Thursday, October 31, 2013

आधुनिक भारत के चाणक्य लौह पुरुष सरदार पटेल





आज लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल की 138  वीँ जयन्ती है।इस अवसर पर भारत को कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, कच्छ से लेकर कोहिमा तक भारतवर्ष को ५२९ छोटी बड़ी देसी रियासतों से एक महान राष्ट्र का स्वरुप देने वाले भारत माँ के सच्चे सपूत सरदार पटेल का नमन करते हैं। अगर सरदार पटेल को लोह पुरुष के साथ साथ आधुनिक भारत का चाणक्य कहाँ जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। जिस प्रकार महान कूटनीतिज्ञ आचार्य चाणक्य ने एक समय भारत देश पर हुए सिकंदर रुपी विदेशी आक्रमण को न केवल रोका अपितु अनेक खण्डों में बटें देश को चन्द्रगुप्त मौर्य के नेतृत्व में एकछत्र राज्य में परिवर्तित कर दिया था,उसी प्रकार सरदार पटेल ने भारत देश से न केवल अँगरेज़ रुपी विदेशी आक्रमणकारियों को भगाया बल्कि उसे एक सूत्र में पिरो कर विश्व के एक मजबूत राष्ट्र में परिवर्तित किया। जिस प्रकार आचार्य चाणक्य की अर्थ शुचिता प्रसिद्द थी उसी प्रकार सरदार पटेल की अर्थ शुचिता से आज के नेताओं को भी सीख लेने की आवश्यकता हैं। आचार्य चाणक्य से एक बार एक विदेशी मिलने आये। उन्होंने आचार्य चाणक्य का नाम तो बहुत सुना था पर उनसे मिलना पहली बार हुआ था। उन्होंने देखा की आचार्य ने कुछ कार्य करने के बाद एक दीपक को बुझा दिया और दूसरे दीपक को जला दिया। उन्होंने आचार्य चाणक्य से पुछा दीपक बुझाने का कारण पुछा। आचार्य बोले की मैं पहले राजकार्य कर रहा था अब मैं स्वयं का कार्य कर रहा हूँ। पहले वाले दीपक में राज्य द्वारा दिया गया तेल जल रहा था,जबकि अब वाले दीपक में मेरे स्वयं के पैसों से ख़रीदा हुआ तेल जल रहा हैं। वह व्यक्ति चक्रवर्ती सम्राट बनाने वाले आचार्य की अर्थ शुचिता और ईमानदारी से प्रभावित होकर बिना कोई शब्द कहे वह से चला गया उसे उसका उत्तर मिल गया था की आचार्य चाणक्य क्यूँ महान हैं। सरदार पटेल की लड़की का नाम मणिबेन था। एक बार एक पुराने क्रन्तिकारी सरदार पटेल से मिलने गए। तब सरदार पटेल केंद्र में गृह मंत्री थे तो उन्होंने देखा की मणिबेन चरखे पर सूत काट रही थी और उन्होंने जो साड़ी पहनी थी उसमे कई स्थानों पर टांके लगे हुए थे। उन्होंने इसका कारण पूछा। मणिबेन ने कहाँ की जब पिताजी की धोती पुरानी हो जाती हैं अथवा फट जाती हैं तब में उसमे टांके लगाकर उसे साड़ी के रूप में इस्तेमाल कर लेती हूँ। वे क्रांतिकारी मन ही मन आधुनिक भारत देश को चक्रवर्ती राज्य बनाने वाले सरदार पटेल की सादगी और ईमानदारी से प्रभावित होकर धन्य कहकर चले  गए। हमारे प्रधान मंत्री जी सरदार पटेल को कांग्रेसी बता रहे हैं क्या वे बता सकते हैं कि कांग्रेस का कोई एक नेता, सांसद अर्थ शुचिता में सरदार पटेल का अनुसरण करता हो? आज के राजनेताओं को बड़े से बड़े घोटालों को करने की बजाय सरदार पटेल की अर्थ शुचिता से प्रेरणा लेकर देश को लूटने की बजाय उसकी तरक्की करने की प्रेरणा लेनी चाहिए।

डॉ विवेक आर्य

रावण और बाली का वध – कितना सही कितना गलत

bali killing by ram


कुछ अज्ञानी लोग यह कहते देखे जाते हैं की प्रभु राम द्वारा रावण को मारना गलत था क्यूंकि रावण तो अपनी बहन शूर्पनखा का जो अपमान राम और लक्ष्मण ने किया था उसका बदला ले रहा था। रावण तो इस प्रकार से वीर कहलाया जायेगा जिसने अपनी बहन के लिए अपने प्राणों को आहुति दे दी।

सर्वप्रथम तो रावण की बहन का चरित्र संदेह वाला हैं जो वन में किसी अन्जान विवाहित पुरुषों पर डोरे डालती हैं। ऐसा महिला को सभ्य समाज में चरित्रहीन ही कहाँ जायेगा।

राम और लक्ष्मण आर्य राजकुमार थे जिनके लिये आर्य मर्यादा का पालन करना सर्वोपरि था इसलिए उन्होंने जब शूर्पनखा का आग्रह ठुकरा दिया तो शूर्पनखा ने उसे अपना अपमान समझा और प्रसिद्द हिंदी मुहावरा अपमान करने को नाक काटना भी कहते हैं।

यह भी गलत प्रचारित कर दिया गया की शूर्पनखा की शारीरिक हानि लक्ष्मण द्वारा की गयी थी।

शूर्पनखा राक्षसराज रावण की बहन होने के कारण अहंकारी और दंभी दोनों थी। उस किसी की भी न सुनने की आदत नहीं थी।

शूर्पनखा के बहकावे में आकार रावण ने सीता का अपहरण कर वेद विरुद्ध कार्य किया।

एक और रावण द्वारा सीता का अपहरण करना दूसरी और वेदों का विद्वान होने हमें यह सन्देश देता हैं की केवल विद्वान होने से ही सब कुछ नहीं होता। उसके लिए आचरण होना भी अत्यंत आवश्यक हैं इसीलिए श्री राम द्वारा रावण वध यह सन्देश भी देता हैं की केवल शाब्दिक ज्ञान ही सब कुछ नहीं हैं आचरण सर्वोपरि हैं।

हमारे इस कथन का समर्थन स्वयं महाभारत भी इस प्रकार से करती हैं।

चारों वेदों का विद्वान , किन्तु चरित्रहीन ब्राह्मण शुद्र से निकृष्ट होता हैं, अग्निहोत्र करने वाला जितेन्द्रिय ही ब्राह्मण कहलाता हैं- महाभारत वन पर्व 313/111

यही तर्क बाली पर भी लागु होता हैं। बाली सुग्रीव से ज्यादा बलशाली था और किष्किन्धा का राजा था। उसने अपने बल के अहंकार में आकर सुग्रीव को अपने राज्य से निकल दिया और सुग्रीव की पत्नी को अपने महल में बंधक बना लिया।

कहने को बलि वीर था बलशाली था पर अत्याचारी था। उसके अत्याचार को समाप्त करना आर्य व्यवहार था। जो लोग यह कह कर श्री रामचंद्र जी की निंदा करने का प्रयत्न करते हैं की श्री राम जी ने छुप कर बलि को नहीं मरना चाहिए था वे शास्त्रों ने “शठे साच्यं समाचरेत” के सिद्धान्त को भूल जाते हैं जिसका अर्थ हैं “जैसे को तैसा”। बालि ने सुग्रीव पर अत्याचार किया और परनारी को अपने पास जबरदस्ती रखने का पाप कर्म किया उसकी सजा निति निपुण श्री राम जी महाराज ने उसे दी।

कुछ अज्ञानी लोग जानकर श्री राम जी की निंदा करने का प्रयास करते रहते हैं पर उनके मनोरथ कभी भी सिद्ध नहीं होते।

डॉ विवेक आर्य

अहल्या उद्धार का रहस्य

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एक कथा प्रचलित कर दी गयी हैं की त्रेता युग में श्री राम ने जब पत्थर बनी अहिल्या को अपने चरणों से छुआ तब वह पत्थर से मानव बन गई और उसका उद्धार हो गया।

प्रथम तो तर्क शास्त्र से किसी भी प्रकार से यह संभव ही नहीं हैं की मानव शरीर पहले पत्थर बन जाये और फिर चरण छूने से वापिस शरीर रूप में आ जाये।

दूसरा वाल्मीकि रामायण में अहिल्या का वन में गौतम ऋषि के साथ तप करने का वर्णन हैं कहीं भी वाल्मीकि मुनि ने पत्थर वाली कथा का वर्णन नहीं किया हैं। वाल्मीकि रामायण की रचना के बहुत बाद की रचना तुलसीदास रचित रामचरितमानस में इसका वर्णन हैं।

तीसरे दो विषयों पर विरोधाभास हैं एक की क्या अहिल्या इन्द्र द्वारा छली गयी थी अथवा दूसरा अहिल्या चरित्रवान नहीं थी?

इसका हल भी बालकाण्ड सर्ग 51 में गौतम के पुत्र शतानंद अपनी माता को यशस्विनी तथा देवों में आतिथ्य पाने योग्य कहा हैं।

49/19 में लिखा हैं की राम और लक्ष्मण ने अहिल्या के पैर छुए। यही नहीं राम और लक्ष्मण को अहिल्या ने अतिथि रूप में स्वीकार किया और पाद्य तथा अधर्य से उनका स्वागत किया। यदि अहिल्या का चरित्र सदिग्ध होता तो क्या राम और लक्ष्मण उनका आतिथ्य स्वीकार करते।

सत्य क्या हैं ।

विश्वामित्र ऋषि से तपोनिष्ठ अहिल्या का वर्णन सुनकर जब राम और लक्ष्मण ने गौतम मुनि के आश्रम में प्रवेश किया तब उन्होंने अहिल्या को जिस रूप में वर्णन किया हैं उसका वर्णन वाल्मीकि ऋषि ने बाल कांड 49/15-17 में इस प्रकार किया हैं

स तुषार आवृताम् स अभ्राम् पूर्ण चन्द्र प्रभाम् इव |
मध्ये अंभसो दुराधर्षाम् दीप्ताम् सूर्य प्रभाम् इव || ४९-१५

सस् हि गौतम वाक्येन दुर्निरीक्ष्या बभूव ह |
त्रयाणाम् अपि लोकानाम् यावत् रामस्य दर्शनम् |४९-१६

तप से देदियमान रूप वाली, बादलों से मुक्त पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा के समान तथा प्रदीप्त अग्नि शिखा और सूर्य से तेज के समान अहिल्या तपस्या में लीन थी।

सत्य यह हैं की देवी अहिल्या महान तपस्वी थी जिनके तप की महिमा को सुनकर राम और लक्ष्मण उनके दर्शन करने गए थे। विश्वामित्र जैसे ऋषि राम और लक्ष्मण को शिक्षा देने के लिए और शत्रुयों का संहार करने के लिए वन जैसे कठिन प्रदेश में लाये थे।

किसी सामान्य महिला के दर्शन कराने हेतु नहीं लाये थे।

कालांतर में कुछ अज्ञानी लोगो ने ब्राह्मण ग्रंथों में इन्द्र के लिए प्रयुक्त शब्द “अहल्यायैजार” के रहस्य को न समझ कर इन्द्र द्वारा अहिल्या से व्यभिचार की कथा गढ़ ली। प्रथम इन्द्र को जिसे हम देवता कहते हैं व्यभिचारी बना दिया। भला जो व्यभिचारी होता हैं वह देवता कहाँ से हुआ?

द्वितीय अहिल्या को गौतम मुनि से शापित करवा कर उस पत्थर का बना दिया जो असंभव हैं।

तीसरे उस शाप से मुक्ति का साधन श्री राम जी के चरणों से उस शिला को छुना बना दिया।

मध्यकाल को पतन काल भी कहा जाता हैं क्यूंकि उससे पहले नारी जाति को जहाँ सर्वश्रेष्ठ और पूजा के योग्य समझा जाता था वही मध्यकाल में वही ताड़न की अधिकारी और अधम समझी जाने लगी।

इसी विकृत मानसिकता का परिणाम अहिल्या इन्द्र की कथा का विकृत रूप हैं।

सत्य रूप को स्वामी दयानंद ने ऋग्वेदादीभाष्य भूमिका में लिखा हैं की यहाँ इन्द्र सूर्य हैं, अहिल्या रात्रि हैं और गौतम चंद्रमा हैं. चंद्रमा रूपी गौतम रात्रि अहिल्या के साथ मिलकर प्राणियो को सुख पहुचातें हैं. इन्द्र यानि सूर्य के प्रकाश से रात्रि अहिल्या निवृत हो जाती हैं अर्थात गौतम और अहिल्या का सम्बन्ध समाप्त हो जाता हैं.

इन सब तर्कों और प्रमाणों से यह सिद्ध होता हैं की अहिल्या उद्धार की कथा काल्पनिक हैं। अहिल्या न तो व्यभिचारिणी थी न ही उसके साथ किसी ने छल किया था। सत्य यह हैं की वह महान तपस्विनी थी जिनके दर्शनों के लिए , जिनसे ज्ञान प्राप्ति के लिए ऋषि विश्वामित्र श्री राम और लक्ष्मण को वन में गए थे।

डॉ विवेक आर्य

क्या विवाह के समय श्री राम चन्द्र जी की आयु 15 वर्ष और सीता जी की आयु 6 वर्ष थी?

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कुछ काल से श्री राम और सीता की विवाह के समय आयु पर एक शंका उठाई जाती रही हैं की क्या विवाह के समय श्री राम चन्द्र जी की आयु 15 वर्ष और सीता जी की आयु 6 वर्ष थी?

इस शंका को उठाने वालों में मुख्य रूप से वो लोग हैं जो मुहम्मद साहिब और आयशा के विवाह के समय आयशा की आयु जो उस समय केवल मात्र 6 वर्ष थी को सही मानने का प्रयास करते हैं।

हमारा उद्देश्य इस लेख में इस शंका का समाधान करना हैं की वास्तव में क्या विवाह के समय श्री राम चन्द्र जी की आयु 15 वर्ष और सीता जी की आयु 6 वर्ष थी?

प्रथम तो सीता जी की विवाह के समय 6 वर्ष आयु मानने का कारण वाल्मीकि रामायण में दिया गया एक श्लोक हैं जिसे अरण्य कांड 47/4,10 में सीता रावण को अपना परिचय देते हुए कहती हैं की मेरी आयु इस समय 18 वर्ष हैं , मैं 12 वर्ष ससुराल में रहकर, समस्त भोगों का उपभोग करके मैं राम-लक्ष्मण के साथ वन में आई हूँ। अर्थात विवाह के समय सीता जी की आयु केवल 18-12=6 वर्ष ही थी।

इस श्लोक को आधार बनाकर सीता जी की विवाह के समय आयु 6 वर्ष सिद्ध करने को हम रामायण आदि शास्त्रों से परीक्षा करेंगे।

1. जब ऋषि विश्वामित्र श्री राम और श्री लक्ष्मण को लेकर जनक राज के समक्ष पधारे तो उन्हें देखकर राजा जनक ने आश्चर्यचकित हो हाथ जोड़कर विश्वामित्र से पूछा – हे मुनिवर! गज और सिंह के समान चल वाले, देवताओं के समान पराक्रमी तथा अश्विनी कुमारों के समान सुन्दर, यौवन को प्राप्त कुमार कौन हैं।

सन्दर्भ – बालकाण्ड 50/17-19

इसी बालकाण्ड में सर्ग 48 राजा सुमति ने भी राम और लक्ष्मण को देखकर यौवन से भरपूर सुन्दर हथियार धारण किया हुआ कहा हैं।

(यहाँ श्री राम जी और श्री लक्ष्मण जी को कहाँ गया हैं। ऐसी अवस्था सुश्रत के अनुसार 25 वर्ष और की 16 वर्ष की आयु में ही होती हैं)

2. जब विश्वामित्र ने राजकुमारों की धनुष देखने की इच्छा व्यक्त की तो जनक ने सीता के विवाह के सन्दर्भ में धनुष भंग की चर्चा करते हुए कहा-

जब मेरी कन्या सीता वर्द्धमाना‘=प्राप्तयौवना हुई तो बहुत से राजा उसका हाथ माँगने आने लगे। पर सब असफल रहे।

सन्दर्भ – बालकाण्ड 66/15

(यहाँ सीता को यौवन प्राप्त युवती कहा गया हैं)

3. सीता ने अनसूया से कहा- पिता ने जब मेरी पति संयोग सुलभ अवस्था देखी तो उनको बड़ी चिंता हुई। मेरे पिता को वैसी ही चिंता हुई जैसा किसी दरिद्र के धन का नाश होने पर होती हैं।

सन्दर्भ- अयोध्या काण्ड118/34

(किसी भी पिता के मन में अपनी बेटी के विवाह की चिंता जब वह 6 वर्ष की होती हैं तब उत्पन्न होने का प्रश्न ही नहीं हैं)

4. अयोध्या पहुँचने पर सबसे मिलने- जुलने के बाद चारों राजकुमार अपनी अपनी पत्नियों को लेकर अपने अपने महल में रमण करने लगे।-अयोध्या काण्ड- 7/52

(6 वर्ष की राजकुमारी महलों में खेलने लायक होती हैं, न की पति के साथ रमण करने लायक!)

5. बालकाण्ड 6/29-31 में सीता की शारीरिक अवस्था को सम्पूर्ण युवती वाला बताया गया हैं।

6. तुलसी कृत रामचरितमानस में भी कहीं पर भी सीता जी की विवाह के समय आयु 6 वर्ष नहीं लिखी हैं।

इन सब से सिद्ध होता हैं की यह श्लोक मिलावटी हैं और

विवाह के समय श्री राम चन्द्र जी की आयु 15 वर्ष और सीता जी की आयु 6 वर्ष नहीं थी?

डॉ विवेक आर्य

Tuesday, October 29, 2013

स्वामी दयानंद और मेक्समुलर के वेद भाष्यों का तुल्नात्मक अध्ययन



  वेद शब्द का वर्णन होते ही आज के नौजवान या तो विदेशी विद्वानों जैसे मेक्समुलर, ग्रिफ्फिथ आदि को वेद आदि धर्म शास्त्रों को उनके योगदान के लिए प्रशंसित करते पाते हैं अथवा वैदिक धर्म के दूषित रूप आधुनिक पौराणिक मत को आँखों के सामने रखकर हमारे बहुत से अंग्रेजी शिक्षित युवक वेद मन्त्रों से घृणा करने लग जाते हैं. इसमें उन युवाओं का कसूर केवल यह हैं की उन्होंने स्वयं वेदों का स्वाध्याय अथवा वेदों के अधिकारी विद्वानों से उनके वास्तविक सत्य का ग्रहण नहीं किया हैं अपितु पश्चिमी विद्वानों ने जो कुछ भी लिख दिया हैं उसका अँधादुंध अनुसरण किया हैं . वेद विषय पर आज प्राय: सभी विश्व विद्यालयों में पश्चिमी विद्वानों के द्वारा किये गए कार्य पर ही शोध होता देखा जाता हैं. कहीं कहीं राजा रमेश चन्द्र दत (RC Dutt) अथवा राजेन्दर लाल मित्र (Rajender Lal Mitra) जैसे भारतीय विद्वानों का वर्णन आता हैं जो पश्चिमी विद्वानों का ही अनुसरण करते हुए दिखाई देते हैं. आधुनिक काल में वेद भाष्य विषय में सबसे क्रांतिकारी कदम स्वामी दयानंद द्वारा प्राचीन ऋषियों द्वारा जिस पद्यति से वेद भाष्य किया जाता था उसी पद्यति का अनुसरण करते हुए नवीन भाष्य संस्कृत और हिंदी में किया गया जिससे सामान्य जन वेद के मूलअर्थ को समझ सके.स्वामी दयानंद द्वारा वेद भाष्य करते हुए न केवल सायण महीधर के भाष्य का अवलोकन किया बल्कि मेक्समुलर आदि के भाष्य का भी अवलोकन किया. स्वामी दयानंद के अनुसार वेदों पर भाष्य करने के लिए सत्य प्रमाण, सुतर्क, वेदों के शब्दों का पूर्वापर प्रकरणों, व्याकरण आदि वेदांगों, शतपथ आदि ब्राह्मणों, पूर्वमीमांसा आदि शास्त्रों और शास्त्रन्तरों का यथावत बोध न हो और परमेश्वर का अनुग्रह, उत्तम विद्वानों की शिक्षा,उनके संग से पक्षपात छोड़ के आत्मा की शुद्धि न हो तथा मह्रिषी लोगों के किये गए व्याख्यानों को न देखें हो तब तक वेदों के अर्थ का यथावत प्रकाश मनुष्य के ह्रदय में नहीं होता. अपने कठिन अनुसन्धान से स्वामी दयानंद ने मेक्स मुलर आदि पश्चिमी विद्वानों के विषय में एक ही वाक्य में की जिन देशों में कुछ भी नहीं उगता वहां अरंडी को भी फसल के रूप में गिना जाता हैं से उनके ज्ञान की उचित परीक्षा कर दी थी.पश्चमी देशों के विद्वान भी उसी प्रकार अविद्वानों के बीच में कम ज्ञान होते हुए भी श्रेष्ठ विद्वान गिने जाने लगे. सबसे बड़ी विडम्बना हमारे यहाँ के विद्वानों को नकार कर पश्चिमी विद्वानों का अँधा अनुसरण करने से न केवल वेद के ज्ञान का उचित प्रकाश होने से रह गया अपितु उसके स्थान पर अनेक भ्रांतियां पहला दी गयी जो पश्चिमी विद्वानों की ही देन थी. उदहारण स्वरुप मेक्स मुलर के अनुसार आर्य लोगों को बहुत काल के पीछे ईश्वर का ज्ञान हुआ था और वेदों के प्राचीन होने का एक भी प्रमाण नहीं मिलता किन्तु इसके नवीन होने के अनेक प्रमाण मिलते हैं.मेक्स मूलर के अनुसार ऋग्वेद के मन्त्रों को केवल भजनों का संग्रह मानते हैं जो की जंगली वैदिक ऋषियों ने अग्नि, वायु, जल, मेघ आदि की स्तुति में बनाये थे और जिन्हें गाकर वे जंगलियों की भांति नाचा भी करते थे.सत्य यह हैं की ईश्वर द्वारा वेद ज्ञान के माध्यम से प्राचीन काल में ही अपना ज्ञान मनुष्य जाति को करवा दिया था. इसी प्रकार एक अन्य भ्रान्ति यह हैं की प्राचीन आर्य लोग अनेक देवताओं और भूतों की पूजा करते थे जबकि सत्य यह हैं की अग्नि,वायु, इन्द्र आदि नामों से उपासना के लिए एक ही परमेश्वर का ही ग्रहण किया गया हैं. मेक्स मुलर आदि पश्चिमी विद्वानों के अंग्रेजी में वेदों पर कार्य करने से विश्वभर के गंवेष्कों का ध्यान वेदों की और आकर्षित तो हुआ पर इससे वेदों का हित होने के स्थान अहित हुआ क्यूंकि इससे वेद में वर्णित सत्य , विज्ञान, ईश्वर का स्वरुप, मानव समाज के कर्तव्य आदि पर परिश्रम करने की बजाय वेदों में कोन-कोन सी व्यर्थ और निरर्थक बाते हैं (जिनका अस्तित्व ही नहीं हैं) इस पर पूरा ध्यान लगा दिया गया.वेदों को सचमुच बालकों की बुलबुलाहट तथा असभ्यों की घुरघुराहट ही समझ लिया गया. आलोचना का बाज़ार गरम हो गया.एक तरफ हमारे देश में वेदों के सम्बन्ध में निरर्थक व मिथ्या प्रचार हो गया, ईसाई समाज की संकीर्णता व पूर्वाग्रह भरी निति सफल होने को थी, आर्यावर्त का दर्शन और ब्रह्मा विद्या के साहित्य लुप्त होने के कगार पर थी ,लाखों भारतीय वेदों पर अश्रद्धा उत्पन्न होने से नास्तिक अथवा ईसाई बन्ने को तत्पर हो उठे थे ईश कृपा से यास्क, पाणिनि, पतंजलि और व्यास जैसे ऋषियों की तपोभूमि पर वेद रुपी भंवर में फँसी हुई नौका को निकलने के लिए एक माँझी ने प्रतिज्ञा कर अपना वेद भाष्य करने का प्रण किया उस माँझी का नाम स्वामी दयानंद था.
आईये मेक्समूलर महाशय द्वारा किये गए ऋग्वेद के भाष्य की तुलना अब हम स्वामी दयानंद द्वारा किये गए भाष्य से करते हैं जिससे पक्षपात रहित होकर सत्य का ग्रहण किया जा सके.
ऋग्वेद मंडल एक सूक्त ६ मंत्र १
मेक्स मूलर- वे जो की उसके चारों ओर खड़े हैं जब की वह करता हैं. प्रकाशमान लाल घोड़े को कसते हैं, आसमान में ज्योति चमकती हैं.
स्वामी दयानंद- जो मनुष्य की उस महान परमेश्वर को , जो की हिंसा रहित, सुख देने वाला, सब जगत को जानने वाला तथा सब चराचर जगत में भरपूर हो रहा हैं, उपासना, योग द्वारा प्राप्त होते हैं. वे उस प्रकाश स्वरुप परमात्मा में ज्ञान से प्रकाशित होकर (आनंद धाम में) प्रकाशित होते हैं.
ऋग्वेद मंडल एक सूक्त ६ मंत्र २
मेक्स मूलर – वे जंगी रथ को जोड़ते हैं. दोनों ओर उसके (इन्द्र के) दोनों मन को भानेवाले घोड़े भूरा व वीर
स्वामी दयानंद – जो विद्वान सूर्य ओर अग्नि के सबके इच्छा करने योग्य अपने अपने वर्ण के प्रकाश करनेहारे वा गमन के हेतु दृद विविध कला ओर जल के चक्र घुमने वाले पंखरूप यंत्रों से युक्त अच्छी प्रकार सवारियों में जुड़े हुए मनुष्य आदि को देश देशांतर में पहुँचाने वाले आकर्षण और वेग तथा शुकल पक्ष और कृष्ण पक्ष रूप दो घोड़े जिनसे सबका हरण किया जाता हैं, इत्यादि श्रेष्ठ गुणों को पृथ्वी, जल और आकाश में जाने- आने के लिए अपने रथों में जोड़े.
ऋग्वेद मंडल एक सूक्त ६ मंत्र ३
मेक्स मूलर – तू जो प्रकाश करता हैं जहाँ पर की प्रकाश न था और रूप और मनुष्यों ! जहाँ की कोई रूप न था. उषाओं के साथ उत्पन्न हुआ हैं.
स्वामी दयानंद – हे मनुष्य लोगों! जो परमात्मा अज्ञानरुपी अंधकार के विनाश के लिए उत्तम ज्ञान तथा निर्धनता, दारिद्र्य तथा कुरूपता- विनाश के लिए सुवर्ण आदि धन और श्रेष्ठ रूप को उत्पन्न करता हैं, उसको तथा सब विद्याओं को जो ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल वरतने वाले हैं उनसे मिल मिल कर जान के प्रसिद्द कीजिये. तथा हे जानने की इच्छा रखने वाले मनुष्य! तू भी उस परमेश्वर के समागम से इस विद्या को अवश्य प्राप्त हो.
ऋग्वेद मंडल एक सूक्त ६ मंत्र ४
मेक्स मूलर- उसके पश्चात उन्होंने (मरुतों के) स्वाभाव के अनुसार स्वयं पुन: नवजात शिशुयों का रूप धारण किया अपना पवित्र नाम लेते हुए.
स्वामी दयानंद- जो जल सूर्य व अग्नि के संयोग से चोर छोटा हो जाता हैं, उसको धारण कर मेघ के आकार का बनके वायु ही उसे फिर फिर वर्षाता हैं, उसी से सबका पालन औए सबको सुख होता हैं.
ऋग्वेद मंडल एक सूक्त ६ मंत्र ५
मेक्स मूलर- तूने हे इन्द्र, शीघ्र चलने वाले मरुतों के, जो की गढ़ को तोड़कर भी निकल जाते हैं, उनके छुपने के स्थान में भी चमकीली गउओं को पाया हैं
स्वामी दयानंद- जैसे बलवान पवन अपने वेग से भारी भारी दृद वृक्षों को तोड़- फोड़ डालते हैं और उनको ऊपर-नीचे गिराते रहते हैं, वैसे ही सूर्य भी अपनी किरणों से उनका छेदन करता रहता हैं, इससे वे ऊपर नीचे गिरते रहते हैं. इसी प्रकार ईश्वर के नियम से सब पदार्थ उत्पत्ति और विनाश को भी प्राप्त होते रहते हैं.
इन ५ मन्त्रों का हिंदी भाष्य यहाँ प्रस्तुत किया गया हैं जिनसे पाठक यह निष्कर्ष आसानी से निकाल सकते हैं की मेक्स मूलर महोदय का भाष्य शुष्क, निरर्थक, शुद्ध अर्थ का बोध न करने वाला हैं अपितु भ्रामक भी हैं.
वेदों का पूर्वाग्रह एवं अज्ञानता के कारण अशुद्ध भाष्य करने के बावजूद भी मेक्स मुलर की आत्मा में वेदों में वर्णित सत्य विद्या का कुछ कुछ प्रकाश अपने जीवन के अंतिम वर्षों में हुआ था जिसका उदहारण उन्ही के द्वारा लिखे गए कुछ प्रसंग हैं-
१. “नहीं, प्रत्युत मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं हैं की उपनिषदों तथा प्राचीन वेदांत दर्शन में प्रकाश की कुछ ऐसे किरणें विद्यमान हैं जो की उन अनेक विषयों पर प्रकाश डालेंगी जो की हमारे ह्रदय के अत्यंत निकट हैं “- सन्दर्भ- Chips from a German Workshop- vol 1 page 55
२. “जिस प्रकार वर्तमान काल का इतिहास अधुरा हैं मध्य युग के इतिहास बिना, मध्यकालीन इतिहास अधुरा हैं बिना रोम के इतिहास के , अथवा रोमे का इतिहास अधुरा हैं बिना यूनान के इतिहास के, इसी प्रकार हम पता करते हैं की इतिहास अधुरा समझा जावेगा बिना आर्य मानवता के उस प्रथम अध्याय (ऋग्वेद) के, जो की हमारे लिए वैदिक साहित्य में सुरक्षित किया गया हैं”- सन्दर्भ- The origin of Religion- page 149
३. भारत के प्राचीन साहित्य की बात कुछ और ही प्रकार हैं…वह साहित्य हमारे लिए मनुष्य जाति की शिक्षा का अध्याय खोल देता हैं जिसका उदहारण हमें कहीं अन्यत्र नहीं मिलता. जो व्यक्ति की अपनी भाषा अर्थात विचारों की उन्नति का सम्मान करता हैं, जो व्यक्ति की धर्म तथा मानवों की सर्वप्रथम वैचारिक अभिव्यक्ति को मान देता हैं, जो व्यक्ति की इन विद्यायों की प्रथम नींव को जानने का प्रथम इच्छुक हैं, जिन्हें की अर्वाचीन काल में ज्योतिष विद्या,चंद, व्याकरण व धातु के नाम से पुकारते हैं, जो व्यक्ति के दार्शनिक विचारों की आरंभिक अभिव्यक्ति को जानना चाहता हैं और साथ ही गृहस्थ, ग्रामीण तथा राजनैतिक जीवन आदि को, धार्मिक रीतियों, पुराण (ब्राह्मण ग्रन्थ) तथा समय के अनुसार चलने के आरंभिक प्रयत्नों को ज्ञात करना चाहता हैं, उसे भविष्य के लिए वैदिक कल के साहित्य पर वही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए जो की यूनान, रोम तथा जर्मनी के साहित्य पर किया जाता हैं.सन्दर्भ- India what it can teach us- Max Muller Page 79-80
४. धर्म के सम्बन्ध में भाषा की भांति कहा जा सकता हैं की इसमें प्रत्येक नई बात पुरानी तथा प्रत्येक पुरानी बात नई हैं और की सृष्टि के आदि से कोई भी धर्म सर्वथा नया नहीं निकला- सन्दर्भ- chips from a german workshop-preface page 4
५. आधुनिक युग के लिए केवल एक ही कुंजी हैं अर्थात अतीत काल -सन्दर्भ- chips from a german workshop-page 211
६. संसार का सच्चा इतिहास सदा कुछ व्यक्तियों का ही इतिहास हुआ करता हैं और जिस प्रकार हम हिमालय की ऊंचाई का अनुमान गौरीशंकर पर्वत (everest) से लगाते हैं, उसी प्रकार हमें इंडिया का सच्चा अनुमान वेदवक्ता कवियों, उपनिषदों के ऋषियों, वेदांत व सांख्य दर्शन के रचयिताओं तथा प्राचीन धर्म शास्त्रकारों से लेना चाहिए, न की उन करोरों व्यक्तियों से जो की अपने ग्राम में ही जन्म लेकर मर जाते हैं तथा जो की एक पल के लिए भी अपने ऊँघने से, जीवन के स्वप्न से कभी जागृत ही नहीं हुए- India what it can teach us- Max Muller पेज ७६.
आज संसार में भोग वाद का बोलबाला हो गया हैं , चारों तरफ अशांति,मत मतान्तर के झगडे, आतंकवाद, गरीबी, भूखमरी आदि फैल रहे हैं. इस अशांत मानव जाती को प्रभु के सत्य ज्ञान अर्थात वेद का सहारा मिल जाये तो समस्त मानव जाती का कल्याण हो जायेगा.

डॉ विवेक आर्य

Maxmuller – Christian Missionary exposed







1. Who was Maxmuller?

Maxmuller was a fugitive from Germany who in his youth was in extreme difficulty to earn even two square meals for him. (…Had not a penny left, and that in spite of every effort to make a little money, I should have had to return to Germany-ref –the life and letters of Maxmuller, vol.1, p.61, London edn.) He was a scholar extraordinary but his situation made him easy tool in the hands of Britishers. Maxmuller who had continuously suffered from want and youthful zeal and an insatiable ambition willingly agreed to prostitute his pen, intellect and scholarship for the filthy lucre the new job promised him plenty. (I am to hand over to the company, ready for the press, fifty sheets each year-the same I had promised to samter in Germany; for this I have asked 200 pounds a year, 4 pounds a sheet- ref. the life and letters of Maxmuller, vol.1, p.60-61, London edn.) He soon launched himself upon the project with the zeal and devotion that can be expected only from a religious zealot. He did his best to equate Hinduism with polytheism even though he had to invent for this purpose a new Jesuitical definition for the religion of the Rigveda.

2. Boden chair and its motives

Col. Joseph Boden one time Bombay colonel with the army of the east India Company wanted to do whatsoever lay in his power to help Christian missionaries to Christianize India in general and the Hindus in particular. So, after his retirement (in 1807) he donated 25,000 pounds to the university of oxford to enable it to found a chair of Sanskrit, which the university, justifiably and as a mark of gratitude, named after him. Boden objective was to enable his countrymen to proceed in the conversion of the natives of India to the Christian religion by providing translations of the bible into Sanskrit.

As Christianity is founded upon and wedded to trinitarianism it would not give up its belief in three gods except at grave peril to its very existence. The Christian missions wanted therefore as the only other alternative available to them, to show someone to the world at large that Hinduism was a polytheistic religious faith. Since the Hindus traced their monotheism back to the Vedas, to the Rig in particular, it was considered absolutely necessary that the concocted evidence in order to be readily acceptable to the Hindus must have behind it the sanction and authority of the Rigveda. Once the decision had been made and the target fixed the only thing that remained to be done was to find the right marksman. The search for the right man continued till Maxmuller happened to come their way. Maxmuller was a German and was not at all well versed with English, Sanskrit was far off. But he was a youth of 24 and this task assured him bread and butter for next eight years. In addition he had at his back the combined might of all those Christian missionaries who wanted to convert the Hindus of India to Christianity. These missionaries readily and willingly broadcast to the world whatever Maxmuller said and wrote and this went a long way to enhance Maxmuller’s prestige as a scholar.

3. Maxmuller meets Macaulay and its impact

Macaulay was born in a Presbyterian family and brought in rigid clapham sect of Christians so he was having a strong bias in favor of Christianity to the exclusion of all other religions- a prejudice from which he was not able to free himself even when he had grown into a matured man of 55 years. He came to India in 1834 with plans in his mind to introduce European education in combination with Christian doctrines so that Indians could more easily be made to accept the religion of Christ.

In feb.1835 he made English language the compulsory medium of instruction in all Indian schools. Very gleefully he writes to his father in his letter dated Oct. 12, 1836 “our English schools are flourishing wonderfully. We find it difficult – indeed, in some places impossible – to provide instructions for all who want it. At the single town of hoogle fourteen hundred boys are learning English. The effect of this education on the hindoos is prodigious. No hindoo, who has received an English education, ever remains sincerely attached to his religion. Some continue to profess it as a matter of policy; but many profess themselves pure deists, and some embrace Christianity. It is my firm belief that if, our plans of education are followed up, there will not be a single idolater among the respectable classes in Bengal thirty years hence. And this will be affected without any efforts to proselytize; without the smallest interference with religious liberty; merely by the natural operation of knowledge and reflection. I heartily rejoice in the prospects. Ref. the life and letters of Lord Macaulay, pp. 329-330”

In 1851 Maxmuller met Macaulay for first time for a short while in a party in London. He met him second time only in Dec. 1855 when he had with him long interview. In between Maxmuller wrote a pamphlet “suggestions for the assistance of officers in learning the languages of the seat of war in the east” in which he had stressed importance of learning oriental languages especially Sanskrit. Macaulay a mulish Christian and a rabid enemy of oriental languages and literature did not like the idea of Maxmuller. Maxmuller went to plead Macaulay the case for oriental studies forgetting the historian fact that it was Macaulay who had imposed on the Indian people English language with the covert purpose of language being used as a vehicle for converting people to Christianity. Maxmuller wrote to his mother about this encounter as “…I made acquaintance this time in London with Macaulay, and had along conversation with him on the teaching necessary for the young men who are sent out to India. He is very clear headed, and extraordinarily eloquent…I went back to oxford a sadder, and, I hope, a wiser man. Ref. –the life and letters of Maxmuller, vol.1, p.162, London edn”

Maxmuller profited very little because while he gathered pelf in accepting the company’s assignment he had, in the bargain, lost his soul. His writings took a different trend in as much as he became more active and less inhibited in praise of Christianity; of the bible and of Jesus Christ.

4. Maxmuller revealed himself as a Christian zealot

Maxmuller’s encounter with Macaulay left an indelible impact on Maxmuller. Despite his constant endeavors to hide his moves behind the secular mask of scholarship he too often gave himself away as a Christian proselytizer and evangelist. He had written a letter to Bunsen saying- “ …nevertheless I of course shall be glad if the Rigveda is dealt with in the Edinburgh review, and if Wilson would write from the standpoint of a missionary, and would show how the knowledge and bringing into light of the Veda would upset the whole existing system of Indian theology, it might become of real interest ”(The life and letters of Maxmuller, vol.1, p. 117, London edn.)

Maxmuller’s hidden mission even received support of influential missionaries and ecclesiastics like bishop of Calcutta and Dr. Pusey.

Bishop of Calcutta wrote to him (Maxmuller) “I feel considerable interest in the matter, because I am sure that it is of the greatest importance for our missionaries to understand Sanskrit, to study the philosophy and sacred books of the Hindus, and to be able to meet the pundits on their own ground. Among the means to this great end, none can be more important than your edition and professor Wilson’s translation of the Rigveda. It would be most fitting in my opinion for a great Christian university to place in its Sanskrit chair the scholar who has made the Sanskrit scriptures accessible to the Christian missionary.”
(The life and letters of Maxmuller, vol.1, p. 236-237, London edn.)

Dr. Pusey wrote to Maxmuller. “I cannot but think that your lectures on the Vedas… are the greatest gift which had been bestowed on those who would win to Christianity the subtle and thoughtful minds of the cultivated Indians.”
(The life and letters of Maxmuller, vol.1, p. 237-238, London edn.)

Monier-Williams who had become second professor of Boden Sanskrit chair revealed more in being a proselytizer than a scholar of Sanskrit. In his preface to a Sanskrit- English dictionary which he compiled he boastfully gave vent to his christianish zeal and aspirations in these words: ‘in explanation I must draw attention to the fact that I am only the second occupant of the Boden chair, and that its founder col. Boden, stated most explicitly in his will that the special object of his munificent bequest was to promote the translation of the scriptures into Sanskrit so as to enable his countrymen to proceed in the conversion of the natives of India to the Christian religion’

Today even people think Maxmuller as friend of Hindus; a scholar extraordinary in Vedas, the letter of Maxmuller written to his wife in 1866 exposed his aspirations.

“I hope I shall finish that work (translation of Rigveda), and I feel convinced, though I shall not live to see it, that this edition of mine and the translation of the Veda will hereafter tell to a great extent on the fate of India, and on the growth of millions of souls in that country. It is the root of their religion, and to show them what that root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung up from it during the last 3000 years”. (The life and letters of Maxmuller, vol.1, p. 328, London edn.)

“…The missionaries have done far more than they themselves seem to be aware of, nay, much of the work which is theirs they would probably disclaim. The Christianity of our nineteenth century will hardly be the Christianity of India. But the ancient religion of India is doomed- and if Christianity does not step in, whose fault it be?”
(The life and letters of Maxmuller, vol.1, p. 357-358, London edn.)

Inspite of the fact that the Vedas sings monotheism Christian missionaries tried to show polytheism in Vedas. Maxmuller wrote, “… When I undertook to publish for the university press a series of translations of the most important of these sacred books, one of my objects was to assist missionaries. What shall we think if a missionary who came to convert us, and who had never read our bible? …. But, it will be said, you cannot deny that the Hindus are polytheists, that they worship idols. But let us look at their own bible, at the Veda, older than any other book in India. No doubt we find there many names for the divine, many gods, as we are accustomed to say. But there are also passages in which the oneness of the deity is clearly asserted.”
(The life and letters of Maxmuller, appendix D p.455, London ed.)

The world at large now knows it too well that this scholar extraordinary who masqueraded all his lifetime from behind the secular mash of philology was more a Christian missionary than a scholar of the Vedas.

5. Maxmuller as a scholar of Vedas

Maxmuller is considered as one of the foremost scholar of Vedas worldwide. But was his level of knowledge in Sanskrit and English (both were not his mother tongue) sufficient to complete this task. He himself has agreed with Swami Dayanand that it is not an easy matter to interpret the Vedas. The language is different from the classical as well as colloquial Sanskrit.

Maxmuller himself was aware of his limits so he started making impressions that his translations were genuine, flawless and correct. When he revised his first edition, he reaffirmed that” he believed that the translators (of the Rig-Veda) ought to be decipherers.( Ref- sacred books of the east, vol. 12 introduction, p.9)” he even confessed his utter failure as translator by saying “no one who knows anything of the Veda would think of attempting a translation of it at present. A translation of the Rig-Veda is a task for the next century. He further added “not only shall we have to wait till the next century for such a work, but I doubt whether we shall ever obtain it ”(Ref- sacred books of the east, vol. 12 introduction, p.9)”.

Maxmuller was even unaware of Panini grammar who was constantly referred to by Sayana in his commentary of the rig-Veda .He writes in his autobiography, p.94 that “he (boehtling) could have done the whole work himself, in some respect better than I, because he was my senior, and besides, he knew Panini, the old Indian grammarian who is constantly referred to in Sayana’s commentary, better than I did)”. Maxmuller admitted his shortcomings as a scholar of Vedic Sanskrit as “over and over again was I stopped by some short enigmatical reference to Panini’s grammar or Yasaka’s glossary, which I could not identify…how often I was in prefect despair, because there was some allusion in Sayana which I could not make out, and which no other Sanskrit scholar, not even Bournouf or Wilson could help me to clear up. It often took me whole days, nay weeks, before I saw light” (ref- my autobiography, p.108-109).

Maxmuller played another plank by saying that “the great difficulty in all discussions of this kind arises from the fact that we have to transfuse though from ancient into modern forms. In that process some violence is inevitable (ref- lectures of the origin and growth of religion, p.245, fifth Hibbert lecture)”

It’s not uneasy to understand that violence was inevitable because all the while Maxmuller had been pre-resolved to translate the rig from the standpoint of a missionary. And a Christian missionary’s standpoint is, nearly always, only to denounce and denigrate every other religious faith except his own brand of Christianity.

6. Maxmuller and Swami Dayanand

Great Vedic scholar Swami Dayanand Saraswati in Satyarth Prakash p.278 as “the impression that the Germans are the best Sanskrit scholars, and that no one has read so much of Sanskrit as Prof Maxmuller, is altogether unfounded exposed Maxmuller. Yes, in a land where lofty trees never grow, even recinus communis or the castor oil plant may be called as oak…. I came to learn from a letter of a principal of some German university, that even men learned enough to interpret a Sanskrit letter are rare in Germany. I have also learnt from the study of Maxmuller’s history of Sanskrit literature and his comments on some mantras of the Veda, that prof. Maxmuller has been able to scribble out something by the help of the so-called tikas or paraphrases of the Vedas current in India” Swami Ji was supported in his view by famous German scholar Schopenhauer that our Sanskrit scholars do not understand their text much better than the higher class boys their Greek or Latin.

In the context of the commentary/translation of the Vedas by Max Muller, it will be relevant to point out the opinion of Mr. Boulanger, the editor of Russian edition of The Sacred Books of the East Series as follows:
“What struck me in Maxmuller’s translation was a lot of absurdities, obscene passages and a lot of what is not lucid”.
“As far as I can grab the teaching of the Vedas, it is so sublime that I would look upon it as a crime on my part, if the Russian public becomes acquainted with it through the medium of a confused and distorted translation, thus not deriving for its soul that benefit which this teaching should give to the people”.

Swami Dayanand translation of Vedas is based on Yasaka’s, Nirukta and Panini Ashtadhyyayi that have been considered and accepted throughout the ages and throughout the world as indispensable for correct comprehension. He specially elaborated spiritual meaning of Vedas

Maxmuller with fear of being exposed started attacking swami Dayanand not through the way as scholar does but like a shrewd clever mind after his death. He write to malabari that he had “wished to warn against two dangers, that of undervaluing or despising the ancient natural religion, as is done so often by your half-Europeanized youths, and that of overvaluing it, and interpretating it as it was never meant to be interpreted, of which you may see a painful instance in Dayanand Saraswati’s labors on the Veda. (Ref- the life and letters of Maxmuller, vol. 2, p.115, newyork edn).” He thought Dayanand had interpreted the Veda ought to have been interpreted. That the interpretation had to be from the standpoint of a missionary so that the translation would be of help in uprooting Hinduism and in the conversion of the Hindus to Christianity. He like a coward tried to smear Dayanand’s name after his death in these words “…but he indulged for a time in the use of bhang, hemp, which put him into a state of reverie from which he found it difficult to rouse himself”(ref- chips from a German workshop, vol.2, p.178). In a postscript Maxmuller added “from what has come to light after Dayanand Saraswati’s death, I am afraid that he was not simple-minded and straightforward on his work as a reformer as I imagined” ”(ref- chips from a German workshop, vol.2, p.182)

Though Christian missionary backed government of India purposefully to ignore Swami Dayanand in his times but it did not deter the lion-hearted Dayanand from his mission of reviving the Vedic dharma.

It’s very clear that Maxmuller was a Christian missionary but only in secular garb of a philologist whose main aim was to denounce the Vedas to clear way for Christian missionaries. Maxmuller masqueraded all his lifetime from behind the mask of literature and philology and mortgaged his pen, intellect and scholarship to wreck Hinduism but Swami Dayanand exposed his cruel plans.

Saturday, October 26, 2013

Universal Religion




Universal Religion

There is a hunger in every creature both physical and spiritual. The animal is contented with merely satisfying his physical hunger, but the aim of man should be to satisfy both kinds of hunger, for he cannot do without it. We appease our physical hunger by external means, but we have to adopt a different process to satisfy our internal hunger. The name of that process is religion. In this scientific age religion is rejected in favour of science. The fact that science can satisfy only our external needs and that it is inadequate for the purpose of internal needs is forgotten. God has created our senses externally as a result of our actions (Katha Up.iv.i).

 He is not to be blamed for that. It is the result of sinful actions. Therefore, it is desirable that we should turn our senses or desires inward. But if we follow science, instead of turning within we shall be turning more without. The great souls of Europe also had attained true peace from within and not from without. The first translation of the Upanishads into Latin in the year 1785 created a stir in Europe.

After going through it, Schopenhauer said: "It has been the solace of my life; it will be the solace of my death." Was this true peace gained from any scientific age? No, never.

This scientific age is a curse to the giant brains of the West. Being puzzled by its influence they want to get back to Nature, because they think that natural life will satisfy their internal needs and that they will gain true peace from it. Adolf Just, the learned German has written a book entitled, Return to Nature. In this he has proved beyond doubt that it is possible for man to satisfy his spiritual hunger by living a simple and religious life. Although London is a big city and one can have a direct view of the scientific discoveries as soon as one enters it, it was once written about it by the Bishop of Zanzibar, " London is a glorious city but is terribly in the hands of Satan”

 If you go through the works of Bacon, Cost, Goethe and other learned men, you will find them declaring that to obtain the internal hidden peace you must lead a natural and religious life. True peace will be yours from within your own self. We, the followers of the Vedic religion chant the hymn from Isvariya gyan Veda (The knowledge revealed by God), when engaged in our daily worship “Soma, the peace-incarnate, appearing in the heart of all, protects us in our helplessness" (Atharva, iii. 27. 4). The name of this process through which we achieve this soul-force or by which we satisfy our spiritual hunger, is religion. That religion should therefore be a Universal religion.

 We, the followers of the Vedic religion, believe that the Vedas are the fountain-head of that Universal religion. The original Vedas are four in number. They are the Rig-Veda, Yajur-Veda, Sama-Veda and the Atharva-Veda. These Vedas contain the knowledge of God. They were revealed in the holy souls of the Rishis Agni, Vayu, Aditya and Angiras respectively hand in hand with the creation of man. The different titles are kept according to the subjects mainly dealt with in each of them, namely knowledge (gyan),action (karma), devotion(upasana) and science(vigyna). The following mantra of the Vedas themselves bears testimony to the fact that they are the revealed knowledge of God"  

He by whom the Rig-Veda as well as the Yajur-Veda was created, on whose body the Sama-Veda is like hair (i.e. just as hairs grow naturally and are distributed all over the body of a man, in the same manner, peace, love and devotion cover God and come to Him naturally), Whose mouth is Atharva Angiras, He is the support of everyone and He is joyful. Thou says so"(Atharva, x. 7. 20). There are similar hymns in other Vedas as well, e.g., Rig-Veda, x. 90.9; Yajur-Veda, xxxi.7; AtharvaVeda, xi. 7. 24. These hymns lead us to the conclusion that the Vedas have been brought into being by God Himself. The Rishis preached the religion of the Vedas. They were called Rishis because they were the seers of the Vedas. When the Vedas began to be preached, they were written down. They are available now in the shape of books.

 The learned men are unanimously agreed on the point that the Vedas are the only religious books which are older than the oldest book which can be found in any library in the world. The religion based on the oldest religious book must necessarily be the oldest. That old religion is our religion of the Vedas, and this the Maharshi Dayananda accepted and preached everywhere.

 The Vedas are very old, so old that there is nothing older to dispute its antiquity, and the religion, based on them, which is also the most ancient is, according to the hymns of the Vedas themselves, given or revealed by God. That religion, indeed, can be a Universal religion. The name of that religion is " Arya Religion " or the " Vedic Religion." The cardinal principles taught in all the great religions of the world are traceable to the Vedas, and the great savant Prof. Max Muller therefore rightly says, " The Vedic religion was the only one, the development of which took place without any extraneous influences. Even in the religion of the Hebrews, Babylonian, Phoenician and at a later time Persian influences have been discovered" (India: What Can It Teach Us? P. 129).

 Our Sastras say, " Satyam jndnamanantam Brahma." First they teach, " Satyam" that Truth is supreme. Every action in this world is dependent on It. Go wherever you like, you will find everybody upholding his action under the shelter of this Truth.

Nay, a fraudulent merchant will ever talk of his trade as such and although speaking a falsehood will support himself in the name of truth. The falsehood of a liar is also dependent on truth. There is truth most supreme. Secondly the Sastras say that everyone must grid up his loins to attain Gyan(Knowledge), to seek and to know that Truth. The whole world is madly in search of truth. The businessman is trying to find out the truth the reality; the scientist wants to find out the truth of the physical world with the help of science; the religious man seeks to find out the real truth which, as a matter of fact, is only one, not many.

 The religion, which will continue to seek that one truth, no matter what method it follows, according to that truth, can, indeed, be a Universal Religion. Thirdly, the Sastras say that the knowledge of truth is anantam or endless. When everyone will believe in the endlessness of the knowledge of truth, then there will be no occasion for anybody to be indolent and doubtful. The Veda says "O Men, you, who are on the side of the truth, whose lives and aims are for the protection of truth, who are engaged in the establishment, furtherance and protection of truth, who by putting on a terrible appearance hate falsehood and try very hard for its destruction (that is, who are on the side of the truth against all chances and in all conditions and are even ready to give up your lives for its sake and are the haters of falsehood), O Men, let us all be under your happy protection and let the learned people also live under your shelter " (Rig-Veda, vii. 66. 13).

 In the Govil Grihya Sutra we have,"I go from falsehood to truth," " There is no greater religion than truth and there is no greater sin than falsehood." These sayings clearly point out that the love of truth is a necessity in a Universal Religion. What is that truth in religion? As a matter of fact there is truth in Unity and falsehood reigns where there is diversity. Truth must always be one. Maharshi Dayananda, the restorer of the Vedic religion and founder of the Arya Samaj writes in the Light of Truth thus

 (1) The world may be fully benefited if instead of taking sides, people would treat one another with love and accept the results arrived at by all religions, that is, the factors which are in accordance with and true in all, leaving the differences out (Preface).

 (2) May the Almighty Soul endow the souls of human beings with the power of unifying their opinions (Sub- preface).

 (3) Truths which are accepted by all are common to all.

Difference in opinion arises on false notions (Subpreface 3).

From these sentences it is perfectly evident that truth is one and differences are in the kingdom of falsehood. The Vedic religion aims at preaching that "truth" which is only one. The Vedic religion can be a "Universal religion" if it preaches that one truth alone.

 All great men, namely, the Buddha, the Christ, Mohammed, Sri Ramakrishna Paramahamsa, Swami Vivekananda, Guru Govind Singh, Jain Mahaprabhu, Chaitanya Mahaprabhu and Swami Dayananda tried to preach this one and only Truth.

 The Arya Samaj is not like many sects. Our religion is not related to any particular person. In our religion no gulf separates us men from the Supreme Being. We do not require any intermediary to lead us to the Supreme Being. Whether there be any belief in someone or not, we know this for certain that the direct faith in the Supreme Being is capable of relieving us from our miseries. In our religion a direct relation between us and the Supreme Being is possible and a man can purify his life by worshipping his Lord. Every man is responsible for his own actions pious or sinful, and is answerable for them. No one is answerable for anybody else's actions. Everybody shall have to suffer the consequences of his own actions.

 The Veda says "O Most Acceptable Lord, let us be yours, O Friend of all, let us be yours with other relatives and learned men, so that through your blessing we may gain the desired wealth of knowledge and the bliss of liberation from all bondage "(Rig-Veda, vii.66.93). Thus does the Veda indicate the direct relation between man and the Supreme Being. Such a religion only can be a Universal religion which preaches the direct worship of the Supreme Being instead of that of a particular person. Some philosophers may not think in terms of God, but they do believe in some superior power on which all their religious notions are based. No religion can rest content without this belief in the infinite power. Therefore, Count Tolstoy writes in What is Religion " Every religion regards men as equally insignificant compared to infinity."

 That Supreme Being Who is the source of all religions, is One. The Vedas abound in hymns mentioning the Oneness and indivisibility of the Supreme Being. The following are a few examples out of them:

 (1) " That only One Supreme Being created the earth and the heaven " (Rig-Veda, x. 8. 3).

 (2) " That One Who is the Lord of all the wealth and men dwelling upon the earth and is most adorable”(Rig-Veda, i. 7. 9).

 (3) " That Supreme Being is called neither the second nor the third, nor the fourth, nor the fifth, nor the sixth, nor the seventh, nor the eighth nor the ninth, nor the tenth. He, who believes this Supreme Being to be one, can possess Him "(Atharva, xiii. 4. 16-18).

 All these indicate the Unity of the Supreme Being.

 Some thinkers are of opinion that in the beginning of creation human beings led a wild life like the animals and that they supported themselves in the forests like the savage beasts. They feared the ravages of such phenomena as the rain, the fire, the violent wind and the sky and thinking that these deities had become angry, they used to make offerings to them of the same flesh that they took to appease their anger. Thus came into existence the worship of many gods and the religion originated in fear. But when we study the Vedas, the God-given original religion, the above view is proved to be thoroughly baseless. In the Vedas the names Agni, Vayu, Varuna, etc. are all synonymous with the Supreme Being, the difference in their use arising only in regard to the quality and relation, just as the same man is called the father, the brother and the son by different persons according as they stand related with him. The well-known Bishop Connate had originally this idea that the Vedic literature supports Polytheism. He devoted his life to the research of the Vedas. He was charmed when he saw the hymn in the Veda, in which it has been said that the same Sat or Truth is called by the names Indra, Mitra, Varuna, Agni, Divya, Suparna, Yama and Matartevan (Rig-Veda, i. 164. 46).

 In the same way, in a hymn of the Yajur-Veda, the One Supreme Being has been called by the names Agni, Aditya, etc.(Yajur~Veda t 32. i). As a result, that religion, which believes in the One Supreme Being Who is the source of all religions and preaches the Truth which is One, can necessarily become a Universal Religion.
Our Universal Religion teaches us to be friends with the world because our Lord, who is the source of our religion, is a Sarvamitra (Friend of all).

In a hymn of the Yajur-Veda (36. 18) the devotee prays to God to enable him to look upon all created beings as friends. It is written in the Vedas that we should treat not only men but every being as a friend. There is brotherhood and fellowship with all created beings. It is not confined only to humanity. The feeling of friendship is placed above brotherhood. Brothers may differ for rights, but a friend gives up his claim in favor of a friend. True love abides in true friends. Only through such friendly intercourse can the world gain true peace and the antagonism of religions be wiped out.

 To sum up, that religion which possesses the qualities delineated above can be a Universal Religion. It is a good sign of the times that all the faiths of the world are attempting through this august Parliament to find out the truth and essence of all religions. It will serve its purpose if it can induce all the people of the world to be friends with one another and wipe out antagonism from their minds, for all are sons of the same immortal Father (Sarve amritasya putrah).


(This lecture was delivered by Pt Sukhdev Vidyavachaspati of Arya Samaj Culcutta in 1937 in The international Parliament of Religions which was held at Calcutta for eight days from the 1st March, 1937 under the auspices of the Sri Ramakrishna Centenary Committee was perhaps the most important of all the items in the programme of the celebrations. Indeed, it was for the first time in the history of this country that such a congregation of distinguished men and women from different parts of the world took place on the soil of India.)

Friday, October 25, 2013

आखिर सहारा तो स्वामी दयानंद का ही लेना पड़ेगा



 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा १३ अक्टूबर को जयपुर में करीब १० हज़ार स्वयंसेवकों कि उपस्थिति में विजयादशमी दिवस बनाया गया। इस अवसर पर उद्बोधन देने के लिए जैन मुनि क्रान्तिकारी संत तरुण सागर को बुलाया गया था। जैन मुनि तरुण सागर कड़वे वचन देने के लिए प्रसिद्द हैं उनके भाषण के दो कड़वे वचन इस प्रकार थे:-
१. आज के युग में अगर कृष्ण बनोगे तो जूते खाने पड़ेगे।
२. एक तथाकथित संत ने श्री कृष्ण के समान रासलीला रचाई परिणाम स्वरुप वे सलाखों के पीछे हवा खा रहे हैं।

इन दोनों कड़वे वचनों में एक ओर श्री कृष्ण जी महाराज पर चरित्रहीन और रसिया होने का आक्षेप दबे शब्दों में किया गया हैं दूसरी और आशाराम बापू पर निशाना साधा गया हैं। वैसे कुछ वर्ष पहले मैंने स्वयं आस्था चैनल पर तरुण सागर को यह कहते सुना था कि महाभारत के काल में क्रांति के लिए एक कृष्ण कि आवश्यकता पड़ी थी, आज जब स्थिति पहले से भी अधिक विकट हैं, तब न जाने कृष्ण जैसे कितने क्रांतिकारी संतों कि आवश्यकता पड़ेगी। ध्यान दे कि तरुण सागर जी स्वयं को क्रन्तिकारी संत कहते हैं। और अब ठीक उन्ही के कथन के विपरीत तरुण सागर जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मंच से योगिराज श्री कृष्ण जी महाराज का किस प्रकार से महिमा मंडन कर रहे हैं पाठक स्वयं समझ गये होगे।
हमारे देश के इतिहास में किसी भी ऐतिहासिक पुरुष के नाम पर सबसे अधिक असत्य लाँछन अगर किसी के लगाये गये हैं, तो वो श्री कृष्ण जी महाराज हैं। विधर्मी, नास्तिक आदि लोग तो पहले ही श्री कृष्ण जी महाराज के विषय में ऐसी अनेक अनावश्यक टिपण्णी करते रहते हैं, मगर जैन मुनि द्वारा कहे गये इन कथनों के पीछे मुझे दो कारण  स्पष्ट प्रतीत होते हैं।

१. श्री कृष्ण जी महाराज के वास्तविक जीवन चरित से जैन मुनि कि अनभिज्ञता और प्रचलित पौराणिक कहानियों को उनके द्वारा सत्य मानना।
२. जैनसमाज के ग्रंथों में श्री कृष्ण जी महाराज के विषय में जैन लेखकों द्वारा नकारात्मक वर्णन।
 
आईये सप्रमाण इस विषय को समझने का प्रयास करे:-

.श्री कृष्ण जी महाराज के वास्तविक जीवन चरित से जैन मुनि कि अनभिज्ञता और उनके द्वारा प्रचलित पौराणिक कहानियों को सत्य मानना।
स्वामी दयानंद जी महाराज अपने अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश में श्री कृष्ण जी महाराज के बारे में लिखते हैं की पूरे महाभारत में श्री कृष्ण के चरित्र में कोई दोष नहीं मिलता एवं स्वामी जी ने उन्हें आपत (श्रेष्ठ) पुरुष कहाँ हैं। स्वामी दयानंद श्री कृष्ण जी को महान विद्वान सदाचारी, कुशल राजनीतीज्ञ एवं सर्वथा निष्कलंक मानते हैं फिर श्री कृष्ण जी के विषय में चोर, गोपिओं का जार (रमण करने वाला), कुब्जा से सम्भोग करने वाला, रणछोड़ आदि प्रसिद्द करना उनका अपमान नहीं तो और क्या हैं।

श्री कृष्ण जी के चरित्र के विषय में ऐसे मिथ्या आरोप का आधार क्या हैं? इनका आधार हैं पुराण।
पुराण में गोपियों से कृष्ण का रमण करना

विष्णु पुराण अंश ५ अध्याय १३ श्लोक ५९,६० में लिखा हैं
वे गोपियाँ अपने पति, पिता और भाइयों के रोकने पर भी नहीं रूकती थी रोज रात्रि को वे रति विषय भोगकी इच्छा रखने वाली कृष्ण के साथ रमण भोगकिया करती थी। कृष्ण भी अपनी किशोर अवस्था का मान करते हुए रात्रि के समय उनके साथ रमण किया करते थे।

 कृष्ण उनके साथ किस प्रकार रमण करते थे पुराणों के रचियता ने श्री कृष्ण को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी हैं।  भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय ३३ शलोक १७ में लिखा हैं

कृष्ण कभी उनका शरीर अपने हाथों से स्पर्श करते थे, कभी प्रेम भरी तिरछी चितवन से उनकी और देखते थे, कभी मस्त हो उनसे खुलकर हास विलास मजाककरते थे। जिस प्रकार बालक तन्मय होकर अपनी परछाई से खेलता हैं वैसे ही मस्त होकर कृष्ण ने उन ब्रज सुंदरियों के साथ रमण, काम क्रीड़ा विषय भोगकिया।
भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय २९ शलोक ४५,४६ में लिखा हैं

कृष्ण ने जमुना के कपूर के सामान चमकीले बालू के तट पर गोपियों के साथ प्रवेश किया। वह स्थान जलतरंगों से शीतल व कुमुदिनी की सुगंध से सुवासित था। वहां कृष्ण ने गोपियों के साथ रमण बाहें फैलाना, आलिंगन करना, गोपियों के हाथ दबाना, उनकी छोटी पकड़ना, जांघो पर हाथ फेरना, लहंगे का नारा खींचना, स्तन (पकड़ना) मजाक करना नाखूनों से उनके अंगों को नोच नोच कर जख्मी करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना और मुस्कराना तथा इन क्रियाओं के द्वारा नवयोवना गोपियों को खूब जागृत करके, उनके साथ कृष्णा ने रात में रमण (विषय भोग) किया।
ऐसे ही अभद्र विचार कृष्ण जी महाराज को कलंकित करने के लिए भागवत के रचियता नें स्कन्द १० के अध्याय २९,३३ में वर्णित किये हैं जिसका सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए मैं वर्णन नहीं कर रहा हूँ।

राधा और कृष्ण का पुराणों में वर्णन
राधा का नाम कृष्ण के साथ में लिया जाता हैं। महाभारत में राधा का वर्णन तक नहीं मिलता। राधा का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण में अत्यंत अशोभनिय वृतांत का वर्णन करते हुए मिलता हैं।

ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय ३ शलोक ५९,६०,६१,६२ में लिखा हैं की गोलोक में कृष्ण की पत्नी राधा ने कृष्ण को पराई औरत के साथ पकड़ लिया तो शाप देकर कहाँ हे कृष्ण ब्रज के प्यारे , तू मेरे सामने से चला जा तू मुझे क्यों दुःख देता हैं हे चंचल , हे अति लम्पट कामचोर मैंने तुझे जान लिया है। तू मेरे घर से चला जा। तू मनुष्यों की भांति मैथुन करने में लम्पट हैं, तुझे मनुष्यों की योनी मिले, तू गौलोक से भारत में चला जा। हे सुशीले, हे शाशिकले, हे पद्मावती, हे माधवों! यह कृष्ण धूर्त हैं, इसे निकल कर बाहर करो, इसका यहाँ कोई काम नहीं हैं।
ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय १५ में राधा का कृष्ण से रमण का अत्यंत अश्लील वर्णन लिखा हैं जिसका सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए में यहाँ विस्तार से वर्णन नहीं कर रहा हूँ।

ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय ७२ में कुब्जा का कृष्ण के साथ सम्भोग भी अत्यंत अश्लील रूप में वर्णित हैं।
राधा का कृष्ण के साथ सम्बन्ध भी भ्रामक हैं। राधा कृष्ण के बामांग से पैदा होने के कारण कृष्ण की पुत्री थी अथवा रायण से विवाह होने से कृष्ण की पुत्रवधु थी ,चूँकि गोलोक में रायण कृष्ण के अंश से पैदा हुआ था इसलिए कृष्ण का पुत्र हुआ जबकि पृथ्वी पर रायण कृष्ण की माता यशोधा का भाई था, इसलिए कृष्ण का मामा हुआ जिससे राधा कृष्ण की मामी हुई।  अजीब गड़बड़ झाला हैं

कृष्ण की गोपियाँ कौन थी?
पदम् पुराण उत्तर खंड अध्याय २४५ कलकत्ता से प्रकाशित में लिखा हैं की रामचंद्र जी दंडकारण्य वन में जब पहुचें तो उनके सुंदर स्वरुप को देखकर वहाँ के निवासी सारे ऋषि मुनि उनसे भोग करने की इच्छा करने लगे, उन सारे ऋषियों  ने द्वापर के अंत में गोपियों के रूप में जन्म लिया और रामचंद्र जी कृष्ण बने तब उन गोपियों के साथ कृष्ण ने भोग किया। इससे उन गोपियों की मोक्ष हो गई। वर्ना अन्य प्रकार से उनकी संसार रुपी भवसागर से मुक्ति कभी न होती।

क्या गोपियों की उत्पत्ति का दृष्टान्त बुद्धि से स्वीकार किया जा सकता हैं?
मेरे विचार से इन सभी प्रमाणों से यह आसानी से सिद्ध हो जाता हैं कि पुराणों ने श्री कृष्ण जी महाराज के चरित्र को बदनाम करने में किसी भी प्रकार से कोई कोर कसर छोड़ी नहीं हैं।

स्वामी दयानंद ने इसी कारण से भागवत के रचियता के विषय में कहा था कि क्यूँ वह माता कि कोख में नष्ट नहीं हो गया।
२. जैन ग्रंथों में श्री कृष्ण जी महाराज के विषय में जैन लेखकों द्वारा नकारात्मक वर्णन।

जैन समाज के ग्रंथों में श्री कृष्ण जी महाराज को नरक जाने वाला लिखा हैं।
एक और जैन ग्रन्थ विवेकसार में जैन साधु चाहे चरित्रहीन हो फिर भी स्वर्ग को जायेगा दूसरी और श्री कृष्ण जी महाराज के विषय में उन्हें नरक गामी लिखा हैं।

जैन मत का साधू चरित्रहिन हो, तो भी अन्य मत के साधुओं से श्रेष्ठ हैं। सन्दर्भ:- विवेकसार पृष्ठ १६८
श्रावक लोग जैनमत के साधुओं को चरित्रहीन भ्रष्टाचारी देखें, तो भी उनकी सेवा करनी चाहिए। सन्दर्भ:- विवेकसार पृष्ठ १७१

श्री कृष्ण तीसरे नरक में गया। सन्दर्भ:- विवेकसार पृष्ठ १०६
श्री कृष्ण वासुदेव ये सब ग्यारहवें, बाहरवें, चौदहवें,पंद्रहवें, अठारहवें, बीसवें और बाइसवें तीर्थंकरों के समय में नरक को गये। सन्दर्भ:- रत्नसार भाग १ पृष्ठ १७०- १७१

महापुराण के अंतर्गत उत्तर पुराण (गुणभद्राचार्यप्रणीत) के ५७ वें पर्व में त्रिपृष्ठ के नरकगामित्व का वर्णन:-
कृष्ण का जीव पहले अमृत रसायन हुआ, फिर तीसरे नरक में गया, उसके बाद संसार सागर में बहुत भारी भ्रमण कर यक्ष नाम का गृहस्थ हुआ, फिर निर्नामा नाम का राजपुत्र हुआ, उसके बाद देव हुआ और उसके बाद बुरा निदान करने के कारण अपने शत्रु जरासंध को मारने वाला, चक्ररत्न का स्वामी कृष्ण नाम का नारायण हुआ, इसके बाद प्रथम नरक में उत्पन्न होने के कारण बहुत दुखों का अनुभव करता रहा हैं और अंत में वहाँ से निकलकर समस्त अनर्थों का विघात करने वाला तीर्थंकर होगा। (७२/ २८०- २८१)- संपादक पंडित पन्नालाल जैन साहित्याचार्य

ऊपर लिखे सन्दर्भ से यही सिद्ध होता हैं कि व्यक्ति महान तभी कहलायेगा जब वह जैन तीर्थंकर होगा।
स्वामी दयानंद सत्यार्थ प्रकाश के १२ वें सम्मुलास में जैन ग्रंथों के कथन कि समीक्षा करते हुऐ लिखते हैं कि

"भला कोई बुद्धिमान पुरुष विचारे कि इनके साधु गृहस्थ और तीर्थकर, जिनमें बहुत से वेश्यागामी परस्त्रीगामी चोर आदि सब जैनमतस्थ स्वर्ग और मुक्ति को गये। और श्री कृष्ण आदि महाधार्मिक महात्मा सब नरक को गये। यह कहना कितनी बड़ी बुरी बात हैं।"
श्री कृष्ण जी महाराज का वास्तविक रूप

अभी तक हम पुराणों में वर्णित लम्पट, गोपियों के दुलारे, राधा के पति, रासलीला रचाने वाले कृष्ण के विषय, जैन ग्रंथों में श्री कृष्ण को नरकगामी आदि के विषय में पढ़ रहे थे जो निश्चित रूप से असत्य हैं.
अब हम योगिराज, निति निपुण, महान कूटनीतिज्ञ, तपस्वी श्री कृष्ण जी महाराज के सत्य रूप को जानेगे।
 आनंदमठ एवं वन्दे मातरम के रचियता बंकिम चन्द्र चटर्जी जिन्होंने ३६ वर्ष तक महाभारत पर अनुसन्धान कर श्री कृष्ण जी महाराज पर उत्तम ग्रन्थ लिखा ने कहाँ हैं की महाभारत के अनुसार श्री कृष्ण जी की केवल एक ही पत्नी थी जो की रुक्मणी थी, उनकी २ या ३ या १६००० पत्नियाँ होने का सवाल ही पैदा नहीं होता। रुक्मणी से विवाह के पश्चात श्री कृष्ण रुक्मणी के साथ बदरिक आश्रम चले गए और १२ वर्ष तक तप एवं ब्रहमचर्य का पालन करने के पश्चात उनका एक पुत्र हुआ जिसका नाम प्रद्युमन था। यह श्री कृष्ण के चरित्र के साथ अन्याय हैं की उनका नाम १६००० गोपियों के साथ जोड़ा जाता हैं। महाभारत के श्री कृष्ण जैसा अलोकिक पुरुष , जिसे कोई पाप नहीं किया और जिस जैसा इस पूरी पृथ्वी पर कभी-कभी जन्म लेता हैं। स्वामी दयानद जी सत्यार्थ प्रकाश में वहीँ कथन लिखते हैं जैसा बंकिम चन्द्र चटर्जी ने कहाँ हैं। पांडवों द्वारा महाभारत में जब राजसूय यज्ञ किया गया तो श्री कृष्ण जी महाराज को यज्ञ का सर्वप्रथम अर्घ प्रदान करने के लिए सबसे ज्यादा उपर्युक्त समझा गया जबकि वहां पर अनेक ऋषि मुनि , साधू महात्मा आदि उपस्थित थे। वहीँ श्री कृष्ण जी महाराज की यह श्रेष्ठता भी समझने योग्य हैं की उन्होंने सभी आगंतुक अतिथियो के धुल भरे पैर धोने का कार्य भार उस यज्ञ में लिया था। श्री कृष्ण जी महाराज को सबसे बड़ा कूटनितिज्ञ भी इसीलिए कहा जाता हैं क्यूंकि उन्होंने बिना हथियार उठाये न केवल दुष्ट कौरव सेना का नाश कर दिया बल्कि धर्म की राह पर चल रहे पांडवो को विजय दिलवाई थी।

इस लेख के माध्यम से मेरा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अथवा तरुण सागर मुनि का विरोध करना नहीं हैं अपितु यह सन्देश देना हैं कि जिस मंच के माध्यम से और जिस स्थान पर बैठ कर तरुण मुनि जी कृष्ण जी महाराज के बारे में असत्य कथन कह रहे हैं, उससे हिन्दू समाज का किसी भी प्रकार से भला नहीं हो सकता अपितु इससे भ्रम फैलता हैं। इसे हम दूरदृष्टि कि कमी और मत-मतान्तर कि संकीर्ण सोच का उदहारण ही कहेगे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी स्वामी दयानंद जी कि समाज सुधारक कुछ मान्यताओं का पालन तो कुछ हद तक करता हैं, परन्तु स्वामी जी के वेद आधारित अध्यात्मिक दृष्टिकौन को उतना महत्व नहीं देता। यही कारण हैं कि संघ कि विचारधारा को मानने वालों में धार्मिक मान्यताओं में एकात्मकता न होने के कारण धार्मिक क्षेत्र में संघ कि छवि हिंदुत्व के नाम पर पाखंड, अन्धविश्वास, कर्म काण्ड आदि को समर्थन देने वाली संस्था मात्र बन कर रह गया हैं। श्री कृष्ण जी महाराज के असत्य स्वरुप को मानोगे तो जूते उस काल में भी पड़ते, जब श्री कृष्ण जी इस धरती पर विराजमान थे और आज भी पड़ेगे, परन्तु अगर श्री कृष्ण जी महाराज के सत्य स्वरुप को मानोगे, तो आपका ही कल्याण होगा।
  अंत में मैं देश, धर्म और जाती के हित में एक ही बात कहना चाहूँगा कि इस प्रकार कि गलतियाँ दोबारा न हो इससे बचने के लिए एक ही उपाय हैं:-

                                    "आखिर सहारा तो स्वामी दयानंद का ही लेना पड़ेगा"