Wednesday, June 19, 2019

ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र की व्याख्या



*🌺ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र की व्याख्या🌺*
✍🏻 लेखक- स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
*प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’*
🔥अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्।
होतारं रत्नधातमम्॥ - ऋ० १।१।१
प्यारे पाठकगण ! यह वह मन्त्र है कि जिसके कारण बहुत-से अल्पज्ञ यूरोपियनों ने आया को प्रकृति का उपासक सिद्ध किया है और बतलाया है कि आर्यों के पूर्वज अग्नि, वायु इत्यादि भूतों को ईश्वर माना करते थे और उन्हीं से प्रार्थना किया करते थे, अर्थात् वरदान माँगा करते थे।
आजकल भारतवर्ष में वेदों के जाननेवाले और उनका ठीक अर्थ करके उनके गौरव को प्रकट करनेवाले महात्मा कम रह गये हैं। दूसरे, वेदों के पुराने व्याख्यान अर्थात् शाखाएँ जोकि लगभग ११३१ थीं लुप्त हो गईं। इस समय लगभग आठ-नौ का पता मिलता है, शेष का नाम तक ज्ञात नहीं होता। दूसरी ओर जटा, माला, पद, घन, क्रम-इत्यादि की रीति से भी अर्थ करने की परिपाटी और वेदाङ्गों का पढ़ना-पढ़ाना भी प्रायः नष्ट हो गया। केवल थोड़े-से मनुष्य व्याकरण पढ़ते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। इसके अतिरिक्त विश्वविद्यालय की कुशिक्षा ने भी वेदों के गौरव को बहुत बड़ा धक्का पहुँचाया। बी०ए० तक की शिक्षा में वेदाङ्गों का नाम तक नहीं; केवल काव्य इत्यादि की शिक्षा दी जाती है। आगे चलकर वेद का सायण-भाष्य पढ़ाया जाता है जो उस समय का बना हुआ है जिस समय वेद-विद्या का प्रचार बहुत कम हो गया था। पुन: उस भाष्य को ठीक प्रकार से पढ़ानेवाले भी नहीं। जो पढ़नेवाले हैं वे प्राय: ईसाई आदि अन्य मत के और वेद-वेदाङ्गों के वास्तविक सिद्धान्तों से सर्वथा अनभिज्ञ हैं। वे विद्यार्थियों को इस ढंग से शिक्षा देते हैं जिससे उनके अन्त:करण में वेदों की प्रतिष्ठा के स्थान में अप्रतिष्ठा घर कर जाती है और वे वेदों को इंजील इत्यादि की भाँति व्यर्थ कहानियों का समूह समझने लग जाते हैं। पठित व्यक्ति तो इस प्रकार वेदों से पृथक् हो गये और अशिक्षित लोगों ने न वेद पढ़े न उन्हें उनका महत्त्व ज्ञात हुआ। इस प्रकार वर्तमान समय में वेदों की अप्रतिष्ठा होने के दो कारण स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे हैं, अतः अब हम प्रयत्न करेंगे कि कम-से-कम चार मन्त्रों की ठीक-ठीक व्याख्या करके सामान्य मनुष्यों को जतला दें कि वेदों में व्यर्थ कहानियाँ नहीं हैं, अपितु सकल विद्याएँ विद्यमान हैं। उनमें प्रकृति की उपासना का वर्णन नहीं है, हाँ, प्रकृति के तत्त्वस्वरूप को बतलाया गया है। जिन लोगों ने अर्थात् मेक्समूलर इत्यादि ने इन बातों का इस प्रकार वर्णन किया है, जिससे वेदों की अप्रतिष्ठा होती है, यह या तो उनके अज्ञान का दोष है या ईसाई मत का अनुयायी होने से पक्षपात के कारण ऐसा किया है, वरन् कोई समझदार व्यक्ति जिसको वेदांगों की वास्तविकता ज्ञात हो और साथ ही पक्षपात भी न रखता हो तो कभी वेदों के बारे में ऐसी सम्मति नहीं दे सकता जैसीकि वर्तमान काल में कोई-कोई अल्पज्ञ देशी - विदेशी जन दे रहे हैं। यद्यपि यूरोपवालों ने वेदों के बनने की तिथि निश्चित की है, उसकी अशुद्धि बतलानी भी आवश्यक है, परन्तु वह किसी अन्य स्थान पर बतलाई जाएगी।
प्यारे पाठकगण ! वेदों के प्रमुखत: दो प्रकार के अर्थ होते हैं-एक आध्यात्मिक, दूसरे भौतिक। अब हम मन्त्र के दोनों प्रकार के अर्थ बतलाएँगे। यह स्मरण रहे कि ऋग्वेद पदार्थों के स्वरूप अर्थात् लक्षणों का वर्णन करता है और ऋचा का अर्थ भी स्तुति अर्थात् गुण-वर्णन के हैं। किसी-किसी ने स्तुति का अर्थ किसी की झूठी प्रशंसा करना किया है, परन्तु यहाँ स्तुति का वही संकेत है जो रेखागणित अर्थात् ज्यामिति की पुस्तकों में रेखा इत्यादि की स्तुति का है, अर्थात् उसकी वही स्तुति की जाए जो उसे दूसरी वस्तुओं से पृथक् कर दे, जिसे संस्कृत में लक्षण के नाम से अभिहित किया गया है और अंग्रेजी में डेफीनीशन (Definition) कहा जाता है और फारसी में 'तारीफ़' कहते हैं।
भ्रातृगण ! इस मन्त्र में, जो ऋग्वेद का सबसे पहला मन्त्र है, ईश्वर जीवों को अग्नि का लक्षण बतलाते हैं, क्योंकि अग्नि मनुष्यों के लिए सबसे उत्तम और आवश्यक वस्तु है और बिना इसके दूसरे भूतों की सिद्धि और इनके गुणों का प्रकाश नहीं हो सकता, अतः अग्नि की परिभाषा सबसे पहले बतलानी आवश्यक समझी गई। दूसरे, आध्यात्मिक अर्थ में अग्नि ईश्वर के अर्थ में भी आया है, इसलिए भी इसे सबसे पहले बतलाना आवश्यक ज्ञात हुआ है। | आर्यगण ! इस मन्त्र में आठ पद हैं, यथा--१. अग्निम्, २. ईळे, ३. पुरोहितम्, ४. यज्ञस्य, ५. देवम्, ६. ऋत्विजम्, ७. होतारम्, ८. रत्नधातमम्। पहले दो पदों में तो यह बतलाया गया है कि हम अग्नि की स्तुति करते हैं। तीसरा पद है-पुरोहितम्, अर्थात् अग्नि दूसरों की हितकारक है। अब आप देख लीजिए कि यदि अग्नि का बीज सूर्य विद्यमान न हो तो मनुष्य की सबसे प्रथम इन्द्रिय चक्षु बिना अग्नि के निकम्मी हो जाती है, अर्थात् बिना अग्नि की सहायता के मनुष्य आँख होते हुए भी अन्धा है। दूसरी ओर जठराग्नि अपना काम बन्द कर दे तो मनुष्य के अन्दर पाचनशक्ति बिल्कुल समाप्त हो जाए और साथ ही रक्त की गति बन्द हो जाए, जिससे शरीर का बढ़ना सर्वथा बन्द हो जाएगा, अर्थात् बिना अग्नि के मनुष्य जीवित दशा में भी मुर्दा समझा जाएगा और वह किसी काम के योग्य नहीं रहेगा। तीसरे, वृक्षों को देख लीजिए। उनमें भी सूर्य की किरणों से आई हुई अग्नि है जो नीचे से पानी खींचने का काम करती है; यदि बन्द हो जाए तो वृक्षों का बढ़ना भी रुक जाएगा, अर्थात् वृक्षों के बढ़ने का साधन भी अग्नि ही है। चौथे, यदि वायु गन्दी हो जाए तो उसके शुद्ध करने की चिकित्सा है कि अग्नि जलाओ, तत्काल वायु शुद्ध हो जाएगी। आप लोगों ने प्रायः सुना होगा कि जिस मकान में दीपक नहीं जलाया जाता और वह बन्द रहता है तो उसमें भूत इत्यादि आ जाते हैं। जब भूत होते ही नहीं तो आ कहाँ से जाते हैं? इसका तात्पर्य केवल इतना है कि जिस मकान में बन्द रहने से सूर्य की किरणें नहीं पहुँचतीं और दीपक न जलने से अग्नि का कार्य भी बन्द हो जाता है, वहाँ की वायु अत्यन्त दूषित, अशुद्ध और मनुष्य के लिए हानिकारक हो जाती है और उस मकान में जब तक हवन न किया जाए तब तक वह मकान रहने योग्य नहीं होता। इसीलिए आर्यों के प्रत्येक कार्य में हवन का होना मुख्य बतलाया गया है। पाँचवें, यदि पानी दूषित हो तो उसकी चिकित्सा भी उसे अग्नि पर पकाना है। अग्नि पर उबालने से उसकी दुर्गन्धि और हानिप्रद किटाणु नहीं रहते। यदि कोई मिट्टी की वस्तु भी गन्दी हो जाए तो अग्नि में डालने से वह भी शुद्ध हो जाती है, अर्थात् प्रत्येक भौतिक पदार्थ की शुद्धि अग्नि के अधीन है, अत: अग्नि को पुरोहित कहा गया।
प्यारे पाठकगण ! संसार में जो पुरोहित और यजमान शब्द का प्रचार वह भी यहीं से लिया गया है, क्योंकि जो यजमान का हित करे, वह पुरोहित कहलाता है। प्राचीन समय में ब्राह्मण ही शेष तीन वर्णों को यथार्थ ज्ञान और धर्मोपदेश के द्वारा उन्नत किया करते थे, इसलिए ब्राह्मण ही पुरोहित कहलाने लगे। वे सर्वदा यजमान के अज्ञान को ज्ञान से और बुरे कर्मों के संस्कारों को अच्छे कर्मों के आदर्श से बदल डालते थे। इसी प्रकार संसार में भौतिक अग्नि भूतों के रूप को प्रकाशित करने और उनकी दुर्गन्धि को अपनी गर्मी और भेदक शक्ति द्वारा नाश करने से, पुरोहित कहलाती है।
'यज्ञस्य देवम्'-यज् धातु का अर्थ देवपूजा, संगतिकरण और दान है। यहाँ संगतिकरण और देवपूजा से तात्पर्य है-अग्नि ‘संयोग करने में देवता'। आप प्रश्न करेंगे कि अग्नि तो पदार्थों का वियोग करती है, फिर यह संयोग का देवता कैसे है? यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि जितने मोटे पदार्थ मिलाये जाएँगे, वे उतनी ही शीघ्र अलग हो जाएँगे। पदार्थों का सबसे उत्तम संयोग वह कहला सकता है जो परमाणु करके मिलाया जाए। अब आप समझ लीजिए कि परमाणु करना सिवाय अग्नि के किसकी शक्ति में है? उदाहरण के रूप में आप चाहते हैं कि हम उत्तम घी उत्पन्न करें तो इसका बीज आप किस प्रकार बो सकते हैं? घी कहाँ से आता है? पशुओं के दूध से। दूध कहाँ से आता है? उनके खाने के पदार्थों से। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि जिस गाय को अधिक खली खिलाई जाए उसका दूध अधिक हो जाएगा और जिसको बिनोले अधिक खिलाए जाएँगे उसके दूध में घी अधिक होगा। अब ज्ञात हो गया कि दूध वा घी वनस्पति से पैदा हुआ है। पशु केवल एक यन्त्र है, जो वनस्पति से घी निकालते हैं। वनस्पति में घी कहाँ से आता है? वर्षा से। वर्षा बादल से होती है। जब तक बादल में घी विराजमान न हो तो उसके उत्पन्न होने का चक्र चल नहीं सकता।
अब स्थूल घृत तो बादल में जा ही नहीं सकता, वह सूक्ष्म परमाणु होकर जाएगा। अग्नि का काम है कि वह बादल में घी मिला दे। यद्यपि संसार के अन्य पदार्थ भी इसी प्रकार अग्नि से ही अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करते हैं, परन्तु वे सूर्य की किरणों से काम लेते हैं, जिसे सामान्य मनुष्य नहीं समझ सकते, अत: सृष्टि-नियम का यह दृष्टान्त रख दिया। ‘ऋत्विजम्' अर्थात् गर्मी, सर्दी, वर्षा, वसन्त, इत्यादि ऋतुओं को पैदा करनेवाली भी अग्नि है, अर्थात् सारी ऋतुएँ अग्नि के पुञ्ज सूर्य के घूमने से पैदा होती हैं। जब सूर्य हमारे शिर पर होता है तो उसकी किरणें सीधी पड़ती हैं, उस समय सूर्य की आकर्षण शक्ति से पानी के परमाणु अधिक उड़ते हैं, इसलिए मनुष्य को पानी की इच्छा अधिक प्रतीत होती है। यही गर्मी है। संसार में भी पानी के अधिक खींचे जाने से खुश्की छा जाती है। सूर्य की किरणें पानी निकालने के लिए पृथिवी के नीचे तक जाती हैं। उस समय वे वृक्ष जिनकी जड़ गहरी होती है, उन्हें पानी मिलता रहता है और वे हरे रहते हैं, जिनकी जड़ बहुत कम गहरी होती है, वे सूखने लगते हैं; यदि उन्हें निरन्तर पानी न दिया जाए तो वे सूख जाते हैं। इसी का नाम ग्रीष्म ऋतु है जब पानी की आवश्यकता अधिक हो।
अब सूर्य दक्षिण की ओर जाने लगा अर्थात् दक्षिणायन हो गया। तब किरणें तिरछी पड़ने लगीं। उनकी आकर्षण-शक्ति भी निर्बल हो चली। अब वह पानी जो सीधी किरणों से ऊपर चला गया था, पृथिवी की ओर आने लगा। यह वर्षा हो गई। यद्यपि सूर्य और पृथ्वी प्रत्येक वस्तु को अपनी ओर खींचा करते हैं, परन्तु प्रकृति ने ऐसा चक्कर कर दिया है कि जो सय गर्मी के दिनों में पृथिवी की अपेक्षा अपनी किरणों के टेढ़ी हो जाने से अल्पशक्तिवाला हो गया था, उसने जो जल पृथिवी से छीन लिया था, वह वापस देना पड़ा। इसके पश्चात् सूर्य और भी दक्षिणायन हुआ और उसकी किरणें अधिक तिरछी हो गईं। अब पानी बहुत कम उड़ने लगा और बड़े-बड़े वृक्षों की जड़ों तक किरणों की गर्मी कम पहुँचने लगी। यह शरद् ऋतु कहलाती है। थोड़े दिन पश्चात् सूर्य और भी दक्षिणायन हो गया। अब तो किरणें बिल्कुल निर्बल हो गई। पानी जमकर बर्फ बनने लगा। बड़े-बड़े वृक्षों के पत्ते सूखकर गिरने लगे, क्योंकि नीचे से तो किरणों की निर्बलता के कारण पानी का आना बन्द हो गया और ऊपर से भी कुछ-न-कुछ कम होता रहा। निदान पानी की आय न रही और व्यय बराबर होने से वृक्ष सूख गये। इसी का नाम हेमन्त ऋतु है। इसके पश्चात् सूर्य फिर उत्तरायण में आना आरम्भ हुआ। किरणें बलवान् होने लगीं। वृक्षों की जड़ों के नीचे से पानी आने लगा और वृक्षों की नई-नई कोपलें और पत्ते निकलने लगे। प्रत्येक ओर वृक्षों पर नये सिरे से जवानी आने लगी। थोड़े दिनों में सारे वृक्ष हरे-भरे हो गये। यह वसन्त ऋतु कहलाती है। इसके पश्चात् सूर्य और भी उत्तरायण हो गया। ऋतु में गर्मी ज्ञात होने लगी। बड़े वृक्षों में और वृद्धि आरम्भ हुई। छोटे पौधे जड़ के थोड़े गहराव से सूखने लगे और ग्रीष्म ऋतु आ गई। प्यारे पाठकगण ! पूर्वोक्त वृत्तान्त से आपको अच्छे प्रकार ज्ञात होगा कि ऋतुओं का जन्म और परिवर्तन केवल अग्नि के कारण है।
‘होतारम्'-अग्नि होता है। होता कहते हैं हवन करनेवाले को, क्योंकि यह संसार एक बड़ा भारी हवनकुण्ड है और उसमें जितने पदार्थ हैं, वे सब हवन की सामग्री हैं। अग्नि इनका हवन करके इन पदार्थों के परमाणुओं को अलग-अलग करके उड़ाता रहता है। जिस प्रकार होता जल आदि की शुद्धि के लिए पदार्थों के परमाणुओं को आकाश में फैलाता है, उसी प्रकार अग्नि संसार की वनस्पति का हवन करती है।
प्यारे पाठकगण ! आप देखते हैं कि अभी एक सुगन्धित, हरा-भरा फूल उपस्थित था। थोड़ी देर के पश्चात् उसका रंग बदल गया, सुगन्ध कम हो गई, सूख जाने से बोझ भी कम हो गया, परन्तु साधारण लोग नहीं समझते कि फूल किस प्रकार शुष्क हो गया, सुगन्ध किस प्रकार नष्ट हो गई, परन्तु समझदार मनुष्य समझते हैं कि अग्नि ने फूल में से जल के परमाणु जिनसे वह हरा-भरा था, अलग कर दिये और सुगन्धि आकाश में फैल गई और उससे जलादि की शुद्धि हो गई। जब आप सुगन्धित वस्तु को देखते या सुँघते हैं तो वहाँ अग्नि उसके परमाणुओं को अलग करती है और वायु उसको आपकी नाक तक पहुँचा देती है। तब आपको सुगन्ध का ज्ञान होता है। यहाँ पर स्पष्ट ज्ञात हो गया कि पदार्थों की दशा में परिवर्तन पैदा करनेवाली अर्थात् उन्हें परमाणु बनाकर उड़ानेवाली अग्नि है।
‘रत्नधातमम्'- रत्नों को धारण करनेवाली, अर्थात् रत्नों को उत्पन्न करने का कारण भी अग्नि है।
प्यारे पाठकगण ! जो आप चाँदी, सोना, हीरा, लाल, नीलम, पुखराज, इत्यादि बहुत-से प्रकार के चमकदार रत्न देखते हैं, ये सभी अग्नि के कारण से उत्पन्न होते हैं। इनके अन्दर जितनी चमक है वह सब अग्नि के कारण से है, क्योंकि अग्नि के बिना कोई तत्त्व चमकदार नहीं रहता। जहाँ पर भी आप चमक देखें उसे अग्नि के कारण से समझें। जब बर्फ पर अग्नि की किरणें पड़ती रहती हैं और वह चिरकाल के पश्चात् किरणों से ढलती नहीं तो वह बर्फ बिल्लौर बन जाती है। इसी प्रकार अक़ीक़, नीलम, पुखराज, हीरा, लाल, इत्यादि बन जाते हैं।
प्यारे पाठकगण ! अब आप समझ लीजिए कि इस वेदमन्त्र में पाँच विद्याओं का बीज रक्खा गया था, लेकिन अल्पबुद्धि लोगों ने तो उसे समझा ही नहीं और कहने लगे कि वेद गडरियों के गीत हैं। क्या कोई मनुष्य है जो पाँच शब्दों में पाँच विद्याओं का उपदेश कर सके? पहली विद्या यह है कि संसार के पदार्थों की शुद्धि किस तरह हो सकती है, संसार के पदार्थ बढ़ते किस प्रकार हैं, संसार के जीवों का हितकारक कौन है, किसके द्वारा आँखें काम कर सकती हैं, रक्त किस कारण खून में गति करता है, किसके कारण से भूख और प्यास लगती है और किसके बिगड़ जाने से शरीर की सम्पूर्ण शक्ति व्यर्थ हो जाती है। इन सब बातों का उत्तर था कि अग्नि के कारण से ये सारे काम संसार में होते हैं। दूसरी विद्या-ठीक संयोग करने का कारण कौन-सा है, यज्ञ का कौन-सा देवता है जिसके कारण सारे देवता प्रसन्न हो जाते हैं, अर्थात् वह एक कौन है जो सब देवताओं को मनुष्य के लिए सुखकारी बना सकता है? इसका उत्तर दिया गया कि ऐसा देवता अग्नि है। अग्नि सब पदार्थों को तुम्हारे लिए सुखकारक बना सकती है। एक तो, प्रकाश द्वारा उनके गुण जतलाकर; दूसरे, गर्मी द्वारा उनको शुद्ध करके; तीसरे, विविध ऋतुएँ क्योंकर पैदा होती और बदलती हैं, किस प्रकार जगत्पिण्ड जो अग्नि के समान गर्म था नितान्त ठण्डा हो जाता है कि जहाँ रूईदार कपड़ा ओढे बिना आराम नहीं मिलता, जहाँ पर नितान्त सूखा था वहाँ पर जल-ही-जल हो जाता है, या एक समय जो सम्पूर्ण पेड़ पत्तों से नितान्त खाली हो गये थे वे पुनरपि हरे-भरे होकर नये जीवन में आ जाते हैं। इन ऋतुओं का पैदा होना किस शक्ति से होता है? उत्तर मिला-अग्नि से, अर्थात् अग्नि के कम या अधिक होने से सभी विकल्प संसार में होते हैं। अगर अग्नि न होती तो सारी ऋतुओं का बदलना और पदार्थों का संयोग ठीक से कभी भी न हो सकता। चौथी विद्या-संसार में ऐसा कौन-सा तत्त्व है जो प्रत्येक पदार्थ की दशा बदल देता है, जिससे संसार के पदार्थ परमाणुरूप होकर उड़ते और वायु में अपना प्रभाव छोड़ते हैं? उत्तर मिला-वह अग्नि है। पाँचवीं विद्या- धातु और रत्न जो चमकदार पदार्थ हैं वे किस शक्ति से पैदा होते हैं? सोना इतना चमकदार क्यों है तथा हीरे और लाल किस प्रकार उत्पन्न होते हैं? उत्तर मिला-अग्नि की शक्ति से।
✍🏻 लेखक- स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
📖 पुस्तक - दर्शनानन्द ग्रन्थ संग्रह
*प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’*
॥ ओ३म् ॥o

1 comment:

  1. Great explanation. वेदो के शब्दो को जितन सूक्ष्मता से आप अध्ययन किये और लोगो तक पहुचाने का प्रयास कर रहे है यह बहुत हि प्रशंसनीय है। प्रणम्। आपसे सम्पर्कः कैसे किया जये।

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