Tuesday, March 17, 2020

आर्यो सावधान





आर्यो सावधान


प्रियं मा कृणु देवेषु प्रियं राजसु मा कृणु।

प्रियं सर्वस्य पश्यत उतशूद्र उतार्ये।। (अथर्ववेद 19-62-1)


मुझे ब्राह्मण का प्रिय कर, मुझे क्षत्रीय का प्रिय कर, मुझे सब का प्रिय कर, शूद्र, वैश्य तक का प्रिय कर।


पावमानी, कल्याणी वाणी वेद हमे सब के प्रिय होने की प्रेरणा देती है। वैदिक सिद्धान्त, राष्ट्र की अभिव्यक्ति के आधार आचार और विचार को ही मानते है। आचार का नियन्त्रक राजसत्ता को प्रतिपादित कर वेद ने विचार की स्वतन्त्रता का नियामक ब्राह्मण(विद्वान) को रखा है। अतः प्रत्येक मनुष्य विचार स्वतन्त्रता का केन्द्र होने पर विद्वत विमर्श के वृत से बाहिर नही जा सकता, तथा तर्क विनीमय की शास्त्र परम्परा से सिद्ध होने पर ही सर्वमान्य विचार के रूप मे स्वीकृत होता है। वेद का पुरूष सूक्त इस सामाजिक उत्कृष्टा के प्रयत्न और प्राप्ति का साधन है।

भारत भूमि सदैव इस आर्य परम्परा का निर्वाहन करती रही है। इस कारण भारत में विभिन्न मत, पंत, सम्प्रदाय और समुदायों का अस्तित्व आज पर्यन्त बना हुआ है। वो मज़हबी समूह जो अपनी पितृभूमि से तिरस्कृत हो निर्वासन की त्रासदी भोगने के अनन्तर लुप्त अवस्था को प्राप्त हुए थे, ने भी भारत को मातृभूमि के रुप मे स्वीकार किया ओर अपने मज़बही अस्तित्व के उन्मूलन से बचे रहे।

वो मत जिन्होने जड़ प्रकृति को सब कुछ माना व ब्रह्म को नकारा तथा वो मत जो केवल ब्रह्म को ही सत्य मानते है व प्रकृति को नकारते है, हजारों वर्षों से सहचरी है। चारवाक जैसा तामसी लिप्सा से पूरित विचार भी अपने मत को प्रचारित करने हेतु कभी भौतिक रूप से बाधित नही हुआ, केवल और केवल ऋषि प्रणीत तर्क तूला का आवलम्बन, शास्त्रार्थ विधि ही इन मतों के प्रचार में बाधक बनी। राजसत्ता ने कभी अपनी सीमा का अतिक्रमण नही किया।

किन्तु कालान्तर में, सम्भवतः बौद्ध मत के युगपत्, ब्राह्मण वृत्ति ह्रास की समयातित सीमा लांघ चुकी थी, और विचार की स्वतन्त्रता के रुप में जो शेष था वो केवल कोरे दर्शन के नाम पर प्रचलित शून्यभाव मिथक की एकाकि अतिवादिता, जिसने देश को अकर्मण्य जडता की अन्धी गली में छोड दिया। परिणामतः यदा देश पर सेमैटिक मतों से प्रेरित. विस्तारवादी राजसत्ता ने अपनी कुटिल, विभत्स प्रवर्तियों के साथ आक्रमण किया तदा हमारे तथाकथित मतवादी विद्वानों ने “घडे में थाली ढूढ़ने” के उपक्रम मे लग कर क्षत्रीय तेज को भी पराभूत होने पर विवश कर दिया।

ग्यारवीं सदी से आरम्भ होकर आज पर्यन्त इस अकर्मण्यता का रोग छुटाये नही छूट रहा। देश पुन: इस्लामी जेहाद, ईसाई मिश्नरीयों तथा इन सब के प्रेरक सुह्रद्, वामपंथी गठजोड़ की कुटिल नीति से विभाजन के मुहाने पर है।

जिस आर्य समाज ने अपना सर्वस्व स्वतन्त्रा आन्दोलन में स्वाहा कर दिया, हैदराबाद सत्याग्रह में जिसके गुरूकुलों के निह्त्थे ब्रह्मचारीयों ने राष्ट्र रक्षण में अपने जीवन को दांव पर लगा निजाम की चूले हिला दी, आज उसी आर्य समाज के बलीदान का मातम दिल्ली, अलीगढ़, मुम्बई आदी देश के मार्गों पर देखने को मिल रहा हे।

जब JNU, AMU, जामिया मिलिया आदि विश्विद्यालयों में तथा शाहीन बाग में, राम प्रसाद बिस्मिल की प्रतिकृति लिए छात्रों व प्रदर्शनकारीयों के समूह नारे लगाते हैं तब स्वामी स्वतन्त्रानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, प.लेखराम के त्यागमयी जीवन के अर्थ गौंण लगने लगते है। हिन्दु चेतना सुप्त प्राय है, प्रश्न कोई नहीं कर रहा किः-


 क्या तकिय(मुस्लिम टोपी) पहने जामिया के युवक, बुर्के में आजादी का संघर्ष करती युवतियाँ, इस पहेली को सुलझा सकती हैं, कि कैसे महर्षि दयानन्द के अनन्य भक्त, राम प्रसाद बिस्मिल इनके अनुप्रेरक हो गए हैं?

 क्या हिन्दु मुस्लिम-एकता के सूत्र रूप में दयानन्द प्रणीत “सत्यार्थ प्रकाश” उनके भविष्य के भारत की कल्पना का आधार है?

 क्या सत्यार्थ प्रकाश के चौदहवाँ सम्मुल्लास में महान् वैज्ञानिक महर्षि दयानन्द के द्वारा की गयी कुर्आन की सत्य समिक्षा इनका आदर्श है?


यदि नहीं तो, राम प्रसाद बिस्मिल के चित्रों को लेकर घूमना, क्या 1919-21 के तुर्की के ख़लीफ़ा के अपदस्थ होने पर, उस को पुनः स्थापित करने के लिए मुस्लिमों के द्वारा चलाए गए खिलाफत आंदोलन की पुनरुक्ति नहीं है?

आज जिस आन्दोलन की विषबेल को वामपंथ व तथाकथित विश्वविद्यालयों का कामपंथ संरक्षण दे रहा है, वैसे ही मोहन दास करमचन्द गांधी ने खिलाफत आंदोलन को समर्थन दे कर भारत विभाजन के इस्लामी उन्माद को जन्म दिया था। इस्लामी जेहाद की जिस कल्पना का स्वरुप 1883-1887 के कालखंड में, अलीगढ़ के संस्थापक सर सैय्यद अहमद ने निर्धारित किया था तथा हिन्दु ओर मुसलमान को दो अलग राष्ट्र माना था। उसी की परिणिती मोहन दास करमचन्द गांधी की हिन्दु मुस्लिम एकता की मृगमरिचिका ने खिलाफत के समर्थन के द्वारा साकार कर दी थी। इस मृगमरिचिका का मृग, हिन्दु मनस बना था।

वीर सावरकर, 1936 से अनवरत भारत को गांधी ओर नेहरु के प्रति सचेत करते रहे। अनेक अवसरों पर सावरकर ने सावधान किया कि गांधी व नेहरु भारत को बंटवा कर मानेंगे। आर्य मनिषा से उदिप्त प.चमूपति ने गांधी की पगे-पगे पोल खोल की.....

......परन्तु हाय दुर्दैव! हिन्दु मुस्लिम एकता की मरुभूमि में भटकता हिन्दु ह्रदय, हिरन बन गांधी रुपी सुखे कुएँ की आस में बैठा रह। 1946 में कलकत्ता के DIRECT ACTION DAY के जेहादी कुएँ की वेदी पर माताओं, बहनों और अवयस्क बेटियों की लुटती लाज भी, उसको कुर्आन की सूरे तौबा की आयातों के महफुम को न समझा सकी थी, तब प.चमूपति और सावरकर की योग्यता क्या थी .......?

जब भारत के वीर त्रास्ता, जवाहर लाल नेहरु, TRANSFER OF POWER के सोमपान से उन्मत्त, 15 अगस्त 1947 की मध्य रात्री को TRYST WITH DESTINY की, आर्य माताओं की तार-तार हुयी आबरु मे डूबी, कविता गुन-गुना रहे थे, तब गांधी की हिन्दु-मुस्लिम एकता की मृगमरिचिका में प्यासा भटकता हिन्दु, मुस्लिमों के जेहादी कर्म का कृपा पात्र बन, अपने जिब़ाह किये जा रहे पुत्रों के रक्त व माले गनीमत बन कर लाहौर की सड़को पर छितरी माँ-बहनों की लाशों से मजहबी एकता की पिपासा को शान्त कर रहा था। पश्चिम पंजाब में आकाश को व्याप्त करता “लड़कर लिया है पाकिस्तान, हंस के लेगें हिन्दुस्तान” का उद्घोष गांधी-नेहरु के विजय पथ के पल्लवित सुमन थे।

..... भारत विभाजन जेहाद से जन्नत प्राप्ति का सुगम आदर्श था, गांधी-नेहरु द्वयम का पराक्रम उसकी स्तुती थी..............

किन्तु विचक्षण प्रतिभा के धनी नेहरु का अश्वमेघ कब थमने वाला था। पंचशील की, बईबल के आदर्शों के मधुदाख रस में आद्रित आयातों की किताब लिए, नेहरु साहेब मिश्र से लेकर कोरीया, चीन से लेकर रुस तक की सीमाओं पर याज्ञिक पुरूषार्थ की उन्नत अवस्था का मानदण्ड प्रतिस्थापित करने मे लगे थे। वीर सावरकर अपने संस्कारों के वशीभूत देश को चीन के प्रति सावधान करते है, देश रक्षण हेतु सैनिकीकरण की आवश्यकता बतातें हैं। परन्तु हिन्दु-सम-राख नेहरु नहीं रूकता। पंचशील के अश्वमेघ का घोड़ा, 1955 में तिब्बत में अपृहत् होता है और 1961 में चीन पंचशील के दाखरस से प्रेरित हो सैन्य अभियान कर, भारत की हजारों एकड़ भूमि का प्रसाद ले मदमाता चल देता है।

किन्तु, क्या हिन्दु कहलाने वाले मनस ने अपने इतिहास से कुछ सीखा..क्या हिन्दु रक्षक बने संगठनों ने सहस्राब्धी ले चली हो रही दुर्गति का अवलोकन कर निराकरणार्थ कुछ किया ?

उत्तर........नहीं....किया !

वर्तमान के राजनैतिक दृश्य, विचार और घटनाक्रम हमारे इस मन्तव्य की पुष्टी करते है।

जब बुर्के को सुशोभित करती मुहम्मदी प्रेरणा से संचारित, जामिया शिक्षित बलाओं के साथ कन्धे से कन्धा मिलाती हिन्दु पठित अबलाओं के हाथों में डा. अम्बेडकर के चित्र, नाराएँ तकबीर के साथ लहराये जाते है, तब समझ आता है, हिन्दुओं के कर्णधारों ने कुछ नहीं सीखा। क्योंकि डा.अम्बेडकर के THOUGHTS ON PAKISTAN, इनके विमर्श का कभी विषय ही नही रहा, अन्यथा स्वतन्त्र विचार की अवधारणा की पैरोकार हिन्दु बहनें जेहादी समूह का हिस्सा नहीं होती।

जे.एन.यू की मार्क्सवादी विथिकाओं से जब हिन्दु परिवारों से संस्कारित माणवकों का झुण्ड, बन्द गले की शेरवानी पहने इस्लामी जेहाद के चिरागों के हाथों में हाथ डाले, राम प्रसाद बिस्मिल, अश्फाक उल्ला ओर भगत सिंह के छाया चित्रों की परछाईयों में खड़े हो कर भारत के टुकड़े करने का प्रण करता है, तब पता चलता है हिन्दुओं के सूत्रधारों ने कुछ नहीं सीखा। यदि सीखा होता तो आर्य समाज जिनकी पारिवारिक, वैचारिक पृष्ठभूमि रही है वो व्यक्तित्व कभी भी इन देश भंजकों के छत्र की शोभा नहीं बढाते।

हिन्दुवादी क्षत्रपों की विफलता का दिग्दर्शन टी.वी के विभिन्न चैनलों पर चलती नुक्कड सभाओं मे गांधी और वीर सावरकर के वैचारिक सामंजस्य को स्थापित करने के प्रयास में दिखाई देती है। आज तक सावरकर के नाम की चाश्नी चाटनें वाले विचारक, देश विभाजक गांधी और राष्ट्र संरक्षक वीर सावरकर के एकीकरण की कोई प्रमेय नहीं सुझा पाए। यदि ये गांधी को पकडते है तो सावरकर छूटता है और अगर सावरकर को पकड़ते हैं, तो गांधी नाम की अतिवादी वैचारिक स्वतन्त्रता के सम्मान नहीं करने का आरोप इन पर लगता है। दही जमे इनके मुखारविन्दों से कभी भी इस तथ्य का प्रस्फुटन नही होता की गांधी नामी वैचारिक स्वतन्त्रता एकतरफा और इस्लामी जेहाद के वर्चस्व का आलेख मात्र है, जिसमें हिन्दु उत्पीड़क है और इस्लाम उत्पीडीत। गांधीवादी विमर्श में, दोष किसी का हो परन्तु मुहम्मदी विचार सदैव विजयी भाव में रहेगा और हिन्दु को अपने अस्तित्व के वैचारिक बोध के आभार स्वरुप, इस्लामी उच्छृंखलता की वैचारिक प्रभुता को मानना पड़ेगा।

तथाकथित वामी-कामी गुट जब हिन्दु असमंजस जनित प्रवाद को गांधीवादी वैचारिक स्वतन्त्रता का उल्लंघन कहते हैं, तब अपना सा मुँह लेकर खींसे निपोरने के अलावा डिग्रीधारी-पठित-वेदविद्याविहीन हिन्दुविद्वानों के पास कोई चारा नही होता। आर्य उत्कृष्टा की गंङ्गा वेद का मलिन होना भी इनके प्रश्न शून्य मुख की रेखाओं को संकुचित नही करता। आगे बड़ कर कोई नही कहता कि वेद वैचारिक स्वतन्त्रता को जीवन का आधार मानता है, वेद की ऋचा सामूहिकता तथा परस्पर सम्मान को विद्वत् विचार की नींव मानता है जहॉ हिंसा तथा पाश्विक वर्चस्व का कोई अवकाश नही है, भारतभूमि पर निवास करती संस्कृति वेद से अनुप्राणित है, अतः हमारे लिए गांधी या अन्य कोई विचार श्रेष्ठता का मानदण्ड या सूचक नही है।

इस अनिर्णय कि स्थिति भारत वंश को पुनः विभाजन की विभिषिका में धकेल रही है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एकवार फिर हिन्दु की कब्र खोदने की भूमिका में उतर चुका है। स्वतन्त्रता पूर्व गांधी-नेहरु इन को खाद पानी दे रहे थे तो वर्तमान में इनकी अपत्य परंपरा से उत्पन्न पौत्र-पौत्री राजनैतिक संबल प्रदान कर रहे है।

जो पीढ़ी 1921 के मोपला जैसे नरसंहार को भूल चुकी है, उनके वाद में ये घटनाएँ केवल राजनैतिक द्वेष की प्रतिक्रिया मात्र हो सकती है। परन्तु, रक्तसाक्षी लेखराम की परंपरा 1400 साल से चल रहे जेहाद के स्वरुप को जानती-पहचानती है।

राजधानी दिल्ली से लेकर देश के विभिन्न प्रान्तीय संभागों में गूजंयमान “नारएँ तकबीर-अल्लाहो-अकबर” की कर्कश ध्वनि, मुहम्मद के गुर्गों के द्वारा नखला की पहली लूट की चित्कार से तन के रोंगटे खडी कर जाती है। जिस पल विद्यालयों की प्रचीर को छेदती आवाज “तेरा मेरा रिश्ता क्या- ला-इल्हा-इल्-अल्लाह” का शोर सेक्युलर-वाद की पारदर्शी तल्प मे अवृत किया जाता, उस पल मदीना की गलियों में रात के अन्धेरे में दूध पिलाती कवियत्री आसँमा के सीनें मे, मुहम्मद के रक्तपिपासु अनुचरों के द्वारा उतारे जाते खंजर से उठी सिसकियाँ, गाँधीवादी विचार-स्वतन्त्रता की एकांगी सोच को नंगा कर जाती है।

हजरत मुहम्मद के आदेश पर मदीना में कवि अफाक और काब की हत्या, बनी कुनेका और बनी कुरेजा कबीलों के नरसंहार की अनुकृति आज की ISIS द्वारा गला रेत कर की गयी जन्नती उपाधि मे प्रदर्शित होती है। बनी कुरेजा की अबोध बालिकाँए, मुहम्मद के निर्देश पर किस प्रकार इस्लाम की मंडियों की शोभा बनी थी उस की सच्चाई, सीरीया में ISIS की यजिदी कुमारीयों की नग्न बोलियों से प्रमाणित होती है। मानवता को लज्जित करने वाली क्रूर, पाश्विक कृत्यों के विवरणों से इस्लामी हदीसें, कुर्आन की तफसीरें, अल्लाह के रसूल की सिरतें भरी पड़ी है।

सेक्युलर-वादी, गांधीवादी पैरोकार जब हिन्दु समाज के अंग्रजी अक्षर पठित को समझाते है कि कुर्आन मानव सौहार्द की उत्कृष्ट कृति है तब आर्य तेज से प्रदिप्त चमूपति सृजित चौहदवीं का चांद नाद करते हुए कहता है कि कुर्आन की आयते सैफ(तलवार की आयत) ने कुर्आनी मानवतावादी आयातों के आवरण को मनसूख कर दिया है। अतः तौहीद के छत्र तले जो घट रहा है वो इस्लाम की नंगी सच्चाई है। इस कारण इस्लाम के लिए पूरी जमींन तब तक जंग का मैदान है जब तक अल्लाह का दीन पूरे आलम में न फैल जाए। अल्लाह के नज़दीक केवल एक ही दीन है, वो है इस्लाम और एक ही प्यारा है, वो है मुहम्मद। जो इन्कार मे है वो दिम्मी(जिम्मी) है, वाजीवुल कत्ल है। हरेक मोंमिन के लिए फिसबीयीलुउल्लहा-(अल्लाह की राह में जेहाद) फर्ज है।

अतः इस्लामी जेहाद की परिधि में अमेरीका से लेकर यूरोप तक, सीरीया से लेकर श्रीलंका तक, भारत से लेकर न्यूजीलैंड तक आ जाते हैं। जेहादी फर्ज की जंग में तलवार के साथ, नखला की लूट में अविष्कृत अल-तअकिय्य रुपी झूठी कसमों का उपयोग स्वीकृत है। इस्लामी जेहाद की तुलना अन्य अराजक कृत्यों से करने वाले भूल जातें है कि जहाँ अन्य अराजक कुकृत्य किसी विशेष राजनैतिक सेगठन अथवा सांकृतिक गुट के प्रति होता है वहीं जेहाद समूचे गैर इस्लामी मानवीय समूहों के विरुध होता है। जहाँ अन्य संघर्षों का कुछ कालक्रम के बाद समझोते के रुप में सदैव के लिए निरकरण हो जाता है वहीं इस्लामी युद्धोन्माद शहीद होकर हुरों की आगोश में जाने तक की कल्पना से अथवा गाजी बनकर मालें गनीमत के परितोषिक के रुप में प्राप्त निरही महिलाओं के लिए आख़िरत के दिन(यौमे दिन) तक लडता रहने को प्रेरित रहेगा।

अजीब पहेली है, समझ से परे है, जिन इस्लामी जंगजुओं ने अपनी पहली मस्जिद तक भी कब्जा कर बनायी है ओर इस्लामी तारीख़ की शुरु के 100 वर्षों के अन्दर बनी मस्जिदों का मक्का विमुख किब्ला स्वयं प्रमाणित कर रहा हैं कि ये सारी मस्जिदें कब्जा की गईं है तो वो बर्बर समाज भारत में आकर ताज महल, कुतुबमिनार, लालकिले जैसे अनेक एतिहासिक स्थलों का निर्माण कर्ता कैसे हो गया? ताज़ महल के शिखर पर बना कलश, कुतुबमिनार के प्रकीर्ण पर टूटे मन्दिर, लालकिले में बने सूर्य के प्रतिक सिद्ध कर रहे है कि जो आरम्भ में अपनी मस्जिद तक नहीं बना सके उन की वास्तुकला में वो प्रताप नही जो महल बना सके। विचार योग्य तथ्य है ताज महल में महल शब्द उसके मकबरा नहीं होने को प्रमाणित कर रहा है।

हदीस कहती है कि जेहाद की शराह में मोमिनों को जन्नत में हूरें मिलेंगी परन्तु मोमिनिन(जेहादी महिलायें) को क्या मिलेगा, इन में किस संदर्भ प्रप्ति का उत्साह है, आश्चर्यजनक कौतूहल का विषय है, समझ से परे है? क्योंकि हजरत मुहम्मद ने कहा है कि उन्होने केवल चार औरतें जन्नत में देखी हैः- आयशा, खदीजा, मरियम(ईसा मसीही की माँ) ओर फिरौन की पत्नी। तो क्या ये माना जाये की बुर्के में आन्दोलित बहनें काफिरों को दोज़ख भेंज कर, बुजुर्ग अल्लाह की अनन्तता में काफिरों को शरीक होने का मौका देनें पर उत्साहित हें..! शायद किसी ने इनको नही बताया की अल्लह के गुणों में शिरकत ही शिर्क है जो इन्हें, मुशरिक बना इस्लाम से खारिज कर सकता है....मसला जो भी हो......सेक्युलरिज़म का प्रवर्तक हिन्दु प्रश्न नहीं पुछेगा........ये करणीय कार्य आर्यों के पल्ले ही रहेगा।

हिज़ाज़ से उठी जिस आँधी ने 1400 साल पहले मात्र 30 साल के अन्तराल में रुमी, पारसी साम्राज्य को धूलधुसरित कर दिया था, वो भारत वंशी शोर्य के आगे, गङगा के दाहने पर 800 वर्ष से निरन्तर संघर्ष कर रही है। बप्पा रावल जैसे शूरवीरों ने 500 साल तक सिन्ध से आगे बढ़ने नही दिया, ललितादित्य जैसे तेजस्वी वीर ने तुर्की तक इन्हे खदेड़ा। भारत पर कब्जें के बाद भी कभी केसरीया वीरों ने एक भी दिन जेहादीयों को चैन नही लेने दिया, महाराणा प्रताप, शिवाजी, छत्रसाल, गुरुगोविंद सिंह प्रभृति अनेक वीरों ने इनकी मुहम्मदी शम्शीरों को अपनी खड्ग की धार पर तोला, स्वयं वीर गति को प्राप्त हुए पर जाने कितने जेहादीयों का शहीद बनने का बुखार उतार गए।

कालक्रम मे दयानन्दी सेना ने इनसे लोहा लिया, ऐसी मार मारी कि कुर्आनी जनन्त बिलबिला उठी। चमूपति का ज़वाहिरे ज़ावेद, प.गङ्गा प्रसाद कि मिस्बाहुल इस्लाम, स्वामी दयानन्द की सत्यार्थ प्रकाश के छत्रछाया में मोमिनों के लहु में जाकर यूँ मिली की कुर्आन के मायने बदलने लगे। लेकिन तब भी गांधीवादी पोपों ने देश को धोखा दिया था ओर आज फिर, उन्हीं के दत्तक वंशजों के कारण हम पुनः विभाजन के मुहाने पर है।

अगर आर्य तेज निष्क्रिय रहा तो गङ्गा का दाहाना, ताज महल की तरह उनका का होगा, यमुना तो ज़मुनी तहजीब की भेंट चढ़ चुकी है........माँ बहनों के पास यज्ञाग्नि में आत्मोसर्ग का मार्ग भी न बचगें। लज्जा चाँदनी चौक की गलियों में कहाँ “माले गनिमत” होगी......क्या पता?

आर्यों ! ऋषि भक्त श्रद्धानन्द को याद करो, स्वतन्त्रानन्द का तेज भरो....उठो......एक हाथ में सत्यार्थ प्रकाश....दुसरे हाथ में चौहदँवी का चाँद...पृष्ठ पर प.गुरुदत्त के चिह्न.....जिह्वा पर प.लेखराम का बलिदानी गीत ले कर बढ़ चलो........और उच्च स्वर में बोलो .........

....आर्यों सावधान....देश नही बटने देंगे..एक बार धोखा खाया है, पर अब नहीं...आर्यों सावधान..!

विदुषामनुचरः
राज वीर आर्य

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