वैदिक धर्म में राष्ट्र की उपासना भी धर्म का अंग है!
-क्षितिश वेदालंकार
अब से 500 वर्ष पहले राष्ट्र के प्रत्येक प्रदेश में जो भक्तिकाल का युग आया और प्रत्येक प्रदेश में उस उस प्रदेश की भाषा में सन्त कवि पैदा हुए, वह देश की अद्भुत सांस्कृतिक एकता का प्रतीक है। यदि समग्र देश में सांस्कृतिक एकता का यह मणि-सूत्र न होता, तो यह कैसे सम्भव था कि प्रत्येक प्रान्त में लगभग एक साथ भक्त सन्त कवि पैदा होते। यह चमत्कार इतिहासकारों को आश्चर्य में डाल सकता है। दक्षिण भारत में अलवार सन्त, मध्वाचार्य, निम्बर्काचार्य और वल्लभाचार्य आदि आचार्य, महाराष्ट्र में सन्त, तुकाराम, ज्ञानेश्वर, नामदेव और समर्थ गुरु रामदास, बंगाल में चैतन्य देव, जयदेव, हरिदास, असम में शंकरदेव, सुदूर केरल में स्वति तिरुमाल, गुजरात में नरसी मेहता, राजस्थान में मीरा और राजुल, उत्तर भारत में सूर, तुलसी और कबीर तथा पंजाब में गुरु नानक- इन सबका लगभग एक साथ एक ही काल में उदय जिस आन्तरिक अन्त:सलिला के समान उद्गम का परिचायक है, वह अद्भुत है। इस भक्तिकाल में, और तो और ऐसे लगभग ५० मुसलमान सन्त भक्त कवि हुए हैं जिनके विषय में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का कहना था-
इन मुसलमान हरिजनन पै कोटिक हिन्दू वारिये।
यह भक्तियुग का व्यापक विस्फोट एक तरह से ज्ञान काण्ड के और कर्म काण्ड के युग के प्रति विद्रोह का सूचक है। ज्ञानमार्ग यदि राजतंत्र था, और कर्म मार्ग सामन्ततंत्र, तो भक्ति मार्ग विशुद्ध लोकतंत्र था जिसमें ज्ञान और कर्म दोनों की उपेक्षा करके केवल भक्ति पर बल दिया गया था- ऐसी भक्ति जिसमें सवर्ण अवर्ण, अमीर गरीब, शिक्षित अशिक्षित सभी को समान स्थान था। वहां तो 'ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय' की पूछ थी, वहां ज्ञान और कर्म की पूछ कहां। यह मुगलों की गुलामी के दौर में राष्ट्र के लिए एक ऐसा मदिर आसव था जिसमें सारा राष्ट्र आपादमस्तक डूब गया- देश में सैकड़ों-हजारों मन्दिर बन गए और दक्षिण से चली भक्ति की आंधी सारे देश में छा गई। इस भक्तियुग में आत्ममुग्धता और आत्महीनता की भावना थी, रेत में गर्दन छिपाने वाले शुतुमुर्ग कि तरह सारे देश ने गुलामी के उस दौर को सहज भाव से स्वीकार कर लिया और उसके प्रतिकार का कोई सामूहिक और राष्ट्रीय कार्यक्रम नहीं अपनाया। इसीलिए जड़पूजा को अपना कर जाति ने येन केन प्रकारेण जीवित रहने का आधार तो तैयार कर लिया, पर उसका तेज नष्ट हो गया।
इस भक्तिकाल के मूल में आत्मचेतना के साथ जो राष्ट्रीय और सामाजिक चेतना का तत्व छिपा था, उसे सर्वथा भुला दिया गया। उसके लिए फिर मैं विष्णु पुराण का श्लोक उद्धृत करूंगा-
गायन्ति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ये भारत भूमि भागे।
स्वर्गापवर्गस्य च हेतुभूते भवन्ति भूय: पुरुषा सुरत्वात्।।
देवता लोग भी उनके गीत गाते हैं जिन्होंने भारतभूमि में जन्म लिया है क्योंकि वे धन्य हैं। देवताओं के लिए केवल स्वर्ग निर्धारित है, अपवर्ग नहीं, पर भारतभूमि के निवासी स्वर्ग और अपवर्ग दोनों के अधिकारी हैं। यह स्मरण रखिए कि देवता स्वर्ग से बंधे रहने के लिए अभिशप्त हैं, अपवर्ग उनके लिए नहीं है।
पर मानव के लिए स्वर्ग और अपवर्ग दोनों है। यह 'फरिश्ते से बेहतर है इन्सान बनना', नहीं तो और क्या है? ज्ञानकाण्ड और याज्ञिक कर्मकाण्ड ने परलोक पर बल दिया था और भक्ति काण्ड ने इस लोक पर- इस सीमा तक कि स्वयं भगवान् को बैकुण्ठधाम छोड़ कर इस भारतभूमि में अवतार लेना पड़ा। क्या राष्ट्रीय चेतना का इससे अधिक सबल तत्व भी कुछ और हो सकता है? पर उस तत्व की जिस प्रकार उपेक्षा हो गई, उसने ऋषि दयानन्द को विचलित कर दिया। इस भक्तिकाल में जितना श्रृंगार-प्रधान काव्य रचा गया, वह रीतिकालीन काव्य की एक प्रमुख धारा ही बन गई। इस रीतिकालीन काव्य में नायिका भेद और उनके नख-शिख की चर्चा ही कवियों की उत्कृष्टता की कसौटी बन गई- और उस सबका आधार बनी कृष्ण और राधा के नाम पर जोड़ी गई पौराणिक कथाएं, जिनमें सत्य का कहीं लेश भी नहीं था।
जड़ता की पराकाष्ठा
हमारे ज्ञानमार्गी और भक्तिमार्गी किस प्रकार सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना से हीन हो चुके थे, इसके लिए ऋषि के कलकत्ता-कथ्य के कुछ उद्धरण देना प्रासंगिक होगा। ऋषि सन् १८५५ में पहली बार कुम्भ के मेले पर गए थे और वहां उन्होंने साधुओं को १८५७ की राज्यक्रान्ति के लिए संगठित करने का प्रयत्न किया। इसी प्रसंग में वे कहते हैं-
"शंकराचार्य के चारों मठों से सम्बन्धित हजारों संन्यासी और ब्रह्मचारी कुम्भ मेले में उपस्थित हुए थे। मैंने उनके चारों शंकराचार्यों से और प्रधान प्रधान संन्यासियों से केवल साधु संगठन के लिए उपदेश, परामर्श और सहयोग मांगा था।" मेरी प्रार्थना थी- 'आप में से कई एक संन्यासी आ जाइये। हम लोग सारे भारतवर्ष में कम से कम एक हजार संन्यासी संगठित और मिलित हो जायें। हमारे उद्देश्य रहेंगे-
(१) वेदप्रतिपादित धर्म का उद्धार करना,
(२) सामाजिक आदर्श और मर्यादा को देशवासियों के सम्मुख स्थापित करना,
(३) देश को विदेश और विदेशियों के प्रभाव से मुक्त करना,
(४) देश के मंगल के लिए मन और जीवन समर्पित कर देना।
आप में से कोई न कोई इस कार्य के संचालक, कर्णधार बन जाइए।'
हमारी इस प्रार्थना पर चारों मठों के चारों शंकराचार्य और बड़े-बड़े संन्यासियों ने इस आशय पर अपने मनोभावों को इस प्रकार प्रकट कर दिया- 'हम ब्रह्मवादी संन्यासी हैं, अद्वैतवादी हैं। हमारे लिए ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है। राष्ट्र, समाज, परिवार, जीवन, जगत् और ये सब स्वतन्त्रता-परतन्त्रता, वर्ण, आश्रम, हमारा तुम्हारा भाव सब कुछ मिथ्या है। मिथ्या के लिए हम कुछ भी करना व्यर्थ समझते हैं।'
हम उन्हें केवल यह कहकर चले आये थे- 'दुःख की बात है कि आपके भोजन के लिए अन्न, पीने के लिए पानी, रहने के लिए स्थान, सर्दी के लिए कम्बल, (गर्मी में) हवा के लिए पंखा और सेवा के लिए शिष्य ही एकमात्र सत्य स्पष्ट हो रहे हैं, शेष सभी कुछ मिथ्या मालूम होता है।'
इसके बाद निराश होकर मैं वैष्णव सम्प्रदाय के प्रधान प्रधान नेताओं के पास गया था। ये लोग भी कुम्भ में हजारों की संख्या में एकत्र हुए थे। ये लोग द्वैतवादी और वैष्णव-भक्त हैं।
वैष्णवों के अन्दर सम्प्रदाय बहुत हैं। इन सम्प्रदायों के बड़े-बड़े गोस्वामी, महन्त, गुरु और साधु-संन्यासी हरिद्वार के कुम्भ के मेले में सम्मिलित हुए थे। मैंने सभी की सेवा में उपस्थित होकर देश, राष्ट्र और समाज की शोचनीय दशा के प्रति दृष्टि आकर्षण करके अपनी दोनों प्रार्थनाओं को पूर्ववत् रखा था। इन्होंने भी दूसरे ढंग की भाषा का प्रयोग करके मुझको निराश कर दिया था।
उन सबके कहने में सारांश यह था- "हमारे ये शरीर श्रीराम या श्रीकृष्ण के भजन के लिए हैं, दूसरे कार्य के लिए नहीं हैं। दूसरे कार्य का करना, भगवान् के स्थान में देश, समाज और राष्ट्र की सेवा करना महापाप है। मानव शरीर व्यर्थ कार्य के लिए नहीं है। महाप्रभु की सेवा और चिन्तन से मुक्ति मिलेगी, देश-समाज-राष्ट्र की वैषयिक चिन्ता से भगवद्भक्ति ढीली हो जाएगी, मुक्तिलाभ या गोलोक वैकुण्ठ जाने के मार्ग में प्रबल बाधायें आ जाएंगी। मानव जीवन इतना सस्ता नहीं है। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करके तब भक्ति-साधना के एक मात्र अवलम्बन भजन के लिए शरीर मिला है। इन शरीरों को देश-समाज-राष्ट्र की भजन-विरोधी सेवा के लिए समर्पण करना बुद्धिमानों का कार्य नहीं है।"
वैष्णव गुरुओं से निराश होकर लौटते समय मैंने केवल यह वाक्य कहा था- 'जिस देश में ऐसे भक्तों की संख्या अधिक है, उस देश का सर्वनाश निश्चित है।' (ऋषि दयानन्द सरस्वती का अपना जन्म चरित्र, सम्पादक- आदित्यपाल सिंह और डॉ. वेदव्रत आलोक)
मूर्तिपूजा का अभिशाप
जड़ मूर्ति की पूजा ने भक्तों को इस सीमा तक आलसी, निष्क्रिय और कायर बना दिया कि वे देश-समाज-राष्ट्र की सेवा को महापाप तक कहने लगे। इससे बढ़कर देश का दुर्भाग्य और क्या होगा? इस मूर्तिपूजा ने जहां लोगों को भाग्यवादी और कर्म-विमुख बनाया, वहां नाना सम्प्रदायों के परस्पर वैद-विरोध-विद्वेष की लहर भी चलाई। सभी पौराणिक मूर्ति पूजक सम्प्रदाय अपने अपने इष्टदेव को सबसे बड़ा देवता और अन्यों के इष्टदेव को उनका अनुचर और कृपाकांक्षी सेवक बताने लगे। शैव, वैष्णव, शाक्त आदि सम्प्रदाय परस्पर विद्वेष की आग में इस प्रकार जलने लगे कि दूसरे सम्प्रदाय वाले को देखते ही मुंह फेर लेते। माथे पर कितनी खड़ी या पड़ी रेखाएं लगती हैं, यही सबसे बड़ा कर्म काण्ड बन गया।
इकबाल ने ठीक ही लिखा था-
सच कह दूँ ऐ बिरहमन! गर तू बुरा न माने,
तेरे सनमकदों के बुत हो गये पुराने।
अपनों से बैर रखना तूने बुतों से सीखा-
जंगो जदल सिखाया वाइज को भी खुदा ने।
अपने से वैर और गैरों से मुकाबले के समय मूर्ति की सर्वशक्तिमत्ता पर भरोसा- यही तो देश की पराधीनता का मुख्य कारण था। प्रश्न वही है न- 'क्या यही सच्चा शिव है जो अपने सिर पर से चूहों को भी नहीं हटा सकता?' सिन्ध में जिस तरह राजा दाहर की पराजय हुई, सोमनाथ मन्दिर को जिस तरह निर्ममता पूर्वक लूटा गया, बख्तियार खिलजी ने जिस प्रकार बौद्ध मठों को और नालन्दा को भूमिसात् किया, थोड़ी सी घुड़सवार सेना के बल पर बिहार और बंगाल को पामाल किया और उसके विरोध में कोई संगठित प्रयास नहीं किया गया- इस राष्ट्रीय कलंक के मूल में मूर्तिपूजा के द्वारा उत्पन्न सामाजिक नपुंसकता ही सबसे बड़ा कारण है। इसलिए ऋषि दयानन्द जैसा राष्ट्रचेता मूर्तिपूजा के विरुद्ध खड्गहस्त न होता, तो क्या करता।' मूर्तिपूजा के इस प्रबल खण्डन में राष्ट्र-चेतना ही प्रमुख कारण है।
केवल वेद नहीं
मैं भी मानता हूं कि ऋषि दयानन्द यदि शरीर है तो वेद उसकी आत्मा है। महर्षि जैमिनी के पश्चात् ऋषि दयानन्द जैसा वेदोद्धारक पैदा नहीं हुआ। इसलिए जिस तरह मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम 'धनुर्धारी' के नाम से विख्यात हैं, और श्रीकृष्ण 'बंसीवाले' या 'मुरलीधर' के नाम से, एवं गुरु गोविन्दसिंह 'कगली वाले' के नाम से, इसी तरह से कुछ लोग ऋषि दयानन्द को भी 'वेदांवाले संत, स्वामी दिगन्त, जग को जगा दिया तूने'- कहते हुए मस्त होकर गाते हैं। 'वेदां वाले संत' कहने में वही एकांगिता है जो श्रीकृष्ण को केवल 'बंसीवाला' कहने में। क्या श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्रधारी रूप की किस भी रूप में अवहेलना की जा सकती है? पर भक्त सम्प्रदाय ने कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र को भुला कर वृन्दावन को रस और रास की लीलास्थली बना दिया और श्रीकृष्ण को वहीं तक सीमित कर दिया। इसी तरह केवल वेद वेद का नारा लगाने वालों ने भी ऋषि दयानन्द के राष्ट्रीय चेतना वाले स्वरूप को ओझल कर दिया। तभी मुझे यह नारा लगाना पड़ा कि आर्य समाज की दो भुजाएं हैं- एक वेद और दूसरी राष्ट्र। जो केवल एक भुजा की बात करता है वह आर्य समाज को विकलांग बना देना चाहता है। अंग्रेजों के पिट्ठुओं ने और ब्रिटिश सेवा से ऐश्वर्य-सम्पन्न बने लोगों ने ही इस बात पर सबसे अधिक जोर दिया कि आर्यसमाज केवल वेद को मानने वाली एक धार्मिक संस्था है, उसका राष्ट्र या राजनीति से कोई वास्ता नहीं। जितना जितना उसके धार्मिक स्वरूप पर जोर दिया जाता है, उतना उतना मेरे मन में आक्रोश बढ़ता जाता है, क्योंकि राष्ट्रीयता से विहीन धर्म केवल एक सम्प्रदाय बन कर रह जाता है- जिस तरह ईसाईयत या इस्लाम। इसीलिए ईसाईयत या इस्लाम में राष्ट्रवाद का कोई स्थान नहीं है, जबकि वैदिक धर्म में राष्ट्र की उपासना भी धर्म का अंग है, क्योंकि राष्ट्रचेतना ही अन्त में विश्वचेतना का माध्यम बनती है। जिस तरह मैं आत्मचेतना को राष्ट्रचेतना का मूल मानता हूं उसी तरह राष्ट्रचेतना को विश्वचेतना का मूल मानता हूं। इसीलिए मैं 'जयहिन्द' की सीढ़ी के बिना 'जयजगत्' के नारे को हवाई और खोखला मानता हूं। पर आजकल के भक्तों और धार्मिक लोगों को राष्ट्रीय शान्ति की उतनी चिन्ता नहीं, जितनी विश्व शान्ति की है। इसीलिए जहां देखो वहां विश्वशान्ति के नाम पर यज्ञों, कीर्तनों और पूजापाठ की भरमार है। जो अपने सिर पर छत का इन्तजाम नहीं कर सकते, वे 'आकाश बांधूँ पाताल बांधूँ' के कुलाबे मिलाते रहे, इसमें पलायनवादी मानसिक विलास और भक्तजनों के आर्थिक शोषण की पौराणिक परम्परा नहीं तो और क्या है? एक खास बात यह भी ध्यान देने की है कि आर्यसमाज के स्वनामधन्य नेताओं ने जितना राष्ट्रीयता विहीन धार्मिक संस्थावाद पर जोर दिया, आर्य जनता ने उतना नहीं। आर्य जनता सदा राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत रही। और तो और, ये आर्यनेता अपने पुत्रों को भी इस राष्ट्रचेतना से नहीं बचा सके। स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा हंसराज, महाशय कृष्ण, महात्मा आनन्द स्वामी- चारों आर्य नेताओं के पुत्र क्रान्तिकारी बने।
मैं तो यहां तक कहता हूं कि जिस तरह ऋषि दयानन्द ने वेदमन्त्रों के अर्थ किए हैं और सब प्रकार के पाखण्डों, अन्धविश्वासों और सामाजिक कुरीतियों के जनक होने के पौराणिक वेदाभिमानी पण्डितों द्वारा लगाए गए कलंक से मुक्त किया है, उसके पीछे राष्ट्रीय चेतना ही प्रमुख कारण थी। यदि उनके मन में यह राष्ट्रचेतना न होती, तो हो सकता है कि वे वेदों को इस रूप में उपस्थित न करते। क्या ऋषि दयानन्द से पहले किसी भी पूर्ववर्ती भाष्यकार ने वेदमन्त्रों के राष्ट्रपरक औरा राजनीति-परक अर्थ करने का साहस किया है? इसका मूल कारण यही है कि पूर्ववर्ती भाष्यकारों में ऋषि जैसी राष्ट्रचेतना का विकास नहीं हुआ था, वे केवल आत्मचेतना के स्तर तक ही रह गए थे।
जब ऋषिवर सन् 1855 में पहली बार हरिद्वार में कुम्भ के मेले पर गए थे, उससे पहले वे लगभग दस वर्ष तक योगियों, साधुओं, तांत्रिकों और नाना मत मतान्तरों में फंसे सामान्य नागरिकों के सम्पर्क में आए थे और उन्होंने देश की दुर्दशा का निकट से अवलोकन किया था। इसी कारण उनकी आत्मचेतना राष्ट्र चेतना में विकसित होती जा रही थी। मेरे लिए यह प्रश्न गौण है कि सन् 1857 की प्रथम राज्यक्रान्ति में ऋषि ने कोई सक्रिय भाग लिया ही नहीं। मेरे लिए मुख्य यह है कि उनमें जिस सीमा तक राष्ट्रचेतना का परिपाक हुआ था, वह उनको शान्त नहीं बैठने दे सकती थी। उन्होंने 1857 के स्वातन्त्र्य समर में सक्रिय भाग लिया हो या न लिया हो, पर इस पर तो किसी को विवाद नहीं है कि उन्होंने उस राज्यक्रान्ति को अपनी आंखों से विफल होते देखा था और उनकी राष्ट्रचेतना भविष्य में वैसी पराजय के प्रतिकार के लिए उन्हें किसी रचनात्मक दिशा को सोचने के लिए विवश कर रही थी। उसी मानसिक उथल-पुथल के बीच वे सन् 1960 में गुरु विरजानन्द की शरण में मथुरा पहुंचे थे। ('आप्त राष्ट्रपुरुष-ऋषि दयानन्द- मेरी दृष्टि में' से सम्पादित अंश, साभार)
[स्त्रोत- आर्य्य लोक वार्ता : लखनऊ से प्रकाशित वैदिक विचारधारा का हिन्दी मासिक का फरवरी 2019 का अंक; प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ]
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