शिवरात्रि पर्व और ऋषिबोधोत्सव
लेखक- प्रा० श्री भद्रसेन (होशियारपुर)
पर्व शब्द का अर्थ है- मेल और इसका अभिप्राय है- संगठन प्रसन्नता। भारतीय पर्वों में महाशिवरात्रि का एक धार्मिक पर्व के रूप में एक विशेष गौरवपूर्ण स्थान है, आर्य समाज की दृष्टि से शिवरात्रि जहां धार्मिक पर्व है, वहां ऐतिहासिक पर्व भी है। इसीलिए ही इस पर्व को ऋषिबोधोत्सव के नाम से भी स्मरण किया जाता है। क्योंकि-
महर्षि दयानन्द सरस्वती के जीवन से परिचित पाठक जानते हैं, कि बालक मूलशंकर का १३ वर्ष तक का जीवन दूसरे बच्चों की तरह ही बीता और १४वें वर्ष मूल के पिता जी ने कहा- 'बेटा! कल शिवरात्रि का पर्व है; अतः आज कथा सुनने के लिए जायेंगे।' बालक मूल नई चीज की खुशी में पिता जी के साथ कथा सुनने के लिए गया। वहां बड़ी उत्सुकता, श्रद्धा से कथा को सुना, जिस में कथावाचक ने बड़े विस्तार से शिव देवता की वीरता की घटनायें सुनाई और ऐसे शिव के व्रत रखने की पद्धति और महिमा बताई। यह सब सुनकर घर लौटते हुए मूल ने पिता जी से कहा- इस बार मैं भी शिवरात्रि का व्रत रखूंगा।
एक धार्मिक पिता के लिए इससे अधिक बड़ी खुशी की बात और क्या हो सकती है कि उसका पुत्र स्वयं कहे, कि मैं अपने धर्म की मर्यादा के अनुसार यह व्रत रखूंगा। अतः पिता जी ने बालक को व्रत रखने के लिए प्रोत्साहित किया। परन्तु जब मूल की माता को इस बात का पता लगा, तो उस ममतामयी मां ने व्रत के नियमों की कठिनता को अनुभव करते हुए ऐसी प्रतिज्ञा न करने की बात कही, पर मूलशंकर अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहा। पद्धति के अनुरूप बालक मूल ने सारा दिन निराहार व्रत बड़ी श्रद्धा से रखा और सायंकाल बड़ी निष्ठा के साथ पिता जी के साथ रात्रि जागरण के लिए टंकारा के शिव मन्दिर में गया। वहां पूजा, कीर्तन के साथ रात्रि जागरण प्रारम्भ हुआ।
कुछ समय पश्चात् कई भक्त घर चले गए और कई वहीं पर पीछे हटकर सो गए। मूल शिव के दर्शनों की उत्सुकता में जब जागने का जबरदस्ती प्रयास कर रहा था, तब उसने चूहों को शिव पर अर्पित मिठाई, फल खाते हुए देखा। आश्चर्य से भर कर मूल ने पिता जी को जगाकर पूछा, शिव जी इनको हटाते क्यों नहीं? इस प्रकार मूल ने प्रश्न पर प्रश्न किए। पिता जी ने मूल के प्रश्नों का उत्तर देते हुए प्रसंगवश कहा- सच्चे शिव तो कैलाश में रहते हैं। प्रश्नों के उत्तरों से सन्तुष्ट न होने पर मूल ने पिता जी से घर जाने की आज्ञा ली और अपने मन में सच्चे शिव के दर्शनों की प्रतिज्ञा करते हुए वह घर लौट गया।
इस घटना चक्र से मूलशंकर के मन में एक ऊहा-पोह, उपजा और विचार स्वातन्त्र्य, सच्चाई को समझने, कार्य-कारणभाव को जानने की ज्योति जगमगाई। इसके पश्चात् मूल से शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी और फिर दयानन्द संन्यासी बनकर सच्चे गुरु की खोज की और ब्रह्मर्षि गुरु विरजानन्द दण्डी से सम्पर्क किया तथा गुरु की आज्ञा के अनुसार आर्षज्ञान की ज्योति प्रकाशित करते हुए महर्षि दयानन्द ने जीवन के सच्चे शिव को स्पष्ट, सुनिश्चित करने का प्रयास किया। वस्तुतः यही ऋषि का वह बोध है, था, जिसका उत्सव आर्य समाज इस पर्व पर अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिए आयोजित करता है।
१८३८ की शिवरात न केवल मूलशंकर के लिए कल्याण की रात बनी, अपितु मूल से बने महर्षि दयानन्द द्वारा करोड़ों के कल्याण का कारण सिद्ध हुई। शिव तथा शिव के जितने भी पर्यायवाची शब्द- शम्भु, शंकर, मयस्कर, मयोभव, मृड आदि हैं, उन सबका अर्थ कल्याण, सुख ही है। सारा भारतीय साहित्य-धर्म को ही सुख का आधार, मूलस्रोत मानता है और इसी आधार पर महर्षि ने अपनी रचनाओं में अनेक बार धर्म को ही सुख, कल्याण का सर्वस्व सिद्ध किया है। जैसे कि- 'धर्मजन्य सुखरूप फल-जो विद्या पढ़ के धर्माचरण करता है, वही सम्पूर्ण सुख को प्राप्त होता है (सत्यार्थप्रकाश ३,५२), निश्चय जानों कि वह अधर्माचरण धीरे-धीरे तुम्हारे सुख के मूल को काटता चला जाता है (सत्यार्थप्रकाश ४,९५), धर्म का फल सुख (सत्यार्थप्रकाश ४,९७), और इसी भावना से महर्षि ने यह मूलमन्तव्य निर्दिष्ट किया है, कि 'सब काम धर्मानुसार (आर्यसमाज नियम ५) अर्थात् हमारे जीवन के हर क्षेत्र का प्रत्येक कार्य धर्म के ही अनुसार हो। अतः इस शिव=कल्याण के महान पर्व पर कल्याणकारक धर्म के रूप को जानना, समझना, अपनाना प्रथम बात हो जाती है।'
वस्तुतः शिव का रहस्य, मर्म या मार्ग धर्म का आचरण ही है। धर्म शब्द धृ धातु से मनिन प्रत्यय होने से बनता है। जिसका अर्थ है- धारण अर्थात् जिसके धारण, पालन से सुख प्राप्त हो। जो धर्म का फल स्वर्ग, जन्नत मानते हैं, उनकी दृष्टि में स्वर्ग की कल्पना सुख रूप ही है। धर्म का ईश्वर भक्ति एक प्रमुख तत्त्व है, और ईश्वर- आनन्द, सुख, कल्याण का खजाना है। हां, परमात्मा का मुख्य स्वरूप कर्म फल देना ही है। शेष सारे गुण इसी के अन्दर आ जाते हैं। अतः अच्छा फल प्राप्त करने के लिए अच्छे कर्म-धर्म का आचरण ही एक मात्र सुख का आधार है। महर्षि ने इसी दृष्टि से जहां ईश्वर भक्ति का वर्णन किया है, वहां धर्म को बताने के कारण ही वेद को इतना अधिक महत्त्व दिया है। सारा भारतीय साहित्य इसका साक्षी है और तभी तो यह कहा जाता है, कि 'धर्म जिज्ञासमाननां प्रमाणं परमं श्रुति: (२,१३)= जो धर्म को समझना चाहते हैं, वे वेद द्वारा ही धर्म का निश्चय करें', 'क्योंकि धर्म अधर्म का निश्चय बिना वेद के ठीक-ठीक नहीं होता (सत्यार्थप्रकाश ३,५२)।'
मीमांसा दर्शन, मनुस्मृति आदि शास्त्र धर्म की पहचान हित के रूप में ही बताते हैं। तभी तो सन्त तुलसीदास जी ने लिखा है- 'परहित सरस धर्म नहीं भाई' और शिव का अर्थ भी कल्याण ही है, अतः इस शुभ पर्व पर कल्याण के आधार धर्म को समझना बहुत जरूरी हो जाता है, क्योंकि भारतीय शास्त्रों और हमारे व्यवहार में धर्म शब्द अनेक अर्थों में आता है, अतः उसके सही रूप और प्रसंग को समझने के लिए यह जानना बहुत जरूरी है, कहां किस का वाचक है? तभी तो मनुस्मृति में कहा है- 'आचार: परमो धर्म: (१/१०८)' अर्थात् आचरण सबसे बड़ा धर्म है और अन्य धर्म के अर्थ, रूप=धर्मग्रन्थ, स्थान, विश्वास, जप, तप, तीर्थ, यज्ञ, पूजापाठ, सत्संग आदि सड़क के बोर्डों की तरह रास्ता दिखाने वाले हैं, हृदय शुद्धि के लिए हैं।
जैसे कि धर्म= अच्छाई, भलाई ही है, इस पर पक्का रहने के लिए ही हम धर्मग्रन्थ पढ़ते हैं, सत्संग करते हैं। इसीलिए मनु जी ने धृति, क्षमा, संयम, सच्चाई आदि दश बातों को धर्म कहा है। जो कि आचरण, अच्छाई की ही बातें हैं। इनको पालने से ही जीवन, परिवार, समाज सुखी होता है। धर्म के जितने भी अर्थ मिलते हैं, उनका असली आधार, मूल जड़-आचार=आचरण, अच्छाई, भलाई ही है। इस मूल बात को न समझने के कारण अर्थात् जड़ को न सींचने के कारण आज धर्म के नाम पर ताण्डव नाच हो रहा है, जिससे परस्पर ईर्ष्या, द्वेष, विनाश ही सामने आ रहा है। हम जड़ को सींचने के स्थान पर पत्तों को पानी दे रहे हैं, फिर भी अच्छे फलों की आशा करते हैं।
यह मानी हुई बात है, कि कृषि या बागवानी में अच्छे फल या हरा-भरापन तभी प्राप्त होता है, जब मूल सजीव होता है, जड़ को सींचा जाता है। इसी स्थिति में ही फसल या पौधे, वृक्ष का विकास होता है। इसीलिए उपनिषद् के ऋषि ने सन्देश दिया है, कि 'सन्मूला: सोम्येभा: सर्वा: प्रजा: (छान्दोग्य० ६/८/४)' क्योंकि मूल के सजीव होने पर ही शाखा, पत्ते, फूल, फल पनपते हैं। पत्तों को पानी देने से फल हरा-भरापन, प्रगति नहीं आती। ठीक इसी प्रकार आर्यों! शिवरात्रि को मानने वालों! आओ सोचें, कि हम अपने जीवन, परिवार, समाज में जिस प्रगति, सफलता, हरे-भरेपन को चाहते हैं, क्या उसी की जड़ को सींच रहे हैं, या उसके पत्तों को पानी दे रहे हैं? जैसे कि धर्म का मूल- आचार=अच्छाई है और धर्म के नाम से पुकारे जाने वाले पूजा-पाठ, जप, तप, तीर्थ, ग्रन्थ, स्थल, स्नान, पत्ते हैं, पर जहां कहीं देखो।
आज सर्वत्र पत्तों को प्रमुखता दी जा रही है। इसीलिए पत्तों को पानी देने से धर्म का फल सुख, स्नेह, सद्भाव सामने लाने वाले आर्य समाज के कार्यकर्ताओं रूपी मूलों, जड़ों को सींचने के स्थान पर जो कभी भूलकर आर्य समाज में एक दिन आ जाते हैं, हम केवल उन्हीं का स्वागत, सत्कार, अभिनन्दन करते हैं, जबकि आर्य समाज का कार्य प्रतिदिन करने वाले उपेक्षित रहते हैं।
आर्य समाज (के प्रसार) का मूल स्थानीय आर्य समाजें हैं और आर्य समाज के प्रचार की जड़ आर्य समाज के सत्संग हैं, क्योंकि उनमें ही हम अपने सदस्यों के विचारों, भावनाओं को सुदृढ़ करते हैं। अतः वार्षिक उत्सवों, विशेष समारोहों की तरह उनकी ओर ध्यान देना चाहिए। उन पर भी विशेष व्यय करना चाहिए, उन सत्संगों में योग्य विद्वानों को उत्सव की तरह बुलाया जाए। उस समय अपने सदस्यों से आने वाले का परिचय हो, अपने सदस्यों की शंकाओं, जिज्ञासाओं, विचारों पर विचार हो। इससे वे आर्य समाज से अपमान अनुभव कर सकेंगे और सदस्य आर्य समाज के सुदृढ़ स्तम्भ सिद्ध होंगे। तब वे आर्य समाज की जड़ बनकर विकास में सहयोगी हो सकेंगे।
आर्यसमाज का इतिहास इस बात का साक्षी है, कि जब तक आर्य समाज के सत्संग सोत्साह, होते रहे, तभी तक आर्य समाज पनपता रहा। अतः आर्य समाज की शिवरात्रि=कल्याण की घड़ी की मांग है, कि हम अपनी स्थानीय आर्यसमाजों, छोटे समझे जाने वाले कार्यकर्त्ताओं, सदस्यों पर विशेष ध्यान दें। ये आर्य समाज की प्रगति की जड़ है, जिन 'जड़ों को सींचने से' आर्य समाज हरा-भरा हो सकता है।
[स्त्रोत- आर्य मर्यादा : आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का प्रमुख पत्र का मार्च २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
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