Friday, June 2, 2023

स्वामी श्रद्धानन्द: जीवन संस्मरण


 


स्वामी श्रद्धानन्द: जीवन संस्मरण


लेखक-चिदानंद सन्यासी 

 प्रेषक- डॉ विवेक आर्य 


23 दिसम्बर सन् 1930ई० को गुरुकुल विश्वविद्यालय कागड़ी के "श्रद्धानन्द बलिदान दिवस' के अवसर पर प्रकाशित भाषण की प्रतिलिपि। 


" गुरुकुल वासियों ! भारत मां की भावी आशाओं के चमकते सितारों !


आपके कुल मंत्री श्रीयुत पं० परमानन्द जी द्वारा आपका यह सन्देश मुझे मिला है, कि--"आप लोग 23 दिसम्बर सन् 1930 ई० को अमर शहीद श्री स्वामी श्रद्धानन्द जी के गौरवास्पद जीवन की पुण्य स्मृति में श्रद्धानन्द दिवस मनाने लगे हैं, उस वीरोत्सव पर मैं भी स्वर्गीय स्वामी जी के जीवन संस्मरण सम्बन्धी अपने विचारों को लेखबद्ध कर आपके कर्ण गोचर कराऊँ ।


स्वामी जी के आदर्श जीवन का एक बड़ा भाग कुल वासियों के प्रत्यक्ष में ही व्यतीत हुआ है। उनके आदर्श गुणों का पूर्ण नहीं, तो- बीज रूप ज्ञान आपको अवश्य ही मिला है । यह जान कर ही में थोड़ी सी पंक्तियों में स्वर्गीय स्वामी जी के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने लगा हूं, और सोचता हूं, कि थोड़ी सी पंक्तियों में उस महान आत्मा के सम्बन्ध में क्या क्या लिखूं और कहां तक लिख - यह समझ में नहीं आता। स्वामी जी मर गये और उनकी यह मृत्यु भी जीवन की नाई (के समान) अनेक गुणों का प्रदर्शन और आदर्शों का द्योतक बनी है । वीर के जीवन का एक २ वर्ष, एक २ मास, एक २ दिन, एक २ घड़ी, और एक २ पल उनके गुणों का गान और आदर्शों का प्रसार कर रहे हैं ।


उनके समकालीन भारतीय नेताओं पर जब हमारी दृष्टि पहुँचती है, तो स्वामी श्रद्धानन्द को सब से आगे और सब से पहिले देखते हैं। इसका एक मात्र कारण उनकी शारीरिक और आत्मिक उन्नति हो थी । और यही कारण था जिससे उन्होंने तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक और राजनैतिक तीनों प्रकार के नेताओं में उत्तम प्रतिष्टा तथा विजय प्राप्त की थी। उनका जीवन प्रारम्भ से ही धार्मिक बना था । वे देश और जाति की सामाजिक उन्नति के साथ राजनैतिक उन्नति को भी धर्म का एक अङ्ग मानते थे । इसीलिये जब तक देश में राजनैतिक कार्यों को बाग डोर एक धार्मिक नेता के हाथ में न आई, तब तक उन्होंने भारत के राजनैतिक क्षेत्र में अथवा कार्यों में क्रियात्मक भाग नहीं लिया।


उस स्वामी जी का जीवन क्रमशः उन्नत जीवन था । सब से पहिले उन्होंने शारीरिक उन्नति की, और फिर आत्मिक तथा धार्मिक । ब्रह्मचर्य के परिपूर्ण पालन के महत्व को उन्होंने भली भांति प्रत्यक्ष किया था, उस से ही उनका साहस, उनकी दृढ़ता, उनकी निर्भयता, उनकी उदारता, और उनका समारम्भ सब ही एक से एक बढ़ कर तथा देदीप्यमान समुज्वल हैं। साहसी तो वे इतने थे कि अपने उद्देश्य की पूर्त्यर्थ भयङ्कर से भयङ्कर प्रतिद्वन्दता का सान्मुख्य करने के लिये कटिबद्ध हो जाते थे ।


जिस काम को करने का एक बार साहस कर लिया, उसे पूरा ही करके छोड़ा| कई मनुष्य क्षणिक साहस में आकर काम तो आरम्भ तो कर देते हैं, किन्तु जहां थोड़ी सी भी प्रतिद्वन्दता हुई कि भयभीत होकर कार्य को छोड़ बैठ जाते हैं।  स्वामी जी निर्भय थे इसी लिये प्रतिद्वन्दता उनके सामने क्षण भर भी ठहरने का प्रयास नहीं करती थी। उनके साहस और उनकी निर्भयता के--- 'गुरुकुल कांगड़ी, और 'भारतीय शुद्धि-सभा, दो जीते जागते उदाहरण हैं । साहस से गुरुकुल की स्थापना कर दी । इस कार्य में उनके सन्मुख अनेक कठिनाइयां और रुकावटें आई, यहां तक कि सरकार तक का गुरुकुल के विरुद्ध उकसाया गया, किन्तु उस निर्भय, वीर, साहसी के सामने किसी की एक न चली। शुद्धि के विरुद्ध धर्मी और विधर्मी सब ही ने विष वमन किया तो क्या उसका कुछ भी प्रभाव उस निर्भय आत्मा पर पड़ा ? नहीं ! कुछ भी नहीं !! उदारता और दृढ़ता के तो वे स्वयं मूर्तिमान थे। इन्हीं दो अपूर्ण गुणों के कारण दीन, अनाथ, भिखारियों पर ही नहीं, अपितु प्रबल से प्रबल शत्रु पर भी उन्होंने अपने जीवन काल में विजय प्राप्त की थी। जिसकी पुष्टि में हम यहाँ एक उदाहरण उपस्थित करते हैं और वह यह कि- 


"मिर्जा सुलतान अहमद गौरगानवी मुगल खानदान के अन्तिम सम्राट बहादुरशाह सम्बन्धियों में से एक प्रसिद्ध अरबी, फारसी के आलिम फाजिल है । जिस समय इनको दक्षिण निजाम हैदराबाद ने "हफबातुल मुसलमीन, [ मुसलमानों की बेहूदगियां ] नामक पुस्तक लिखने के कारण राज्य से बाहिर निकाल दिया और उनको पुस्तक आदि सम्पत्ति जब्त कर दी तो मिर्जा साहब स्वामी जी के पास आये | स्वामी जी ने इस बात का विचार न करते हुये कि ये मुसलमान है, विधर्मी होने के कारण इसकी सहायता करना ठीक होगा वा नहीं-- उन्हें गले से लगाया और शक्ति भर उदारता पूर्वक प्रकाशन आदि के लिये सहायता दे दी । उक्त मिर्जा साहब स्वामी जी के स्वर्गारोहण के पश्चात आज तक भी उनकी उदारता के प्रति कृतज्ञता प्रकाश करते उनका गुणगान करते थकते नहीं हैं।" 


उस वीर पुरुष की दूरदर्शिता के सम्बन्ध में अनेक बात कहीं जा सकती हैं। किन्तु इस समय उदाहरणार्थ एक ही बात आपके सम्मुख रखना पर्याप्त समझता हूं। जिस समय महात्मा गान्धी जी ने बारडोली में सत्याग्रह प्रारम्भ किया था तो उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि “यदि लोग अहिन्सक बने रहे तो मैं सत्याग्रह बराबर जारी रखूँगा और यदि कहीं हिंसा फूट निकली तो सत्याग्रह स्थगित कर दूंगा।  जब महात्मा जी की यह प्रतिज्ञा समाचार पत्रों में प्रकाशित हुई तो स्वामी जी ने महात्मा जी को लिखा कि "आप ऐसी प्रतिज्ञा न करें। बल्कि यदि कहीं हिंसा फूट पड़ने के चिन्ह दिखाई भी है तो की आप सत्याग्रह निरन्तर जारी रखें क्योंकि आपके सत्याग्रह से उस हिंसा का कोई सम्बन्ध न होगा। ऐसा समय कभी नहीं आ सकता जब कि हिंसा के भाव उठे ही नहीं । यदि सत्याग्रही लोग अन्त तक अहिंसक बने रहे तो जो लोग सत्याग्रही नहीं है, उनकी जिम्मेवारी कैसे ली जा सकती है। यदि आपने अपनी प्रतिज्ञा पर पुनर्विचार करके उसे संशोधित न किया। तो एक समय ऐसा आयेगा जब कि आपको अपनी भूल प्रतीत होगी और जब कभी यदि पुनः आपने सत्याग्रह आरम्भ किया तो आपको इस शर्त को सर्वथा छोड़ना पड़ेगा। स्वामी जी ने यह बात आज से 10 वर्ष पहले कही थी। उस प्रतिज्ञा के अनुसार बारडोली में महात्मा जी का सत्याग्रह आरम्भ हुआ और चौराचौरी के फिसाद ने उन्हें सत्याग्रह बन्द करने के लिये विवश कर दिया । सन् 1930 में जब कानून भंग का कार्य फिर महात्मा जी ने आरम्भ किया तो उपरोक्त शर्त को सर्वथा ही निकाल दिया और जो बात स्वामी जी ने 10 वर्ष पहिले कही थी। महात्मा जी का आज उसे स्वीकार करना पड़ा ।


किस कार्य को किस प्रकार प्रारम्भ करना चाहिये इस समारम्भ के तत्व को स्वामी सी खूब जानते थे । यही कारण है कि स्वामी जी के कट्टर से कट्टर मत विरोधी भी उनके साहस, उनकी निर्भयता, उनकी उदारता, उनकी दृढ़ता, उनको दूरदर्शिता और उनके समारम्भ की भूरि भुरि प्रशंसा किया करते थे ! और आज भी करते देखे जा रहे हैं


उस कर्मवीर ने महर्षि दयानन्द सरस्वती के उपदेशों से अनेक शिक्षाये ग्रहण की थी, किन्तु उन सब में एक बात मुख्य और अनन्य थी, और वह यह शिक्षा, जिसको स्वामी श्रद्धानन्द जो ने अपने जीवन में प्रत्यक्ष करके दिखा दिया। वह थी--"मरने के लिये काम करना और काम करने के लिये मरना” । 


स्वामी की पूर्ण अर्थ में धर्मात्मा थे। उन्होंने कभी अपना उद्देश्य पूर्ण करने के लिये कूटनीति (पालिसी) से काम नहीं लिया। देश और जातीय कार्यों के आगे उन्होंने अपने स्वार्थ और सुखों पर सदा के लिये लात मार दी। स्वामी जी का यह दृढ़ विश्वास था कि यदि देश की नव सन्तति निर्भय, वीर, बलवान, विद्वान और सदाचारी बन जावे, तो देश और जाति की वर्तमान दुरावस्था अविलम्ब सुअवस्था में परिवर्तित हो सकती है। इसी उद्देश्य को लक्ष्य में रखकर स्वामी जी ने अपने आरम्भिक पवित्र जीवन की कमाई, देश और जाति के नाम पर गुरुकुल कांगड़ी के समर्पण कर दी, और उसके लिये दर-दर के भिक्षुक बन गये। इस गुरुकुल के द्वारा स्वामी जी ने देश और जाति का जो उत्थान किया है, आज यह किसी से छिपा नहीं है।



स्वामी जी का पार्थिव शरीर जीर्ण हो चुका था, उससे वे जितना काम लेना चाहते थे, उतना देने में सर्वथा असमर्थ था और वे इस शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को धारण करने की इच्छा में तत्पर थे । जिस समय दिसम्बर सन्1926 ई० में स्वामी जो की प्रलयकारी बीमारी का समाचार जनता ने देश के समाचार पत्रों में पढ़ा।  तो आबाल वृद्ध स्त्री-पुरुष सभी के हृदयों में चिन्ता की रेखायें फैल गई | स्थान स्थान से उनके स्वास्थ्य के लिये तार और चिट्ठियों के ढेर लग गये । उन्हीं में से एक पत्र आनरोधल राजा सर रामपाल सिंह जी के० सी० आई० ई० का भी था। जिसमें उन्होंने स्वामी जी के स्वास्थ्य के लिये परमात्मा से प्रार्थना करते हुये इस लेखक से उनके स्वास्थ्य के सम्बन्ध में पूछा था। जिस समय मैंने राजा साहब का पत्र रोग शय्या पर पड़े हुये, उनके स्वर्गरोहण से 4 दिन पूर्व (16 दिसम्बर) को सुनाया तो स्वामी जी ने उस पत्र का उत्तर श्रीमान राजा साहब के लिये निम्न प्रकार लिख देने को मुझे आदेश किया।


"मेरा यह शरीर अब जीर्ण शीर्ण हो गया है। इससे काम नहीं निकल दूं और सकता । इस ये मेरी हार्दिक इच्छा है कि मैं इस शरीर को शीघ्र छोड़ पुनः भारत में जन्म लेकर शुद्धि के द्वारा देश और जाति की सेवा करूँ। स्वामी जी को इच्छा पूरी हुई और एक बीर विजेता सेनापति की भांति ? थोड़े शब्दों में स्वामी जी भारतवर्ष और हिंदू जाति के चमचमाते भूषण थे, भारत मां के सपूत थे, बिलखती हुई विधवाओं के आश्रयदाता, अनाथों के पिता, अछूतों के उद्धारक, पतितों के सुधारक और प्राचीन वैदिक सभ्यता आदर्श वीर शिरोमणि प्रचारक थे।  भारत मां की स्वतंत्रता आपका आर्य- हिन्दू जाति को उत्थान आपका ध्येय लक्ष्य था । स्वामी जी ने अपने जीवन में अनेक कार्य किये और वे सभी उनके चिर-स्मारक हैं । किन्तु उन्हें से  'गुरुकुल कांगड़ी" "दलितोद्धार" वनिता विश्राम आश्रम, और "भारतीय हिन्दू शुद्धि-सभा" देहली मुख्य हैं, और ये ही उनके सच्चे स्मारक कहला सकते हैं । आर्य-हिंदू जाति उनके आदर्श रूप सच्चे स्मारकों को लक्ष्य में रखकर भक्ति, अपूर्व शक्ति और अतुल धन से रक्षा करेगी। स्वामी जी के ये स्मारक ही भारत माँ और आर्य हिन्दू जाति के उत्थान और स्वतंत्रता के मूल कारण सिद्ध होंगे। आज उस वीर पुरुष की, भूतपूर्व गुरुकुल पति के स्वर्गारोहण की तिथि है।  श्रद्धा - बलिदान का दिन है । आओ ! सब मिलकर प्रभु से प्रार्थना करें कि हे विभो ! हमें स्वामी जैसा बल और साहस दीजिये | स्वामी जैसी दृढ़ता और निर्भयता, उदारता और कर्मवीरता प्रदान कीजिये |



प्रभो ! हमें ऐसा आशीर्वाद दो कि हम सब मिलकर स्वर्गीय स्वामी के स्मारकों को सच्चे रूप में स्मारक बनावे और उनके आरम्भ किये हुये कार्यों को परिपूर्ण करें । हे ! स्वामिन ! देश और जाति की स्वतंत्रता के लिये जिस शक्ति पुंज को आपने स्वामी श्रद्धानन्द में ओत-प्रोत करके अवतरित किया था, उसी शक्ति का संचार कुल और देश वासियों के निर्मल हृदयों में भरपूर करो !! भक्त वत्सल विभो ! आपसे हमारी यही  याचना, यही वंदना और यही प्रार्थना है। -इत्योम् ।


- - चिदानन्द संन्यासी


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