-caste Hindus, Brahmans, Rajputs, Kayasths and the like is commonly ascribed to this cause. We hear, for example, from a Hindu source, of a wealthy Kayasth landholder of Eastern Bengal, who was suspected of holding unorthodox views, and consequently found difficulties in getting his daughter married. Indignant at what he deemed persecution, he openly embraced Islam, assumed a Muhammadan
name, and testified to his zeal by sacrificing cows "in the precincts of the very building where his father had worshipped the Hindu gods." Muhammadan society gave him a cordial welcome, and his daughter married into a high-class family. His wife, however, refused to change her religion and went
back to her own people.

(2) The growing desire on the part of the lower Hindu castes to improve their social position leads individuals among them to embrace a creed which seems to offer them a fair chance in life. Malis, Kahars, Goalas, Napits, Kans, Beldars and other castes of similar status furnish numerous illustrations of
this tendency.

(3) The proverb " Love laughs at caste " accounts for a large number of conversions. Hindus of all ranks of society succumb to the charms of good-looking Musalmani girls, and Muhammadans show themselves equally susceptible to the attractions of Hindu maidens. Hindu widows seek a refuge from their dreary lot in marriage with Muhammadans, while Hindu men who have been caught out in liaisons with girls of lower caste — an affair with a pretty gipsy is one of the instances cited — and find themselves socially stranded, prefer the respectability of Islam to the mixed company of some dubious Vaishnava sect. In all such cases Islam gains and Hinduism loses, for caste rules are rigid and no individual can become a Hindu. These irregular attachments sometimes give rise to embarrassing situations. A Hindu gentleman of Eastern Bengal relates how a high-caste Hindu physician saw in the course of his practice a very handsome Muhammadan girl and fell so hopelessly in love that he wanted to marry her. Her father insisted that he must turn Muhammadan, but after he had done so refused to give him the girl. Meanwhile he had of course been cast off by his own people and had become a social derelict.

(4) Causes connected with taboos on food and drink and with various caste misdemeanors have also to be taken into account. Hindus in sickness or distress are tended by Muhammadans and take food and water from their hands ; the caste excommunicates them and they join the ranks of a more merciful faith.

It is needless to observe that none of these causes, nor all of them taken together, exercise an influence wide or potent enough to bring about a great Islamic revival in India. The day of conversions en masse has passed, and there are no signs of its return. Nevertheless certain tendencies are discernible which may add materially to the number of individual conversions. On the one hand, the Muhammadans may raise their standard of education, they may organize and consolidate their influence, they may establish their claim to larger representation in the Legislative Councils and in Government service, and they may thus come to play in Indian public life a part more worthy of the history and traditions of their faith. On the other hand, the spread of English education among the middle and lower ranks of Hindus may lead to a revolt against the intolerance of the higher castes, and in particular against their virtual monopoly of place and power. In Southern India whole castes have been known to become Muhammadans because the Brahmans would not allow them to enter Hindu temples and compelled them to worship outside. It is conceivable that other castes in other parts of India will someday realize that for the low-born Hindu the shortest road to success in life, whether at the bar or in the public service, may lie through the portals of Islam.



Only Aryasamaj provides the SOLUTION to these problems.

1. It rejects Castism and considers all man as equal and son of almighty God. The division is based on profession not on the basis of birth.

2. It rejects all cumbersome rituals which are mainly superstitions and which are considered as unhealthy practices on name of Hinduism.

3. It freely admits anyone who is non Hindu by faith on name of Shuddhi thus increasing the strength and number of our society.

4. It does not follow untouchability thus there is no restriction in inter-caste dining and marrying.

5. It never excommunicates anyone so there is no provision to decrease the numbers of our own society members.

The day Hindus will learn the message of great seer swami Dayanand. The day Hindus will not be considered as dying race.

Dr Vivek Arya

Wednesday, September 13, 2017

सारे हिन्दू-सम्प्रदायों की एकता की प्रतीक



सारे हिन्दू-सम्प्रदायों की एकता की प्रतीक 

गोमाता और उसकी रक्षा

साधारण रूप से ऐसे लोगों को ही हिन्दू कहा जाता है जो वेदों को इष्ट मानते हुए देवी, देवताओं और अव-तारों की मूर्तियां पूजते हैं, यज्ञोपवीत धारण करते और तिलक लगाते हैं तथा ब्राह्मणों के कर्मकाण्डों के प्रभाव-अधीन आए हुए लोग हैं। परन्तु वास्तव में केवल इन को ही हिन्दू मान लेना ठीक नहीं है क्योंकि चारों वर्ण और चारों आश्रमों के सारे लोग यज्ञोपवीत धारण करने वाले नहीं हैं, इस पर भी सारे ही हिन्दू हैं।

आर्यसमाजी लोग वेदों को तो इष्ट मानते हैं परन्तु ब्राह्मणों के प्रभावाधीन नहीं हैं। वे न तो ब्राह्मणों के कर्मकाण्ड को मानते हैं और न ही पुराणों, अवतारों, देवी-देवताओं और तीर्थों-पितरों को मानते है, फिर भी वे हिन्दू हैं।
उसी प्रकार जैनमतावलम्बी और बौद्धमतावलम्बी, जो वेदों का खण्डन करते हैं, भी हिन्दू ही हैं। इसी प्रकार चारवाकी और आज के देवसमाजी इत्यादि भी, जो ईश्वर के अस्तित्व को ही नहीं मानते और न ही परलोक को मानते हैं, हिन्दू ही हैं।
ब्रह्मसमाजी, जो वेदों को अन्य मज़हबों की मान्य पुस्तकों से विशिष्ट नहीं मानते, भी हिन्दू कहलाने के ही दावेदार हैं।
इसी प्रकार अन्यान्य मत-मतान्तरों के सारे लोग, जो ब्राह्मणों के मत से मतभिन्नता रखते हैं, भी हिन्दू ही कहलाते हैं।
इससे सिद्ध है कि केवल ब्राह्मणों के पीछे चलने वाले लोगों को, जो अपने-आपको सनातनधर्मी कहलवाते हैं, हिन्दू मानना भूल है। हां, इनका समुदाय हिन्दुओं की एक बड़ी शाखा होने से प्रमुख है।
वास्तव में हिन्दू कोई मज़हब, पन्थ अथवा सम्प्रदाय नहीं है। हिन्दू एक क़ौम है जिसमें हिन्दुस्तान देश के सारे स्वदेशी पन्थों, सम्प्रदायों और मत-मतान्तरों के जत्थे सम्मिलित हैं।
हिन्दू पद वैदिक नहीं वरन् लौकिक पद है। लौकिक भाषा में कई बोलियों के पद मिले होते हैं। हिंसा से दूर रहने वालों का नाम हिन्दू है। हिंसा पद से "हिं" और दूर पद से "दू" अक्षर लेकर "हिन्दू" पद बना है। इस स्थान पर हिंसा पद से गोहिंसा का प्रयोजन है। तात्पर्य यह है कि गो-हिंसा से दूर रहने वालों का नाम हिन्दू प्रसिद्घ हुआ है।

गो-हिंसा से दूर रहने के साथ दो गुण और भी हिन्दू होने के लिए आवश्यक हैं।
पहला यह कि परम्परा से हिन्दुस्तान की स्वदेशी सन्तान होना, चाहे उच्च से उच्च और नीच से नीच ब्राह्मणों से लेकर चाण्डालों तक हों, वर्ण-आश्रम अथवा वर्ण-आश्रम-विहीन हों तथा जातों, जमातों, गोत्रों के जितने भी जत्थों के लोग देसी सन्तान के हों।
और दूसरा गुण यह कि वे मूसाई, ईसाई, मुहम्मदी इत्यादी विदेशी मज़हबों की धारणा वाले न हों, स्वदेशी पन्थ ही की धारणा वाले हों; भले ही वैदिक, अवैदिक, आस्तिक, नास्तिक किसी प्रदेशीय मत-मतान्तर की धारणा वाले हों।

तात्पर्य यह है कि जितने लोग गो-हिंसा से दूर रहने वाले अर्थात् परहेज़ करने वाले स्वदेशी सन्तान के और स्वदेशी पन्थ रखने वाले हैं, इन सब की एक हिन्दू क़ौम है। जातों, जमातों और पन्थों के सम्प्रदायों को सन्मुख रखकर हिन्दू क़ौम अनगिनत जत्थों में बिखरी हुई है। परन्तु सबको एक क़ौमियत का विचार ही एक सूत्र में बांधने वाला है जिसका नाम हिन्दू क़ौम है और जिस देश के ये हिन्दू हैं, उस देश का नाम हिन्दुस्तान है और अहिंसक होने से यह हिन्दू पद पवित्र शब्द है।

अतः इस अर्थ में सिक्ख भी हिन्दू हैं, वे भी गो-हिंसा से दूर रहने वाले और स्वदेशी सन्तान के लोग हैं तथा सिक्ख-पन्थ भी स्वदेशी है अर्थात् इसी हिन्दुस्तान में ही प्रकट हुआ है। हिन्दू होने के ये तीन लक्षण सिक्खों में में बराबर पाये जाते हैं।
इससे भी बढ़ कर सिक्खों का हिन्दुओं के बीच होने का यह प्रमाण भी है कि हिन्दुओं की ऐतिहासिक और पौराणिक साखियां सिक्ख साहित्य में प्रयोग की जाती हैं। और भी अनेक गुण-कर्म-स्वभाव, खान-पान तथा पहनावे इत्यादि, आवागमन इत्यादि मान्यताएं, दिन- रात-महीने इत्यादि, हिन्दुओं के राष्ट्रीय त्यौहार तथा गो-हिंसकों से खान-पान में छुआछूत रखने के नियम इत्यादि हिन्दुओं वाली अनगिनत बातें सिक्खों के पन्थ में हैं, जो ईसाइओं और मुसलमानों में नहीं।
यह मानो हिन्दुओं की क़ौमियत रूपी सराय के आंगन की सांझ है। यदि ईसाइयों और मुसलमानों की भांति श्रीगुरु जी ने सिक्खों की क़ौम अलग बनाई होती तो सारी ही बातें पृथक् रूप से नयी बनतीं, परन्तु श्रीगुरु जी ने हिन्दुओं का सुधार किया है। सुधार में सभी बातों का उलट-पलट नहीं हुआ करता, जो-जो बातें बिगड़ी-तिगड़ी हों उन्हीं का सुधार होता है, शेष बातें यथावत् ही रहती हैं। ०

• श्री आनन्दपुर साहिब के तत्कालीन गद्दीनशीन टिक्का साहिब सोढी नारायण सिंह की रचना = ख़ालसा धर्मशास्त्र = पूर्वमीमांसा, श्री गुरमत प्रेस, अमृतसर, १९७० विक्रमी = १९१३ ईसवी के प्रमुख अंश का हिन्दी अनुवाद। अनु • राजेन्द्र सिंह

Wednesday, September 6, 2017

मिशन इस्लाम वालों से वार्तालाप




इलाहाबाद (प्रयाग )पुस्तक मेले में मिशन इस्लाम वालों से वार्तालाप।

इलाहाबाद (प्रयाग) पुस्तक मेले में हमारे कुछ आर्यमित्र आर्यसमाज का वैदिक साहित्य खरीदने गए थे। घूमते घूमते वे इस्लामिक बुक्स स्टाल पर पहुंच गए। कुछ गोल टोपी लगाए, बड़े भाई का कुर्ता और छोटे भाई का पायजामा पहने कुछ मुसलमान बड़े जोश से इस्लाम की खूबियों का बखान कर रहे थे।

स्वामी दयानन्द के चेलों से रहा न गया। उन्होंने अपनी शंकाएं पूछनी आरम्भ कर दी। शंकाएं क्या थी तोप के गोले थे। उन बेचारों के मनोबल  कुछ ही  गोलों के वार में धराशायी हो गई। आप जानना चाहते है।  उन्होंने क्या क्या शंकाएं की थी।

इनमें से कुछ प्रश्न यहाँ पर लिखकर आपसे शेयर कर रहा हूँ।

1. अगर एक नमाज़ पढ़ते हुए शिया को आत्मघाती हमले में एक सुन्नी को बम्ब से मार डाले तो दोनों में से कौन जन्नत में जायेगा और किसे दोज़ख में किसे प्रवेश मिलेगा? उत्तर सप्रमाण दीजिये।

(इस शंका पर शिया कुछ उत्तर देता है, सुन्नी कुछ देता है, वहाबी कुछ बोलता है, देवबंदी कुछ, अहमदी कुछ, गुजरती बोहरा कुछ। एक प्रश्न हर फिरके के अलग अलग उत्तर। कमाल है न। आप भी पूछ कर देखना। )

2. अल्लाह का एक नाम रहीम हैं अर्थात रहमत करने वाला। यह बताओ की अल्लाह को क्यूँ रहम नहीं आता की जो ईद के दिन अपनी खुशामद के लिए लाखों निरपराध प्राणियों की गर्दन पर तलवार चलवा देता हैं?

(इस प्रश्न पर हमारे मुस्लिम मित्र ज़ाकिर नाइक के समान रटे रटाये कुतर्क देने लगे। जब हमने उन्हें वैज्ञानिक प्रमाण शाकाहार के पक्ष में दिए। तो क़ुरान का विज्ञान धरा का धरा रह गया। मुसलिम समाज को ऐसा लगता है कि मांसाहार ग्रहण करना उनका धार्मिक कर्त्तव्य है। )



3. अगर कुरान के अनुसार अल्लाह ने सभी जानवरों को भोजन के लिए बनाया हैं तो फिर क्यूँ गर्दन काटते समय सभी जानवर चिल्लाते हैं, रोते हैं और उन्हें दर्द होता हैं, क्यूँ अपनी प्राण रक्षा करने के लिए प्रयास करते हैं। अल्लाह की बनाई हुई सृष्टी में कोई दोष नहीं हैं फिर यह दोष क्यूँ?

(इस प्रश्न पर उनका एक ही उत्तर था। अल्लाह की मर्जी। अल्लाह की रचना में कोई दोष नहीं है। हमने कहा दोष आपकी समझ का है। आपने अपनी जीभ को संतुष्ट करने के लिए निरपराध पशुओं को मारना हिंसा है। हिंसा करने वाला व्यक्ति कभी सुखी नहीं रह सकता।)

4. विकासवाद को आधार बनाकर मुस्लिम लोग कहते हैं की वेद पुराने समय के लिए थे, आज के लिए कुरान हैं। चलो एक बार विकासवाद को भी मान लेते है, फिर यह बताओ की कुरान के आने के बाद मनुष्य का विकास क्यूँ रुक गया और आप उसे Last and  Final किस आधार पर मानते हैं?

(इस प्रश्न को सुनते ही पहले तो मोमिन बगले झाँकने लगे। फिर बोले की क़ुरान विज्ञान के अनुकूल है।  वेदों में अनेक बातें रह गई थी। जिन्हें क़ुरान ने पूरा कर दिया। हमनें यही पूछा कि क्या अल्लाह सर्वज्ञ नहीं है? जो उसने पहली पुस्तक वेद में कमी की। अगर सर्वज्ञ है तो कमी क्यों की। इस तर्क पर भी वे निरुत्तर हो गए। )


5 . माँस खाने के पीछे कुतर्क देते है कि अगर जानवरों को नहीं खायेगे तो वे इतने बढ़ जायेगे की धरती पर स्थान नहीं बचेगा।

(हमने कहा कि कल को मनुष्य की जनसँख्या भी इतनी बढ़ जाये तो क्या उसका भी यही समाधान आप लोगो ने ढूंढा हैं? इसीलिए विश्व में इस्लाम आतंकवाद का प्राय: बन गया है।)

मोमिनों का मानना तो भला क्या ही था। परन्तु इस मानसिक कुश्ती से न केवल हमारा उत्साह बढ़ गया। अपितु वैदिक धर्म की श्रेष्ठता भी स्थापित हो गई।  

आर्य वीरों का इस वार्तालाप को हमें भेजने के लिए आभार।- एडमिन 

Tuesday, September 5, 2017

स्वामी दयानन्द और सर सैयद का कुरआन भाष्य



स्वामी दयानन्द और सर सैयद का कुरआन भाष्य


मित्रो ऋषि दयानन्द जहां सत्य प्रियता और निर्भय स्पष्ट वक्तृता के मूर्त अवतार थे, वहां नीति और शिष्टाचार के भी अद्वितीय धनी थे।

चांदापुर वह पहली रणस्थली जहां ऋषि का सामना ईसाई पादरियोँ और मुस्लिम मौलवियोँ से एक साथ हुआ।

आर्यधर्म ने अपने तर्कास्त्र से सामी (Semitic) मजहबो की पोलपट्टी खोल कर रख दी। पादरी स्काट साहब ने स्पष्ट कहा--"मेरे विचार मेँ इन समस्याओँ का उत्तर देना व्यर्थ है, और अन्त मेँ स्वीकार किया कि पण्डितजी(ऋषि दयानन्द) इसका उत्तर हजार तरह से दे सकते हैँ और हम हजारोँ मिल कर भी इनके सामने निरूत्तर रहेंगे"

धार्मिक ऐक्य सम्मेलन-- लार्ड लिटन के दरबार(1877 ई॰) मेँ ऋषि के निमन्त्रण पर तात्कालिक मतोँ के प्रतिनिधियोँ का ऋषि के डेरे मेँ इकट्ठा हुए और इसी सम्मेलन मेँ उपस्थित होँने वालोँ मेँ एक महाशय 'सर सैयद अहमद खाँ' भी थे। सर सैयद कुरान पर ऋषि की निर्भीक समालोचना से अत्यन्त प्रभावित हुए थे। फिर तो जहाँ कहीँ ऋषि का शुभागमन होता सर सैयद उनके सत्संग का लाभ लेना अपना कर्त्तव्य मानते थे।

सर सैयद ने फिर ये विचार किया की किस प्रकार कुरआन को वेद और ऋषि की सामालोचना के अनुकूल लाना चाहिये क्योँकि ऋषि स्वंय कहते थे कि कुरआन जितना वैदिक है वो मुझे स्वीकार है।

वास्तव में सर सैयद का कुरान भाष्य कुरआन को वास्तविकता के समीप ला खड़ा करता था।

सर सैयद का कुरआन भाष्य:-

1- शैतान या इब्लीस का शब्द जो कुरान मेँ आया है, वो कोई अलग प्राणी नही बल्कि मनुष्य की आसुरी प्रवृति है।

2- मुस्लिम को किसी काफिर या मुश्रिक से दोस्ती मे रोक नही सिवाय के जिनका वर्णन इस आयत मे हुआ है।

3- किसी खास खिस्म का लिबास पहननेँ का कुरआन मे कोई आदेश नहीँ चाहें तो काफिरोँ के तरह का पहने।

4- हदीसो की हर घटना पर आँख मूंद कर भरोसा न करेँ चाहे वो किताबे 'सहीहैन' अर्थात बुखारी या मुस्लिम ही क्योँ न हो।

5- मुहम्मद साहब की एक रात बुराक नाम के खच्चर पर चढ़कर आसमानोँ पर जाना यानी 'मेराज' और नबी होने पूर्व उनका ह्रदय धोना यानी 'शकउल कल्ब' को सर सैयद सपना बताते है।

6- फरिश्ता कोई पृथक् प्राणी नहीँ किन्तु परमेश्वर ने जो भिन्न-भिन्न शक्तियां अपनी पूर्णता से प्रकृतिं को प्रदान की है जैसे पहाड़ो की कठोरता, पानी का द्रवत्व, वृक्षोँ की वृद्धि, का गुण इत्यादि इन्ही को मलाइक फरिश्ते कहा गया है।

7- चमत्कार पैगम्बरी का प्रमाण नहीँ।

8- कुरान में मुहम्मद साहब के किसी चमत्कार का वर्णन नहीँ किया गया।

9- आदम और फरिश्तोँ और शैतान की कथा जो कुरआन मेँ वर्णन की गई है, वह कोई धटना नहि किन्तु मात्र अलंकार है जो मनुष्य के स्वभाव का वर्णन है। इस प्रकार कई और रूपक कुरान मे वर्णित हैँ।

10- परमेश्वर का दर्शन क्या इस लोक और क्या परलोक में बाह्रा चक्षुओँ से होना सम्भव है अन्तश्चक्षु से।

इस प्रकार उन्होने इस्लामी अवैज्ञानिक मान्यताओँ को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान करने का कार्य किया परन्तु उनके इसके महान कार्य को ये कहते हुए ठुकरा दिया गया कि "सर सैय्यद ने जो अर्थ किये वे न खुदा को सूझे न रसूल को"

मौलाना अलताफ हुसैन हाली कहते है कि सर सैँय्यद की हर व्याख्या ऐसे ही खारिज नहीँ हो सकती है।

अत: मे वही हुआ कि फतवा देकर अरब के चार मुफ्तिओं ने सर सैय्यद को 'काफिर' कहा यानि इस्लाम ने खुद मे सुधार के सारे रास्ते बंद कर दिये और आज तक लकीर के फकीर बने हुए हैँ।

उपनिषदों का अमर सन्देश



उपनिषदों का अमर सन्देश

१. उनिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान् निबोधत ।
क्षुरस्य धरा निशिता दुरत्यया दुर्ग� पथस्तत् कवयो वदन्ति ।।
(कठो॰ ३.१४)

अर्थात् अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मनुष्यो ! उठो ।
जागो और अपने श्रेष्ठ (विद्वान् व योगी) पुरुषों के पास जाकर ब्रह्मज्ञान
को सीखो । यह ब्रह्मज्ञान का मार्ग तेज उस्तरे की धार के समान अत्यन्त
दुर्गम है । ऐसा परमात्मा के साक्षात्कार करने वाले उपदेश करते हैं ।

२. कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः । (र्इशावास्योप॰ )

हे मनुष्यो ! जीवन भर श्रेष्ठ कर्मो� को करते हुए ही जीने की
इच्छा करो ।

३. तेन त्यक्तेन भुन्जीथा मा गृध्ः कस्यस्विद् धनम् ।। (र्इशावा॰ )
अनासक्ति भाव से संसार के भोगों को भोगो और किसी के
धन या वस्तुओं की इच्छा मत करो ।

४. न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः ।। (कठो॰१.२७)
मनुष्य की धन से कभी तृप्ति नहीं हो सकती ।

५. नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः ।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ।। (कठो॰२.२४)

परमात्मा की प्राप्ति केवल बाह्यप्रदर्शन भजन कीर्त्तन से तबतक
कदापि नहीं हो सकती । जबतक पाप-कर्मो� में लगा हुआ है । अशान्त इन्द्रियों के विषयों में फंसा हुआ है । असमाहित= विक्षिप्त चित्त वाला है और
अशान्त मन= जिसका मन तृष्णा में फंसा हुआ है । चाहे कितना ही
विद्वान् हो जाए । उसे उपर्युक्त दुष्कर्म छोड़ने पर ही परमात्मज्ञान हो
सकता है ।

६. भस्मान्तं शरीरम् ।। (र्इशावास्योप॰ )

शरीर का अन्तिम संस्कार भस्मान्त= दाह ​क्रिया ही है । तत्पश्चात्
मृतक के लिए कोर्इ मृतक श्राद्ध या संस्कार शेष नहीं रहता । संसार के
सभी शारीरिक सम्बन्धों का अन्त भी भस्म ही है ।

७. ओ३म कृतो स्मर ।। (र्इशावास्यो॰ )

ओ३म् परमात्मा का मुख्य नाम है । हे कृतो कर्मशील जीव ! तू
ओ३म् का ही स्मरण किया कर ।

८. स पर्यगाच्छुव्म् अकायम् । (र्इशावास्यो॰ )

वह परमात्मा सर्वत्र व्यापक है । सर्वशक्तिमान् तथा स्थूल । सूक्ष्म व
कारणशरीरों से रहित है ।

९. विद्ययाsमृतमश्नुते ।। (र्इशावास्यो॰ )

परमात्मा की प्राप्ति विद्या=आत्मा और शुद्धान्तः करण के संयोगरूप
धर्म से उत्पन्न यथार्थ ज्ञान से होती है ।

१०. ओ३म खं ब्रह्म ।। (र्इशावास्यो॰ )

वह परमात्मा किसी स्थान विशेष में नहीं रहता । वह तो आकाश
के समान व्यापक । ओ३म =सब का रक्षक तथा ब्रह्म=गुण , कर्म , स्वभाव
से सब से बड़ा है ।

11. सत्यमेव जयते नानृतम् ।। (मुण्डको॰ )

सत्य ही की विजय होती है । झूठ की नहीं ।

12. न तस्य काय� करणं च विद्यते ।। (श्वेताश्वतर॰ )

उस परमात्मा का कोर्इ कारण नहीं है । और न ही उसका कोर्इ
कार्य ही हैअर्थात् परमात्मा इस जगत् का उपादानकारण नहीं है ।

13. तमेव विदित्वातिमृत्युमेति ।। (श्वेताश्वतर॰ )

मनुष्य एकमात्र परब्रह्म को जानकर ही मृत्युदुः ख से मुक्त हो
सकता है ।

उपनिषद् विषयक महर्षि दयानन्द के वचन

1. वेदान्तसूत्रों के पढ़ने से पूर्व र्इश । केन । कठ । प्रश्न । मुण्डक ।
माण्डूक्य । ऐतरेय । तैतिरीय । छान्दोग्य और बृहदारsयक इन दश उपनिषदों
को पढ़के छः शास्त्रों के भाष्यवृत्ति-सहित सूत्रों को दो वर्ष के भीतर
पढ़ावें और पढ़ लेवें ।, (सत्यार्थन तृतीय समु॰ )

ओ३म्