वैदिक पाँच महायज्ञ का परिचय
भाग 1 ब्रह्मयज्ञ (सन्ध्या)
पञ्चमहायज्ञ का फल यह है, की ज्ञान प्राप्ति से आत्मा की उन्नति और आरोग्यता होने से शरीर के सुख से व्यवहार और परमार्थ कार्यों की सिद्धि होना। उससे धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये सिद्ध होते हैं, इनको प्राप्त होकर मनुष्यों को सुखी होना उचित है। - (पञ्चमहायज्ञविधि)
न्यून से न्यून एक घण्टा ध्यान अवश्य करे। जैसे समाधिस्थ होकर योगी लोग परमात्मा का ध्यान करते हैं वैसे ही सन्ध्योपासन भी किया करें। - (सत्यार्थ प्रकाश, तृतीय समुल्लास)
सदा स्त्री-पुरुष १० दश बजे शयन और रात्रि के अन्तिम प्रहर अथवा ४ बजे उठके प्रथम ह्रदय में परमेश्वर का चिन्तन करके धर्म और अर्थ का विचार किया करें, और धर्म और अर्थ के अनुष्ठान वा उद्योग करने में यदि कभी पीडा भी हो, तथापि धर्मयुक्त पुरुषार्थ को कभी न छोडे, किन्तु सदा शरीर और आत्मा की रक्षा के लिए युक्त आहार-विहार, औषध-सेवन, सुपथ्य आदि से निरन्तर उद्योग करके व्यावहारिक और पारमार्थिक कर्त्तव्य कर्म की सिद्धि के लिए ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना भी किया करें, की जिससे परमेश्वर की कृपादृष्टि और सहाय से महाकठिन कार्य भी सुगमता से सिद्ध हो सकें। इसके लिए निम्नलिखित मन्त्र हैं: - (संस्कार-विधि)
प्रा॒तर॒ग्निं प्रा॒तरिन्द्रं॑ हवामहे प्रा॒तर्मि॒त्रावरु॑णा प्रा॒तर॒श्विना॑ । प्रा॒तर्भगं॑ पू॒षणं॒ ब्रह्म॑ण॒स्पतिं॑ प्रा॒तः सोम॑मु॒त रु॒द्रं हु॑वेम ॥
प्रा॒त॒र्जितं॒ भग॑मु॒ग्रं हु॑वेम व॒यं पु॒त्रमदि॑ते॒र्यो वि॑ध॒र्ता । आ॒ध्रश्चि॒द्यं मन्य॑मानस्तु॒रश्चि॒द्राजा॑ चि॒द्यं भगं॑ भ॒क्षीत्याह॑ ॥
भग॒ प्रणे॑त॒र्भग॒ सत्य॑राधो॒ भगे॒मां धिय॒मुद॑वा॒ दद॑न्नः । भग॒ प्र णो॑ जनय॒ गोभि॒रश्वै॒र्भग॒ प्र नृभि॑र्नृ॒वन्त॑: स्याम ॥
उ॒तेदानीं॒ भग॑वन्तः स्यामो॒त प्र॑पि॒त्व उ॒त मध्ये॒ अह्ना॑म् । उ॒तोदि॑ता मघव॒न्त्सूर्य॑स्य व॒यं दे॒वानां॑ सुम॒तौ स्या॑म ॥
भग॑ ए॒व भग॑वाँ अस्तु देवा॒स्तेन॑ व॒यं भग॑वन्तः स्याम । तं त्वा॑ भग॒ सर्व॒ इज्जो॑हवीति॒ स नो॑ भग पुरए॒ता भ॑वे॒ह ॥
- ऋग्वेद मण्डल-७, सूक्त-४१, मन्त्र-१,२,३,४,५, यजुर्वेद अध्याय-३४, मन्त्र-३४, अथर्ववेद ३.१६.१
तत्पश्चात् शौच, दन्तधावन, मुखप्रक्षालन करके स्नान करें। पश्चात् एकान्त स्थान में जाकर योगाभ्यास की रीति से परमात्मा की उपासना कर सूर्योदय पर्यन्त घर आकर सन्ध्योपासना करें।
प्रमाण:
ब्राह्मे मुहूर्त्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत्। कायक्लेशाँश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च ॥मनुस्मृति ४.९२॥
रात्रि के चौथे प्रहर अथवा चार घड़ी रात (सूर्योदय से ९६ मिनट पूर्व) से उठे। आवश्यक कार्य करके धर्म और अर्थ, शरीर के रोगों का निदान और परमात्मा का ध्यान करे। कभी अधर्म का आचरण न करे। क्योंकि—
नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव। शनैरावर्त्तमानस्तु कर्त्तुर्मूलानि कृन्तति ॥मनुस्मृति ४.१७२॥
किया हुआ अधर्म निष्फल कभी नहीं होता परन्तु जिस समय अधर्म करता है उसी समय फल भी नहीं होता। इसलिये अज्ञानी लोग अधर्म से नहीं डरते। तथापि निश्चय जानो कि वह अधर्माचरण धीरे-धीरे सुख के मूल को काटता चला जाता है।
अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिमास्थितः। सावित्रीमप्यधीयीत गत्वारण्यं समाहितः॥ - (मनुस्मृति २.१०४)
जङ्गल में अर्थात् एकान्त देश में जा सावधान हो के जल के समीप स्थित हो के नित्य कर्म को करता हुआ सावित्री अर्थात् गायत्री मन्त्र का उच्चारण अर्थज्ञान और उसके अनुसार अपने चाल चलन को करे परन्तु यह जन्म से करना उत्तम है।
सन्ध्या (ब्रह्मयज्ञ) के दो अर्थ होते हैं:
१) (सम + ध्या) जिसमें सम्यक प्रकार से परमात्मा का ध्यान होता है।
२) (सन्धि + आ) जब रात से दिन की सन्धि होती है, और जब दिन से रात की सन्धि होती है, उस समय परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना, उपासना करना।
सन्ध्या (ब्रह्मयज्ञ) इसके ३ अंग हैं:
१) तप (वाह्यवृत्ति प्राणायाम)
२) स्वाध्याय (ध्यान, स्वयं के कार्यों का निरीक्षण)
३) ईश्वर-प्रणिधान (दृढनिष्ठापूर्वक परमात्मा की स्तुति, प्रार्थना, उपासना)
सन्ध्या (ब्रह्मयज्ञ) के अन्तर्गत निम्नलिखित प्रकरण आते हैं:
०) मार्जन – शिर और नेत्रादि पर जल प्रक्षेप (यदि आलस्य न हो तो न करना) – (पञ्चमहायज्ञविधि)
१) न्यूनतम ३ वाह्यवृत्ति प्राणायाम “ओ३म्” के मानसिक जप सहित – (सत्यार्थ प्रकाश, तृतीय समुल्लास)
०) गायत्री मन्त्र द्वारा शिखा बन्धन (यदि केश न गिरें तो न करना) – (पञ्चमहायज्ञविधि)
२) आचमन-मन्त्र
३) इन्द्रिय-स्पर्श
४) ईश्वरप्रार्थनापूर्वक मार्जन-मन्त्र
५) प्राणायाम-मन्त्र सहित न्यूनतम ३ वाह्यवृत्ति प्राणायाम (समन्त्रक प्राणायाम)
६) अघमर्षण-मन्त्र
७) मनसा-परिक्रमा मन्त्र
८) उपस्थान-मन्त्र
९) गुरुमन्त्र (गायत्री-मन्त्र)
१०) समर्पण और नमस्कार-मन्त्र
प्रथम वाह्य जलादि से स्थूल-शरीर की शुद्धि और राग-द्वेष आदि के त्याग से भीतर की शुद्धि करनी चाहिए, इस में प्रमाण—
अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति। विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति॥ - (मनुस्मृति ५.१०९)
अर्थात् जल से शरीर के बाहर के अवयव, सत्याचरण से मन, विद्या और तप अर्थात् सब प्रकार के कष्ट भी सह के धर्म ही के अनुष्ठान करने से जीवात्मा, ज्ञान अर्थात् पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों के विवेक से बुद्धि दृढ़ निश्चय पवित्र होता है। इस से स्नान भोजन के पूर्व अवश्य करना।
दूसरा प्राणायाम, इसमें प्रमाण—
प्राणायामादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः॥ — योगदर्शन २.२८
अर्थात् जब मनुष्य प्राणायाम करता है तब प्रतिक्षण उत्तरोत्तर काल में अशुद्धि का नाश और ज्ञान का प्रकाश होता जाता है। जब तक मुक्ति न हो तब तक उसके आत्मा का ज्ञान बराबर बढ़ता जाता है।
दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां च यथा मलाः। तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्॥ - (मनुस्मृति ६.७१)
अर्थात् जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्णादि धातुओं का मल नष्ट होकर शुद्ध होते हैं वैसे प्राणायाम करके मन आदि इन्द्रियों के दोष क्षीण होकर निर्मल हो जाते हैं।
प्राणायाम की विधि—
प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य। — योगदर्शन १.३४
अर्थात् “जैसे अत्यन्त वेग से वमन होकर अन्न जल बाहर निकल जाता है वैसे प्राण को बल से बाहर फेंक के बाहर ही यथाशक्ति रोक देवे।“ जब बाहर निकालना चाहे तब मूलेन्द्रिय को ऊपर खींच के वायु को बाहर फेंक दे। जब तक मूलेन्द्रिय को ऊपर खींच रक्खे तब तक प्राण बाहर रहता है। इसी प्रकार प्राण बाहर अधिक ठहर सकता है। जब घबराहट हो तब धीरे-धीरे भीतर वायु को ले के फिर भी वैसे ही करता जाय जितना सामर्थ्य और इच्छा हो और मन में (ओ३म्) इस का जप करता जाय इस प्रकार करने से आत्मा और मन की पवित्रता और स्थिरता होती है।
इस से मनुष्य शरीर में वीर्य वृद्धि को प्राप्त होकर स्थिर, बल, पराक्रम, जितेन्द्रियता, सब शास्त्रों को थोड़े ही काल में समझ कर उपस्थित कर लेगा। स्त्री भी इसी प्रकार योगाभ्यास करे। भोजन, छादन, बैठने, उठने, बोलने, चालने, बड़े छोटे से यथायोग्य व्यवहार करने का उपदेश करें।
‘आचमन’ उतने जल को हथेली में ले के उस के मूल और मध्यदेश में ओष्ठ लगा के करे कि वह जल कण्ठ के नीचे हृदय तक पहुंचे, न उससे अधिक न न्यून। उसे कण्ठस्थ कफ और पित्त की निवृत्ति थोड़ी सी होती है। पश्चात् ‘मार्जन’ अर्थात् मध्यमा और अनामिका अंगुली के अग्रभाग से नेत्रादि अङ्गों पर जल छिड़के, उस से आलस्य दूर होता है जो आलस्य और जल प्राप्त न हो तो न करे।
(प्रश्न) त्रिकाल सन्ध्या क्यों नहीं करना?
(उत्तर) तीन समय में सन्धि नहीं होती। प्रकाश और अन्धकार की सन्धि भी सायं प्रातः दो ही वेला में होती है। जो इस को न मानकर मध्याह्नकाल में तीसरी सन्ध्या माने वह मध्यरात्रि में भी सन्ध्योपासन क्यों न करे? जो मध्यरात्रि में भी करना चाहै तो प्रहर-प्रहर घड़ी-घड़ी पल-पल और क्षण-क्षण की भी सन्धि होती है, उनमें भी सन्ध्योपासन किया करे। जो ऐसा भी करना चाहै तो हो ही नहीं सकता। और किसी शास्त्र का मध्याह्नसन्ध्या में प्रमाण भी नहीं। इसलिये दोनों कालों में सन्ध्या और अग्निहोत्र करना समुचित है, तीसरे काल में नहीं। और जो तीन काल होते हैं वे भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान के भेद से हैं, सन्ध्योपासन के भेद से नहीं। - (सत्यार्थ प्रकाश)
भाग 2 देवयज्ञ (हवन)
देवयज्ञ—जो अग्निहोत्र और विद्वानों का संग सेवादिक से होता है। सन्ध्या और अग्निहोत्र सायं प्रातः दो ही काल में करे। दो ही रात दिन की सन्धिवेला हैं, अन्य नहीं। यथा सूर्योदय के पश्चात् और सूर्यास्त के पूर्व अग्निहोत्र करने का भी समय है। उसके लिए एक किसी धातु वा मिट्टी की ऊपर 12 वा 16 अंगुल चौकोर उतनी ही गहिरी और नीचे 3 वा 4 अंगुल परिमाण से वेदी इस प्रकार बनावे अर्थात् ऊपर जितनी चौड़ी हो उसकी चतुर्थांश नीचे चौड़ी रहे।
उसमें चन्दन पलाश वा आम्रादि के श्रेष्ठ काष्ठों के टुकड़े उसी वेदी के परिमाण से बड़े छोटे करके उस में रक्खे, उसके मध्य में अग्नि रखके पुनः उस पर समिधा अर्थात् पूर्वोक्त इन्धन रख दे। प्रोक्षणीपात्र, प्रणीतापात्र, आज्यस्थाली अर्थात् घृत रखने का पात्र और चमसा (स्रुवा) सोने, चांदी वा काष्ठ का बनवा के प्रणीता और प्रोक्षणी में जल तथा घृतपात्र में घृत रख के घृत को तपा लेवे। प्रणीता जल रखने और प्रोक्षणी इसलिये है कि उस से हाथ धोने को जल लेना सुगम है। पश्चात् उस घी को अच्छे प्रकार देख लेवे फिर मन्त्र से होम करें।
अग्निहोत्र का वेदों में प्रमाण:
समिधाग्निं दुवस्यत घृतैर्बोधयतातिथिम्। आस्मिन् हव्या जुहोतन॥1॥ -य॰ अ॰ 3। मं॰ 1॥
अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे। देवाँ2॥ आ सादयादिह॥2॥ -य॰ अ॰ 22। मं॰ 17॥
सायं सायं गृहपतिर्नो अग्निः प्रातः प्रातः सौमनसस्य दाता। वसोर्वसोर्वसुदान एधि वयं त्वेन्धानास्तन्वं पुषेम॥3॥
प्रातः प्रातर्गृहपतिर्नो अग्निः सायं सायं सौमनसस्य दाता। वसोर्वसोर्वसुदान एधीन्धानास्त्वा शतं हिमा ऋधेम॥4॥
-अथर्व॰ कां॰ 19। अनु॰ 7। मं॰ 3। 4॥
अर्थात् (समिधाग्निं॰) हे मनुष्यो! तुम लोग वायु, औषधी और वर्षाजल की शुद्धि से सब के उपकार के अर्थ घृतादि शुद्ध वस्तुओं और समिधा अर्थात् आम्र वा ढाक आदि काष्ठों से अतिथिरूप अग्नि को नित्य प्रकाशमान करो। फिर उस अग्नि में होम करने के योग्य पुष्ट, मधुर, सुगन्धित अर्थात् दुग्ध, घृत, शर्करा, गुड़, केशर, कस्तूरी आदि और रोगनाशक जो सोमलता आदि सब प्रकार से शुद्ध द्रव्य हैं, उन का अच्छी प्रकार नित्य अग्निहोत्र करके सब का उपकार करो॥1॥
(अग्निं दूतं॰) अग्निहोत्र करनेवाला मनुष्य ऐसी इच्छा करे, कि मैं प्राणियों के उपकार करने वाले पदार्थों को पवन और मेघमण्डल में पहुंचाने के लिए अग्नि को सेवक की नाईं अपने सामने स्थापना करता हूं। क्योंकि वह अग्नि हव्य अर्थात् होम करने के योग्य वस्तुओं को अन्य देश में पहुंचानेवाला है। इसी से उसका नाम 'हव्यवाट्' है। जो उस अग्निहोत्र को जानना चाहैं, उन को मैं उपदेश करता हूं कि वह अग्नि उस अग्निहोत्र कर्म से पवन और वर्षाजल की शुद्धि से (इह) इस संसार में (देवां) श्रेष्ठ गुणों को पहुंचाता है।
दूसरा अर्थ - हे सब प्राणियों को सत्य उपदेशकारक परमेश्वर! जो कि आप अग्नि नाम से प्रसिद्ध हैं, मैं इच्छापूर्वक आप को उपासना करने के योग्य मानता हूं। ऐसी कृपा करो कि आप को जानने की इच्छा करनेवालों के लिये भी मैं आप का शुभगुणयुक्त विशेषज्ञानदायक उपदेश करूं। तथा आप भी कृपा करके इस संसार में श्रेष्ठ गुणों को पहुंचावें॥2॥
(सायंसायं॰) प्रतिदिन प्रातःकाल श्रेष्ठ उपासना को प्राप्त यह गृहपति अर्थात् घर और आत्मा का रक्षक भौतिक अग्नि और परमेश्वर, (सौमनसस्य दाता) आरोग्य, आनन्द और वसु अर्थात् धन का देने वाला है। इसी से परमेश्वर (वसुदानः) अर्थात् धनदाता प्रसिद्ध है। हे परमेश्वर! आप मेरे राज्य आदि व्यवहार और चित्त में सदा प्रकाशित रहो। यहां भौतिक अग्नि भी ग्रहण करने के योग्य है। (वयं त्वे॰) हे परमेश्वर जैसे पूर्वोक्त प्रकार से हम आप को मान करते हुए अपने शरीर से (पुषेम) पुष्ट होते हैं, वैसे ही भौतिक अग्नि को भी प्रज्वलित करते हुए पुष्ट हों॥3॥
(प्रातःप्रातर्गृहपतिर्नो॰) इस मन्त्र का अर्थ पूर्व मन्त्र के तुल्य जानो। परन्तु इस में इतना विशेष भी है कि-अग्निहोत्र और ईश्वर की उपासना करते हुए हम लोग (शतहिमाः) सौ हेमन्त ऋतु व्यतीत हो जाने पर्य्यन्त, अर्थात् सौ वर्ष तक, धनादि पदार्थों से (ऋधेम) वृद्धि को प्राप्त हों॥4॥
अग्निहोत्र करने के लिये, ताम्र या मिट्टी की वेदी बना के काष्ठ, चांदी वा सोने का चमसा अर्थात् अग्नि में पदार्थ डालने का पात्र और आज्यस्थाली अर्थात् घृतादि पदार्थ रखने का पात्र लेके, उस वेदी में ढांक वा आम्र आदि वृक्षों की समिधा स्थापन करके, अग्नि को प्रज्वलित करके, पूर्वोक्त पदार्थों का प्रातःकाल और सायंकाल अथवा प्रातःकाल ही नित्य होम करें।
अथाग्निहोत्रे होमकरणमन्त्राः -
सूर्य्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्य्यः स्वाहा॥1॥ सूर्यो वर्च्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा॥2॥
ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योति: स्वाहा॥3॥ सजूर्देवेन सवित्रा सजूरुषसेन्द्रवत्या। जुषाणः सूर्यो वेतु स्वाहा॥4॥
-इति प्रातःकालमन्त्राः॥
अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा॥1॥ अग्निर्वर्च्चोज्योतिर्वर्च्चः स्वाहा॥2॥
अग्निर्ज्योतिरिति मन्त्रं मनसोच्चार्य्य तृतीयाहुतिर्देया॥3॥
सजूर्देवेन सवित्रा सजू रात्र्येन्द्रवत्या। जुषाणो अग्निर्वेतु स्वाहा॥4॥
- इति सायङ्कालमन्त्राः। य॰ अ॰ 3। मं॰ 9-10॥
भाषार्थ - (सूर्य्यो ज्यो॰) जो चराचर का आत्मा, प्रकाशस्वरूप और सूर्य्यादि प्रकाशक लोकों का भी प्रकाश करनेवाला है, उस की प्रसन्नता के लिये हम लोग होम करते हैं॥1॥
(सूर्यो वर्च्चो॰) सूर्य जो परमेश्वर है, वह हम लोगों को सब विद्याओं का देने वाला और हम से उन का प्रचार कराने वाला है, उसी के अनुग्रह से हम लोग अग्निहोत्र करते हैं॥2॥
(ज्योतिः सू॰) जो आप प्रकाशमान और जगत् का प्रकाश करनेवाला सूर्य अर्थात् संसार का ईश्वर है, उस की प्रसन्नता के अर्थ हम लोग होम करते हैं॥3॥
(सजूर्देवेन॰) जो परमेश्वर सूर्य्यादि लोकों में व्याप्त, वायु और दिन के साथ संसार का परमहितकारक है, वह हम लोगों को विदित होकर हमारे किये हुए होम को ग्रहण करे॥4॥
इन चार आहुतियों से प्रातःकाल अग्निहोत्री लोग होम करते हैं।
अब सायङ्काल की आहुति के मन्त्र कहते हैं-(अग्निर्ज्यो॰) अग्नि जो ज्योतिःस्वरूप परमेश्वर है, उस की आज्ञा से हम लोग परोपकार के लिए होम करते हैं। और उस का रचा हुआ यह भौतिक अग्नि इसलिये है कि वह उन द्रव्यों को परमाणुरूप कर के वायु और वर्षाजल के साथ मिला के शुद्ध कर दे। जिस से सब संसार को सुख और आरोग्यता की वृद्धि हो॥1॥
(अग्निर्वर्च्चो॰) अग्नि परमेश्वर वर्च्च अर्थात् सब विद्याओं का देनेवाला, और भौतिक अग्नि आरोग्यता और बुद्धि का बढ़ानेवाला है। इसलिये हम लोग होम से परमेश्वर की प्रार्थना करते हैं।
यह दूसरी आहुति है॥
तीसरी मौन होके प्रथम मन्त्र से करनी।
और चौथी (सजूर्देवेन॰) जो अग्नि परमेश्वर सूर्यादि लोकों में व्याप्त, वायु और रात्रि के साथ संसार का परमहितकारक है, वह हम को विदित होकर हमारे किये हुए होम का ग्रहण करे।
अथोभयोः कालयोरग्निहोत्रे होमकरणार्थाः समानमन्त्राः -
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा॥1॥
ओं भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा॥2॥
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा॥3॥
ओं भूर्भुवःस्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा॥4॥
ओमापो ज्योती रसोऽमृतं ब्रह्म भूर्भुवःस्वरों स्वाहा॥5॥
ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा॥6॥
भाषार्थ - इन मन्त्रों में जो भूः इत्यादि नाम हैं, वे सब ईश्वर के ही जानो। गायत्री मन्त्र के अर्थ में इन के अर्थ कर दिये हैं।
इस प्रकार प्रातःकाल और सायङ्काल सन्ध्योपासना के पीछे उक्त मन्त्रों से होम करके अधिक होम करने की इच्छा हो तो, 'स्वाहा' शब्द अन्त में पढ़ कर गायत्री मन्त्र से करे। जिस कर्म में अग्नि वा परमेश्वर के लिये, जल और पवन की शुद्धि वा ईश्वर की आज्ञापालन के अर्थ, होत्र = हवन अर्थात् दान करते हैं, उसे 'अग्निहोत्र' कहते हैं। जो जो केशर, कस्तूरी आदि सुगन्धि, घृत दुग्ध आदि पुष्ट, गुड़ शर्करा आदि मिष्ट, बुद्धि बल तथा धैर्य्यवर्धक और रोगनाशक पदार्थ हैं, उन का होम करने से पवन और वर्षाजल की शुद्धि से पृथिवी के सब पदार्थों की जो अत्यन्त उत्तमता होती है, उसी से सब जीवों को परम सुख होता है। इस कारण अग्निहोत्र करनेवाले मनुष्यों को उस उपकार से अत्यन्त सुख का लाभ होता है, और ईश्वर उन पर अनुग्रह करता है। ऐसे ऐसे लाभों के अर्थ अग्निहोत्र का करना अवश्य उचित है।
स्वाहा का अर्थ
स्वाहाकृतय: स्वाहा इति एतत् सु आहेति वा, स्वा वागाहेति वा, स्वं प्राहेति वा, स्वाहुतं हविर्जुहोतीति वा तासामेषा भवति - निरुक्त अध्याय-8, खण्ड-20
अर्थ: यास्काचार्य निरुक्त में स्वाहा का निम्नलिखित अर्थ बताते हैं:
१) सु आहेति वा : अच्छा, मीठा, कल्याणकारी, प्रिय वचन बोलना चाहिए
२) स्वा वागाहेति वा: जैसी बात ज्ञान में वर्त्तमान हो, वैसी सत्य बात ही बोलना चाहिए
३) स्वं प्राहेति वा: अपने पदार्थ को ही अपना कहना चाहिए
४) स्वाहुतं हविर्जुहोतीति वा: सुगन्धित, मीठे, पुष्टिकारक और औषधीय द्रव्यों का हवन करना चाहिए.
॥इत्यग्निहोत्रविधिः समाप्तः॥
जैसे परमेश्वर ने सब प्राणियों से सुख के अर्थ इस सब जगत् के पदार्थ रचे हैं वैसे मनुष्यों को भी परोपकार करना चाहिये।
(प्रश्न) होम से क्या उपकार होता है?
(उत्तर) सब लोग जानते हैं कि दुर्गन्धयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुःख और सुगन्धित वायु तथा जल से आरोग्य और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है।
(प्रश्न) चन्दनादि घिस के किसी को लगावे वा घृतादि खाने को देवे तो बड़ा उपकार हो। अग्नि में डाल के व्यर्थ नष्ट करना बुद्धिमानों का काम नहीं।
(उत्तर) जो तुम पदार्थविद्या जानते तो कभी ऐसी बात न कहते। क्योंकि किसी द्रव्य का अभाव नहीं होता। देखो! जहां होम होता है वहां से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है वैसे दुर्गन्ध का भी। इतने ही से समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म हो के फैल के वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है।
(प्रश्न) जब ऐसा ही है तो केशर, कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प और अतर आदि के घर में रखने से सुगन्धित वायु होकर सुखकारक होगा।
(उत्तर) उस सुगन्ध का वह सामर्थ्य नहीं है कि गृहस्थ वायु को बाहर निकाल कर शुद्ध वायु को प्रवेश करा सके क्योंकि उस में भेदक शक्ति नहीं है और अग्नि ही का सामर्थ्य है कि उस वायु और दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को छिन्न-भिन्न और हल्का करके बाहर निकाल कर पवित्र वायु को प्रवेश करा देता है।
(प्रश्न) तो मन्त्र पढ़ के होम करने का क्या प्रयोजन है?
(उत्तर) मन्त्रों में वह व्याख्यान है कि जिससे होम करने में लाभ विदित हो जायें और मन्त्रों की आवृत्ति होने से कण्ठस्थ रहें। वेदपुस्तकों का पठन-पाठन और रक्षा भी होवे।
(प्रश्न) क्या इस होम करने के विना पाप होता है?
(उत्तर) हां! क्योंकि जिस मनुष्य के शरीर से जितना दुर्गन्ध उत्पन्न हो के वायु और जल को बिगाड़ कर रोगोत्पत्ति का निमित्त होने से प्राणियों को दुःख प्राप्त कराता है उतना ही पाप उस मनुष्य को होता है। इसलिये उस पाप के निवारणार्थ उतना सुगन्ध वा उससे अधिक वायु और जल में फैलाना चाहिये। और खिलाने पिलाने से उसी एक व्यक्ति को सुख विशेष होता है। जितना घृत और सुगन्धादि पदार्थ एक मनुष्य खाता है उतने द्रव्य के होम से लाखों मनुष्यों का उपकार होता है परन्तु जो मनुष्य लोग घृतादि उत्तम पदार्थ न खावें तो उन के शरीर और आत्मा के बल की उन्नति न हो सके, इस से अच्छे पदार्थ खिलाना पिलाना भी चाहिये परन्तु उससे होम अधिक करना उचित है इसलिए होम का करना अत्यावश्यक है।
(प्रश्न) प्रत्येक मनुष्य कितनी आहुति करे और एक-एक आहुति का कितना परिमाण है?
(उत्तर) प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुति और छः-छः माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून से न्यून चाहिये और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है। इसीलिये आर्यवरशिरोमणि महाशय ऋषि, महर्षि, राजे, महाराजे लोग बहुत सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम करने का प्रचार रहा तब तक आर्यावर्त्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था,अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाय। ये दो यज्ञ अर्थात् ब्रह्मयज्ञ जो पढ़ना-पढ़ाना सन्ध्योपासन ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना करना, दूसरा देवयज्ञ जो अग्निहोत्र से ले के अश्वमेध पर्यन्त यज्ञ और विद्वानों की सेवा संग करना परन्तु ब्रह्मचर्य में केवल ब्रह्मयज्ञ और अग्निहोत्र का ही करना होता है।
मनुस्मृति में देवयज्ञ का प्रमाण:
स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥- मनुस्मृति २.२८॥
अर्थ— (स्वाध्याय) सकल विद्या पढ़ते-पढ़ाते (व्रत) ब्रह्मचर्य सत्यभाषणादि नियम पालने (होम) अग्निहोत्रादि होम, सत्य का ग्रहण असत्य का त्याग और सत्य विद्याओं का दान देने (त्रैविद्येन) वेदस्थ कर्मोपासना ज्ञान विद्या के ग्रहण (इज्यया) पक्षेष्ट्यादि करने (सुतैः) सुसन्तानोत्पत्ति (महायज्ञैः) ब्रह्म, देव, पितृ, वैश्वदेव और अतिथियों के सेवनरूप पञ्चमहायज्ञ और (यज्ञैः) अग्निष्टोमादि तथा शिल्पविद्याविज्ञानादि यज्ञों के सेवन से इस शरीर को ब्राह्मी अर्थात् वेद और परमेश्वर की भक्ति का आधाररूप ब्राह्मण का शरीर बनता है। इतने साधनों के विना ब्राह्मणशरीर नहीं बन सकता।
वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च। न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित्॥मनु॰ २.९७॥
जो दुष्टाचारी-अजितेन्द्रिय पुरुष हैं उसके वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्धि को नहीं प्राप्त होते।
भाग 3 ‘पितृयज्ञ’
तीसरा ‘पितृयज्ञ’ अर्थात् जिस में जो देव विद्वान्, ऋषि जो पढ़ने-पढ़ाने वाले, पितर माता पिता आदि वृद्ध ज्ञानी और परमयोगियों की सेवा करनी।
पितृयज्ञ के दो भेद हैं:
एक श्राद्ध और दूसरा तर्पण।
श्राद्ध अर्थात् ‘श्रत्’ सत्य का नाम है ‘श्रत्सत्यं दधाति यया क्रियया सा श्रद्धा श्रद्धया यत्क्रियते तच्छ्राद्धम्’ जिस क्रिया से सत्य का ग्रहण किया जाय उस को श्रद्धा और जो श्रद्धा से कर्म किया जाय उसका नाम श्राद्ध है और ‘तृप्यन्ति तर्पयन्ति येन पितॄन् तत्तर्पणम्’ जिस-जिस कर्म से तृप्त अर्थात् विद्यमान माता पितादि पितर प्रसन्न हों और प्रसन्न किये जायें उस का नाम तर्पण है। परन्तु यह जीवितों के लिये है मृतकों के लिये नहीं।
पितृयज्ञ का वेदों में प्रमाण:
पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः। अक्षन् पितरोऽमीमदन्त पितरोऽतीतृपन्त पितरः पितरः शुन्धध्वम्॥20॥
पुनन्तु मा पितरः सोम्यासः पुनन्तु मा पितामहः पुनन्तु प्रपितामहाः पवित्रेण शतायुषा। पुनन्तु मा पितामहाः पुनन्तु प्रपितामहाः। पवित्रेण शतायुषा विश्वमायुर्व्यश्नवै॥21॥
-यजुर्वेद अध्याय-१९, मन्त्र-३६, ३७
(पितृभ्यः स्वधा॰) जो चौबीस वर्ष ब्रह्मचर्याश्रम से विद्या पढ़ के सब को पढ़ाते हैं, उन पितरों को हमारा नमस्कार है। (पितामहेभ्यः॰) जो चवालीस वर्ष पर्य्यन्त ब्रह्मचर्य्याश्रम से वेदादि विद्याओं को पढ़ के सब के उपकारी और अमृतरूप ज्ञान के देने वाले होते हैं, (प्रपितामहेभ्यः॰) जो अड़तालीस वर्ष पर्य्यन्त जितेन्द्रियता के साथ सम्पूर्ण विद्याओं को पढ़ के, हस्तक्रियाओं से भी सब विद्या के दृष्टान्त साक्षात् देख के दिखलाते, और जो सब के सुखी होने के लिये सदा प्रयत्न करते रहते हैं, उन का मान भी सब लोगों को करना उचित है। पिताओं का नाम वसु है, क्योंकि वे सब विद्याओं में वास करने के लिये योग्य होते हैं। ऐसे ही पितामहों का नाम रुद्र है, क्योंकि वे वसुसंज्ञक पितरों से दूनी अथवा शतगुणी विद्या और बल वाले होते हैं तथा प्रपितामहों का नाम आदित्य है, क्योंकि वे सब विद्याओं और सब गुणों में सूर्य के समान प्रकाशमान होके, सब विद्या और लोगों को प्रकाशमान करते हैं। इन तीनों का नाम वसु, रुद्र और आदित्य इसलिये है कि वे किसी प्रकार की दुष्टता मनुष्यों में रहने नहीं देते। इस में पुरुषो वाव यज्ञः यह छान्दोग्य उपनिषत् का प्रमाण लिख दिया है, सो देख लेना।
(पुनन्तु मा पितरः॰) जो पितर लोग शान्तात्मा और दयालु हैं, वे मुझ को विद्यादान से पवित्र करें। (पुनन्तु मा पितामहाः॰) इसी प्रकार पितामह और प्रपितामह भी मुझ को अपनी उत्तम विद्या पढ़ा के पवित्र करें। इसलिये कि उन की शिक्षा को सुन के ब्रह्मचर्य्य धारण करने से सौ वर्ष पर्यन्त आनन्द युक्त उमर होती रहे। इस मन्त्र में दो बार पाठ केवल आदर के लिये है॥21॥
तर्पण के ३ प्रकार होते हैं:
१) देव-तर्पण
२) ऋषि-तर्पण
३) पितृ-तर्पण
ओं ब्रह्मादयो देवास्तृप्यन्ताम्। ब्रह्मादिदेवपत्न्यस्तृप्यन्ताम्। ब्रह्मादिदेवसुतास्तृप्यन्ताम्। ब्रह्मादिदेवगणास्तृप्यन्ताम्॥ — इति देवतर्पणम्॥ (पारस्कर एवं आश्वलायन गृह्यसूत्र)
‘विद्वांसो हि देवाः।’ —शतपथ-ब्राह्मण ३.५.६.१०
जो विद्वान् हैं उन्हीं को देव कहते हैं। जो साङ्गोपाङ्ग चार वेदों के जानने वाले हों उन का नाम ब्रह्मा और जो उन से न्यून पढ़े हों उन का भी नाम देव अर्थात् विद्वान् है। उनके सदृश विदुषी स्त्री, उनकी ब्रह्माणी और देवी, उनके तुल्य पुत्र और शिष्य तथा उनके सदृश उन के गण अर्थात् सेवक हों उन की सेवा करना है उस का नाम ‘श्राद्ध’ और ‘तर्पण’ है।
अथर्षितर्पणम्
ओं मरीच्यादय ऋषयस्तृप्यन्ताम्। मरीच्याद्यृषिपत्न्यस्तृप्यन्ताम्।
मरीच्याद्यृषिसुतास्तृप्यन्ताम्। मरीच्याद्यृषिगणास्तृप्यन्ताम्॥
—इति ऋषितर्पणम्॥
जो ब्रह्मा के प्रपौत्र मरीचिवत् विद्वान् होकर पढ़ावें और जो उनके सदृश विद्यायुक्त उनकी स्त्रियां कन्याओं को विद्यादान देवें उनके तुल्य पुत्र और शिष्य तथा उन के समान उनके सेवक हों, उन का सेवन सत्कार करना ऋषितर्पण है।
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। चत्वारि तस्य वर्द्धन्त आयुर्विद्या यशो बलम्॥- मनुस्मृति अ॰२, श्लोकः१२१॥
जो सदा नम्र सुशील विद्वान् और वृद्धों की सेवा करता है, उसका आयु, विद्या, कीर्ति और बल ये चार सदा बढ़ते हैं और जो ऐसा नहीं करते उनके आयु आदि चार नहीं बढ़ते।
अथ पितृतर्पणम्
ओं सोमसदः पितरस्तृप्यन्ताम्। अग्निष्वात्ताः पितरस्तृप्यन्ताम्। बर्हिषदः पितरस्तृप्यन्ताम्। सोमपाः पितरस्तृप्यन्ताम्। हविर्भुजः पितरस्तृप्यन्ताम्। आज्यपाः पितरस्तृप्यन्ताम्। यमादिभ्यो नमः यमादींस्तर्पयामि। पित्रे स्वधा नमः पितरं तर्पयामि। पितामहाय स्वधा नमः पितामहं तर्पयामि। मात्रे स्वधा नमो मातरं तर्पयामि। पितामह्यै स्वधा नमः पितामहीं तर्पयामि। स्वपत्न्यै स्वधा नमः स्वपत्नीं तर्पयामि। सम्बन्धिभ्यः स्वधा नमः सम्बन्धींस्तर्पयामि। सगोत्रेभ्यः स्वधा नमः सगोत्रांस्तर्पयामि॥
—इति पितृतर्पणम्॥
‘यः पाति स पिता’ जो सन्तानों का अन्न और सत्कार से रक्षक वा जनक हो वह पिता।
‘पितुः पिता पितामहः, पितामहस्य पिता प्रपितामहः’ जो पिता का पिता हो वह पितामह और जो पितामह का पिता हो वह प्रपितामह।
‘या मानयति सा माता’ जो अन्न और सत्कारों से सन्तानों का मान्य करे वह माता। ‘या पितुर्माता सा पितामही पितामहस्य माता प्रपितामही’ जो पिता की माता हो वह पितामही और पितामह की माता हो वह प्रपितामही।
अपनी स्त्री तथा भगिनी सम्बन्धी और एक गोत्र के तथा अन्य कोई भद्र पुरुष वा वृद्ध हों उन सब को अत्यन्त श्रद्धा से उत्तम अन्न, वस्त्र, सुन्दर यान आदि देकर अच्छे प्रकार जो तृप्त करना अर्थात् जिस-जिस कर्म से उनका आत्मा तृप्त और शरीर स्वस्थ रहै उस-उस कर्म से प्रीतिपूर्वक उनकी सेवा करनी वह श्राद्ध और तर्पण कहाता है।
वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति। सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्मा प्रमदः। आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः। सत्यान्न प्रमदितव्यम्। धर्मान्न प्रमदितव्यम्। कुशलान्न प्रमदितव्यम्। स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्। देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम्॥1॥
मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। अतिथिदेवो भव। यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि नो इतराणि। यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि॥2॥
सदा सत्य बोल, धर्माचार कर, प्रमादरहित होके पढ़ पढ़ा, पूर्ण ब्रह्मचर्य से समस्त विद्याओं को ग्रहण कर और आचार्य के लिये प्रिय धन देकर विवाह करके सन्तानोत्पत्ति कर। प्रमाद से सत्य को कभी मत छोड़, प्रमाद से धर्म का त्याग मत कर, प्रमाद से आरोग्य और चतुराई को मत छोड़, प्रमाद से पढ़ने और पढ़ाने को कभी मत छोड़। देव विद्वान् और माता पितादि की सेवा में प्रमाद मत कर।
भाग 4 भूतयज्ञ (बलिवैश्वदेवयज्ञ)
चौथा वैश्वदेव—अर्थात् जब भोजन सिद्ध हो तब जो कुछ भोजनार्थ बने, उसमें से खट्टा लवणान्न और क्षार को छोड़ के घृत मिष्टयुक्त अन्न लेकर चूल्हे से अग्नि अलग धर वैश्वदेव के मन्त्रों से आहुति दें और भाग करे।
हवन करने का प्रयोजन यह है कि—पाकशालास्थ वायु का शुद्ध होना और जो अज्ञात अदृष्ट जीवों की हत्या होती है उस का प्रत्युपकार कर देना।
बलिवैश्वदेवयज्ञ का मनुस्मृति एवं वेद में प्रमाण:
वैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृह्येऽग्नौ विधिपूर्वकम्। आभ्यः कुर्य्याद्देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्॥1॥
-मनुस्मृति अ॰ 3। श्लोकः 84॥
अहरहर्बलिमित्ते हरन्तोऽश्वायेव तिष्ठते घासमग्ने। रायस्पोषेण समिषा मदन्तो मा ते अग्ने प्रतिवेशा रिषाम॥1॥ -अथर्व कां॰ 19। अनु॰ 7। मं॰ 7॥
भाषार्थ - (अग्ने॰) हे परमेश्वर! जैसे खाने योग्य पुष्कल पदार्थ घोड़े के आगे रखते हैं, वैसे ही आप की आज्ञापालन के लिये (अहरहः॰) प्रतिदिन भौतिक अग्नि में होम करते और अतिथियों को (बलिं॰) अर्थात् भोजन देते हुए हम लोग अच्छी प्रकार वाञ्छित चक्रवर्ति राज्य की लक्ष्मी से आनन्द को प्राप्त होके (अग्ने) हे परमात्मन्! (प्रतिवेशाः) आप की आज्ञा से उलटे होके आप के उत्पन्न किये हुए प्राणियों को (मा रिषाम) अन्याय से दुःख कभी न देवें। किन्तु आप की कृपा से सब जीव हमारे मित्र और हम सब जीवों के मित्र रहें। ऐसा जानकर परस्पर उपकार सदा करते रहें॥1॥
ओमग्नये स्वाहा॥ ओं सोमाय स्वाहा॥ ओमग्नीषोमाभ्यां स्वाहा॥ ओं विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा॥ ओं धन्वन्तरये स्वाहा॥ ओं कुह्वै स्वाहा॥ ओमनुमत्यै स्वाहा॥ ओं प्रजापतये स्वाहा॥ ओं सह द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा॥ ओं स्विष्टकृते स्वाहा॥ - मनुस्मृति अ॰ ३, श्लोकः ८५, ८६॥
भाषार्थ - (ओम॰) अग्नि शब्द का अर्थ पीछे कह आये हैं। (ओं सो॰) अर्थात् सब पदार्थों को उत्पन्न पुष्ट करने और सुख देनेवाला। (ओम॰) जो सब प्राणियों के जीवन का हेतु प्राण तथा जो दुःखनाश का हेतु अपान। (ओं वि॰) संसार का प्रकाश करनेवाले ईश्वर के गुण अथवा विद्वान् लोग। (ओं ध॰) जन्ममरणादि रोगों का नाश करनेवाला परमात्मा। (ओं कु॰) अमावास्येष्टि का करना। (ओम॰) पौर्णमास्येष्टि वा सर्वशास्त्रप्रतिपादित परमेश्वर की चितिशक्ति। (ओं प्र॰) सब जगत् का स्वामी जगदीश्वर। (ओं स॰) सत्यविद्या के प्रकाश के लिए पृथिवी का राज्य और अग्नि तथा भूमि से अनेक उपकारों का ग्रहण (ओं स्वि॰) इष्ट सुख का करनेवाला परमेश्वर।
इन दश मन्त्रों के अर्थों से ये 10 प्रयोजन जान लेना।
अब आगे बलिदान के मन्त्र लिखते हैं-
ओं सानुगायेन्द्राय नमः॥1॥ ओं सानुगाय यमाय नमः॥2॥ ओं सानुगाय वरुणाय नमः॥3॥
ओं सानुगाय सोमाय नमः॥4॥ ओं मरुद्भ्यो नमः॥5॥ ओमद्भ्यो नमः॥6॥
ओं वनस्पतिभ्यो नमः॥7॥ ओं श्रियै नमः॥8॥ ओं भद्रकाल्यै नमः॥9॥ ओं ब्रह्मपतये नमः॥10॥
ओं वास्तुपतये नमः॥11॥ ओं विश्वेभ्यो देवेभ्यो नमः॥12॥ ओं दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो नमः॥13॥
ओं नक्तञ्चारिभ्यो नमः॥14॥ ओं सर्वात्मभूतये नमः॥15॥ ओं पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः॥16॥
- मनुस्मृति अ॰ ३, श्लोकः ८७ - ९१॥
भाषार्थ - (ओं सानु॰) सर्वैश्वर्य्ययुक्त परमेश्वर और उसके गुण। (ओं सा॰) सत्य न्याय करनेवाला और उसकी सृष्टि में सत्य न्याय के करनेवाले सभासद्। (ओं सा॰) सब से उत्तम परमात्मा और उसके धार्मिक भक्तजन। (ओं सा॰) पुण्यात्माओं को आनन्द करानेवाला परमात्मा और वे लोग। (ओं मरुत्॰) अर्थात् प्राण, जिनके रहने से जीवन और निकलने से मरण होता है, उन की रक्षा करना। (ओमद्भ्यो॰) इस का अर्थ 'शन्नोदेवी' इस मन्त्र में लिख दिया है।
(ओं वन॰) ईश्वर के उत्पन्न किये हुए वायु और मेघ आदि सब के पालन के हेतु सब पदार्थ तथा जिन से अधिक वर्षा और जिन के फलों से जगत् का उपकार होता है, उन की रक्षा करनी। (ओं श्रि॰) जो सेवा करने के योग्य परमात्मा और पुरुषार्थ से राज्यश्री की प्राप्ति करने में सदा उद्योग करना (ओं भ॰) जो कल्याण करने वाली परमात्मा की शक्ति अर्थात् सामर्थ्य है, उस का सदा आश्रय करना। (ओं ब्र॰) जो वेद के स्वामी ईश्वर की प्रार्थना विद्या के लिये करना। (ओं वा॰) वास्तुपति अर्थात् जो गृह सम्बन्धी पदार्थों का पालन करनेवाला ईश्वर। (ओं ब्रह्म॰) वेद शास्त्र का रक्षक जगदीश्वर। (ओं वि॰) इसका अर्थ कह दिया है।
(ओं दि॰) जो दिन में और (ओं नक्तं॰) रात्रि में विचरनेवाले प्राणी हैं, उन से उपकार लेना और उन को सुख देना। (सर्वात्म॰) सब में व्याप्त परमेश्वर की सत्ता को सदा ध्यान में रखना। (ओं पि॰) माता पिता और आचार्य आदि को प्रथम भोजनादि से सेवा करके पश्चात् स्वयं भोजनादि करना। 'स्वाहा' शब्द का अर्थ पूर्व कर दिया है और 'नमः' शब्द का अर्थ यह है कि-आप अभिमान रहित होना और दूसरे का मान्य करना॥
इसके पीछे ये छः भाग करना चाहिए-
शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्। वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेद् भुवि॥ - मनुस्मृति अ॰ ३, श्लोकः९२
भाषार्थ - कुत्तों, कंगालों, कुष्ठी आदि रोगियों, काक आदि पक्षियों और चींटी आदि कृमियों के लिये भी छः भाग अलग-अलग बांट के दे देना और उन की प्रसन्नता करना। अर्थात् सब प्राणियों को मनुष्यों से सुख होना चाहिए।
इस प्रकार ‘श्वभ्यो नमः, पतितेभ्यो नमः, श्वपग्भ्यो नमः,पापरोगिभ्यो नमः, वायसेभ्यो नमः, कृमिभ्यो नमः।’ धर कर पश्चात् किसी दुःखी बुभुक्षित प्राणी अथवा कुत्ते, कौवे आदि को दे देवे।
यहां नमः शब्द का अर्थ अन्न अर्थात् कुत्ते, पापी, चाण्डाल, पापरोगी कौवे और कृमि अर्थात् चींटी आदि को अन्न देना यह मनुस्मृति आदि की विधि है।
यह वेद और मनुस्मृति की रीति से बलिवैश्वदेव पूरा हुआ।
॥ इति बलिवैश्वदेवविधिः समाप्तः॥
भाग 5 नृयज्ञ (अतिथियज्ञ)
अब पांचवीं अतिथिसेवा—अतिथि उस को कहते हैं कि जिस की कोई तिथि निश्चित न हो अर्थात् अकस्मात् धार्मिक, सत्योपदेशक, सब के उपकारार्थ सर्वत्र घूमने वाला, पूर्ण विद्वान्, परमयोगी, संन्यासी गृहस्थ के यहां आवे तो उस को प्रथम पाद्य, अर्घ और आचमनीय तीन प्रकार का जल देकर, पश्चात् आसन पर सत्कारपूर्वक बिठाकर, खान, पान आदि उत्तमोत्तम पदार्थों से सेवा शुश्रूषा कर के, उन को प्रसन्न करे। पश्चात् सत्सङ्ग कर उन से ज्ञान विज्ञान आदि जिन से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति होवे ऐसे-ऐसे उपदेशों का श्रवण करे और चाल चलन भी उनके सदुपदेशानुसार रक्खे। समय पाके गृहस्थ और राजादि भी अतिथिवत् सत्कार करने योग्य हैं। परन्तु—
पाषण्डिनो विकर्मस्थान् वैडालवृत्तिकान् शठान्। हैतुकान् वकवृत्तींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत्॥ मनुस्मृति ४.३०॥
(पाषण्डी) अर्थात् वेदनिन्दक, वेदविरुद्ध आचरण करनेहारे (विकर्मस्थ) जो वेदविरुद्ध कर्म का कर्त्ता मिथ्याभाषणादि युक्त, वैडालवृत्तिक जैसे विड़ाला छिप और स्थिर होकर ताकता-ताकता झपट से मूषे आदि प्राणियों को मार अपना पेट भरता है वैसे जनों का नाम वैडालवृत्ति, (शठ) अर्थात् हठी, दुराग्रही, अभिमानी, आप जानें नहीं, औरों का कहा मानें नहीं, (हैतुक) कुतर्की व्यर्थ बकने वाले जैसे कि आजकल के वेदान्ती बकते हैं ‘हम ब्रह्म और जगत् मिथ्या है वेदादि शास्त्र और ईश्वर भी कल्पित हैं’ इत्यादि गपोड़ा हांकने वाले (वकवृत्ति) जैसे वक एक पैर उठा ध्यानावस्थित के समान होकर झट मच्छी के प्राण हरके अपना स्वार्थ सिद्ध करता है वैसे आजकल के वैरागी और खाखी आदि हठी दुराग्रही वेदविरोधी हैं, ऐसों का सत्कार वाणीमात्र से भी न करना चाहिये। क्योंकि इनका सत्कार करने से ये वृद्धि को पाकर संसार को अधर्मयुक्त करते हैं। आप तो अवनति के काम करते ही हैं परन्तु साथ में सेवक को भी अविद्यारूपी महासागर में डुबा देते हैं।
अतिथियज्ञ का वेद में प्रमाण:
तद्यस्यैवं विद्वान् व्रात्योऽतिथिर्गृहानागच्छेत्॥1॥
स्वयमेनमभ्युदेत्य ब्रूयाद् व्रात्य क्वावात्सीर्व्रात्योदकं व्रात्य तर्पयन्तु व्रात्य यथा ते प्रियं तथास्तु व्रात्य यथा ते वशस्तथास्तु व्रात्य यथा ते निकामस्तथास्त्विति॥2॥
-अथ॰ कां॰ 15। अनु॰ 2। व॰ 11। मं॰ 1। 2॥
भाषार्थ - अब पांचवां अतिथियज्ञ अर्थात् जिस में अतिथियों की यथावत् सेवा करनी होती है, उस को लिखते हैं। जो मनुष्य पूर्ण विद्वान्, परोपकारी, जितेन्द्रिय, धर्मात्मा, सत्यवादी, छल कपट रहित और नित्य भ्रमण करके विद्या धर्म का प्रचार और अविद्या अधर्म की निवृत्ति सदा करते रहते हैं, उन को 'अतिथि' कहते हैं। इस में वेदमन्त्रों के अनेक प्रमाण हैं। परन्तु उन में से दो मन्त्र यहां भी लिखते हैं-
(तद्यस्यैवं विद्वान्) जिस के घर में पूर्वोक्त विशेषणयुक्त (व्रात्य॰) उत्तमगुणसहित सेवा करने के योग्य विद्वान् आवे, तो उस की यथावत् सेवा करें और 'अतिथि' वह कहाता है कि जिस के आने जाने की कोई तिथि दिन निश्चित न हो॥1॥
(स्वयमेनम॰) गृहस्थ लोग ऐसे पुरुष को आते देखकर बड़े प्रेम से उठके नमस्कार कर के, उत्तम आसन पर बैठावें। पश्चात् पूछें कि आप को जल अथवा किसी अन्य वस्तु की इच्छा हो सो कहिये। और जब वे स्वस्थचित्त हो जावें, तब पूछें कि (व्रात्य क्वावात्सीः) हे व्रात्य! अर्थात् उत्तम पुरुष, आपने कल के दिन कहां वास किया था? (व्रात्योदकं) हे अतिथे! यह जल लीजिये और (व्रात्य तर्पयन्तु) हम को अपने सत्य उपदेश से तृप्त कीजिये, कि जिस से हमारे इष्ट मित्र लोग सब प्रसन्न होके आप को भी सेवा से सन्तुष्ट रक्खें। (व्रात्य यथा॰) हे विद्वन्! जिस प्रकार आप की प्रसन्नता हो, हम लोग वैसा ही काम करें तथा जो पदार्थ आपको प्रिय हो, उस की आज्ञा कीजिये। और (व्रात्य यथा॰) जैसे आप की कामना पूर्ण हो, वैसी सेवा की जाय कि जिस से आप और हम लोग परस्पर प्रीति और सत्सङ्गपूर्वक विद्यावृद्धि करके सदा आनन्द में रहें॥2॥
इन पांच महायज्ञों का फल यह है कि :
*ब्रह्मयज्ञ के करने से विद्या, शिक्षा, धर्म, सभ्यता आदि शुभ गुणों की वृद्धि।
अग्निहोत्र से वायु, वृष्टि, जल की शुद्धि होकर वृष्टि द्वारा संसार को सुख प्राप्त होना अर्थात् शुद्ध वायु का श्वास, स्पर्श, खान पान से आरोग्य, बुद्धि, बल, पराक्रम बढ़ के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का अनुष्ठान पूरा होना। इसीलिये इस को देवयज्ञ कहते हैं।
पितृयज्ञ से जब माता पिता और ज्ञानी महात्माओं की सेवा करेगा तब उस का ज्ञान बढ़ेगा। उस से सत्यासत्य का निर्णय कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करके सुखी रहेगा। दूसरा कृतज्ञता अर्थात् जैसी सेवा माता पिता और आचार्य ने सन्तान और शिष्यों की की है उसका बदला देना उचित ही है।
बलिवैश्वदेव का भी फल पाकशालास्थ वायु का शुद्ध होना और जो अज्ञात अदृष्ट जीवों की हत्या होती है उस का प्रत्युपकार कर देना है। जब तक उत्तम अतिथि जगत् में नहीं होते तब तक उन्नति भी नहीं होती। उनके सब देशों में घूमने और सत्योपदेश करने से पाखण्ड की वृद्धि नहीं होती और सर्वत्र गृहस्थों को सहज से सत्य विज्ञान की प्राप्ति होती रहती है और मनुष्यमात्र में एक ही धर्म स्थिर रहता है। विना अतिथियों के सन्देहनिवृत्ति नहीं होती। सन्देहनिवृत्ति के विना दृढ़ निश्चय भी नहीं होता।
अतः हम सभी मनुष्यों को प्रतिदिन पञ्चमहायज्ञ अवश्य करना चाहिए।
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