डॉ विवेक आर्य
वीर सावरकर को एक कथित नेता ने गद्दार कहा हैं। भारत देश की विडंबना देखिये जिन महान क्रांतिकारियों ने अपना जीवन देश के लिए बलिदान कर दिया। उन क्रांतिकारियों के नाम पर जात-पात, प्रांतवाद, विचारधारा, राजनीतिक हित आदि के आधार पर विभाजन कर दिया गया। इस विभाजन का एक मुख्य कारण देश पर सत्ता करने वाला एक दल भी रहा। जिसने केवल गांधी-नेहरू को देश के लिए संघर्ष करने वाला प्रदर्शित किया। जबकि जो क्रान्तिकारी कांग्रेस की विचारधारा से अलग रहकर कार्य कर रहे थे उनके योगदान की चर्चा कम ही सुनने को मिलती है। इस कारण से यह भ्रान्ति पैदा हो गई हैं कि देश को स्वतंत्रता गांधी जी/कांग्रेस ने दिलाई थी? सत्य यह हैं कि इस नये विकृत इतिहास में स्वाधीनता के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले, सर्वस्व समर्पित करने वाले असंख्य क्रांतिकारियों, अमर हुतात्माओं की पूर्ण रूप से उपेक्षा की गई हैं।
हमारे विचार की पुष्टि हमारे महान क्रांतिकारी करते है। पेशावर कांड के मुख्य क्रांतिकारी चन्द्र सिंह गढ़वाली भेंट वार्ता में कहते है। इस आज़ादी का श्रेय कांग्रेस देना कोरा झूठ हैं। मैं पूछता हूँ की ग़दर पार्टी, अनुशीलन समिति, एम.एन.एच., रास बिहारी बोस, राजा महेंदर प्रताप, कामागाटागारू कांड, दिल्ली लाहौर के मामले, दक्शाई कोर्ट मार्शल के बलिदान क्या कांग्रेसियों ने दिए हैं, चोरा- चौरी कांड और नाविक विद्रोह क्या कांग्रेसियों ने दिए थे? लाहौर कांड, चटगांव शस्त्रागार कांड, मद्रास बम केस, ऊटी कांड, काकोरी कांड, दिल्ली असेम्बली बम कांड , क्या यह सब कांग्रेसियों ने किये थे? हमारे पेशावर कांड में क्या कहीं कांग्रेस की छाया थी? अत: कांग्रेस का यह कहना की स्वराज्य हमने लिया, एकदम गलत और झूठ हैं। कहते कहते क्षोभ और आक्रोश से चन्द्र सिंह जी उत्तेजित हो उठे थे। फिर बोले- कांग्रेस के इन नेताओं ने अंग्रेजों से एक गुप्त समझोता किया था। जिसके तहत भारत को ब्रिटेन की तरफ जो 18 अरब पौंड की पावती थी, उसे ब्रिटेन से वापिस लेने की बजाय ब्रिटिश फौजियों और नागरिकों के पेंशन के खातों में डाल दिया गया। साथ ही भारत को ब्रिटिश कुम्बे (commonwealth) में रखने को मंजूर किया गया और अगले 30 साल तक नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद सेना को गैर क़ानूनी करार दे दिया गया। मैं तो हमेशा कहता हूँ- कहता रहूँगा की अंग्रेज वायसराय की ट्रेन उड़ाने की कोशिश कभी कांग्रेस ने नहीं की तो क्रांतिकारियों ने ही। हार्डिंग पर बम भी वही डाल सकते थे न की कांग्रेसी नेता। सहारनपुर-मेरठ- बनारस- गवालियर- पूना-पेशावर सब कांड क्रांतिकारियों से ही सम्बन्ध थे, कांग्रेस से कभी नहीं।
(सन्दर्भ- श्री शैलन्द्र जी का पांचजन्य के स्वदेशी अंक 16 अगस्त 1992 में लेख)
वीर सावरकर का यह चिंतन भी गढ़वाली जी की टिप्पणी को सिद्ध करता हैं जब उन्होंने कहा था की आज़ादी केवल अहिंसा से मिली हैं उन हज़ारों गुमनाम शहीदों का अपमान हैं जिन्होंने अत्याचारी अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष लिया एवं अपने प्राण तक न्योछावर कर दिए। भारतीय स्वतंत्रता के लिये आरम्भ से ही समय-समय पर भारत के विभिन्न भागों में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विप्लव होते रहे। भारतीय स्वतंत्रता के लिये आरम्भ से ही समय-समय पर भारत के विभिन्न भागों में अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विप्लव होते रहे। इसकी पुष्टि इस सूची को देखकर पता चलती हैं।
1757 से अंग्रेजी राज द्वारा जारी लूट तथा भारतीय किसानों, मजदूरों, कारीगरों की बर्बादी, धार्मिक, सामाजिक भेदभाव ने जिस गति से जोर पकड़ा उसी गति से देश के विभिन्न हिस्सो मे विद्रोंह की चिंगारियाँ भी फूटने लगीं, जो 1857 में जंग-ए-आजादी के महासंग्राम के रूप में फूट पड़ी। 1757 के बाद शुरू हुआ सन्यासी विद्रोह (1763-1800), मिदनापुर विद्रोह (1766-1767), रगंपुर व जोरहट विद्रोह (1769-1799), चिटगाँव का चकमा आदिवासी विद्रोह (1776-1789), पहाड़िया सिरदार विद्रोह (1778), रंगपुर किसान विद्रोह (1783), रेशम कारिगर विद्रोह (1770-1800), वीरभूमि विद्रोह (1788-1789), मिदनापुर आदिवासी विद्रोह (1799), विजयानगरम विद्रोह (1794), केरल में कोट्टायम विद्रोह (1787-1800), त्रावणकोर का बेलूथम्बी विद्रोह (1808-1809), वैल्लोर सिपाही विद्रोह (1806), कारीगरों का विद्रोह (1795-1805), सिलहट विद्रोह (1787-1799), खासी विद्रोह (1788), भिवानी विद्रोह (1789), पलामू विद्रोह (1800-02), बुंदेलखण्ड में मुखियाओं का विद्रोह (1808-12), कटक पुरी विद्रोह (1817-18), खानदेश, धार व मालवा भील विद्रोह (1817-31,1846 व 1852), छोटा नागपुर, पलामू चाईबासा कोल विद्रोह (1820-37), बंगाल आर्मी बैरकपुर में पलाटून विद्रोह (1824), गूजर विद्रोह (1824), भिवानी हिसार व रोहतक विद्रोह (1824-26), काल्पी विद्रोह (1824), वहाबी आंदोलन (1830-61), 24 परगंना में तीतू मीर आंदोलन (1831), मैसूर में किसान विद्रोह (1830-31), विशाखापट्टनम का किसान विद्रोह (1830-33), मुंडा विद्रोह (1834), कोल विद्रोह (1831-32) संबलपुर का गौंड विद्रोह (1833), सूरत का नमक आंदोलन (1844), नागपुर विद्रोह (1848), नगा आंदोलन (1849-78), हजारा में सय्यद का विद्रोह (1853), गुजरात का भील विद्रोह (1809-28), संथाल विद्रोह (1855-56) तक सिलसिला जारी रहा। 1857 का संघर्ष संयुक्त भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। नील विद्रोह (सन् 1850 से 1860 तक),कूका विद्रोह (सन् 1872),वासुदेव बलवंत फड़के के मुक्ति प्रयास (सन् 1875 से 1879),चाफेकर संघ (सन् 1897 के आसपास),बंग-भंग आंदोलन (सन् 1905),यूरोप में भारतीय क्रांतिकारियों के मुक्ति प्रयास (सन् 1905 के आसपास),अमेरिका तथा कनाडा में गदर पार्टी (प्रथम विश्वयुद्ध के आगे-पीछे),रासबिहारी बोस की क्रांति चेष्टा, हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ’ (सन् 1915 के आसपास), दक्षिण-पूर्व एशिया में आजाद हिंद आंदोलन,नौसैनिक विद्रोह (सन् 1946) आदि अनेक संघर्षों में से कुछ संघर्ष हैं जिनमें कांग्रेस या गांधीजी का कोई योगदान नहीं हैं। इसलिए इस बात को स्वीकार करना चाहिए की देश को आज़ादी हमारे महान क्रांतिकारियों के कारण मिली हैं नाकि कांग्रेस के कारण मिली हैं।
महात्मा गांधी जी निश्चित रूप से महान थे मगर अन्य का सहयोग भी कोई कम नहीं था। ,उनके योगदान को भुला देना कृतघ्नता है। उन क्रांतिकारियों को सम्मान पूर्वक श्रद्धांजलि देने का सबसे कारगर प्रयास यही होगा की निष्पक्ष रूप से इतिहास के पुनर्लेखन द्वारा उनके त्याग और समर्पण को आज की युवा पीढ़ी को अवगत करवाना चाहिए।जिन शहीदों के प्रयत्नों व त्याग से हमें स्वतंत्रता मिली, उन्हें उचित सम्मान नहीं मिला। अनेकों को स्वतंत्रता के बाद भी गुमनामी का अपमानजनक जीवन जीना पड़ा। ये शब्द उन्हीं पर लागू होते हैं-
उनकी तुरबत पर नहीं है एक भी दीया,जिनके खूँ से जलते हैं ये चिरागे वतन।
जगमगा रहे हैं मकबरे उनके, बेचा करते थे जो शहीदों के कफन।।
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