Monday, March 4, 2019

आर्य विदुषी डॉ प्रज्ञा देवी जी



आर्य विदुषी डॉ.प्रज्ञा देवी जी

05 मार्च - जन्मदिन विशेष 

पाणिनि और महर्षि दयानन्द जी की वंशवदा श्रद्धेया आर्य विदुषी डॉ.प्रज्ञा देवी जी का जन्म 5 मार्च 1937 को मध्यप्रदेश के सतना जिले के कोलगवाँ नामक ग्राम में श्री कमला प्रसाद आर्य के यहाँ हुआ था | आपकी माताजी का नाम श्रीमती हरदेवी जी आर्य था | 1954 में श्री कमला प्रसाद जी का स्वर्गवास मात्र 46 वर्ष की आयु में हो गया तो माता हरदेवी जी ने ही सारे बच्चों को वाराणसी ले जाकर पण्डित ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु के सुपुर्द कर दिया | एक बार की बात है की रीवा राज्य मध्य प्रदेश के नरेश श्री गुलाब सिंह जी की महारानी ने दरबार में सती के दर्शन करने की इच्छा व्यक्त की | एक मुस्लिम दरबारी ने महारानी को माता-हरदेवी जी के दर्शन करने का सुझाव दिया व महारानी ने माता हरदेवी जी के दर्शन किये ऐसे माता-पिता के घर जन्मी व पलीं थीं डॉ प्रज्ञा देवी जी | 
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डॉ प्रज्ञा जी का अध्ययन काशी के महापण्डित गुरुवर्य पूज्य ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु के निकट हुआ जहाँ रहकर आपने वेद, वेदांग, दर्शन, महाभाष्य, निरुक्त आदि ग्रन्थों का विशद् अध्ययन किया | 1969 इस्वी में आपने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से "विद्यावारिधि" की उपाधि प्राप्त की | 08 जुलाई 1971 को आपने काशी में जिज्ञासु स्मारक पाणिनि कन्या महाविद्यालय की स्थापना की | 1972 में इस विद्यालय का विधिवत् उद्घाटन हुआ | यहाँ कन्याओं के संस्कृत अध्ययन की सुचारू व्यवस्था की गयी | वेद, व्याकरण, दर्शन तथा अन्य प्राचीन वैदिक शास्त्रों की उच्चस्तरीय शिक्षा का यह एक प्रमुख केन्द्र है | 
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आपने आजीवन कठोर ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर अपनी छोटी बहन यज्ञमयी-माता आचार्य मेधादेवी के साथ जीवन बिताया जिसके परिणामस्वरुप विद्यालय (गुरुकुल) में अनेक कन्याओं को सुयोग्य विदुषी बनाने का यज्ञ पूर्ण हो सका | दोनों बहनों की मार्मिक कार्य प्रणाली ऐसी थी जिसका आलंकारिक-वर्णन सामवेद के मन्त्र संख्या 1751 में मिलता है , दोनों में कोई वैमत्य नहीं, द्वैध भाव नहीं, एक प्राण दो शरीर थे | उल्लेखनीय है विद्वान पूज्य आचार्य सुद्युम्न जी आपके भाई हैं व वैदिक धर्म के विलक्षण विभूति हैं | 
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वाराणसी में जब काशी शास्त्रार्थ शताब्दी मनाई जा रही थी तब पुरी के शंकराचार्य निरन्जन देव तीर्थ ने आर्य समाज को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा था तब पूज्या डॉ प्रज्ञा देवी जी ने गर्जना की थी “बेटी तो दयानन्द की हूँ | शंकराचार्य की दृष्टि में तो पाँव की जूती हूँ | आज जूती और शंकराचार्य के मध्य शास्त्रार्थ होगा तब पता चलेगा कि पाँव की जूती उछल कर कहाँ पड़ती है” | ऐसी निर्भीक एवं शास्त्रों में निष्णात थीं | 
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प्रज्ञावान् पुरुष दीर्घायु नहीं होते यह बात डॉ प्रज्ञा देवी जी के लिए भी सिद्ध हुई | 06 दिसम्बर 1995 के दिन रात्रि 7 बजे, ज्ञानदीपिका डॉ प्रज्ञा देवी जी का निधन हुआ जिसके बाद गुरुकुल का संचालन विदुषी आचार्या मेधादेवी जी ने कुशलता से किया | 
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पाणिनि-मन्दिरम् :- काशी में अनेक मन्दिर हैं जिनमें विविध देवी-देवता पूजे जाते हैं | इन मन्दिरों में एक है मानस मन्दिर जिसमें रामचरित-मानस की हर चौपाई/दोहे को संगमरमर पर उकेरा गया है | डॉ प्रज्ञा देवी जी की भी इच्छा थी की एक मन्दिर अष्टाध्यायी के प्रत्येक सूत्र को संगमरमर पर उकेर कर बनाया जाये लेकिन यह स्वप्न ही रह गया | आपके इस स्वप्न को पूर्ण किया आपकी छोटी बहन आचार्या मेधादेवी जी व आचार्या नन्दिता जी ने और आज यह मन्दिर अपने भव्य रूप में सबके लिए दर्शनीय है जिसमें अनेक कार्यशालायें आयोजित होती हैं और अनेकों को प्रेरणा देता है | बिना किसी मूर्ति के इस मन्दिर में पाणिनि जी आज भी देखे जा सकते हैं | 
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नारीरत्ना स्नेहमयी प्रज्ञादेवी जी के जीवन की एक घटना बहुत प्रसिद्ध है | एक सुदामा नामक डाकू आपके प्रवचन सुन कर संन्यासी बन गया | सात्त्विकता की विरल मूर्ति डाकू से वैदिक विद्वान् तक का जीवन पूजनीया प्रज्ञादेवी जी की वाणी का ही प्रभाव था | (इस घटना को मैंने स्वयं उनके ही श्री मुख से सुना है |) 
लेखन कार्य :- 
१) मन्त्र मालिका (1983), 
२) देवसभा (1983), 
३) उरुधारा नारी (1985), (नारी सन्दर्भित 500 मन्त्र तथा नारीवाचक 100 नामों को आधार बनाकर शोध निबन्ध)
४) स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश व्याख्यानमाला (1987), 
५) नवग्रहों का शुभागमन (1988), 
६) अष्टाध्यायी भाष्य तृतीय खण्ड (पण्डित ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु कृत अष्टाध्यायी भाष्य के अवशिष्टान्श - 1968)
७) अथर्ववेद भाष्य (पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी कृत भाष्य 1-4 काण्ड पर्यन्त का सम्पादन कर पुनर्प्रकाशन)
८) गोपथ ब्राह्मण पर पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी कृत भाष्य का सम्पादन कर पुनर्प्रकाशन आपके गहन पाण्डित्य को पदे-पदे प्रमाणित करता है | 
साभार :- 
१) आर्य लेखक कोश, डॉ भवानीलाल जी भारतीय, पृष्ठ 146-147
२) प्रस्तवन ज्ञापिका
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मैं विश्वप्रिय सौभाग्यशाली हूँ की डॉ प्रज्ञादेवी जी के न केवल साक्षात् दर्शन परन्तु आपकी प्रेरणा को पा सका | द्वा सुपर्णा (ऋग्वेद 1-164-20) जब मैंने आपनी बाल्य अवस्था में सुनाया था तब आपका आशीर्वाद प्राप्त हुआ था | आपके भी कारण मैं वेदानुरागी बन पाया | मेरा सौभाग्य है की आप मेरी मौसी जी थीं और आपका स्नेह प्राप्त कर सका | मेरा शत शत नमन है | 
सादर 
धन्यवाद 
विदुषामनुचर 
विश्वप्रिय वेदानुरागी 
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