Saturday, March 21, 2020

वेदाङ्ग छन्द: शास्त्र, स्वरूप एवं उपयोगिता



वेदाङ्ग छन्द: शास्त्र, स्वरूप एवं उपयोगिता

-डॉ० जयदत्त उप्रेती

(विद्यावयोवृद्ध श्रद्धेय आचार्य जी ने वैदिक वाङ्मय में छन्द की स्थिति, छन्द का वैदिक स्वरूप तथा वैदिक वाङ्मय की अर्थसम्पत्ति में उसकी उपयोगिता या प्रयोजन पर प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत किया है। प्रयोगकाल में वक्ताओं की वाणी से क्रमशः अभिव्यक्त होने ही छन्दोयुक्त मन्त्र की गति है, यही किसी मन्त्र का छन्द पर टिकना है तथा इसीलिए छन्द को पादस्थानी कहा जाता है। वैदिक प्रमाणों के आधार पर छन्द शब्द अधियज्ञ, अधिभौतिक तथा आध्यात्मिक प्रसङ्गों में अनेक अर्थ वाला है। बिना छन्दज्ञान के कोई व्यक्ति वेदाधारित किसी भी कर्म को करने में समर्थ नहीं है। अतः प्रत्येक वैदिक पुरूष को छन्दज्ञान परमावश्यक है। -सम्पादक आर्य सेवक)

जिस प्रकार मनुष्य-शरीर में आंख, कान, मुख, नाक, हाथ, पैर आदि अङ्ग विविध प्रयोजनों को सम्पन्न करने के लिए विधाता ने बनाये हैं, उसी प्रकार ऋग्-यजु:-सामाथर्व- वेदरूपी पुरुष के सम्पूर्ण विषय-वस्तु और अर्थ को जानने और तदनुसार कर्म करने के लिए प्राचीन महर्षियों ने शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष और कल्प नामक छह वेदाङ्ग-शास्त्रों की रचना की है। पूर्वाचार्यों ने एक रूपकालङ्कार से इन छह वेदाङ्ग-शास्त्रों की कल्पना इस प्रकार की है-

शब्दशास्त्रं मुखं चक्षुषी ज्योतिषं,
श्रोतमुक्तं निरुक्तं च कल्प: करौ।
या तु शिक्षास्य वेदस्य सा नासिका,
पादपद्मद्वयं छन्द आद्यैर्बुधै:।।
अर्थात् वेद का प्रधान अङ्ग व्याकरण मुख के समान है, ज्योतिष शास्त्र नेत्र के समान, निरुक्त शास्त्र कान के समान, शिक्षा नामक वर्णोच्चारण-शास्त्र नासिका के समान, छन्द:शास्त्र दो पैरों के समान और कल्पशास्त्र दो हाथों के समान हैं।

इस लेख में वेद के पादाङ्ग तुल्य छन्द:शास्त्र के सम्बन्ध में कुछ विचार प्रस्तुत हैं। स्थूल दृष्टि से देखा जाय तो प्रश्न होता है कि चारों वेदों के समस्त मन्त्र अनेक प्रकार के छन्दों में निबद्ध हैं तो उन छन्दों को पैर की उपमा क्यों दी गई है? उत्तर है- जिस प्रकार मनुष्य आदि प्राणियों के शरीर में पैर जहां सारे शरीर के भार को थामे हुए रहते हैं और चलकर उसे एक स्थान से दूसरे स्थान तक चलने और पहुंचाने का कार्य करते हैं, उसी प्रकार अक्षरपरिणामात्मक अथवा, मात्राक्षर-नियतात्मक वेदवाणी के आधारभूत गायत्री आदि छन्द भी प्रयोगकाल में वक्ताओं की वाणियों में व्यक्त होते रहते हैं। वही स्वरछन्दोयुक्त मन्त्रों का चलना है। यही छन्दोयुक्त मन्त्रों का छन्द पर टिकना है। इसी कारण छन्दों को पादस्थानी उपमित किया गया है।

छन्दों का स्वरूप- सम्प्रति छन्द:शास्त्र का एकमात्र प्रामाणिक ग्रन्थ महर्षि पिङ्गलाचार्य-रचित छन्द:शास्त्र है। इस ग्रन्थ में दो प्रकार छन्दों के विवरण मिलते हैं। वे हैं- वैदिक छन्द और लौकिक छन्द। आरम्भ से चतुर्थ अध्याय के सातवें सूत्र तक वैदिक छन्दों के लक्षण-परिमाणों का वर्णन है। तदनन्तर आठवें अध्याय पर्यन्त साढ़े चार अध्यायों में लौकिक छन्दों का विवरण है। वैदिक छन्दों की कुल सूत्रसंख्या अध्याय-क्रमानुसार १५, १६, ६६, ७ है जो कुल मिलाकर १०४ है। लौकिक छन्दों की संख्या बहुत अधिक है। और वहां अध्यायक्रमानुसार सूत्रसंख्या ४६, ४४, ४३, ३६, ३५ = २०४ है। ये लौकिक छन्द सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में प्रयुक्त होते आये हैं, जो काव्य, महाकाव्य, खण्ड-काव्य, नाटक, चम्पूकाव्य में देखे जा सकते हैं।

वैदिक छन्दों के मुख्य भेद सात हैं, जो गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप्, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप्, जगती नाम से प्रसिद्ध हैं। इनमें गायत्री छन्द में २४ अक्षर, उष्णिक् में २८ अक्षर, अनुष्टुप् में ३२ अक्षर, बृहती में ३६ अक्षर, पंक्ति में ४० अक्षर, त्रिष्टुप् में ४४ अक्षर और जगती में ४८ अक्षरों का हो जाता है। छन्द:शास्त्र के द्वितीय अध्याय में दैवी, आसुरी, आदि विभिन्न संख्यायुक्त अक्षरों के अनेक भेद दर्शाये हैं, जो इस प्रकार हैं-
१. दैवी गायत्री- १ अक्षर छन्द।
२. आसुरी गायत्री- १५ अक्षर छन्द।
३. प्राजापत्या गायत्री- ८ अक्षर छन्द।
४. याजुषी गायत्री- ६ अक्षर छन्द।
५. साम्री गायत्री- १२ अक्षर छन्द।
६. आर्ची गायत्री- १८ अक्षर छन्द।
७. ब्राह्मी गायत्री- ३६ अक्षर छन्द।
८. चतुष्पाद् गायत्री- २४ अक्षर छन्द। प्रत्येक चरण में ६ अक्षर।
९. आर्षी गायत्री- २४ अक्षर छन्द। तीन चरण, प्रत्येक चरण में ८ अक्षर।
१०. निचृद् गायत्री- २३ अक्षर छन्द। तीन चरण, क्रमशः ७, ८, ८ अक्षर।
११. भुरिग् गायत्री- २५ अक्षर छन्द। तीन चरण, क्रमशः ८, ८, ९ अक्षर।
१२. विराड् गायत्री- २२ अक्षर छन्द। तीन चरण, क्रमशः ६, ८, ८ अक्षर।
१३. स्वराड् गायत्री- २६ अक्षर छन्द। तीन चरण, क्रमशः ८, ८, १० अक्षर।
१४. पादनिचृद् गायत्री- २१ अक्षर छन्द। तीन चरण, प्रत्येक चरण में ७ अक्षर।
१५. अतिपादनिचृद् गायत्री- २१ अक्षर छन्द। तीन चरण, क्रमशः ६, ८, ७ अक्षर।
१६. वर्धमाना गायत्री- २१ अक्षर छन्द। तीन चरण, क्रमशः ६, ७, ८ अक्षर।
१७. प्रतिष्ठा गायत्री- २४ अक्षर छन्द। तीन चरण, क्रमशः ८, ७, ६ अक्षर।
१८. नागी गायत्री- २४ अक्षर छन्द। तीन चरण, क्रमशः ९, ९, ६ अक्षर।
१९. वाराही गायत्री- २४ अक्षर छन्द। तीन चरण, क्रमशः ६, ९, ९ अक्षर।
२०. द्विपाद् गायत्री- २० अक्षर छन्द। दो चरण, क्रमशः १२, ८ अक्षर।

एकाक्षर गायत्री छन्द ओम् या ओं है। ओं खं ब्रह्मं (यजु० ४०/१७) इस वेदप्रमाण से ओम् यह शब्द आकाशवत् सबसे महान् ब्रह्म परमेश्वर परमात्मा का नाम है। यही दैवी गायत्री ब्राह्मी गायत्री भी कहलाती है। यही वेदमाता गायत्री भी है और चारों वेदों का एक देवता है, जिसका उच्चारण मन्त्र के प्रारम्भ में किया जाता है।
छन्द: शब्द प्रायः संवरणार्थक छदि या अपवारणार्थक छदि (चुरादि:) धातु वाला माना जाता है, जैसे कि वस आच्दादनार्थक धातु है, उसी के समान। कहा जाता है कि एक ईश्वर जो सर्वत्र अभिव्याप्त है, उससे भिन्न के अपवारण और उसी सर्वव्यापक चेतन तत्त्व की अभिव्याप्ति का स्मरण इन दो धात्वर्थों से गृहीत होता है। इसी कारण छन्द: शब्द से व्याकरणशास्त्र को रचयिता महर्षि पाणिनि ने वेद अर्थ लेकर वेद के लिए अष्टाध्यायी में अनेक बार बहुलं छन्दसि सूत्र की रचना की है। इससे स्पष्ट होता है कि छन्दस् शब्द वेद का पर्याय है। संस्कृत साहित्य में भी वेदों या वेद-मन्त्रों के लिए छन्दस् शब्द का प्रयोग हुआ है। जैसे कि महाकवि कालिदास का यह श्लोक प्रसिद्ध है-

वैवस्वतो मनुर्नाम माननीयो मनीषिणाम्।
आसीन्महीक्षितामाद्य: प्रणवश्छन्दसामिव।। -रघुवंश १/११

छन्द शब्द का एक अर्थ इच्छा या कामना भी है। किन्तु छन्द:शास्त्र में तो नियताक्षर-परिमाणात्मक शब्द या शब्दसमूह ही छन्द कहा जाता है।
जैसा कि ऊपर कहा गया है, कांच से ढके हुए दीपक में वायु का प्रवेश न होने से वह अविरत रूप से जलता रहता है, स्वतन्त्रता से, उसी प्रकार इतरसम्बन्धापवारक होना ही आच्छा-दकत्व है, यही छन्द: शब्द का तात्त्विक अर्थ भी है।
यजुर्वेद वाजसनेयि माध्यन्दिनी संहिता के १४वें अध्याय के ९, १०, १८, १९ वें मन्त्रों में तथा १५वें अध्याय के चौथे एवं पांचवें मन्त्रों में क्रमशः मूर्धावय:, प्रजापतिश्छन्द:, अनड्वा-न्वय: पंक्तिश्छन्द:, माच्छन्द: प्रमाच्छन्द: प्रतिमाच्छन्द:, पृथ्विवीच्छन्दोऽन्तरिक्षं छन्द:, एवश्छन्दो वरिवश्छन्द:, आच्छच्छन्द: प्रच्छच्छन्द:, इत्यादि मन्त्रों में लगभग सवा सौ से अधिक वस्तुओं का नाम लेकर उन्हें छन्द: कहा गया है। ऋषि दयानन्द ने यजुर्वेदभाष्य में इन मन्त्रों में प्रयुक्त छन्द: शब्द का अर्थ स्वाधीन, स्वतन्त्र कर्म, बल आदि किया है। जबकि भाष्यकार उव्वट एवं महीधर ने कात्यायन श्रौतसूत्रानुसार इन मन्त्रों का अर्थ कर्मकाण्डपरक किया है और छन्द: शब्द से गायत्री छन्द का ग्रहण किया है। अस्तु, जो भी हो, इतना स्पष्ट है कि छन्द: शब्द न केवल गायत्री आदि अक्षर-परिमाणात्मक अर्थ का बोधक है, अपितु उससे इतर अन्यान्य अर्थों का भी द्योतक है। मा, प्रमा, प्रतिमा शब्द में योगरूढ़ दृष्टि से मा अर्थ मान-माप अर्थात् लम्बाई-चौड़ाई-ऊंचाई, छोटा-बड़ा है, प्रमा का अर्थ प्रमाण, यथार्थ, ज्ञान है और प्रतिमा का अर्थ प्रतिकृति, प्रतिमान, प्रतिमिति, सादृश्य, सारूप्य है। तथापि वैदिक वाङ्मय में इन शब्दों का अन्य अर्थों में भी प्रयोग मिलता है। जैसे कि-

मा छन्द:, तत्पृथिवी, अग्निर्देवता।।१।।
प्रमा छन्द:, तदन्तरिक्षम्, वातो देवता।।२।।
प्रतिमा छन्द:, तद्द्यौ:, वसूर्यो देवता।।३।।
अस्त्रीवि छन्द:, तद्दिश:, सोमो देवता।।४।।
विराट् छन्द:, तद्वाक्, वरुणो देवता।।५।।
गायत्री छन्द:, तदजा, बृहस्पतिर्देवता।।६।।
त्रिष्टुप् छन्द:, तद्हिरण्यम्, इन्द्रो देवता।।७।।
जगती छन्द:, तद्गौ:, प्रजापतिर्देवता।।८।।
अनुष्टुप् छन्द:, तद्वायु:, मित्रो देवता।।९।।
उष्णिहा छन्द:, तच्चक्षु:, पूषा देवता।।१०।।
पंक्तिश्छन्द:, तत्कृषि:, पर्जन्यो देवता।।११।।
बृहती छन्द:, तदश्व:, परमेष्ठी देवता।।१२।।

अन्यत्र कहा गया है, पृथिवी गायत्री, अन्तरिक्षं त्रैष्टुभम्, द्यौर्जागती। अग्निर्गायत्र:, इन्द्रस्त्रैष्टुभ:, विश्वे देवा जागता:। तेजो वै ब्रह्मवर्चसं गायत्रम्, ओजो वा इन्द्रियं वीर्यं त्रिष्टुप्।
पशवो जागता:। ब्रह्म गायत्रम्, क्षत्रं त्रैष्टुभम्, विड् जागतम्। ब्राह्मणो गायत्र:, क्षत्रियस्त्रैष्टुभ: वैश्यो जागत:। चतुर्विंशत्य-क्षरा वाग् गायत्री, चतुश्चत्वारिंशदक्षरा वाक् त्रैष्टुभी, अष्टचत्वारिंशदक्षरा वाग् जागती। ये कतिपय देवताओं और छन्दों के लक्षण्य उदाहरण हैं।
पुनः कहा गया है- प्राणमात्रा छन्द:। क्योंकि यह सारा स्थावर-जङ्गम जगत् प्राणयुक्त होकर ही जीवित रहता है, निष्प्राण नहीं। इससे यह गतार्थ हुआ कि प्राण का नाम भी छन्द: है।

प्राणरूप छन्द यह एक गम्भीर विचार का विषय है। अपने वेदविज्ञान आलोक (वैदिक रश्मि थ्योरी) भाग में आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक ने प्राण व छन्द तत्त्वदव विस्तार से विचार किया है। एक स्थान पर वे लिखते हैं कि जब ओम् रश्मि के पश्यन्ती रूप की तीव्रता बढ़ती है, उस समय प्रायः एकरसवत् मनस्तत्त्व में स्पन्दन होने लगते हैं। ये स्पन्दन ही भूरादि व्याहृति रश्मियों एवं प्राथमिक प्राणों का रूप होते हैं।...ईशदवर-तत्त्व काल-तत्व के द्वारा सम्पूर्ण महतत्त्व अहंकार वा मनस्तत्त्व के विशाल सागर, जो सर्वत्र एकरसवत् भरा रहता है, को सूक्ष्म पश्यन्ती ओम् वाक् रश्मियों से ऐसे स्पन्दित करता रहता है, मानो कोई शक्ति किसी महासागर में एक साथ तीव्र गति से भांति-भांति की सूक्ष्म-स्थूल लहरें उत्पन्न कर रही हो, उसी प्रकार ईश्वर अपनी शक्ति रूप कालवाची ओम् रश्मि के द्वारा मनस् वा अहंकार तत्त्वदव में प्राण व छन्द रश्मियों रूपी लहरें निरन्तर उत्पन्न करता रहता है। ये लहरें (रश्मियां) मुख्यतः चार प्रकार की होती हैं-

(अ) मूल छन्द रश्मियां
(ब) प्राथमिक प्राण रश्मियां
(स) मास व ऋतु रश्मियां
(द) अन्य छन्द व मरुद् रश्मियां

जिस प्रकार प्राणों को कहीं छन्द कहा गया है, उसी प्रकार किसी प्रसङ्ग में सूर्य की रश्मियों को भी छन्द कहा गया है। इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण में एक स्थान पर कहा गया है, छन्द ही वेदवाणियां हैं- छन्दासि वै ग्नाश्छन्दोभिर्हि स्वर्गं लोकं गच्छन्ति इन और ऊपर उल्लिखित उदाहरणों से स्पष्ट है कि छन्द: शब्द वैदिक वाङ्मय में अनेक अर्थों का वाचक है।

छन्द:शास्त्र की उपयोगिता-प्रयोजन-
ऋग्वेद में कहा गया है कि छन्दों के योग को जानना धीर पुरुषों में से विरले विद्वानों द्वारा ही सम्भव है, साधारण अल्पबुद्धि वाले के वश की बात नहीं है। वेदमन्त्रों के कर्मकाण्ड में प्रयोग-काल में मन्त्रों का ऋषि, देवता, छन्द, स्वर का ज्ञान होना आवश्यक माना गया है। जो इनका प्रयोग नहीं करता है, वह निन्दनीय माना गया है। जैसा कि कहा गया है-

मन्त्राणां दैवतं छन्दो निरुक्तं ब्राह्मणान् ऋषीन्।
कृत्तद्धितादींश्चाज्ञात्वा यजन्तो यागकण्टका:।।
अविदित्वा ऋषिच्छन्दोदैवतं योगमेव च।
योऽध्यापयेज्जपेद्वापि पापीयान् जायते तु स:।।२।।
ऋषिच्छन्दोदैवतानि ब्राह्मणार्थं स्वराद्यपि।
अविदित्वा प्रयुञ्जानो मन्त्रकण्टक उच्यते।।३।। इति स्मर्यते।

यो ह वा अविदितार्षेयच्छन्दोदैवत-ब्राह्मणेन मन्त्रेण याजयति वाऽध्यापयति वा स्थाणुं वच्छति गर्तं वा पद्यते प्र वा मीयते पाणीयान् भवति। तस्मादेतानि मन्त्रे मन्त्रे विद्यात्। (छां०ब्रा० ३/७/५) इति श्रूयते।
भगवान् कात्यायनोऽप्याह-छन्दांसि गाय-त्र्यादीनि एतान्विदित्वा योऽधीतेऽनुब्रूते, जपति, जुहोति, यजति, याजयते तस्य ब्रह्म निर्वीर्यं यातयामं भवति। अथान्तरा श्वगर्तं वा पद्यते स्थाणुं वच्र्छति प्रमीयते वा पापीयान् भवति। अथ विज्ञायैतानि योऽधीते तस्य वीर्यवत्- अथ योऽर्थवित्तस्य वीर्यवत्तरं भवति हुत्वेष्ट्वा तत्फलेन युज्यते। इति। इसलिए छन्दशास्त्र के बहुत प्रयोजन हैं। उसके विज्ञान के बिना यज्ञवेद निर्वीर्य कालातीत (यातयाम) होता है। इसलिए कहना चाहिए कि यज्ञवेद अर्थात् यज्ञविषयक कर्मकाण्ड का उपकारक है छन्द:-शास्त्र।
और जिस प्रकार नाट्यवेद का उपकारक नृत्यवेद है, नृत्यवेद का उपकारक वाद्यवेद है, और वाद्यवेद का उपकारक गेयवेद है, तथा जिस प्रकार वाग्वेद (व्याकरण), अङ्कगणितविद्या एवं क्रियात्मक विद्यायें सब वेदों की उपकारक मानी जाती हैं, उसी प्रकार छन्दोवेद भी सर्वोपकारक है, क्योंकि जो गेयवेद या गानविद्या है, वह छन्दो-वेद (छन्द:शास्त्र) से भिन्न नहीं है, प्रत्युत उसी के अन्तर्गत है। क्योंकि छन्दविशेष ही तो गाये जाते हैं। किसी भी गीत में कोई न कोई छन्द होता ही है।

शिल्पं छन्द: यह श्रुतिवचन है। शिल्प-विद्या किसी फल की प्राप्ति के उद्देश्य से प्रवृत्त होती है। क्योंकि यह सारा ब्रह्माण्ड ही विश्वकर्मा की अद्भुत रचनाचातुरी शिल्पविद्या का साक्षात् निदर्शन है। लोक में भी सारे शिल्प उसी की रचनारूप शिल्प के अनुकरण पर मेधावी जनों एवं वैज्ञानिकों के द्वारा आविष्कृत होकर लोक में प्रचलित हो रहे हैं। इसलिए शिल्पविद्यात्मना भी छन्द:शास्त्र की सर्ववेदोपकारकता सिद्ध होती है। ऐतरेयारण्यक के अनुसार अभ्युदय (लौकिक सुखोन्नति) का हेतु भी छन्दोविज्ञान है। आध्यात्मिक प्रक्रियानुसार उष्णिक् छन्द शरीर के लोम हैं, गायत्री छन्द त्वचा है, त्रिष्टुप् मांस है, अनुष्टुप् नाड़ी है, जगती हड्डी है, पंक्ति मज्जा है, और प्राण बृहती है, वह छन्दों से छन्न (आवृत, आच्छादित) है। छन्दों से छन्न (व्याप्त) होने के कारण ये शरीरांग (अन्नमय, प्राणमय कोषादि) छन्दांसि कहे जाते हैं। इसलिए पुरुष के पास से सम्बन्ध को निवारण करने के कारण अपवारक होने से इन्हें छन्द कहना भी छन्द:शास्त्र के प्रयोजनों में अन्यतम है।

कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा वाले बतलाते हैं कि प्रजापति ने अग्निचयन किया तो वह छुरा और वज्र होकर रहा, उसे देखकर देवगण डर गये और उसके समीप नहीं आये। तब उन्होंने स्वयं को छन्दों से ढक लिया और तब समीप पहुंचे। यही छन्दों का छन्दस्त्व है। (तै०सं० ५/६/६)

छान्दोग्योपनिषद् की श्रुति है- देवगण मृत्यु से डरने पर त्रयीविद्या (ऋग्वेदादि चारों वेद) में प्रविष्ट हो गये। उन्होंने छन्दोबद्ध मन्त्रों से अपने को आच्छादित कर लिया। इसलिए जो इन छन्दों से आच्छन्न किया, यही छन्दों का छन्दस्त्व है। (छा०उप० १/४/२) इसलिए अपमृत्यु का वरण करने के कारण छन्द कहा जाता है। यह भी छन्द:शास्त्र का एक प्रयोजन है।

वृद्धपराशरादि के कथन के अनुसार पुराकाल में सुरों (देवों) को असुरों ने पराजित कर दिया तो सुरों ने गायत्री आदि छन्दोन्वित मन्त्रों से अपने को आच्छन्न किया तो असुरों को जीत लिया। अतः शत्रुपरिभावकत्व और वियशालित्व प्राप्त करना भी छन्द:शास्त्र का एक प्रयोजन है।

सर्वानुक्रमणीसूत्र में महर्षि कात्यायन का कथन है, अर्थों के इच्छुक ऋषि लोग देवताओं के प्रति छन्दों के साथ बढ़े-अन्न, पुत्रादि से लेकर मोक्षपर्यन्त (धर्मार्थकाममोक्षनामक चारों पुरुषार्थों) फलों को अपने अधीन करने की इच्छा वाले मधुच्छन्दा से लेकर संवनन (ऋग्वेद के प्रथम सूक्त से लेकर दशम मण्डल के अन्तिम सूक्त के) ऋषि पर्यन्त ऋषियों ने सूक्तोक्तहविर्भाग् वाले देवताओं को गायत्री आदि छन्दोयुक्त मन्त्रों से स्तुति द्वारा प्राप्त किया, यह जानकर कि अर्थ की प्राप्ति का यही उपाय है। इसलिए अन्न, पुत्रादि से लेकर मोक्षपर्यन्त फलों की प्राप्ति का साधन होना भी छन्द:शास्त्र के अनेक प्रयोजनों में से एक प्रयोजन है। षड्गुरुशिष्य ने भी कहा है-

ऋषिनामार्षगोत्रज्ञ: ऋषे: संस्थानतामियात्।
एकैकस्य ऋषेर्ज्ञानात् सहस्त्राब्दा स्थितिर्भवेत्।।
छन्सां चैव सालोक्यं छन्दोज्ञानादवाप्नुयात्।
तस्यास्तस्या देवतायास्तद्भावं प्रतिपद्यते।।

गायत्री आदि वैदिक छन्दों का सारूप्य या प्रतीक यज्ञ में विभिन्न जागतिक वस्तुओं के साथ दर्शाया जाता है जिससे ज्ञात होता है कि ये छन्द न केवल वेदमन्त्रों के साथ सम्बद्ध होते हैं अपितु संसारगत विभिन्न वस्तुओं के साथ इनका सम्बद्ध हुआ करता है। जैसा कि ऐतरेय ब्राह्मण १५/४ में कहा गया है, जो सूर्य है वह धाता भी है और वषट्कार भी है, जो द्यौ है वह अनुमति भी है और गायत्री भी है, जो उषा है वह राका भी है और त्रिष्टुप् भी है, जो गौ है वह सिनीवाली भी है और जगती भी है, जो पृथिवी है वह कुहू भी है अनुष्टुप् भी है। यही बात मैत्रायणी संहिता के राजसूयब्राह्मण में भी कही गई है। यहां विशेष ज्ञातव्य यह है कि जो पूर्वा पौर्णमासी है, वह अनुमति कही जाती है और जो उत्तरा है, वह राका। इसी प्रकार पूर्वा अमावस्या सिनीवाली और उत्तरा कुहू कही जाती है। यह सब छन्दोज्ञान के बिना नहीं जाना जाता। इसलिए छन्द:शास्त्र की सर्वत्र वैदिक विषयों में उपयोगिता सिद्ध है।
-वेदवाणी से साभार

[स्त्रोत- आर्य सेवक : आर्य प्रतिनिधि सभा म०प्र० व विदर्भ का मुखपत्र का फरवरी-मार्च २०२० का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]

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