Monday, June 3, 2019

भारत में प्रचलित सेक्युलरवाद के घातक परिणाम



भारत में प्रचलित सेक्युलरवाद के घातक परिणाम
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पिछले कुछ वर्षों से भारत के सार्वजनिक जीवन से अब प्रचलित सेक्यूलरिज्म खारिज होता जा रहा है। हिन्दू समाज के लिए घातक इस अवधारणा के परिणामों और अनुभवों को लोग समझने लगे हैं। वास्तव में सेक्यूलरिज्म तो यूरोप की विशिष्ट सामाजिक, राजनैतिक उपज थी, जो भारत के संदर्भ में एक मायने में अर्थहीन है, साथ ही नुकसानदेह भी। इसलिए जिन्हें सेक्युलरवाद और सेकुलरवादियों के कमजोर होने की समीक्षा करनी हो, उन्हें मुख्य मुद्दे पर आना चाहिए। 

वास्तविकता यह है कि हिन्दू धर्म-चिंतन-समाज अपने स्वभाव से ही लौकिक जीवन में सेक्यूलर है, जबकि ईसाईयत और इस्लाम अपनी बुनियाद में ही सेकुलरिज्म-विरोधी है। जहां तक इस्लाम का सवाल है, मुस्लिम देशों या समाजों में सेकुलरिज्म का कोई स्थान नहीं। उनके बीच सेक्युलर के लिए शब्द है: ला-दीनी, यानी मजहब विरूद्ध। तब यहां सेकुलरिज्म की फिक्र करने वाले या तो नाटक कर रहे या घोर अज्ञान में डूबे हैं। जिस तरह यहां दशकों से बड़े-बड़े लेखकों, पत्रकारों, एक्टिविस्टों, राजनीतिक दलों, आदि द्वारा सेकुलरिज्म के नाम पर ऊट-पटांग कारनामे होते रहे है, वह या तो नाटक है या अज्ञान। वे यह मोटी बात का जानबूझकर अनदेखा करते रहे कि भारतवर्ष में सनातन धर्म के लंबे इतिहास में धर्म के नाम पर कभी रक्तपात नहीं हुआ। किंतु जबसे हमने सेक्यूलरवाद की धारणा उधार ली तब से हमारी समस्याओं का अंत नहीं है।

इतिहासकार-चिंतक स्व. सीताराम गोयल ने बिल्कुील ठीक कहा था कि जिन धारणाओं की पृष्ठ‍भूमि और इतिहास नितांत भिन्न हैं, उन की अंधी नकल करके हमने अपनी संस्कृति को घायल और भ्रष्ट ही किया है। यहाँ प्रचलित सेकुलरिज्म हिन्दू समाज के लिए घातक रहा है। इसे अब आम जनता ने समझ लिया है, पर जब तक बुद्धिजीवी भी इसे नहीं समझते, भारत पर स्थाई संकट बना रहेगा।

भारत के लिए सेकुलरिज्म अनावश्यक नारा था, जिसका आसानी से दुरुपयोग हुआ है। यूरोप में चौथी शताब्दी‍ से लगभग हजार साल तक ईसाई चर्च और राज्य के बीच घनिष्ठ संबंध था। चर्च और राज्य मिलकर व्यक्ति के इहलोक और परलोक पर तानाशाही चलाते थे। चर्च के कुपित होने पर व्यक्ति को जिंदा जलाने तक की यंत्रणा दी जाती थी। यूरोपीय राजा मानते थे कि राज्य केवल चर्च की सेवा के लिए है। जब तक यूरोप में ऐसे लोग बचे रहे जिन्हें ईसाइयत में धर्मांतरित कराना शेष था, तब तक चर्च और राज्य का गठजोड़ चलता रहा। ईसाइयत फैलाने के नाम पर राजाओं को चर्च का समर्थन मिला रहा। किंतु पंद्रहवीं शताब्दी तक पूरा यूरोप ईसाई हो चुका था। राजाओं को अपनी सत्ता के लिए चर्च के सहयोग की विशेष आवश्याकता नहीं रही। उल्टे‍ राज्य में चर्च के हस्तहक्षेप से अब उन्हें और कठिनाई होने लगी। फिर सोलहवीं शताब्दी में चर्च की मनमानियों के विरुद्ध यूरोप में विद्रोह होने लगे और ईसाइयत कई गुटों में बंट गई। विभिन्न राजाओं ने एक गुट के साथ जुड़कर दूसरे गुटों को दबाना आरंभ किया। इस तरह रिलीजन के नाम पर विभिन्न देशों में लड़ाइयां शुरू हो गईं। किंतु सौभाग्य से तभी यूरोप के अनेक चिंतक ग्रीस, चीन और भारत जैसी संस्कृतियों की ज्ञान-संपदा के संपर्क में आए। इससे उन्हें मानवीयता और बौद्धिकता के नए सार्वभौमिक विचार मिले। उसी प्रभाव में उन्होंने ईसाई कट्टरता और जड़ मान्यताओं के विरुद्ध वैचारिक विद्रोह का सूत्रपात किया। युरोप में ‘रेनेसां’ (नवजागरण) का आंदोलन उसी की अभिव्यक्ति थीं। ईसाइ मत की अधिकांश मान्याताओं में स्वतंत्र बुद्धि-विवेक से उत्पन्न चुनौतियों का सामना करने की सामर्थ्य‍ कभी न थी। इसीलिए जल्द ही उसकी कट्टर मतवादिता को मैदान छोड़ना पड़ा। उन्नीसवीं शताब्दी तक वह स्थिति आ गई जब यूरोप के राज्य चर्च के दबदबे से मुक्त हो गए। अब राज्य का कार्य यह न रहा कि प्रजा के परलोक का भी जबरदस्ती  ध्यान रखे। यह व्यक्ति के निजी विश्वास में बदल गया। इसे ही राज्य का "सेक्यूलर" बन जाना कहा गया।

अब सरलता से समझ में आ सकता है कि स्वतंत्र भारत में "सेकुलरिज्म" का क्या अनर्थ किया गया है। स्वाधीनता आंदोलन के संपूर्ण काल में हमारे किसी चिंतक या नेता ही नहीं, वरन किसी सामाजिक, राजनीतिक संगठन के प्रस्ताव या लक्ष्य में भी ‘सेकुलरिज्मि’ शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। फिर कैसे एकाएक स्वतंत्र भारत में वही "सेकुलर" शब्द राष्ट्रीय संविधान के ऊपर भी एक तरह का सुपर-विधान बन बैठा? यह निश्चित रूप से भीतरघात था, भारतीय जनता पर एक अदृश्य व विदेशी शासन का औजार। इतिहासकार सीताराम गोयल ने चेतावनी दी थी कि इस घातक प्रक्रिया और इसके परिणामों का निहितार्थ हिन्दू  समाज अभी तक नहीं समझ पाया है। उनकी चेतावनी को गंभीरता से लेना चाहि‍ए, वरना हम उस विषैले मकड़जाल से मुक्त नहीं हो सकते जो भारतीय सभ्यता के विनाश का लक्ष्य रखता है।

किंतु स्वतंत्र भारत के दुर्भाग्य से नितांत विपरीत घटित हुआ। उलेमा और मिशनरी वर्ग, जिन्होंने सदैव भारतीय धर्म, सभ्यता और संस्कृति के प्रति घोर शत्रुता दिखाई है, उन्होंंने अब दुष्प्रचार आरंभ किया कि स्वतंत्र भारत में ईसाई और इस्लामी समुदाय की संस्कृति को बहुसंख्यक हिन्‍दुओं से खतरा है। इसलिए राज्यों को उनकी रक्षा के उपाय, अर्थात विशेष सुविधाएं देनी चाहिए। यह "उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे" जैसी बात थी। जिस उलेमा और‍ मिशनरी वर्ग ने सदियों से हिन्दू जनता पर राज्यसत्ताओं के प्रयोग से हर तरह के अत्याचार किए, जिसका संपूर्ण रिकॉर्ड उनके अपने साहित्य में उपलब्ध है, वही अपने को "पीडि़त" बता रहा है।

यह छल कई कारणों से सफल हुआ, जिसमें नेहरूवाद का हिन्दू-विरोधी दुराग्रह मुख्य कारण था। दूसरे यह भी कि हिन्दु‍ओं ने बाहरी विस्तारवादी कट्टर विचारधाराओं, मजहबों का अध्ययन-मनन करके जनता को उनके प्रति सचेत करने का कर्तव्य नहीं किया। इसीलिए दुष्टतापूर्ण विचारों को भी आदरणीय समझने की भूल दुहराई जाती रही। इस प्रकार, मजहबी अत्याचारियों से सदियों संघर्ष करके भी हिन्दू समाज उन अत्याचारों के स्रोत से अनभिज्ञ पड़ा रहा। उसी अज्ञानता में स्वतंत्र भारत के नौसिखिये सत्ताधीश मुल्ले और मिशनरियों की हर एक बात मानते चले रहे। तबलीगियों और मिशनरियों को अपनी साम्राज्यवा‍दी विचारधारा का प्रचार करने की छूट और विशेष सुविधाएं तक दे दी गई, जबकि हिन्दुओं को वंचित कर, सनातन धर्म-चेतना से शिक्षा व रीति-नीति बनाने से रोक दिया गया। इसी नीति को "सेकुलरिज्म" का नाम दिया गया। होना यह चाहिए था कि उन स्वघोषित विस्तारवादी, छल-बल-प्रपंच से धर्मांतरण कराने वाली साम्राज्यवादी विचारधाराओं से हिन्दू समाज को अब सुरक्षा दी जाती जो सदियों बाद मुक्त हुआ था। किंतु इसके विपरीत, एक बार फिर भारत भूमि में, हिन्दू सत्ताधीशों के राज में, सनातन धर्म को ही उन शिकारी विचारधाराओं के समक्ष असहाय छोड़ दिया गया। यह कितनी बड़ी विडंबना और मूर्खता थी!!

एक ओर आक्रामक मजहब और दूसरी ओर सनातन धर्म के प्रति जो तटस्थ नीति स्वतंत्र भारत की सत्ता‍ ने अपनाई, वह सेकुलरिज्म भी न था। यह बाघ और गाय के बीच तटस्थता थी, जिसमें कश्मीरी हिन्दुओं का विनाश पहली बलि है।

भारत में प्रचलित इस सेक्युलरवाद के घातक अनुभवों और परिणामों के बावजूद भारत के हिन्दू नेताओं, चिंतकों ने सही निष्कर्ष नहीं निकाला। उन्होंने विस्तारवादी विचारधाराओं का चरित्र, स्वभाव ठीक से समझ कर अपने कर्तव्य निर्धारित नहीं किए। स्वधर्म में संतुष्ट रहते उन्होंने कभी पर-धर्म को गहराई से समझने का यत्न नहीं किया। कश्मीर से हिन्दुओं का विनाश और आज बंगाल, केरल, असम आदि में भी उसी दिशा की झलक इसी का परिणाम है। इसलिए भारत में प्रचलित सेकुलरवाद हिन्दू संस्कृति के प्रति स्थाई शत्रुभाव से भरी आक्रामक विचारधाराओं को प्रोत्साहन देने के सिवा कुछ नहीं कर रहा है। ऐसे सेकुलरवाद से छुटकारा पाना हिन्दू समाज का प्रधान कर्तव्य होना चाहिए।

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