Monday, December 29, 2014

pk फ़िल्म पर मेरे विचार




pk फ़िल्म पर मेरे विचार

अधिकतर हिन्दू संगठन pk फ़िल्म का विरोध कर रहे है। किसी का कहना है की यह धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचना है। किसी का कहना है कि इसमें शिव के वेश में एक व्यक्ति को भागते हुए दिखाना अशोभनीय है। किसी का कहना हैं की क्या आमिर खान में हिम्मत हैं की जैसे शिव को दिखाया है वैसे मुहम्मद साहिब को दिखाता तो मुसलमान उसका सर कलम कर देते। किसी का कहना हैं की हिन्दू लड़की का पाकिस्तानी लड़के से प्रेम दिखाना लव जिहाद को बढ़ावा देना है। किसी को आमिर खान के मुस्लिम होने और हज यात्रा करने पर आपत्ति हैं और किसी का कहना है की फ़िल्म में 80% से अधिक हिन्दुओं के विरुद्ध कहा गया हैं जबकि इस्लाम और ईसाईयत के विरुद्ध बहुत कम दिखाया गया है।

मेरे विचार इस विषय में कुछ भिन्न है। कुछ विषयों पर सहमति है और कुछ विषयों पर मतभेद है जिन्हें मैं यहाँ पर लिख रहा हूँ।

1. फिल्म में तर्क के माध्यम से धर्म के नाम पर किये जाने वाले कृत्यों की समीक्षा करने का सन्देश दिया गया है जोकि स्वागत योग्य है। न्याय दर्शन में तर्क को सबसे बड़ा ऋषि कहा गया है। तर्क सत्य और असत्य में भेद करने में सहायक है। संसार में किसी भी मत में धर्म के नाम पर अनेक अन्धविश्वास प्रचलित है। उनकी समीक्षा करने में कोई बुराई नहीं है। आधुनिक भारत में स्वामी दयानंद सर्वप्रथम ऐसे महापुरुष है जिन्होंने धर्म के नाम पर प्रचलित मान्यताओं को तर्क के तराजू में तोल कर ग्रहण करने का सन्देश दिया एवं सत्य के ग्रहण करने एवं असत्य के त्याग का उद्घोष दिया। अगर मान्यताएँ वैज्ञानिक है और सत्य पर आधारित है तो उनकी समीक्षा करने में कोई बुराई नहीं है। सोना तप कर कुंदन बनता है। सभी जानते हैं की जूठ के पाँव नहीं होते इसलिए धार्मिक कर्मकांडों एवं मान्यताओं की समीक्षा से उन्हीं को भय होगा जिनकी मान्यता या तो निराधार होगी अथवा असत्य पर टिकी होगी। इस फिल्म में यही सन्देश सरल शब्दों में दिया गया है। इस विषय को लेकर वही लोग असहज है जो यह मानते है की किसी भी अन्धविश्वास की समीक्षा नहीं करनी चाहिए और यह बहाना बनाते है कि इससे धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचती है। मगर पहले यह सोचिये की धार्मिक भावनायें है क्या? क्या वर्षा न होने पर कुत्ते के साथ कुँवारी लड़की का विवाह करना धार्मिक कृत्य है? क्या लड़का न होने पर किसी अन्य के लड़के की नरबलि देना धार्मिक कृत्य है? क्या भगवान को प्रसन्न करने के लिए निरीह पशुओं की बलि देना धार्मिक कृत्य है? क्या सकल जगत को अन्न प्रदान करने वाले ईश्वर की मूर्ति को दूध पिलाने के नाम पर सड़कों पर हज़ारों लीटर दूध को बहाना धार्मिक कृत्य है? क्या धर्म के नाम पर अपनी मान्यताओं में हाँ में हाँ मिलाने वाले को मित्र एवं ना करने वाले को शत्रु कहने वालो की समीक्षा करना गलत है? क्या ईश्वर के स्थान पर गुरुओं को बैठा कर उनकी पूजा करने जैसे पाखंड की समीक्षा करना क्या गलत हैं? धर्म के नाम पर लोभ, प्रलोभन, छल, बल आदि द्वारा धर्मान्तरण करने की समीक्षा करने को आप गलत कैसे कह सकते है। उत्तर स्पष्ट है नहीं। फिर ऐसे कृत्यों की समीक्षा करने वाले का विरोध करना गलत ही तो कहा जायेगा। इसलिए हमें तर्क के आधार पर समीक्षा का स्वागत करना चाहिये। तर्क का विरोध करना ठीक वैसा हैं जैसा मस्जिदों में सुना जाता है की मज़हब के मामले में अक्ल का दखल नहीं होना चाहिये।
2. यह फ़िल्म धर्म और मज़हब/मत या सम्प्रदाय में भेद करने में असफल रही है।  फ़िल्म क्या अपने आपको धार्मिक कहने वाले 99.9% लोग इस तथ्य से आज भी अनभिज्ञ है कि धर्म और सम्प्रदाय में अंतर क्या है? धर्म संस्कृत भाषा का शब्द है जोकि धारण करने वाली धृ धातु से बना है। "धार्यते इति धर्म:" अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म है अथवा लोक परलोक के सुखों की सिद्धि हेतु सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म है। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते है की मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्यति है वह धर्म है। मनु स्मृति में धर्म के दस लक्षण धैर्य,क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों में फँसने से रोकना,चोरी त्याग,शौच,इन्द्रिय निग्रह,बुद्धि अथवा ज्ञान, विद्या, सत्य और अक्रोध। स्वामी दयानंद के अनुसार धर्म जो पक्षपात रहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार है। धर्म क्रियात्मक वस्तु है जबकि मत या मज़हब विश्वासात्मक वस्तु है। धर्मात्मा होने के लिये सदाचारी होना अनिवार्य है जबकि मज़हबी होने के लिए किसी विशेष मत की मान्यताओं का पालन करना अनिवार्य है उसका सदाचार से सम्बन्ध होना अथवा न होना अनिवार्य नियम नहीं है। धर्म में बाहर के चिन्हों का कोई स्थान नहीं है जबकि मजहब में उससे सम्बंधित चिन्हों को धारण करना अनिवार्य है। धर्म मनुष्य को पुरुषार्थी बनाता है क्यूंकि वह ज्ञानपूर्वक सत्य आचरण से ही अभ्युदय और मोक्ष प्राप्ति की शिक्षा देता है जबकि मज़हब मनुष्य को आलस्य का पाठ सिखाता है क्यूंकि मज़हब के मंतव्यों मात्र को मानने भर से ही मुक्ति का होना उसमें सिखाया जाता है। धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़कर मनुष्य को स्वतंत्र और आत्म स्वालंबी बनाता है क्यूंकि वह ईश्वर और मनुष्य के बीच में किसी भी मध्यस्थ या एजेंट की आवश्यकता नहीं बताता परन्तु मज़हब मनुष्य को परतंत्र और दूसरों पर आश्रित बनाता है क्यूंकि वह मज़हब के प्रवर्तक की सिफारिश के बिना मुक्ति का मिलना नहीं मानता, किसी गुरु या मध्यस्थ की कृपा के बिना मुक्ति का मिलना नहीं मानता। धर्म दूसरों के हितों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति तक देना सिखाता है जबकि मज़हब अपने हित के लिए अन्य मनुष्यों और पशुयों की प्राण हरने के लिए हिंसा का सन्देश देता है। धर्म मनुष्य को सभी प्राणी मात्र से प्रेम करना सिखाता है जबकि मज़हब मनुष्य को प्राणियों का माँसाहार एवं अन्य  मतवालों से द्वेष और घृणा करना सिखाता है। धर्म मनुष्य जाति को मनुष्यत्व के नाते से एक प्रकार के सार्वजानिक आचारों और विचारों द्वारा एक केंद्र पर केन्द्रित करके भेदभाव और विरोध को मिटाता है जिसका उद्देश्य एकता का पाठ पढ़ाना होता है जबकि मत/मज़हब अपने भिन्न भिन्न मंतव्यों और कर्तव्यों के कारण अपने पृथक पृथक जत्थे बनाकर भेदभाव और विरोध को बढ़ाते है और एकता को मिटाते है। धर्म एक मात्र ईश्वर की पूजा बतलाता है जबकि मज़हब ईश्वर से भिन्न मत प्रवर्तक/गुरु/मनुष्य आदि की पूजा बतलाकर अन्धविश्वास फैलाते है। धर्म और मज़हब के अंतर को ठीक प्रकार से समझ लेने पर मनुष्य श्रेष्ठ एवं कल्याणकारी कार्यों को करने में पुरुषार्थ करेगा तो उसमें सभी का कल्याण होगा। आज संसार में जितना भी कट्टरवाद है, जितना भी पाखंड है और जितनी भी अज्ञानता है उसका कारण मत/मज़हब में विश्वास करना है न की धर्म का पालन है। इस फ़िल्म के माध्यम से इस महत्वपूर्ण तथ्य को बताना चाहिए था। फिल्म बनाने वालो ने यह तो बता दिया की असत्य क्या हैं मगर यह नहीं बता पाया की सत्य क्या है। सत्य धर्म हैं और असत्य मत.मतान्तर की संकीर्ण धारणा है।
3 . जब अक्षय कुमार कि  ओ माई गॉड (OMG) फ़िल्म आई थी तब विषय एक ही होने के बाद भी उसका इतना विरोध नहीं हुआ था क्यूंकि उसके अभिनेता अक्षय कुमार हिन्दू धर्म से सम्बंधित है। इस फ़िल्म का विरोध आमिर खान से सम्बंधित होने के कारण ज्यादा हो रहा है। इस मानसिकता से हमें बचना चाहिए।
4. फ़िल्म आस्था और श्रद्धा पर प्रश्न तो करती है मगर भटके हुओं को रास्ता दिखाने में असफल हो जाती है जब आमिर खान यह कहता हैं कि मुझे ईश्वर के विषय में नहीं मालूम। इस प्रकार से यह फ़िल्म अन्धविश्वास से छुड़वाने का सन्देश तो देती हैं मगर जिज्ञासु प्रवृति के व्यक्ति को असंतुष्ट कर नास्तिक बनने की प्रेरणा देती है। यह इस फ़िल्म की महत्वपूर्ण कमी हैं जिसका समाधान अवश्य होना चाहिये था।

जिस दिन धार्मिक कहलाने वाले सभी लोग अपनी मान्यताओं में से अन्धविश्वास को निकाल कर विशुद्ध धर्म का पालन करना आरम्भ कर देंगे उस दिन pk जैसी फिल्में अपने आप बननी बंद हो जायेगी। इसलिए pk का विरोध समाधान नहीं है अपितु तर्क के आधार पर सत्य को ग्रहण करना एवं असत्य का त्याग करना उचित समाधान है और विरोध के चक्कर में जिस दिन मानव जाति ने तर्क का गला दबा दिया उस दिन से मानव की आध्यात्मिक उन्नति रुक जाएगी।

डॉ विवेक आर्य 

Sunday, December 28, 2014

"शुद्धि" प्राचीन आर्य विधान है



 "शुद्धि" प्राचीन आर्य विधान है


"घर वापसी", शुद्धि, परावर्तन अनेक नामों से हम लोग एक प्राचीन संस्कार से आज परिचित है। प्राचीन काल में अनार्यों को आर्य बनाने की प्रक्रिया को शुद्धि कहा जाता था। इस प्रक्रिया में आत्मचरित को पवित्र करना शुद्ध कहलाता था। आज विधर्मी जैसे मुस्लिम अथवा ईसाई हो चूके हमारे भाइयों को पुन: वैदिक सनातन धर्म में प्रविष्ट करने को “शुद्ध” करना कहा जाता है। 28 दिसंबर 2014 के Midday अख़बार में मुंबई के रहने वाले संस्कृत विद्वान श्री गुलाम दस्तगीर जी का बयान छपा कि हिन्दू धर्मग्रंथों में शुद्धि का विधान नहीं है। हम इस लेख के माध्यम से गुलाम साहिब जी की इस भ्रान्ति का निवारण करना चाहते हैं की शुद्धि का विधान न केवल प्राचीन हैं अपितु इसका वैदिक ग्रंथों में अनेक स्थलों पर वर्णन मिलता हैं जिससे न केवल उनकी भ्रान्ति दूर हो सके अपितु उनके निकष्ट सज्जन भी इस भ्रान्ति का शिकार न हो।

वेदों में "शुद्धि" का सन्देश

1. हे विद्वानों! जो गिरे हुए है उनको फिर से उठाओ। जिन्होंने पाप किया है अथवा जिनका जीवन मैला हो गया है उनको फिर से जीवन दो या "शुद्ध" करो।ऋग्वेद 10/137/1
2. हे इन्द्र! शत्रुओं के निवारणार्थ हमें शक्ति दीजिये जो हिंसारहित एवं कल्याणकारक है। जिससे तुम दासों (अनार्यों) को आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनाते हो, जो मनुष्य की वृद्धि का हेतु है।ऋग्वेद 6/22/10
3. परमेश्वर के नाम को आगे बढ़ाते हुए सब संसार को आर्य अर्थात श्रेष्ठ बनाओ। ऋग्वेद 9/63/5

श्रोत्र-सूत्र ग्रंथों में शुद्धि का विधान

1. भ्रष्ट द्विजों की संतान को शुद्ध कर यज्ञोपवीत दे देना चाहिये। आपस्तम्भ 1/1/1
2. प्रायश्चित से प्रायश्चित्कर्ता शुद्ध होकर अपने असली वर्ण को प्राप्त करता है। आपस्तम्भ 1/1/2
3. उपद्रव, व्याधि, मुसीबत आदि में शरीर की रक्षार्थ जो विधर्मी बने वह शांति होने पर शुद्ध होने के लिए प्रायश्चित कर ले। पराशर स्मृति 7/41
4. देश में उपद्रव आदि के काल में जिनका यज्ञोपवीत उतारा गया वह मास भर दुग्ध पान का व्रत करे, गोपालन करे और पुन: यज्ञोपवीत धारण करे। हारीत स्मृति
5. जिनको मलेच्छों ने बलपूर्वक गोहत्या, मांसभक्षण आदि नीचकर्म किये हो वह वर्णानुसार कृच्छ व्रत कर शुद्ध हो जाये। देवल स्मृति श्लोक 9-11
6. गोवध आदि समतुल्य पातकियों की शुद्धि चान्द्रायण आदि व्रतों से होती हैं। याज्ञवल्क्य स्मृति प्र -5

भविष्य पुराण में शुद्धि का वर्णन

 1.कण्व ऋषि द्वारा मलेच्छों की शुद्धि का वर्णन। भविष्य पुराण प्रतिसर्ग खंड 4 अध्याय 21 श्लोक 17-21
2. अग्निवंश के राजाओं द्वारा बौद्धों की शुद्धि का वर्णन। भविष्य पुराण प्रतिसर्ग खंड 4 अध्याय 21 श्लोक 31-35
3. कृष्ण चैतन्य के सेवक,रामानंद के शिष्य, निम्बादित्य, विष्णु स्वामी द्वारा मलेच्छों की शुद्धि का वर्णन। भविष्य पुराण प्रतिसर्ग खंड 4 अध्याय 21 श्लोक 48-59

इतिहास में शुद्धि के प्रमाण

1. कश्मीर के राजा द्वारा ब्राह्मणों के सहयोग से लिखवाया गया ग्रन्थ रणबीर सागर में शुद्धि का समर्थन इन शब्दों में किया गया है की सभी ब्राह्य जातियाँ प्रायश्चित कर शुद्ध हो सकती है। रणबीर सागर प्रायश्चित प्रा 12
2. इतिहास में शंकराचार्य एवं कुमारिलभट्ट द्वारा बुद्धों की शुद्धि।
3. इतिहास में हुण, काम्बोज आदि जातियाँ शुद्ध होकर आर्य हुई।
4. शिवाजी द्वारा नेताजी पालकर जैसे सरदारों को इस्लाम से वैदिक धर्म में दोबारा से शुद्ध कर लिया गया।
इस प्रकार के अनेक उदहारण प्राचीन ग्रंथों एवं इतिहास से दिए जा सकते है
जिससे यह सिद्ध होता है कि प्राचीनकाल में शुद्धि का विधान हमारे देश में प्रचलित था। आधुनिक भारत में शुद्धि के प्राचीन संस्कार को पुनर्जीवित करने का और खोये हुए भाइयों को वापिस से स्वधर्मी बनाने का सबसे प्रथम एवं क्रांतिकारी प्रयास स्वामी दयानंद द्वारा किया गया जिसके लिए समस्त हिन्दू समाज का उनका आभारी होना चाहिए।

डॉ विवेक आर्य

Link of News-

http://www.mid-day.com/articles/conversion-has-no-basis-in-hindu-scriptures/15871196

Wednesday, December 24, 2014

स्वामी दयानंद एवं चित्तोड़



(चित्र में चित्तोड़ के प्राचीन दुर्ग के अवशेष )

स्वामी दयानंद एवं चित्तोड़

स्वामी दयानंद अपने चित्तोड़ भ्रमण के समय चित्तोड़ के प्रसिद्द किले को देखने गए। किले की हालत एवं राजपूत क्षत्राणियों के जौहर के स्थान को देखकर उनके मुख से निकला की अगर ब्रह्मचर्य की मर्यादा का मान होता तो चित्तोड़ का यह हश्र नहीं होता। काश चित्तोड़ में गुरुकुल की स्थापना हो जिससे ब्रह्मचर्य धर्म का प्रचार हो सके।

स्वामी दयानंद के चित्तोड़ सम्बंधित चिंतन में ब्रह्मचर्य पालन से क्या सम्बन्ध था यह इतिहास के गर्भ में छिपा सत्य हैं। जिस समय चित्तोड़ का अकबर के हाथों विध्वंश हुआ उस समय चित्तोड़ पर वीर बप्पा रावल के वंशज, राणा सांगा के पुत्र उदय सिंह का राज था। समस्त राजपुताना में चित्तोड़ एक मात्र रियासत थी जिसने अपनी बेटी का डोलना मुगलों के हरम में नहीं भेजा था। अकबर के लिए यह असहनीय था की जब तक चित्तोड़ स्वतंत्र हैं तब तक भारत विजय का अकबर का स्वपन अधूरा हैं। राणा उदय सिंह वैसे तो वीर था मगर अपने पूर्वजों से महानता एवं दूरदृष्टि से विमुख था। उसमें भोग विलास की मात्र अधिक थी इसीलिए उसका जीवन उसकी दर्जनों रानियाँ और उनके अनेकों बच्चों में उलझा रहता था। यही कारण था की महाराणा प्रताप ने एक बार कहा था कि अगर दादा राणा सांगा जी के पश्चात मेवाड़ की गद्दी पर वह बैठते तो मुगलों को कभी इतना शक्तिशाली न होने देते। राजपुताना के बाकि राजपूतों की दशा भी कोई भिन्न न थी।
              जब अकबर ने चित्तोड़ पर आक्रमण किया तब उदय सिंह ने उसकी रक्षा करने के स्थान पर भाग जाना बेहतर समझा। अभागा हैं वह देश जिसमें आपत्ति काल में उसका मुखिया साथ छोड़ दे। बारूद से शून्य किला बच सकता हैं मगर किलेदार से शून्य किला नहीं बच सकता। यहाँ तक कि चित्तोड़ के घेराव के समय भी उदय सिंह ने बाहर बैठकर कुछ नहीं किया। मगर चित्तोड़ राजपूताने  मस्तक था, मान था। जयमल जैसे वीर सरदार अभी जीवित थे। एक ओर अकबर कि 25 हजार सेना, 3000 हाथी एवं 3 बड़े तोपखाने थे वही दूसरी ओर संसाधन रहित स्वाधीनता से प्रेम करने वाले 5000 वीर राजपूत थे। राजपूत एक ओर मुग़ल सेना से लड़ते जाते दूसरी ओर तोपों कि मार से दह रही दीवारों का निर्माण करते जाते। युद्ध 6 मास से अधिक हो चला था। एक दिन किले की दीवार के सुराख़ के छेद में से अकबर ने अपनी बन्दुक से एक तेजस्वी पुरुष को निशाना साधा। उस गोली से जयमल का स्वर्गवास हो गया। राजपूतों ने एक युवा पत्ता को अपना सरदार नियुक्त किया। पत्ता की मूछें भी ठीक से नहीं उगी थी मगर मातृभूमि पर प्राण न्यौछावर करने के लिए सभी राजपूत तैयार थे। आज अलग दिन था। सभी राजपूतों ने केसरिया बाना पहना, कमर पर तलवार बाँधी और युद्ध के लिए रवाना हो गए। राजपूतों ने जब देखा कि किले की रक्षा अब असंभव हैं तो उन्होंने अंतिम संग्राम का मन बनाया। किले के दरवाजे खोल दिए गए। मुग़ल सेना अंदर घुसते ही राजपूतों की फौलादी छाती से टकराई। उस अभेद्य दिवार को तोड़ने के अकबर ने मदमस्त हाथी राजपूतों पर छोड़ दिए। अनेक हाथियों को राजपूतों ने काट डाला, अनेक राजपूत स्वर्ग सिधार गए। अंत में पत्ता लड़ते लड़ते थक का बेहोश हो गया। एक हाथी ने उसे अपनी सूंड में उठा कर अकबर के सामने पेश किया। बहादुर पत्ता के प्राण थोड़ी देर में निकल गए मगर अकबर  उसकी बहादुरी और देशभक्ति का प्रशंसक बन गया। इस युद्ध में 30000 आदमी काम आये, जिनमें लड़ाकू राजपूतों के अतिरिक्त चित्तोड़ की आम जनता भी थी। युद्ध के पश्चात मृत बहादुरों के शरीर से उतरे जनेऊ  का तोल साढ़े सतावन मन था। उस दिन से राजपूताने में साढ़े सतावन का अंक अनिष्ट माना जाता हैं। किले के अंदर राजपूत क्षत्राणियों ने जौहर कर आत्मदाह कर लिया। अकबर ने यह युद्ध हाथियों कि दिवार के पीछे खड़े होकर जीता था। राजपूत चाहते तो आत्मसमर्पण कर देते मगर उनका लक्ष्य शहिद होकर सदा के लिए अमर होना था। युद्ध के इस परिणाम से महान आर्य रक्त की बड़ी हानि हुई।
                     यह हानि होने से बच सकती थी अगर राजपूतों की भोगवादी प्रवृति न होती। राजपूतों में न एकता थी और न ही दूरदृष्टी थी। अगर होती तो मान सिंह जैसे राजपूत अपनी सेनाओं के साथ अपने ही भाइयों से न लड़ते और अकबर के साम्राज्य की नीवों को मजबूत करने में जीवन भर प्रयत्न न करते। अगर होती तो उदय सिंह अपना ही राज्य छोड़कर जाने से अधिक लड़ते लड़ते मर जाना अधिक श्रेयकर समझता।  शराब, अफीम एवं अनेक स्त्रियों के संग ने राजपूतों के गर्म लहू को यहाँ तक जमा दिया था कि बात बात पर मूछों को तांव देने वाले राजपूत अपनी बहन और बेटियों को मुग़लों के हरम में भेजने में भी परहेज नहीं कर रहे थे।

 स्वामी दयानंद का चिंतन इसी दुर्दशा का ईशारा कर रहा था कि जहाँ पर भोग होगा, प्राचीन धार्मिक सिद्धांतों का अपमान होगा, ब्रह्मचर्य का अभाव होगा वहां पर नाश निश्चित हैं। इसीलिए चित्तोड़ के दुर्ग को देखकर सन 1567 में हुए विनाश का कारण स्वामी जी के मुख से निकला।आज हिन्दू समाज को अगर अपनी रक्षा करनी हैं तो उसे वेद विदित आर्य सिद्धातों का अपने जीवन में पालन अनिवार्य बनाना होगा अन्यता इतिहास अपने आपको दोहराने से पीछे नहीं हटेगा।

डॉ विवेक आर्य  
               
       

Tuesday, December 23, 2014

ईश्वर के संबंध में महर्षि दयानन्द सरस्वती जी के विचार


चारों वेदों में ऐसा कहीं नहीं लिखा जिससे अनेक ईश्वर सिद्ध हों। किन्तु यह तो लिखा है कि ईश्वर एक है। देवता दिव्य गुणों के युक्त होने के कारण कहलाते हैं जैसा कि पृथ्वी, परन्तु इसको कहीं ईश्वर तथा उपासनीय नहीं माना है।जिसमें सब देवता स्थित हैं, वह जानने एवं उपासना करने योग्य देवों का देव होने से महादेव इसलिये कहलाता है कि वही सब जगत की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयकर्ता, न्यायाधीश, अधिष्ठाता है।
ईश्वर दयालु एवं न्यायकारी है। न्याय और दया में नाम मात्र ही भेद है, क्योंकि जो न्याय से प्रयोजन सिद्ध होता है वही दया से।
दण्ड देने का प्रयोजन है कि मनुष्य अपराध करने से बंध होकर दुखों को प्राप्त न हो, वही दया कहलाती है। जिसने जैसा जितना बुरा कर्म किया है उसको उतना है दण्ड देना चाहिये , उसी का नाम न्याय है। जो अपराध का दण्ड न दिया जाय तो न्याय का नाश हो जाय। क्योंकि एक अपराधी को छोड़ देने से सहस्त्रों धर्मात्मा पुरुषों को दुख देना है। जब एक को छोड़ने से सहस्त्रों मनुष्यों को दुख प्राप्त होता हो तो वह दया किस प्रकार हो सकती है? दया वही है कि अपराधी को कारागार में रखकर पाप करने से बचाना। निरन्तर एवं जघन्य अपराध करने पर मृत्यु दण्ड देकर अन्य सहस्त्रों मनुष्यों पर दया प्रकाशित करना।
संसार में तो सच्चा झूठा दोनों सुनने में आते हैं। किन्तु उसका विचार से निश्चय करना अपना अपना काम है। ईश्वर की पूर्ण दया तो यह है कि जिसने जीवों के प्रयोजन सिद्ध होने के अर्थ जगत में सकल पदार्थ उत्पन्न करके दान दे रक्खे हैं। इससे भिन्न दूसरी बड़ी दया कौन सी है? अब न्याय का फल प्रत्यक्ष दीखता है कि सुख दुख की व्याख्या अधिक और न्यूनता से प्रकाशित कर रही है। इन दोनों का इतना ही भेद है कि जो मन में सबको सुख होने और दुख छूटने की इच्छा और क्रिया करना है वह दया और ब्राह्य चेष्टा अर्थात बंधन छेदनादि यथावत दण्ड देना न्याय कहलाता है। दोनों का एक प्रयोजन यह है कि सब को पाप और दुख से प्रथक कर देना।
ईश्वर यदि साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकता। जब व्यापक न होता तो सर्वाज्ञादि गुण भी ईश्वर में नहीं घट सकते। क्योंकि परिमित वस्तु में गुण, कर्म, स्वभाव भी परिमित रहते हैं तथा शीतोष्ण, क्षुधा, तृष्णा और रोग, दोष, छेदन, भेदन आदि से रहित नहीं हो सकता। अतः निश्चित है कि ईश्वर निराकार है। जो साकार हो तो उसके नाक, कान, आँख आदि अवयवों को बनाने वाला ईश्वर के अतिरिक्त कोई दूसरा होना चाहिये। क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता हो उसको संयुक्त करने वाला निराकार चेतन आवश्य होना चाहिये। कोई कहता है कि ईश्वर ने स्वैच्छा से आप ही आप अपना शरीर बना लिया। तो भी यही सिद्ध हुआ कि शरीर बनाने के पूर्व वह निराकार था। इसलिये परमात्मा कभी शरीर धारण नहीं करता। किन्तु निराकार होने से सब जगत को सूक्ष्म कारणों से स्थूलाकार बना देता है।
सर्वशक्तिमान का अर्थ है कि ईश्वर अपने काम अर्थात उत्पत्ति, पालन, प्रलय आदि और सब जीवों के पाप पुण्य की यथा योग्य व्यवस्था करने में किंचित भी किसी की सहायता नहीं लेता अर्थात अपने अनंत सामर्थ्य से ही सब अपना काम पूर्ण कर लेता है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं है की परमेश्वर वह सब कर सकता है जो उसे नहीं करना चाहिये। जैसे- अपने आपको मारना, अनेक ईश्वर बनाना, स्वयं अविद्वान, चोरी, व्यभिचारादि पाप कर्म कर और दुखी भी हो सकना। ये काम ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव से विरूद्ध हैं।
ईश्वर आदि भी है और अनादि भी। ईश्वर सबकी भलाई एवं सबके लिये सुख चाहता है परन्तु स्वतंत्रता के साथ किसी को बिना पाप किये पराधीन नहीं करता।
ईश्वर की स्तुति प्रार्थना करने से लाभः- स्तुति से ईश्वर से प्रीति, उसके गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव को सुधारना। प्रार्थना से निरभयता, उत्साह और सहाय का मिलना। उपासना से परब्रह्म से मेल और साक्षात्कार होना।
ईश्वर के हाथ नहीं किन्तु अपने शक्ति रूपी हाथ से सबका रचन, ग्रहण करता। पग नहीं परन्तु व्यापक होने से सबसे अधिक वेगवान। चक्षु का गोलक नहीं परन्तु सबको यथावत देखता। श्रोत नहीं तथाकथित सबकी बातें सुनता। अंतःकरण नहीं परन्तु सब जगत को जानता है और उसको अवधि सहित जानने वाला कोई भी नहीं। उसको सनातन, सबसे श्रेष्ठ, सबमें पूर्ण होने से पुरुष कहते हैं। वह इन्द्रियों और अंतःकरण के बिना अपने सब काम अपने सामर्थ्य से करता है।
न कोई उसके तुल्य है और न उससे अधिक। उसमें सर्वोत्तम शक्ति अर्थात जिसमें अनंत ज्ञान, अनंत बल और अनंत क्रिया है। यदि परमेश्वर निष्क्रिय होता तो जगत की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय न कर सकता। इसलिये वह विभू तथापि चेतन होने से उस क्रिया में भी है।
ईश्वर जितने देश काल में क्रिया करना उचित समझता है उतने ही देशकाल में क्रिया करता है। न अधिक न न्यून क्योंकि वह विद्वान है।
परमात्मा पूर्ण ज्ञानी है, पूर्ण ज्ञान उसे कहते हैं जो पदार्थ जिस प्रकार का हो उसे उसी रूप में जानना।
परमेंश्वर अनंत है। तो उसको अनंत ही जानना ज्ञान, उसके विरुद्ध अज्ञान अर्थात अनंत को सांत और सांत को अनंत जानना भ्रम कहलाता है। यथार्थ दर्शन ज्ञानमिति, जिसका जैसा गुण, कर्म, स्वभाव हो उस पदार्थ को वैसा जानकर मानना ही ज्ञान और विज्ञान कहलाता है और उससे उल्टा अज्ञान।
ईश्वर जन्म नहीं लेता, यदुर्वेद में लिखा है ‘अज एकपात्’ सपथर्यगाच्छुक्रमकायम।
यदा यदा…………..सृजाम्यहम्।
यह बात वेद विरुद्ध प्रमाणित नहीं होती। ऐसा हो सकता है कि श्रीकृष्ण धर्मात्मा धर्म की रक्षा करना चाहते थे कि मैं युग युग में जन्म लेके श्रेष्ठों की रक्षा और दुष्टों का नाश करूँ तो कुछ दोष नहीं। क्योंकि ‘परोपकाराय सतां विभूतयः’ परोपकार के लिये सत्पुरुषों का तन, मन, धन होता है। किन्तु इससे श्रीकृष्ण ईश्वर नहीं हो सकते।
वेदार्थ को न जानने, सम्प्रदायी लोंगो के बहकावे और अपने आप अविद्वान होने से भ्रमजाल में फँसके ऐसी ऐसी अप्रमाणिक बातें करते और मानते हैं।
जो ईश्वर अवतार शरीर धारण किये बिना जगत की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करता है उसके लिये कंस और रावणादि एक कीड़ी के समान भी नहीं हैं। वह सर्वव्यापक होने से कंस रावणादि के शरीर में भी परिपूर्ण हो रहा है। जब चाहे उसी समय मर्मच्छेदन कर नाशकर सकता है। भला वह अनंत गुण, कर्म स्वभावयुक्त परमात्मा को एक शूद्र जीव को मारने के लिये जन्म मरण युक्त कहने वाले को मूर्खपन से अन्य कुछ विशेष उपमा मिल सकती है और जो कोई कहे कि भक्तजन के उद्धार करने के लिये जन्म लेता है तो भी सत्य नहीं है। क्योंकि जो भक्तजन ईश्वर की आज्ञानुकूल चलते हैं उसके उद्धार करने का पूरा सामर्थ्य ईश्वर में है। क्या ईश्वर पृथ्वी, सूर्य, चन्द्रादि जगत के बनाने से कंस रावाणादि का वध और गोवर्धनादि का उठाना बड़े कार्य हैं।
जो कोई इस सृष्टि में परमेश्वर के कर्मों का विचार करे तो ‘न भूतो न भविष्यति’ ईश्वर के सद्श्य न कोई है न होगा। इस युक्ति से भी ईश्वर का जन्म सिद्ध नहीं होता। जैसे कोई अनंत आकाश को कहे कि गर्भ में आया और मुठ्ठी में भर लिया, ऐसा कहना कभी सच नहीं हो सकता। क्योंकि आकाश अनंत और सब में व्यापक है इससे न आकाश बाहर आता और न भीतर जाता, वैसे ही अनंत सर्वव्यापक परमात्मा के होने से उसका आना जाना कभी सिद्ध नहीं हो सकता। आना और जाना वहाँ हो सकता है जहाँ न हो। क्या परमेशवर गर्भ में व्यापक नहीं था जो कहीं से आया और बाहर नहीं था जो भीतर से निकला। ऐसा ईश्वर के विषय में कहना और मानना विद्याहीनों के सिवाय कौन कह और मान सकेगा। इसलिये परमेश्वर का आना जाना और जन्म-मरण कभी सिद्ध नहीं हो सकता। इसलिये ईसा आदि को ईश्वर का अवतार नहीं समझना चाहिये। वे राग, द्वेष, क्षुधा, तृष्णा, भय, शोक, दुख, सुख, जन्म,मरण आदि गुणायुक्त होने से मनुष्य थे।
ईश्वर पाप क्षमा नहीं कर सकता। ऐसा करने से उसका न्याय नष्ट हो जाता है और मनुष्य क्षमा दान मिलने की आशा से महापापी बन सकता है। तथा वह निर्भय एवं उत्साह पूर्वक पाप कर्म करने में संलग्न हो जायगा।
जिस प्रकार अपराधी को यह भरोसा हो जाय कि कानून के द्वारा उसके अपराध करने पर कोई सजा नहीं मिल सकती तो वह निर्भय पूर्वक अपराध करता है।
सभी प्रणियों को कर्मानुसार फल देना ईश्वर का कार्य है, क्षमा करना नहीं। मनुष्य अपने कर्मों में स्वतंत्र एवं ईश्वर की व्यवस्था में परतंत्र है।
मजदूर ने पहाड़ से लोहा निकाला, दुकानदार ने खरीदा, लौहार ने तलवार बनाई, सिपाही ने तलवार ली, उसने किसी को मार दिया। अब अपराधी लोहे का निकालने वाला मजदूर, खरीदने वाला दुकानदार और बनाने वाला लौहार नहीं होगा। बल्कि केवल वह सिपाही होगा जिसने किसी की हत्या की। इसलिये शरीर आदि की उत्पत्ति करने वाला ईश्वर व्यक्ति के कार्यों का भोक्ता नहीं होगा। क्योंकि कर्म करने वाला परमेशवर नहीं होता। यदि ऐसा होता तो क्या किसी को पाप करने की प्रेरणा देता। अतः मनुष्य कार्य करने के लिये स्वतंत्र है। उसी तरह ईश्वर भी कर्मानुसार फल देने के लिये स्वतंत्र है।
जीव और ईश्वर दोंनो चेतन स्वरूप हैं। स्वभाव दोनों का पवित्र, अविनाशी एवं धार्मकिता आदि है। परन्तु परमेश्वर के सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय, सबको नियम में रखना, जीवों का पाप पुण्य के फल देना आदि धर्मयुक्त कार्य हैं। और जीव में पदार्थों को पाने की अभिलाषा (इच्छा), द्वेष दुखादि की अनिच्छा, बैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, बल, (सुख) आनन्द, (दुख) विलाप, अप्रसन्नता, (ज्ञान) विवेक पहचानना ये तुल्य हैं। किन्तु वैशेषिक में प्राण वायु को बाहर निकालना, फिर उसे बाहर से भीतर लेना, (निमेष) आँख को मींचना, (उन्मेष) आँखों को खोलना, (जीवन) प्राण धारण करना, (मनन) निश्चय स्मरण अहंकार करना, (गति) चलना, (इन्दिय) सब इन्दियों को चलाना, (अंतर्विकार) भिन्न-भिन्न सुधा, तृष्णा, हर्ष, शोकादि युक्त होना, ये जीवात्मा के गुण परमात्मा से भिन्न हैं।
ईश्वर को त्रिकालदर्शी कहना मूर्खता के अतिरिक्त और कुछ नहीं। क्योंकि जो ईश्वर होकर न रहे वह भविष्यकाल कहलाता है। क्या ईश्वर को कोई ज्ञान रहके नहीं रहता? तथा न होके होता है? इसलिये परमात्मा का ज्ञान एक रस अखण्डित वर्तमान रहता है। भूत, भविष्यत् जीवों के लिये है। जीवों के कर्म की अपेक्षा से त्रिकालज्ञाता ईश्वर में है, स्वतः नहीं। जैसा स्वतंत्रता से जीव करता है, वैसा ही सर्वज्ञता से ईश्वर जानता है और जैसा ईश्वर जानता है वैसा जीव करता है अर्थात् भूत, भविष्य, वर्तमान के ज्ञान और फल देने में ईश्वर स्वतंत्र और जीव किंचित वर्तमान और कर्म करने में स्वतंत्र है। ईश्वर का अनादि ज्ञान होने से जैसा कर्म का ज्ञान है वैसा ही दण्ड देने का भी ज्ञान अनादि है। दोनों ज्ञान उसके सत्य हैं। क्या कर्म ज्ञान सच्चा और दण्ड ज्ञान मिथ्या कभी हो सकता है। इसलिये इसमें कोई भी दोष नहीं आता।
परमेश्वर सगुण एवं निर्गुण दोनों है। गुणों से सहित सगुण, गुणों से रहित निर्गुण। अपने अपने स्वाभाविक गुणों से सहित और दूसरे विरोधी के गुणों से रहित होने से सब पदार्थ सगुण और निर्गुण हैं। कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है जिसमें केुवल निर्गुणता या केवल सगुणता हो। किन्तु एक ही में निर्गुणता एवं सगुणता सदा रहती है। वैसे ही परमेश्वर अपने अनंत ज्ञान बलादि गुणों से सहित होने से सगुण रूपादि जड़ के तथा द्वेषादि के गुणों से प्रथक होने से निर्गुण कहलाता है। यह कहना अज्ञानता है कि निराकार निर्गुण और साकार सगुण है।
परमेश्वर न रागी है, न विरक्त। राग अपने से भिन्न प्रथक पदार्थों में होता है, सो परमेश्वर से कोई पदार्थ प्रथक तथा उत्तम नहीं है, अतः उसमें राग का होना संभव नहीं है। और जो प्राप्त को छोड़ देवे उसको विरक्त कहते हैं। ईश्वर व्यापक होने से किसी पदार्थ को छोड़ ही नहीं सकता। इसलिये विरक्त भी नहीं है।
ईश्वर में प्राणियों की तरह की इच्छा नहीं होती।
जो स्वयंभू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार परमेश्वर है वह सनातन जीवरूपी प्रजा के कल्याणार्थ यथावत् रीतिपूर्वक वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करता है।
परमेश्वर के सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक होने से जीव को अपनी व्याप्ति से वेदविद्या के उपदेश करने में कुछ भी मुखादि की अपेक्षा नहीं है। क्योंकि मुख जिव्हा से वर्णोंच्चारण अपने से भिन्न को बोध होने के लिये किया जाता है, कुछ अपने लिये नहीं। क्योंकि मुख जिव्हा के व्यावहार करे बिना ही मन के अनेक व्यावहारों का विचार और शब्दोंच्चारण होता रहता है। कानों का उँगुलियों से मूँद कर देखो, सुनों कि बिना मुख जिव्हा ताल्वादि स्थानों के कैसे कैसे शब्द हो रहे हैं?
जब परमात्मा निराकार, सर्वव्यापक है तो अपनी अखिल वेद विद्या का उपदेश जीवस्थ स्वरूप से जीवात्मा में प्रकाशित कर देता है। फिर वह मनुष्य अपने मुख से उच्चारण करके दूसरे को सुनाता है। इसे ही वेद ज्ञान कहते हैं जो समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए ईश्वर द्वारा दिया गया हैं।

Friday, December 19, 2014

आधुनिक वाममार्ग- ओशो ध्यान केंद्र






इस पोस्ट के साथ सलंग्न चित्र ओशो ध्यान शिविर का हैं जिसमें स्त्री-पुरुष नंग्न हो ध्यान कर रहे हैं। जोर जोर से चिल्लाना, नाचना, कूदना, हँसना, नाचना, गाना, जानवरों जैसी हरकतें करना इसे ध्यान कहना मूर्खता हैं।
धर्मानुसार जीवन अर्पण करने में संयम विज्ञान का अपना महत्व हैं। मनुष्यों को भोग का नशेड़ी बनाने का जो यह अभियान ओशो ध्यान के नाम से चलाया जा रहा हैं उसने अनेक घरों को बर्बाद कर दिया हैं। अनेक नौजवानों को बर्बाद कर दिया हैं।
वेदों में सदाचार, पाप से बचने, चरित्र निर्माण, ब्रहमचर्य आदि पर बहुत बल दिया गया हैं जैसे-
यजुर्वेद ४/२८ – हे ज्ञान स्वरुप प्रभु मुझे दुश्चरित्र या पाप के आचरण से सर्वथा दूर करो तथा मुझे पूर्ण सदाचार में स्थिर करो।
ऋग्वेद ८/४८/५-६ – वे मुझे चरित्र से भ्रष्ट न होने दे।
यजुर्वेद ३/४५- ग्राम, वन, सभा और वैयक्तिक इन्द्रिय व्यवहार में हमने जो पाप किया हैं उसको हम अपने से अब सर्वथा दूर कर देते हैं।
यजुर्वेद २०/१५-१६- दिन, रात्रि, जागृत और स्वपन में हमारे अपराध और दुष्ट व्यसन से हमारे अध्यापक, आप्त विद्वान, धार्मिक उपदेशक और परमात्मा हमें बचाए।
ऋग्वेद १०/५/६- ऋषियों ने सात अमर्यादाएं बनाई हैं। उनमे से जो एक को भी प्राप्त होता हैं, वह पापी हैं। चोरी, व्यभिचार, श्रेष्ठ जनों की हत्या, भ्रूण हत्या, सुरापान, दुष्ट कर्म को बार बार करना और पाप करने के बाद छिपाने के लिए झूठ बोलना।
अथर्ववेद ६/४५/१- हे मेरे मन के पाप! मुझसे बुरी बातें क्यों करते हो? दूर हटों. मैं तुझे नहीं चाहता।
अथर्ववेद ११/५/१०- ब्रहमचर्य और तप से राजा राष्ट्र की विशेष रक्षा कर सकता हैं।
अथर्ववेद११/५/१९- देवताओं (श्रेष्ठ पुरुषों) ने ब्रहमचर्य और तप से मृत्यु (दुःख) का नष्ट कर दिया हैं।
ऋग्वेद ७/२१/५- दुराचारी व्यक्ति कभी भी प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकता।

इस प्रकार अनेक वेद मन्त्रों में संयम और सदाचार का उपदेश हैं।

सृष्टि के आदि से लेकर अंत तो सत्य सदा एक रहता हैं। इसलिए वेदाधारित सदाचार के सार्वभौमिक एवं सर्वकालिक नियमों की अनदेखी करना अज्ञानता का बोधक हैं।
डॉ विवेक आर्य

Monday, December 15, 2014

बलात्कार कैसे रुकेंगे






आज 16 दिसंबर हैं।

निर्भया कांड की दूसरी पुण्यतिथि

मीडिया वालों का मसाला मिल गया

नारे लगाने वालो को काम मिल गया

मोमबत्ती वालो को इन्वर्टर के युग में मोमबत्ती याद आ गई

धरना करने वाले बेरोजगार झोलेवालो को भी काम मिल गया

मगर दो साल में कुछ नहीं बदला

आज भी लड़कियों के बलात्कार वैसे ही होते हैं। आज भी उनमें असुरक्षा की भावना हैं। आज भी उनका अपहरण होता हैं। आज भी उन पर अश्लील टिपण्णियां कहीं जाती हैं।

सामान्य रूप से सभी कहेंगे की लड़कों को सुधारना चाहिए। उन्हें किसी को छेड़ने का कोई हक नहीं हैं। ऐसी हरकत करने वालो को सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए। हम उनकी इस बात से पूर्ण रूप से रजामंद हैं मगर यह होगा कैसे।
पुरुष को जानवर बनाने के लिए जो भी सामग्री चाहिए सभी का बकायदा से इंतजाम किया जा रहा हैं।

1. जिस प्रकार से अश्लीलता को फिल्मों और मीडिया के माध्यम बढ़ावा दिया जा रहा हैं उसे देखते हुए तो किसी का भी मर्यादा में रहना असंभव हैं।
2. नैतिक शिक्षा की अनदेखी और केवल मात्र व्यावसायिक शिक्षा देने से चरित्रता के गुण का जीवन में समावेश होना असंभव हैं।
3. नशा मनुष्य को पशु बनाने में सर्वोपरि हैं। शराब, सिगरेट आदि नशे को आधुनिकता का जब तक प्राय: बनाकर पेश किया जायेगा तब तक सुधार असंभव हैं।
4. लिव-इन-रिलेशनशिप, समलैंगिकता, विवाहपूर्व एवं विवाहेतर आदि संबंधों को बढ़ावा देना जब तक बंद नहीं होगा तब तक सुधार असंभव हैं।
5. माँसाहार मनुष्य की वृत्तियों को बिगाड़ता हैं। शुद्ध एवं सात्विक भोजन से मनुष्य का चित शांत और व्यवहार प्रेमपूर्वक बनता हैं। उजुल-फिजूल तर्क देकर  माँसाहार का समर्थन किया जाना जब तक बंद नहीं होगा तब तक सुधार असंभव हैं।
6. बलात्कार के दोषी को बड़ी से बड़ी सजा देकर समाज में  जब तक उदहारण स्थापित नहीं होगा तब तक सुधार असंभव हैं।
7. आधुनिकता के नाम पर अर्ध नग्न कपड़ों को पहनना एवं देर रातों तक शराब पीने के लिए होटलों में घूमना जब तक बंद नहीं होगा तब तक सुधार असंभव हैं।

सन्देश यही हैं कि प्राचीन ऋषि मुनियों द्वारा जो मर्यादायें स्थापित की गई थी उनकी अवहेलना कर लोग यह सोच रहे हो कि आधुनिकता के नाम पर हम किसी भी नियम का पालन न करे और उसका कुछ भी गलत परिणाम न निकले तो यह अपने आपको अँधेरे में  रखने जैसा हैं। इसलिए नारीबाजी करनी बंद करे और उसके स्थान पर मर्यादा पूर्ण माहौल तैयार करे जिसमें छोटी छोटी बच्चियाँ आसानी से निर्भय होकर जी सके।

डॉ विवेक आर्य  

स्वामी श्रद्धानन्द एवं शुद्धि आंदोलन



आधुनिक भारत में "शुद्धि" के सर्वप्रथम प्रचारक स्वामी दयानंद थे तो उसे आंदोलन के रूप में स्थापित कर सम्पूर्ण हिन्दू समाज को संगठित करने वाले स्वामी श्रद्धानन्द थे। सबसे पहली शुद्धि स्वामी दयानंद ने अपने देहरादून प्रवास के समय एक मुस्लमान युवक की करी थी जिसका नाम अलखधारी रखा गया था। स्वामी जी के निधन के पश्चात पंजाब में विशेष रूप से मेघ, ओड और रहतिये जैसे निम्न और पिछड़ी समझी जाने वाली जातियों का शुद्धिकरण किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य उनकी पतित, तुच्छ और निकृष्ट अवस्था में सामाजिक एवं धार्मिक सुधार करना था। आर्यसमाज द्वारा चलाये गए शुद्धि आंदोलन का व्यापक स्तर पर विरोध हुआ क्यूंकि हिन्दू जाति सदियों से कूपमण्डूक मानसिकता के चलते सोते रहना अधिक पसंद करती थी। आगरा और मथुरा के समीप मलकाने राजपूतों का निवास था जिनके पूर्वजो ने एक आध शताब्दी पहले ही  इस्लाम की दीक्षा ली थी। मलकानों के रीती रिवाज़ अधिकतर हिन्दू थे और चौहान, राठोड़ आदि गोत्र के नाम से जाने जाते थे। 1922 में क्षत्रिय सभा मलकानों को राजपूत बनाने का आवाहन कर सो गई मगर मुसलमानों में इससे पर्याप्त चेतना हुई एवं उनके प्रचारक गावं गावं घूमने लगे। यह निष्क्रियता स्वामी श्रद्धानन्द की आँखों से छिपी नहीं रही। 11 फरवरी 1923 को भारतीय शुद्धि सभा की स्थापना करते समय स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा शुद्धि आंदोलन आरम्भ किया गया। स्वामी जी द्वारा इस अवसर पर कहा गया की जिस धार्मिक अधिकार से मुसलमानों को तब्लीग़ और तंज़ीम का हक हैं उसी अधिकार से उन्हें अपने बिछुड़े भाइयों को वापिस अपने घरों में लौटाने का हक हैं। आर्यसमाज ने 1923 के अंत तक 30 हजार मलकानों को शुद्ध कर दिया।
    मुसलमानों में इस आंदोलन के विरुद्ध प्रचंड प्रतिकिया हुई। जमायत-उल-उलेमा ने बम्बई में 18 मार्च, 1923 को मीटिंग कर स्वामी श्रद्धानन्द एवं शुद्धि आंदोलन की आलोचना कर निंदा प्रस्ताव पारित किया। स्वामी जी की जान को खतरा बताया गया मगर उन्होंने "परमपिता ही मेरा रक्षक हैं, मुझे किसी अन्य रखवाले की जरुरत नहीं हैं" कहकर निर्भीक सन्यासी होने का प्रमाण दिया। कांग्रेस के श्री राजगोपालाचारी, मोतीलाल नेहरू एवं पंडित जवाहरलाल नेहरू ने धर्मपरिवर्तन को व्यक्ति का मौलिक अधिकार मानते हुए तथा शुद्धि के औचित्य  करते हुए भी तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन के सन्दर्भ में उसे असामयिक बताया। शुद्धि सभा गठित करने एवं हिन्दुओं को संगठित करने का स्वामी जी का ध्यान 1912 में उनके कलकत्ता प्रवास के समय आकर्षित हुआ था जब कर्नल यू. मुखर्जी ने 1911 की जनगणना के आधार पर यह सिद्ध किया की अगले 420 वर्षों में हिन्दुओं की अगर इसी प्रकार से जनसँख्या कम होती गई तो उनका अस्तित्व मिट जायेगा। इस समस्या से निपटने के लिए हिन्दुओं का संगठित होना आवश्यक था और संगठित होने के लिए स्वामी जी का मानना था कि हिन्दू समाज को अपनी दुर्बलताओं को दूर करना चाहिए। सामाजिक विषमता, जातिवाद, दलितों से घृणा, नारी उत्पीड़न आदि से जब तक हिन्दू समाज मुक्ति नहीं पा लेगा तब तक हिन्दू समाज संगठित नहीं हो सकता।

       इसी बीच हिन्दू और मुसलमानों के मध्य खाई बराबर बढ़ती गई। 1920 के दशक में भारत में भयंकर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। केरल के मोपला, पंजाब के मुल्तान, कोहाट, अमृतसर, सहारनपुर आदि दंगों ने अंतर और बढ़ा दिया। इस समस्या पर विचार करने के लिए 1923 में दिल्ली में कांग्रेस ने एक बैठक का आयोजन किया जिसकी अध्यक्षता स्वामी जी को करनी पड़ी। मुसलमान नेताओं ने इस वैमनस्य का कारण स्वामी जी द्वारा चलाये गए शुद्धि और हिन्दू संगठन को बताया। स्वामी जी ने सांप्रदायिक समस्या का गंभीर और तथ्यात्मक विश्लेषण करते हुए दंगों का कारण मुसलमानों की संकीर्ण सांप्रदायिक सोच बताया। इसके पश्चात भी स्वामी जी ने कहा की मैं आगरा से शुद्धि प्रचारकों को हटाने को तैयार हूँ अगर मुस्लिम उलेमा अपने तब्लीग के मौलवियों को हटा दे। परन्तु मुस्लिम उलेमा न माने।
   इसी बीच स्वामी जी को ख्वाजा हसन निज़ामी द्वारा लिखी पुस्तक 'दाइए-इस्लाम' पढ़कर हैरानी हुई। इस पुस्तक को चोरी छिपे केवल मुसलमानों में उपलब्ध करवाया गया था। स्वामी जी के एक शिष्य ने अफ्रीका से इसकी प्रति स्वामी जी को भेजी थी। इस पुस्तक में मुसलमानों को हर अच्छे-बुरे तरीके से हिन्दुओं को मुस्लमान बनाने की अपील निकाली गई थी। हिन्दुओं के घर-मुहल्लों में जाकर औरतों को चूड़ी बेचने से, वैश्याओं को ग्राहकों में, नाई द्वारा बाल काटते हुए इस्लाम का प्रचार करने एवं मुस्लमान बनाने के लिए कहा गया था। विशेष रूप से 6 करोड़ दलितों को मुसलमान बनाने के लिए कहा गया था जिससे मुसलमान जनसँख्या में हिन्दुओं की बराबर हो जाये और उससे राजनैतिक अधिकारों की अधिक माँग करी जा सके। स्वामी जी ने निज़ामी की पुस्तक का पहले "हिन्दुओं सावधान, तुम्हारे धर्म दुर्ग पर रात्रि में छिपकर धावा बोला गया हैं" के नाम से अनुवाद प्रकाशित किया एवं इसका उत्तर "अलार्म बेल अर्थात खतरे का घंटा" के नाम से प्रकाशित किया।  इस पुस्तक में स्वामी जी ने हिन्दुओं को छुआ छूत का दमन करने और समान अधिकार देने को कहा जिससे मुस्लमान लोग दलितों को लालच भरी निगाहों से न  देखे। इस बीच कांग्रेस के काकीनाडा के अध्यक्षीय भाषण में मुहम्मद अली ने 6 करोड़ अछूतों को आधा आधा हिन्दू और मुसलमान के बीच बाँटने की बात कहकर आग में घी डालने का कार्य किया।
महात्मा गांधी भी स्वामी जी के गंभीर एवं तार्किक चिंतन को समझने में असमर्थ रहे एवं उन्होंने यंग इंडिया के 29 मई, 1925 के अंक में 'हिन्दू मुस्लिम-तनाव: कारण और निवारण' शीर्षक से एक लेख में स्वामी जी पर अनुचित टिप्पणी कर डाली। उन्होंने लिखा
                 "स्वामी श्रद्धानन्द जी भी अब अविश्वास के पात्र बन गये हैं। मैं जानता हूँ की उनके भाषण प्राय: भड़काने वाले होते हैं। दुर्भाग्यवश वे यह मानते हैं कि प्रत्येक मुसलमान को आर्य धर्म में दीक्षित किया जा सकता हैं, ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार अधिकांश मुसलमान सोचते हैं कि किसी-न-किसी दिन हर गैरमुस्लिम इस्लाम को स्वीकार कर लेगा। श्रद्धानन्द जी निडर और बहादुर हैं। उन्होंने अकेले ही पवित्र गंगातट पर एक शानदार ब्रहचर्य आश्रम (गुरुकुल) खड़ा कर दिया हैं। किन्तु वे जल्दबाज हैं और शीघ्र ही उत्तेजित हो जाते हैं। उन्हें आर्यसमाज से ही यह विरासत में मिली हैं।" स्वामी दयानंद पर आरोप लगाते हुए गांधी जी लिखते हैं "उन्होंने संसार के एक सर्वाधिक उदार और सहिष्णु धर्म को संकीर्ण बना दिया। "
  गांधी जी के लेख पर स्वामी जी ने प्रतिक्रिया लिखी की "यदि आर्यसमाजी अपने प्रति सच्चे हैं तो महात्मा गांधी या किसी अन्य व्यक्ति के आरोप और आक्रमण भी आर्यसमाज की प्रवृतियों में बाधक नहीं बन सकते। "
स्वामी जी सधे क़दमों से अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहे। एक ओर मौलाना अब्दुल बारी द्वारा दिए गए बयान जिसमें इस्लाम को न मानने वालो को मारने की वकालात की गई थी के विरुद्ध महात्मा गांधी जी कि प्रतिक्रिया पक्षपातपूर्ण थी। गांधी जी अब्दुल बारी को 'ईश्वर का सीदा-सादा बच्चा' और 'एक दोस्त' के रूप में सम्बोधित करते हैं जबकि स्वामी जी द्वारा कि गई इस्लामी कट्टरता की आलोचना उन्हें अखरती हैं। गांधी जी ने कभी भी मुसलमानों कि कट्टरता की आलोचना करी और न ही उनके दोषों को उजागर किया। इसके चलते कट्टरवादी सोच वाले मुसलमानों का मनोबल बढ़ता गया एवं सत्य एवं असत्य के मध्य वे भेद करने में असफल हो गए। मुसलमानों में स्वामी जी के विरुद्ध तीव्र प्रचार का यह फल निकला की एक मतान्ध व्यक्ति अब्दुल रशीद ने बीमार स्वामी श्रद्धानन्द को गोली मार दी उनका तत्काल देहांत हो गया।
स्वामी जी का उद्देश्य विशुद्ध धार्मिक था नाकि राजनैतिक था। हिन्दू समाज में समानता उनका लक्ष्य था। अछूतोद्धार, शिक्षा एवं नारी जाति में जागरण कर वह एक महान समाज की स्थापना करना चाहते थे। आज आर्यसमाज का यह कर्त्तव्य हैं कि उनके द्वारा छोड़े गए शुद्धि चक्र को पुन: चलाये। यह तभी संभव होगा जब हम मन से दृढ़ निश्चय करे की आज हमें जातिवाद को मिटाना हैं और हिन्दू जाति को संगठित करना हैं।

डॉ विवेक आर्य
स्वामी दयानंद फॉउन्डेशन, दिल्ली    

Sunday, December 14, 2014

Swami Sharddhananda and Mahatma Gandhi




Dr Vivek Arya

Introduction

Recently an incident from Agra is in limelight regarding “Back Home or Shuddhi” ceremony of few Muslim families by Dharma Jagran Smiti. Few of parliamentarians who belong to different political parties raised their voice against the event and said that it’s a planned attempt to disrupt the communal harmony. First of all we must understand the very concept of Shuddhi. Word Shuddhi means purification and the concept of Shuddhi ceremony is derived from Gobhil Sutra a treatise which guides for reunion in the main fold. Our country possesses a bitter history of invasions by Muslim’s as well as Christian’s leading to widespread conversion of local population mostly by forceful as well as unethical means. No one can deny this fact. Especially whosoever claims him or her as secular historian.
  In modern era the closed door for arrival of lost brothers was first opened after hundreds of year by Swami Dayanand Sarasvati who himself not even advocated but even performed Shuddhi of a Muslim young man in Dehradun and renamed him as Alakhdhari. Aryasamaj since its establishment was very keen and interested in working for the downtrodden and outcastes who were even victims of conversions especially by missionaries due to poor economic and social conditions. The work of Aryasamaj was widespread from  the Meghs of Sialkot to Rahtiya Sikhs of Jalandhar to Chamars of Delhi to Bhils of Chotanagpur to Santhals of Jharkhand Aryasamaj started its work with missionary zeal. This work of Aryasamaj was obviously opposed by many for whom our country was a good breeding ground for conversions. The name of Swami Sharddhananda is foremost among persons who campaigned for the Shuddhi movement.

Relation with Mahatma Gandhi

C.F. Andrews himself visited Gurukul Kangdi in those days and was influenced by its nationalistic concept and spiritual innovations. C.F. Andrews’s friendship with swami Ji brought him contact with Rabindranath Tagore and especially Mahatma Gandhi. When in 1913-1914 Gandhi asked Gokhle to collect funds to support South Africa Satyagraha, the Gurukul responded admirably, by foregoing some extra food and doing manual work at dam construction site students collected 1500 rupees for the fund. Gandhi wrote a personal letter of thanks to Munshiram, telling him how C.F. Andrews description of the Gurukul and its principal made him want to visit him soon. When the pupils of the phoenix ashram came to India, they spent several months at the Gurukul and in April 1915 Mahatma Gandhi himself arrived of his first visit. He said, ‘I am worthy of teaching anybody, but I yearn to learn myself from anyone who is a servant of his country.
When Mahatma Gandhi was praised for his role in Satyagraha in South Africa he said if you really want to praise someone than praise Munshiram ji who is sitting on the banks of Ganga in forest teaching the lesson of national pride to his students with full dedication and selflessness.  Mahatma Gandhi once said that he is eagerly waiting to visit India to meet three people one Munshiram of Kangdi other Rabindranath Tagore of Shanti Niketan and third Principal Rudra of St Stephen College. When Gandhi visited Munshiram in Gurukul Kangdi he was welcome by the Acharya’s and students of Gurukul. He describes the stature of Munshiram as tall as a mountain dwelling at a peaceful place. He was impressed by the peaceful atmosphere of Gurukul and love and affection shown by its members. Mahatma Gandhi was first introduced to Satyarth Prakash by freedom fighter Bhai Parmanand. When Bhai ji visited South Africa Gandhi ji asked him for a precious gift. Bhai ji gifted him a copy of Satyarth Prakash. Mahatma Gandhi replied that in a short span of just 11 years Swami Dayanand was able to spread the message of Vedas and wrote such splendid book of Satyarth Prakash. It’s only possible if one is practitioner of Celibacy an Aditya Brahamchari.
On political platform
The friendship between Mahatma Gandhi and Munshiram grew day by day. Both of them use to meet whenever they got opportunity. When Mahatma Gandhi launched Rowlett bill protest Swami Sharddhananda was attracted to it. Until 1919 swami ji has remained completely aloof from active politics unto that time. He did not have faith in political games. He considered them to be mere show. But when Gandhi ji entered the arena of politics with an approach to politics that included self-denial, the swami was deeply attracted .In response to Gandhi ji Rowlett bill protest (4 March, 1919) his joining of politics was instantaneous, and was sealed in his conversation with the Mahatma the following day. Overnight with his son Indra and Dr Ansari he addressed his first mass meeting followed by Bombay, Baroda, Surat, Broach and Ahmadabad.
On 30th march in Delhi a peaceful hartal turned into violent riots near railway station and chandni chowk leading to death of five persons and fourteen injured. Swami Ji arrived at both places after shooting and a peaceful public meeting was held as papal park. Swami Ji followed by large crowd were walking back home along chandni chowk. On the way group of Manipuri soldiers approached from the opposite direction. Accidentally a shot was fired, and the crowd moved in apprehension and indignation. The swami advanced towards the soldiers who were perplexed and scared by the threatening mass of people. Apparently their officers were not present and they also had difficulty understanding Hindi. They pointed their rifles at the swami, who bared his chest and invited them to fire. Luckily a European officer arrived on the scene and defused the situation. This incident firmly established the swami in people’s mind as an intrepid leader. It also planted in the swami’s mind the firm belief that he was able to control the crowd even in its ugliest mood. He wrote that the crowd could contain itself no longer and was about to rush, when a wave of my hand and a short appeal to their vow stopped them. This day was considered as “The Day of Delhi Martyrs”. The next day Newspapers were praising the leadership capability of Swami Ji with message from Mahatma Gandhi.
After the massacre of jallianwala bagh of Amritsar (1919) there was tension in whole Punjab. Congress committee yearly session was earlier planned in Amritsar but due to tension in Amritsar it was decided to be shift venue to other place. Swami Ji went to Allahabad in congress working committee meeting. He strongly argued that yearly venue of session should not be shifted and should remain in Amritsar. A committee comprising Swami ji, Motilal Nehru and Madan Mohan Malviya ji was appointed to inquiry into Punjab occurrences. Swami Ji tour to Punjab witnessed at close hand the misery and heart break that the excesses of the martial law regime had brought to his homeland. His reluctant decision to accept the office of chairman of the reception committee for the 1919 Amritsar session was partly caused by that experience, but the other reasons that prompted his acceptance clarify his attitude to politics at that time. He himself spelt out these reasons in his opening address at the congress session, “I am not standing on this platform today on account of a political movement, but for the fulfillment of a different type of duty.” the first reason why he was there was that he had been urged to take up this task by the imprisoned Punjabi leaders, and had been implored to do so by the wives of the political prisoners. The second reason he called my ashram and its duties, explaining it thus, up to today this Indian national congress has been carrying out normal political work, but today it has to climb to the summit of religion.
This conviction of the religious dimension of the movement had been strengthened by the advice Gandhi ji had given him in a letter saying “my conviction is that as long as we do not enter into the political field with dharmic aims, so long will we be unable to succeed in the pure and true amelioration of India. If you become the chairman of the reception committee, you will be able to introduce dharmic feelings within the congress” Thus we understand that it was a religious crusade that propelled the swami ji to political platform.
Difference in opinion
With the passage of time in political scenario differences between swami ji and mahatma Gandhi appeared on various issues. May it be the difference on participation in hunter commission or about Montague reforms? Swami Ji was dissatisfied by no cooperation movement, burning of foreign cloths, bardoli Satyagraha and monopoly of Gandhian methods of working, decision without consulting committee etc. These were minor issues but the main difference was on the issue of the untouchability and the Hindu Muslim relations.
Swami Ji opinion was the students and government officers must not sacrifice their studies and jobs in noncooperation movement as once the movement is over they will become beggars by ruining their successful carriers.
Swami Ji was also disturbed by the method of working of Gandhi Ji. Gandhi ji would himself form committee to discuss important issues and will issue orders without consulting the same committee ignoring their advices and recommendations.  Such monopoly method of working was disliked by many including Swami Ji.

Swami Ji and question of untouchables

Since his joining politics swami ji was continuously motivating Indian national congress to deal with the problem of untouchability at national level with extensive measures. In his chairman address of Amritsar congress (1919) he strongly expressed his feelings as “Is it not true that so many among you who make the loudest noises about the acquisition of political rights, are not able to overcome their feeling of revulsion for those sixty millions of India who are suffering injustice, your brothers whom you regard as untouchable ? How many are there who take these wretched brothers of theirs to their heart?…give deep thought…and consider how your sixty million brothers-broken fragments of your own hearts which you have cut off and thrown away- how these millions of children of mother India can well become the anchor of the ship of a foreign government. I make this one appeal to all of you, brothers and sisters. Purify your hearts with the water of the love of the motherland in this national temple, and promise that these millions will not remain for you untouchables, but become brothers and sisters. Their sons and daughters will study in our schools, their men and women will participate in our societies, in our fight for independence they will stand shoulder-to-shoulder with us, and all of us will join hands to realize the fulfillment of our national goal”

Swami Ji difference with Gandhi Ji increased with the passage of time when he draw attention of the congress towards the harassment of Christian Chamars by police in environs of Delhi who had accepted Suddhi and returned back to Hinduism by Aryasamaj. In April 1919 he published a booklet of eighty pages entitled ‘Jati ke dinon ko mat tyago’ (do not abandon the poor of our nation). Books first seventy pages dealt with the methods used by Christian missionaries in India. Nearly half of the book was taken up by translations from an article in the theosophist about the nefarious activities of Portuguese missionaries and the inquisition, followed by an indictment of protestant missionary work, in particular that of the Delhi Cambridge mission. Thus nearly ninety percent of the pamphlet was aimed at demonstrating missionaries had always used unfair, immortal and underhand mean. The last ten pages deled with constructive point. Since the untouchables were becoming Christians for other than religious reasons, the way to prevent those happenings was by educating their children, by protecting them from the police, and by helping them to achieve social uplift. Since the orthodox would not take up that task, it had become a duty of the Arya’s to be a crucial one because the greatest danger of the conversion of the untouchables to Christianity was that they became denationalized and supporters of the raj. The swami wrote “if the seven crores of untouchables of India, exasperated by the attitude of the twice born, become Christian , then our orthodox leaders, supporters of independence, will not be able to do anything, except be very sorry.”

In 1920 Calcutta congress session Swami Ji proposed three-point program with special section on the untouchables, but congress declared consideration of this inopportune. Swami Ji writes in liberator that “even Mahatma Gandhi had not realized its importance and was taken up with his resolution of non-violent non-cooperation resolution had been passed by the khilafat committee and Mahatma Ji threatened to sponsor it outside the congress, if it was not passed there. I thought it to be a misfortune if Mahatma Ji would be obliged to sever his connection with the oldest political movement in India”.
Swami Ji was surprised on hearing Maulana Shaukat Ali’s doings in Calcutta session in hearing of more than 50 persons, while the merits of non-violence were being discussed. Maulana said “Mahatma Gandhi is a shrewd bania. You do not understand his real object. By putting you under discipline, he is preparing you for guerilla warfare. He is not such an out-an-out non-violinist as you all suppose” .Swami Ji forwarded his message to Gandhi Ji secretary that his motives were being misrepresented by his trusted colleagues. The next year 1921 Nagpur session Swami Ji again noticed the same pranks being played by the big Ali brothers. In Delhi the Aryasamaj had been working for the depressed classes, and the swami tried to get the local congress to allow them access to the wells. But it was in vain.

Swami Ji reached Delhi on 17th august, 1921 and found that the question of removal of untouchability was becoming very acute. He called a few of chief chaudharies and asked the full story. They gave the following story. “The secretary of the Delhi congress committee called the chaudharies of the Chamars” and requested them to give to the congress as many as four-Anna paying members as they could. The reply of the elders was that unless their grievance as regards the taking of water from the public wells was removed, they could not induce their brethren to join the congress. The secretary was a choleric man of hasty temper and said they wanted Swarajya at once but the grievance of the Chamars could wait and would be removed by and by. One of the young men got up and said-our trouble from which we are suffering for centuries must wait solution, but the laddu of Swarajya must go into your mouth at once! We shall see how you obtain Swarajya immediately!!”

He wrote to Gandhi Ji after Nagpur session in sept. 1921-
“I wired from Lahore that I would apply for financial aid through the Delhi provincial congress committee but on reaching the deli I found that the uplift of the depressed classes through the congress was difficult. The Delhi and Agra Chamars simply demand that they be allowed to draw water from wells used by the Hindus and Mohammedans and that water be not served to them through bamboos and leaves. Even that appears impossible for the congress committee to accomplish. Not only this; a Muslim trader of sadar went to the length of saying that even if Hindus allowed (these man) to draw water from common wells, the Muslims would forcibly restrain them from drawing water because they (the Chamars) ate carrion. I know that there are thousands of these Chamars who do not either drink wine or eat flesh of any kind and few of them who eat carrion are being weaned by the aryasamajists from that filthy habit. But I ask do Hindu and Muslim meat eaters devour flesh of living cattle? Do they not eat the flesh of the cattle when they are dead?
At Nagpur you laid down that one of the conditions for obtaining Swarajya within 12 months was to give their rights to the depressed classes and without waiting for the accomplishment of their uplift, you have decreed that if there is a complete boycott of foreign cloth up till 30th September, Swarajya will be an accomplished fact on the 1st of October. The extension of the use of Swadeshi cloth is absolutely necessary but as long as six and half crores of our suppressed classes are taking refuge with the British bureaucracy so long will the extension of Swadeshi be impossible”.
Swami Ji in his letter dated June 30th 1922 wrote to general secretary of all India congress committee that the following demands of the depressed classes ought to be complied with at once namely that
They are allowed to sit on the same carpet with citizens of other classes
They get the right to draw water from common wells and
Their children get admission into national schools and colleges and are to mix freely with students drawn from the so-called higher castes.
Swami Ji went to the Lucknow A.I.C.C. meeting of June 1922 especially to push a plan of action for the removal of untouchability. His proposal to appoint a sub-committee on untouchability was accepted, but some parts of it were amended. The sum of two lakhs of rupees was first substituted for the original five lakhs proposed and then even that was watered down by substituting the phrase ‘as much as could be spared’. But misunderstandings kept cropping orally, but when he started preparatory work and asked for some money, he was informed that the working committee had appointed until a report had been received from the sub-committee. It was all a sorry mess, letters came and went, nothing was being done, and the swami resigned in disgust. His postscript to the whole story as follows -The subcommittee did no business in placing the annual report of the congress before its session at Gaya; the secretary simply remarked that no work could be done by the sub-committee as no substitute for Swami Sharddhananda could be found. Swami Sharddhananda did not receive any support from the congress and Mahatma Gandhi for eradicating the sin of untouchability. Instead of that he received the message from cocanada session of congress in which Maulana Mohammad Ali the president of that session proposed to divide the so-called untouchables in equal halves between Hindus and the Muslims.

Wooing the Muslims at any cost


Swami Ji has seen the difference in attitudes of Muslims during 1920-1922 on khilafat movement. Swami Ji got a clue from changes that this movement will change the focus of Swarajya to Islamic radicalism among Muslims and he was very much right in his views.
In khilafat conference at Nagpur the ayats (verses) of the Quran recited by Maulana on that occasion contained frequent references to jihad against and the killing of kafirs. But when Swami Ji drew Gandhi ji attention to this phase of the khilafat movement he smiled and said-“they are alluding to the British bureaucracy.” in reply swami Ji said that it was all subversive of the idea of non-violence and when revulsion of feeling came, the Mohammedan Maulana would not refrain from using these verses against the Hindus.
Mohammad Ali telegram to sultan of Kabul was deemed a very unwise move by swami Ji. In this telegram he had urged sultan to not to make peace with the British government.
Later In khilafat The Muslims were not in a mood to listen to the advice of Mr. Gandhi. They refused to worship the principle of non-violence. They were not prepared to wait for Swarajya. They were in a hurry to find the most expeditious means of helping Turkey and saving the Khilafat. And the Muslims in their impatience did exactly what the Hindus feared they would do; namely, invite the Afghans to invade India.
For a long time the congress had been engaged in wooing the Muslims to their side. The Congress was very anxious to bridge the gulf between itself and the Muslim League. The ways and means adopted in 1916 for bringing about this consummation and which resulted in the Lucknow Pact signed between the Congress and the Muslim League have been graphically told by Swami Sharddhananda in his impressions of the Congress Session held in that year at Lucknow. Swami Ji in Liberator, 22nd April 1926 writes “On sitting on the dais (Lucknow Congress platform) the first thing that I noticed was that the number of Moslem delegates was proportionately fourfold of what it was at Lahore in 1893. The majority of Moslem delegates had donned gold, silver and silk embroidered chogas (flowing robes) over their ordinary coarse suits of wearing apparel. It was rumored that these ‘chogas’ had been put by Hindu moneyed men for Congress Tamasha. Of some 433 Moslem delegates only some 30 had come from outside, the rest belonging to Lucknow City. And of these majorities was admitted free to delegate seats, board and lodging. Sir Saiyad Ahmad’s anti-Congress League had tried in a public meeting to dissuade Moslems from joining the Congress as delegates. As a countermove the Congress people lighted the whole Congress camp some four nights before the session began and advertised that that night would be free. The result was that all the “Chandul Khanas” of Lucknow were emptied and a huge audience of some thirty thousand Hindus and Moslems was addressed from half a dozen platforms. It was then that the Moslem delegates were elected or selected. All this was admitted by the Lucknow Congress organizers to me in private.

“A show was being made of the Moslem delegates. Moslem delegate gets up to second a resolution in Urdu. He begins: ‘Hazarat, I am a Mohammedan delegate.’ Some Hindu delegate gets up and a call for three cheers for Mohammedan delegates and the response is so enthusiastic as to be beyond description.”
To those Hindus who wanted to give their support on the condition that the Muslims give up cow killing, Mr. Gandhi in young India 10th December 1919 said “I submit that the Hindus may not open the Goraksha (cow protection) question here. The test of friendship is assistance in adversity, and that too, unconditional assistance. Co-operation that needs consideration is a commercial contract and not friendship. Conditional co-operation is like adulterated cement which does not bind. It is the duty of the Hindus, if they see the justice of the Mohammedan cause to render co-operation. If the Mohammedans feel themselves bound in honor to spare the Hindu’s feelings and to stop cow killing, they may do so, no matter whether the Hindus co-operate with them or not. Though therefore, I yield to no Hindu in my worship of the cow, I do not want to make the stopping of cow killing a condition precedent to co-operation. Unconditional co-operation means the protection of the cow.”

In 1921 Gandhi ji decided boycott of English cloths. He decided mass burning of foreign cloths. When swami ji came to know about this he wired to Gandhi ji saying to not to generate hatred against foreigners and to allow the discarded cloths to be distributed among the starving and the naked poor of India. C.R.Das, Nehru and others made a bonfire of cloth worth thousands while the khilafat Muslims got permission from Gandhi ji to send foreign cloth for use of their Turkish brethren. This again was a great shock to swami ji. While Gandhi ji stood adamant and did not have the least regard for Hindu feeling when a question of principle was involved, for the Muslim dereliction of duty there always a very soft corner in his heart. Swami Ji said that “I could not, for the life of me, understand the ethics of depriving our own poor millions of the means of covering their nudity, and sending the selfsame cloths to a distant land”

Congress and Gandhi Ji Silence on Moplah Riots

 Mr. Gandhi has been very punctilious in the matter of condemning any and every act of violence and has forced the Congress, much against its will to condemn it. But Mr. Gandhi has never protested against such murders. Not only have the Muslims not condemned these outrages but even Mr. Gandhi has never called upon the leading Muslims to condemn them. He has kept silent over them. Such an attitude can be explained only on the ground that Mr. Gandhi was anxious to preserve Hindu-Muslim unity and did not mind the murders of a few Hindus, if it could be achieved by sacrificing their lives. This attitude to excuse the Muslims any wrong, lest it should injure the cause of unity, is well illustrated by what Mr. Gandhi had to say in the matter of the Moplah riots.
The blood-curdling atrocities committed by the Moplah in Malabar against the Hindus were indescribable. All over Southern India, a wave of horrified feeling had spread among the Hindus of every shade of opinion, which was intensified when certain Khilafat leaders were so misguided as to pass resolutions of “congratulations to the Moplah on the brave fight they were conducting for the sake of religion.” Any person could have said that this was too heavy a price for Hindu-Muslim unity. But Mr. Gandhi was so much obsessed by the necessity of establishing Hindu-Muslim unity that he was prepared to make light of the doings of the Moplah’s and the Khilafat who were congratulating them. He spoke of the Moplah’s as the “brave God-fearing Moplah’s who were fighting for what they consider as religion and in a manner which they consider as religious.” Speaking of the Muslim silence over the Moplah atrocities Mr. Gandhi told the Hindus:
“The Hindus must have the courage and the faith to feel that they can protect their religion in spite of such fanatical eruptions. A verbal disapproval by the Muslims of Moplah madness is no test of Muslims friendship. The Muslims must naturally feel the shame and humiliation of the Moplah conduct about forcible conversions and looting, and they must work away so silently and effectively that such a thing might become impossible even on the part of the most fanatical among them. My belief is that the Hindus as a body have received the Moplah madness with equanimity and that the cultured Muslim’s are sincerely sorry of the Moplah perversion of the teaching of the Prophet.”

The Resolution passed by the Working Committee of the Congress on 16th January 1922 on the Moplah atrocities shows how careful the Congress was not to hurt the feelings of the Muslims.

“The Working Committee places on record its sense of deep regret over the deeds of violence done by Moplah’s in certain areas of Malabar, these deeds being evidence of the fact that there are still people in India who have not understood the message of the Congress and the Central Khilafat Committee, and calls upon every Congress and Khilafat worker to spread the said message of non-violence even under the gravest provocation throughout the length and breadth of India.

“Whilst, however, condemning violence on the part of the Moplah, the working Committee desires it to be known that the evidence in its possession shows that provocation beyond endurance was given to the Moplah and that the reports published by and on behalf of the Government have given a one-sided and highly exaggerated account of the wrongs done by the Moplah and an understatement of the needless destruction of life resorted to by the Government in the name of peace and order.

“The Working Committee regrets to find that there have been instances of so-called forcible conversion by some fanatics among Moplah, but warms the public against believing in the Government and inspired versions. The Report before the Committee says:
“‘The families, which have been forcibly converted into Mohammedanism, lived in the neighborhood of Manjeri. It is clear that conversions were forced upon Hindus by a fanatic gang which was always opposed to the Khilafat and Non-co-operation Movement and there were only three cases so far as our information goes.”

In the Liberator of 26th August 1926 the Swami Ji says:
“The first warning was sounded when the question of condemning the Moplahs for their atrocities on Hindus came up in the Subjects Committee. The original resolution condemned the Moplahs wholesale for the killing of Hindus and burning of Hindu homes and the forcible conversion to Islam. The Hindu members themselves proposed amendments till it was reduced to condemning only certain individuals who had been guilty of the above crimes. But some of the Muslim leaders could not bear this even. Maulana Fakir and other Maulana, of course, opposed the resolution and there was no wonder. But I was surprised, an out-and-out Nationalist like Maulana Hasrat Mohani opposed the resolution on the ground that the Moplah country no longer remained Dar-ul-Aman but became Dar-ul-Harab and they suspected the Hindus of collusion with the British enemies of the Moplahs. Therefore, the Moplahs were right in presenting the Quran or sword to the Hindus. And if the Hindus became Musalmans to save themselves from death, it was a voluntary change of faith and not forcible conversion—Well, even the harmless resolution condemning some of the Moplahs was not unanimously passed but had to be accepted by a majority of votes only. There were other indications also, showing that the Musalmans considered the Congress to be existing on their sufferance and if there was the least attempt to ignore their idiosyncrasies the superficial unity would be scrapped asunder.”

This inhuman defending of the barbaric Moplah atrocities prompted Annie Besant to comment bitterly as MALABAR AGONY in new India 29 nov.1921 as from that date [August 1] onwards thousands of the forbidden war-knives were secretly made and hidden away, and on August 20, the rebellion broke out; Khilafat flags were hoisted on police stations and Government offices. …The misery is beyond description. Girl wives, pretty and sweet, with eyes half blind with weeping, distraught with terror; women who have seen their husbands hacked to pieces before their eye, in the way “Moplah consider religious”, old women tottering, whose faces become written with anguish and who cry at a gentle touch and a kind look, waking out of a stupor of misery only to weep, men who have lost all, hopeless, crushed, desperate.
… I have walked among thousands of them in refugee camps, and sometimes heavy eyes would lift as a cloth was laid gently on the bare shoulder, and a faint watery smile of surprise would make the face even more piteous than the stupor. Eyes full of appeal, of agonized despair, of hopeless entreaty of helpless anguish, thousands of them camp after camp. …
Two Pulayas, lowest of the submerged classes were captured with others and were given the choice between Islam and Death. These outcastes of Hinduism the untouchables, so loved the Hinduism which had been so unkind a step-mother to them that they chose to die Hindus rather than to live Muslim. May the God of both, Muslim and Hindus send His messengers to these heroic souls, and give them rebirth into the Faith for which they died.

Madhvan Nair, secretary Calicut district congress committee had recorded the following in his report:
Can you conceive of a more ghastly and inhuman crime than the murder of babies and pregnant women? … A pregnant woman carrying 7 months was cut through the abdomen by a rebel and she was seen lying dead with on the way with the dead child projecting out … Another baby of six months was snatched away from the breast of the mother and cut into two pieces. … Are these rebels’ human beings or monsters?

Maulana Modini called the looting and killing of Hindus ‘military necessity’ while the high priest of Khilafat movement itself the then Congress High Command applauded Moplah for fighting devotedly for their religious cause in a way ‘they consider religious’.: Men who consider it “religious” to murder, rape, loot, to kill women and little children, cutting down whole families, have to be put under restraint in any civilized society.

One of the favorite myths of the pseudo-secularist is that Moplah atrocity was actually a rebellion against land-owners who ‘happened to be Hindus’. As demonstrated by the large number of swords and knives ornamentally decorated in their handles show how much money and careful planning had gone into these atrocities against Hindus. Annie Beasant report also shatters the myth that Moplah massacre in which by all moderate counts more than 5000 Hindus perished and many families dishonored and converted through sword and rapine, was not against just the ‘high-caste Hindus’ all Hindus -just because they were Hindus , were killed; infants were slaughtered before their mothers because they were born of Hindu parents.

Hindu Sangthan

Dissatisfied from the congress swami ji was attracted to Hindu Mahasabha on call of Pt Madan Mohan Malviya, Ghanshyam Das Birla etc. his eyebrows were raised on meeting colonel U. Mukherjee in Calcutta who said that the problem of slow but steady decrease in numbers of the Hindu population will lead to decline of Indo-Aryan race in next 420 years from earth.
The 2 April 1923 leader took up the idea of Hindu Sangthan and its proposed conference in Banaras. Swami Ji in his usual fashion announced a three point resolution for Hindu Sangthan -
With a view to do justices to the so-called depressed classes in the Hindu community and to assimilate them, as part of an organic whole in the great body of the Aryan fraternity, this conference of Hindus of all sects holds.

1.       That the lower among the depressed classes be allowed to draw water from common public wells.
2.       That water is served to them at drinking posts freely as is done to the highest among the Hindus.
3.       That all members of the classes be allowed to sit on the same carpet in public meetings and other ceremonies with the higher classes and
4.       That their children (male or female) be allowed to enter freely and, at teaching time, to sit in the same form with other Hindu and non-Hindu children in government, national and denominational institutions
5.       All neo-Muslims be taken back and treated as Hindus.
In view of the fact that an overwhelming majority of Indian Muslims and Christians are the descendants of Hindu converts and in view of the catholicity of the ancient Vedic dharma which absorbed non-Aryans into the community – this conference resolves that non-Hindus converted by any sect of the Hindus according to the purification (prayashchit) rite prescribed by the representative body of that sect be considered Hindus to all intents and purposes by the whole Hindu community.
Swami Ji dreamed of vast Hindu Sangthan and powerful movement in future for saving Aryan race.

Suddhi of the Malkanas Saving the Dying Race

Malkanas Rajput’s scattered around Mathura, Farrukhabad were nominally Muslims, but their cultural and rituals were all Hindu practices. There were attempts to restore relations between Malkanas and Hindu Rajput’s. On 13 Feb 1923 in Agra swami ji established Bhartiya Hindu Suddhi Sabha of which he was elected president and Lala Hansraj as vice president.

Swami Ji appeal for Suddhi appeared in leader dated 23 Feb. 1923 as
The great Arya nation is said at the present moment to be a dying race, not only because its numbers are dwindling but because it is completely disorganized. Individually man to man second to no nation on the earth in intellect and physique, possessing a code of morality unapproachable by any other race of humanity, it is still helpless on account of its divisions and selfishness. Lakhs upon lakhs of the best in the race have been obliged to profess Mohammedanism and thousands have been enticed away to accept Christianity without the least effort on the neo-Muslim Brahmans, Vaishyas, Rajputs and Jats have for more than two centuries and more been casting yearning glances and kept their Hindu faith and prejudices intact in the hope of being taken back in the bosom of their brotherhood.

A mere chance opened Hindu eyes, The Rajputs Mahasabha announced with a flourish of trumpets that four and a half lakhs Muslim Rajputs were ready for becoming Hindus. After having made this misleading announcement the Rajputs Sabha went to sleep. I call the announcement misleading because an overwhelming majority of them had never become Muslims in faith and practice. The Hindus went to sleep, but the Muslims being a living force were roused to action and scores of their preachers are at work for whose maintenance and propaganda work money is flowing like water. This after all roused the Hindu community also and there is now a cry from all sides for absorbing out strayed brethren in the bosom of the Vedic church, a new Sabha has been organized under the name of the Bhartiya Hindu Suddhi Sabha with the object of reclaiming those who are willing to come back to its fold.

Swami Ji in next 2 months marched from village to village claiming thirty thousand Suddhis by the year end. Naturally they became main target of Muslim agitation against Suddhi, a public meeting in Bombay was organized on 18th march 1923 by jamiat-ul-ulama condemning swami ji. Sensational posters appeared in many cities, and rumors spread that Muslims in dress of Hindu sadhus were going about frightening the Malkanas and heaping insults on the swami. Some Arya’s were afraid of an attack on their leader, and proposed to arrange a bodyguard for the threatened swami. But he refused with the words “pram pita (the father on high) is my protection”. In Moradabad Swami ji was barred from making public speeches and many in other places his addresses were answered by Muslim counter meetings.
Various leaders gave their personal opinion on Suddhi but none of them supported swami ji and Hindu Sangthan movement

Pt Motilal Nehru said in leader 8th April, 1923 that I would have been glad if the movement had not been started at this juncture when feelings are strained between Hindu and Muslims in the Punjab.
Maulana Abul Kalam Azad pointed that individuals had been harassed by Suddhi workers; the swami ji firmly denied their allegations in leader 5th, 6th may 1923.
Jawaharlal Nehru in leader 13th may.1923 said that it would have been better for this question not to have been taken up then, and he expressed the wish that all outsiders left the Malkanas in peace for a while and permitted them to work along their own lines.
On 31st march the Maharaja of Darbhangha, learned Pundits of Banaras from Bharat Dharma Mahamandal gave their approval to the reclamation of Malkanas Rajputs.
Undoubtedly the Suddhi step pioneered by Swami Dayanand ji and adopted by Aryasamaj under guidance of Swami Sharddhananda Ji saved millions of Hindus not even from being lost but also opened doors closed from centuries for entry of countless brothers who were lost with the cruel passage of time.

Mahatma Gandhi on Aryasamaj

On 29th may 1925 Gandhi Ji stated in young India under article Hindu – Muslim tension: Its cause and cure against Swami Sharddhananda “Swami Sharddhananda Ji is also disturbed. His speeches, I know, are often irritating. But even he wants Hindu Muslim unity. Unfortunately, he believes in the possibility of bringing every Muslim into Aryan fold. Just as perhaps most Muslims think that every non-Muslim will someday become a convert to Islam. Sharddhananda Ji is intrepid and brave. Single-handed he turned a wilderness into a magnificent boarding college on the banks of the sacred Ganges. He has faith in himself and his mission but he is hasty and easily ruffled. He inherits the traditions of the Aryasamaj”

Then he remarked on swami Dayanand and Satyarth Prakash -

I have profound respect for Dayanand Sarasvati. I think that he has rendered great service to Hinduism. His bravery was unquestioned. But he made his Hinduism narrow. I have read Satyarth Prakash, the Aryasamaj bible. Friends sent me three copies of it was residing in the yarvada jail. I have disappointing book from a reformer so great. He has claimed to stand for truth and nothing else. But unconsciously misrepresented Jainism, Islam and Hinduism itself. One having even a cursory acquaintance with these faiths could easily discover the error into which the great reformer was betrayed. He has tried to make narrow one of the most tolerant and liberal of the faiths on the face of the earth. And an iconoclast though he was, he has succeeded in enthroning idolatry in the subtlest form. For he has idolized the letter of the Vedas and tried to prove the existence in the Vedas of everything known to science. The Aryasamaj flourishes, in my humble opinion, not because of the inherent merit of the teachings of Satyarth Prakash, but because of the grand and lofty character of the founder.
“Is it to be contended that a book that has passed so many editions and has been translated in most of the languages of the world has been now found to contain matter which promotes feelings of enmity or hatred between different classes of his majesty’s subjects”
“So the question for me is not one of the merits or demerits of Satyarth Prakash but the more fundamental one of not interfering with freedom of writing and expression
He continued on Aryasamaj as -
“Wherever you find Aryasamajists, there is life and energy. But having the narrow outlook and a pugnacious habit, they either quarrel with people of other denominations or failing that, with one another. Sharddhananda Ji has a fair share of that spirit. But in spite of all these drawbacks, I do not regard him as past praying for. It is possible that this sketch of the Aryasamaj and the Swami Ji will anger them. Needless to say, I mean no offence. I love the Samajists, for I have many co-workers among them. And I learnt to love the Swami Ji, even while I was in South Africa. And though I know him better now, I love him no less. It is my love that has spoken”

The samaj did not see Gandhi ji words as an expression of love, it took enormous offence. Protest meeting were held across the country, letters of protest poured into the papers, and wires were sent to the mahatma. But he did not relent, or withdraw anything, or express regret about any of what he called deliberate accusations.

When swami Ji was asked if he would reply to Gandhi’s article he said that -
“ .. He did not think any reply was needed from him. His own statement was Mahatma Gandhi’s best refutation. It was full of contradictions, and itself explained the reason why he had fallen foul of the Aryasamaj. The Aryasamaj could not in any way be injured by his writings. If the aryasamajists were true to themselves neither the attacks of Mahatma Gandhi nor of any other individual could put a stop to the activities of the samaj”

Even after swami ji sacrifice Gandhi Ji remained biased for Aryasamaj and the father of the nation was not able wide his feelings on swami Sharddhananda. He responded to Hindu Mahasabha on appeal of memorial for swami Sharddhananda as “for my part I still remain unconvinced about the need of Suddhi movement, taking Suddhi in the sense it is generally understood. Suddhi of sinners is a perpetual inward performance. Suddhi of those who can be identified neither as Hindus nor as Muslims or who have been recently declared do not know even the meaning of conversion and who want to be known definitely as Hindus is not conversion but prayashchit or penance. The third aspect of Suddhi is conversion properly so called. And I question its use in this age of growing toleration and enlightment. I am against conversion whether it is known as Suddhi by Hindus, tabligh by Muslims or conversion by Christians. Conversion is a heart-process known only to and by god”
The time turned its fate. The eldest son of Mahatma Gandhi Hiralal Gandhi accepted Islam and renamed himself as Abdullah Gandhi. Wife of Gandhi ji Kasturba ji openly requested to Aryasamaj to bring back his lost son. Aryasamaj listen her request and Abdullah Gandhi was returned back to Hindu folds by Shuddhi Ceremony in Aryasamaj Mumbai.  Abdullah Gandhi was purified with the same ceremony which Gandhi Ji once criticized.

The Martyrdom

In March 1926 Swami Ji performed a Suddhi in Delhi that shook the Muslim community. A Muslim lady from Karachi, Asghari begum, arrived in the capital and asked Swami Ji to be converted to Aryan faith. She had read a lot about Hinduism, and had decided to undergo Suddhi and became a member of the Aryasamaj. Against will of her husband she had secretly left her home and made her way to Delhi with her children. The ceremony was duly performed; she was given the new name Shanty Devi, and with her children was put up in the Arya widow’s home. Months later her husband tracked her down in Delhi, and he attempted to persuade his wife to change her mind. When this proved unsuccessful, he instituted on 2 Sept. a law case against swami ji, shanty Devi, Swami Ji son Indra and Swami Ji son in law Dr Sukhdeo, for conspiracy in the abduction of his wife and children case was finally decided by the court on 4th December with clear acquittal of all the accused.
During these months Muslim community was in a ferment of indignant animosity over the incident. Some Muslim papers were violent in their condemnation of the swami, especially Hasan Nizami in his Darwesh. For months Indra was extremely concerned about the safety of his father, who stubbornly insisted on ignoring all threats and continued to take evening walks in the surrounding Muslim quarter.
In December from his trip to Banaras swami ji got very ill. He was diagnosed as bronchial pneumonia patient by Dr Sukhdeo and Dr Ansari. Swami Ji very weak and he realized that death has hovered close. Swami Ji said “this body is no longer capable of service. My wish is that I be reborn in India so that I can serve her again”
On 23rd Dec. Indra and others had paid their usual visit to swami ji around midday, and they left him to have some rest. Around 4 p.m. a Muslim called Abdul Rashid came to the house and asked to see the swami in order to discuss some problems of Islamic religion. Dharm Singh, Swami Ji personal attendant was inclined to refuse him access, but the visitor insisted. When the Swami called his attendant, and was told of the visitor, he invited him in and explained that he could not help him right away, but would be happy to do so later. The visitor then asked for a glass of water, and while Dharm Singh was taking his glass away, he rushed up to the swami ji and fired two bullets point-black into his chest. Dharm Singh came running and was shot in the thigh. The commotion brought Dharmpal, the swami’s secretary running. He overpowered the assassin and held him till the police arrived. (PITA p.283)Indra arrived within minutes, but the swami had died instantly. As he looked upon his father’s face, peaceful in death, Indra thought of these words the swami had uttered not long before. “Yet it is a source of contentment to me that I am singled out as the one worthy of wearing the crown of martyrdom”
25th Dec, 1926 witnessed the last journey of the great swami whose whole life was dedicated for the Vedic dharma. The crowd was uncontrollable through the streets of Delhi and his last riots were performed by Indra.
The need of Shuddhi Ceremony was relevant in those days and it’s still relevant today. Those who are opposing it are unaware of its use and just opposing to full fill their vested interests and political motives.
One question remained unanswered even today


WHO KILLED SWAMI SHARDDHANAND?