ओ३म्
‘योगेश्वर श्री कृष्ण के विषय में उनके समकालीन प्रमुख ऐतिहासिक पुरुषों की सम्मतियां’
कल 25 अगस्त, 2016 को श्री कृष्ण जी का जन्मोत्सव है। भारत के महान ऐतिहासिक पुरुषों में जो स्थान श्री राम चन्द्र जी और श्री कृष्ण जी को प्राप्त है वह अन्य किसी को नहीं है। इन महापुरुषों के जीवन के आदर्शों के कारण ही मध्यकाल में इन्हें अवतार तक की संज्ञा दे डाली गई जबकि वेदों के अनुसार ईश्वर का अवतार कभी नहीं होता। श्री कृष्ण जी का जीवन और चरित्र न केवल समस्त भारतवासियों अपितु विश्व के सभी लोगों के लिए आदर्श एवं अनुकरणीय है। यदि संसार के लोग श्री कृष्ण को अपना आदर्श पुरुष मान लें तो वह सभी उनके जैसे बन सकते है अन्यथा वह जिसे अपना आदर्श मानेंगे, निश्चय ही उन जैसे ही होंगे। आज जन्माष्टमी पर्व के अवसर पर हम श्री कृष्ण जी के सबंध में उनके समकालीन कुछ ऐतिहासिक प्रमुख हस्तियों महर्षि वेदव्यास, महात्मा भीष्म पितामह, महात्मा विदुर, धर्मराज युधिष्ठिर, कौरव-युवराज दुर्योधन एवं कौरव-राज धृतराष्ट्र की सम्मतियां प्रस्तुत कर रहें है। यह सामग्री हमने ‘दयानन्द सन्देश’ मासिक पत्रिका के ‘योगेश्वर श्रीकृष्ण’ विशेषांक सितम्बर, 1989 से ली है।
महर्षि वेदव्यास
यो वै कामान्न भयान्न लोभान्नार्थकारणात्।
अन्यायमनुवत्र्तेत स्थिरबुद्धिरलोलुपः।
अन्यायमनुवत्र्तेत स्थिरबुद्धिरलोलुपः।
धर्मज्ञो धृतिमान् प्राज्ञः सर्वभूतेषु केशवः।। (महाभारत उद्योग. अ. 83)
पाण्डवों की ओर से दूत रूप में जाने के लिए उत्सुक श्री कृष्ण के विषय में वेदव्यास जी कहते हैं कि श्री कृष्ण लोभ रहित तथा स्थिर बुद्धि हैं। उन्हें सांसारिक लोगों को विचलित करने वाली कामना, भय, लोभ या स्वार्थ आदि कोई भी विचलित नही कर सकता, अतएव श्री कृष्ण कदापि अन्याय का अनुसरण नहीं कर सकते। इस पृथ्वी पर समस्त मनुष्यों में श्री कृष्ण ही धर्म के ज्ञाता, परम धैर्यवान और परम बुद्धिमान हैं।
पाण्डवों की ओर से दूत रूप में जाने के लिए उत्सुक श्री कृष्ण के विषय में वेदव्यास जी कहते हैं कि श्री कृष्ण लोभ रहित तथा स्थिर बुद्धि हैं। उन्हें सांसारिक लोगों को विचलित करने वाली कामना, भय, लोभ या स्वार्थ आदि कोई भी विचलित नही कर सकता, अतएव श्री कृष्ण कदापि अन्याय का अनुसरण नहीं कर सकते। इस पृथ्वी पर समस्त मनुष्यों में श्री कृष्ण ही धर्म के ज्ञाता, परम धैर्यवान और परम बुद्धिमान हैं।
पितामह भीष्म
ज्ञानवृद्धो द्विजातीनां क्षत्रियाणां बलाधिकः।
पूज्ये ताविह गोविन्दे-हेतु द्वावपि संस्थितौ।।
वेदवेदांगविज्ञानं बलं चाप्यमितं तथा।
नृणां लोकेहि कस्यास्ति विशिष्टं केशवाद् ऋते।। (महाभारत सभा.38 अ.)
धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ में अग्र पूजा के अवसर पर किसी सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति की पूजा की जानी थी। उस समय श्री कृष्ण का नाम प्रस्तुत करते हुए भीष्म जी कहते है--संसार में पूजा के दो ही मुख्य कारण होते है--ज्ञान और बल। श्री कृष्ण में ये दोनों गुण सर्वाधिक हैं, अतः श्री कृष्ण ही पूजा के योग्य हैं। इस समय संसार में कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है कि ज्ञान तथा बल में श्री कृष्ण से अधिक हो।
पूज्ये ताविह गोविन्दे-हेतु द्वावपि संस्थितौ।।
वेदवेदांगविज्ञानं बलं चाप्यमितं तथा।
नृणां लोकेहि कस्यास्ति विशिष्टं केशवाद् ऋते।। (महाभारत सभा.38 अ.)
धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय-यज्ञ में अग्र पूजा के अवसर पर किसी सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति की पूजा की जानी थी। उस समय श्री कृष्ण का नाम प्रस्तुत करते हुए भीष्म जी कहते है--संसार में पूजा के दो ही मुख्य कारण होते है--ज्ञान और बल। श्री कृष्ण में ये दोनों गुण सर्वाधिक हैं, अतः श्री कृष्ण ही पूजा के योग्य हैं। इस समय संसार में कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है कि ज्ञान तथा बल में श्री कृष्ण से अधिक हो।
महात्मा विदुर
महात्मा विदुर धृतराष्ट्र को समझाते हुए कहते हैं कि हे धृतराष्ट्र ! पृथ्वी पर श्री कृष्ण सबके पूज्य हैं और वे जो कुछ कह रहे हैं वह हम सबके कल्याण की भावना से ही कह रहे हैं। और यह तुम्हारी बड़ी भूल है कि मैं श्री कृष्ण को बहुमूल्य उपहार देकर अपने पक्ष में कर लूंगा। श्री कृष्ण की अर्जुन के साथ जो दृढ़ मित्रता है, उसे आप धनादि के प्रलोभन से समाप्त नहीं कर सकते। (सन्दर्भः महाभारत उद्योगपर्व अध्याय 88)
धर्मराज युधिष्ठिर
महाभारत संग्राम की समाप्ति पर युधिष्ठिर श्री कृष्ण के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट करते हुए कहते हैं--हे यादवों में श्रेष्ठ तथा शत्रुओं को जीतने में दक्ष श्री कृष्ण ! हमें यह हमारा पैतृक राज्य आपकी कृपा से प्राप्त हुआ है। आपकी शूरवीरता, अद्भुत युद्धनीति, लोकोत्तर बुद्धि कौशल तथा पराक्रम से ही हम इस संग्राम में विजयी हुए हैं, एतदर्थ आपका बार-बार धन्यवाद करते हैं। (महाभारत शान्तिपर्व 43 प्र.)
कौरव-युवराज दुर्योधन
श्री कृष्ण दुर्योधन के विपक्ष में तथा उसको हराने में मुख्य कर्णधार थे। पुनरपि श्रीकृष्ण के प्रति उसके हृदय में बड़ा सम्मान था। स्वयं दुर्योधन महात्मा विदुर के समझाने पर यह स्वीकार करता है--
स हि पूज्यतमो लोके, कृष्णः पृथुललोचनः।
त्रयाणामपि लोकानां विदितं मम सर्वथा।। (महा. उद्योग. 89/5)
त्रयाणामपि लोकानां विदितं मम सर्वथा।। (महा. उद्योग. 89/5)
हे विदुर जी ! मैं यह भलीभांति जानता हूं कि श्री कृष्ण तीनों लोकों में सर्वाधिक पूज्य हैं।
कुरुराज धृतराष्ट्र
मेरा पुत्र दुर्योघन श्री कृष्ण की महिमा का मोहवश निरादर कर रहा है। श्री कृष्ण में इतने गुण हैं कि उनको गिनाया नहीं जा सकता और इसीलिये उन्हें कोई पराजित नहीं कर सका है।
आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द सरस्वती जी की सत्यार्थ प्रकाश में दी गई सम्मति भी महत्वपूर्ण हैं। श्री कृष्ण जी के विषय में वह लिखते हैं कि ‘श्रीकृष्ण का गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश है। श्रीकृष्ण ने जन्म से मरण पर्यन्त कुछ भी बुरा काम किया हो, ऐसा (महाभारतकार महर्षि वेदव्यास जी ने) नहीं लिखा।’
श्री कृष्ण जी के जन्मोत्सव पर सभी को शुभकामनायें और बधाई।
-मनमोहन कुमार आर्य
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