क्या वेदों में जादू-टोना आदि अन्धविश्वास का वर्णन हैं?
वेदों के विषय में एक भ्रान्ति प्रचलित हो गई है कि वेदों में जादू-टोने आदि अन्धविश्वास का वर्णन हैं। इसका मुख्य कारण सायणाचार्य, महीधर आदि द्वारा वेदों के कुछ प्रकरणों में जादू-टोना को अन्धविश्वास के रूप में अपने भाष्य में वर्णन हैं। विदेशी लेखकों जैसे ब्लूमफील्ड[i] आदि भी इस मान्यता का समर्थन करते दीखते हैं। अनेक भारतीय लेखक भी उन्हीं का अनुसरण कर इसी मान्यता का समर्थन करते प्रतीत होते हैं[ii]। वैदिक विद्वान श्री प्रियरत्न आर्ष[iii] के अनुसार जादू शब्द वेद के "यातु" शब्द का रूपान्तर या अपभ्रश है। यातु शब्द का अर्थ निघण्टु 2/19 के अनुसार हिंसा है। अथर्ववेद 8/8/6/18 में जादू, इंद्रजाल आदि का प्रयोग शत्रु सेना को नष्ट करने के लिए हुआ हैं जो पूर्ण रूप से वैज्ञानिक एवं सत्य है। जबकि तांत्रिक ग्रंथों में जादू-टोने के नाम पर कल्पित और अवैज्ञानिक वर्णन मिलते हैं। इस विषय में रामदास गौड़ की हिंदुत्व नामक पुस्तक में लिखते है कि "तंत्रोक्त, मरणोच्चाटन, वशीकरण, अभिचारिक क्रिया का प्रसंग अथर्ववेद संहिता में पाया जाता है सही, किन्तु तन्त्र के अन्यान्य प्रधान लक्षण नहीं मिलते। ऐसी दशा में तंत्र को हम अथर्व संहितामूलक नहीं कह सकते"। अथर्ववेद के विभिन्न मन्त्रों में शारीरिक और मानसिक रोगों का उपचार , शत्रु घात,अपने अंदर के रोगों और दोषों को हटाकर स्वास्थ्य एवं अच्छे गुणों को ग्रहण करने का सन्देश दिया गया हैं। इन मन्त्रों के मूल सन्देश को न समझ पाने के कारण इस भ्रान्ति का प्रचलन हुआ।
हम यहाँ अथर्ववेद के कुछ सूक्तो एवं मंत्रो पर विचार कर यह सिद्ध करेगे की वेदों में जादू टोना या अश्लीलता नहीं है। अथर्ववेद के सूक्तों में मणि शब्द का प्रयोग कई स्थानों पर हुआ है। सायण आदि भाष्यकारों ने मणि का अर्थ वह पदार्थ किया हैं जिसे शरीर के किसी अंग पर बांधकर मंत्र का पाठ करने से अभिष्ट फल के प्राप्ति अथवा किसी अनिष्ट का निवारण किया जादू टोने से किया जा सकता हैं। मणि अथवा रत्न शब्द किसी भी अत्यंत उपयोगी अथवा मूल्यवान वस्तु के लिए प्रयोग हुआ हैं। उस वस्तु को अर्थात मणि को शरीर से बांधने का अर्थ है उसे वश में कर लेना, उसका उपयोग लेना, उसका सेवन करना आदि।
कुछ मणि सूक्त इस प्रकार हैं
1. पर्णमणि- अथर्ववेद 3/5 सूक्त का अर्थ करते हुए सायण आचार्य लिखते हैं “जो व्यक्ति तेज, बल, आयु और धन आदि को प्राप्त करना चाहता हो, वह पर्ण अर्थात दाक के वृक्ष की बनी हुई मणि को त्रयोदशी के दिन दही और सहद में भिगोकर तीन दिन रखे और चौथे दिन निकलकर उस मणि को इस सूक्त के मंत्रो का पाठ करके बांध ले और दही और शहद को खा ले। इसी सूक्त में सायण लिखते हैं की यदि किसी राजा का राज्य छीन जाये तो काम्पील नमक वृक्ष की टहनियों से चावल पकाकर मंत्र का पाठ कर ग्रहण करे तो उसे राज्य की प्राप्ति हो जाएगी।”
सायण का अर्थ अगर इतना कारगर होता तो भारत के लोग जो की वेदों के ज्ञान से परिचित थे कभी भी पराधीन नहीं बनते, अगर बनते तो जादू टोना करके अपने आपको फिर से स्वतंत्र कर लेते। पर्ण का अर्थ होता हैं पत्र और मणि का बहुमूल्य इससे पर्णमणि का अर्थ हुआ बहुमूल्य पत्र। अगर कोई व्यक्ति राज्य का राजा बनना चाहता है तो राज्य के नागरिको का समर्थन (vote or veto) जो की बहुमूल्य है, उसे प्राप्त हो जाये तभी वह राजा बन सकता हैं। इसी सूक्त के दुसरे मंत्र में प्रार्थना हैं की राज्य के क्षत्रियो को मेरे अनुकूल कर, तीसरे मंत्र में राज्य के देव अर्थात विद्वानों को अनुकूल कर, छठे में राज्य के धीवर, रथकार लोग, कारीगर लोग, मनीषी लोग हैं उनके मेरे अनुकूल बनाने की प्रार्थना करी गई हैं। इस प्रकार इस सूक्त में एक अभ्यर्थी की राष्ट्र के नेता बनने की प्रार्थना काव्यमय शैली में पर्ण-मणि द्वारा व्यक्त करी गयी हैं। जादू टोने का तो कहीं पर नामो निशान ही नहीं है।
2. जांगिडमणि
अथर्ववेद 2/4 सूक्त तथा 19/34-35 सूक्तों में जांगिडमणि की महिमा बताते हुए सायण लिखते हैं “जो व्यक्ति कृत्या (हिंसा) से बचना चाहता हो, अपनी रक्षा चाहता हो तथा विघ्नों की शांति चाहता हो, वह जांगिड पेड़ से बनी विशेष प्रकार की मणि को शण (सन) के धागे में पिरोकर मणि बांधने की विधि से इस सूक्त के मंत्रो को पड़कर बांध ले।” उसका मंतव्य पूर्ण हो जायेगा।
अथर्ववेद के इन सूक्तों का ध्यान से विश्लेषण करने पर पता चलते हैं की जांगिड किसी प्रकार की मणि नहीं हैं, जिसको बांधने से हिंसा से रक्षा हो सके अपितु एक औषधि है जो भूमि से उत्पन्न होने वाली वनस्पति हैं , जो रोगों का निवारण करने वाली है। (अथर्व 19/34/9) रोगों की चिकित्सा करने वाली हैं (अथर्व 19/35/1,अथर्व 19/35/5, अथर्व 2/4/3) इस सूक्त में जो राक्षसों को मारने की बात कहीं गयी हैं। वो रोगजनक कृमिरूप (Microbes) शत्रु हैं जो रोगी बनाते हैं।
यहाँ भी कहीं जादू टोने का नहीं अपितु आयुर्वेद का वर्णन हैं
3. शंखमणि
अथर्ववेद 4/10 सूक्त में शंखमणि का वर्णन हैं. सायण के अनुसार उपनयन संस्कार के पश्चात बालक की दीर्घ आयु के लिए शंख को इस सूक्त के मंत्रो के साथ बांध दे तथा यह भी लिखा हैं बाढ़ आ जाने पर रक्षा करने के लिए भी शंख बांध लेने से डूबने का भय दूर हो जाता हैं।
सायण का मंतव्य विधान रूप से असंभव हैं अगर शंख बांधने से आयु बढ़ सकती हैं तो सायण ने स्वयं अपनी आयु क्यों नहीं बढाकर 100 वर्ष से ऊपर कर ली होती। अगर शंख बांधने से डूबने का खतरा नहीं रहता, तब तो किसी की भी डूबने से मृत्यु ही नहीं होती। सत्य यह है शंख को अथर्ववेद 4/10/3 में विश्व भेसज अर्थात अनेक प्रकार के रोगों को दूर करने वाला बताया गया है। अथर्ववेद 4/10/1 में रोगों को दुर्बल करने वाला बताया गया है। अथर्ववेद 4/10/2 में शंख को कृमि राक्षस को मरने वाला बताया गया है। अथर्ववेद 4/10/4 में शंख को आयु बढाने वाली औषधि बताया गया है। आयुर्वेद में शंख को बारीक़ पिस कर शंख भस्म बनाए का वर्णन हैं जिससे अनेक रोगों से मुक्ति मिलती हैं।
4. शतवारमणि
अथर्ववेद 19/36 सूक्त का भाष्य करते हुए सायण लिखते हैं “जिस व्यक्ति की संताने मर जाती हो और इस प्रकार उसके कुल का क्षय हो रहा हो , वह इस सूक्त के मंत्रो को पढकर शतवारमणि को बांध ले तो उसका यह संकट दूर हो जाता है। ”
शतवारमणि कोई जादू टोने करने वाली वस्तु नहीं हैं अपितु एक औषधी है जिससे शरीर को बल मिलता है और रोगों का नाश होता हैं।
ऊपर की पंक्तियो में हमने चार मणियो की समीक्षा पाठको के सम्मुख दी गई है। इनमे किसी में भी जादू टोने का उल्लेख नहीं है। प्रत्युत चार गुणकारी औषधियो का वर्णन हैं। जिनसे रोगनिवारण में बहुत उपयोगी होने के कारण मूल्यवान मणि कह दिया गया हैं।
5. कृत्या और अभिचार
अथर्ववेद में बहुत से स्थलों (19/34/4,2/4/6,8/5/2) पर कृत्या-अभिचार के प्रयागों का वर्णन मिलता है। सायण के भाष्य को पढ़ कर लगता हैं की अभिचार शब्द का अर्थ हैं किसी शत्रु को पीड़ा पहुचाने के लिए, उसे रोगी बनाने के लिए अथवा उसकी मृत्यु के लिए कोई विशेष हवन अथवा कर्म काण्ड का करना। कृत्या का अर्थ हैं ऐसे यज्ञ आदि अनुष्ठान द्वारा किसी की हिंसा कर उसे मार डालना।
अभिचार का अर्थ बनता हैं विरोधी द्वारा शास्त्रों से प्रहार अथवा आक्रमण तथा कृत्या का अर्थ बनता हैं उस प्रहार से हुए घाव बनता हैं। मणि सूक्त की औषधियो से उस घाव की पीड़ा को दूर किया जा सकता हैं। यही इन मन्त्रों का मूल सन्देश हैं।
इस प्रकार जहाँ भी वेदों में मणि आदि का उल्लेख हैं। वह किसी भी प्रकार जादू टोने से सम्बंधित नहीं हैं। आयुर्वेद के साथ अथर्ववेद का सम्बन्ध कर के विभिन्न औषधियो को अगर देखे तो मणि शब्द से औषधी का अर्थ स्पष्ट हो जाता हैं।
अथर्ववेद को विनियोगो की छाया से मुक्त कर स्वंत्र रूप से देखे तो वेद मंत्र बड़ी सुंदर और जीवन उपयोगी शिक्षा देने वाले दिखने लगेगे और अथर्ववेद में जादू टोना होने के मिथक की भ्रान्ति दूर होगी।
डॉ विवेक आर्य
[i] Hymns of the Atharva Veda translated by Maurice Bloomfield Sacred Books of the East, Vol. 42,1897
[ii] The Atharva Veda is the chief source of our knowledge of popular magic, hypnotism, black magic etc. P.6 Hinduism: Analytical Study by Amulya Mohapatra, Bijaya Mohapatra
[iii] अथर्ववेदीय मन्त्रविद्या पृष्ठ 2
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