कर्मफल के अनुरूप विभिन्न योनियों की प्राप्ति
मनुस्मृति में पाप और पुण्य की बहुत प्रकार की गति -
मानसं मनसैवायमुपभुङ्क्ते शुभाऽशुभम्।
वाचा वाचा कृतं कर्म कायेनैव च कायिकम्॥1॥ मनु॰12.8
अर्थात् मनुष्य इस प्रकार अपने श्रेष्ठ, मध्य और निकृष्ट स्वभाव को जानकर उत्तम स्वभाव को ग्रहण; मध्य और निकृष्ट का त्याग करे और यह भी निश्चय जाने कि यह जीव मन से जिस शुभ वा अशुभ कर्म को करता है उसको मन, वाणी से किये को वाणी और शरीर से किये शरीर से अर्थात् सुख-दुःख भोगता है॥1॥
शरीरजैः कर्मदोषैर्याति स्थावरतां नरः।
वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम्॥2॥ मनु॰12.9
जो नर शरीर से चोरी, परस्त्रीगमन, श्रेष्ठों को मारने आदि दुष्ट कर्म करता है, उसको वृक्षादि स्थावर का जन्म, वाणी से किये पाप कर्मों से पक्षी और मृगादि तथा मन से किये दुष्ट कर्मों से चाण्डाल आदि का शरीर मिलता है॥2॥
यो यदेषां गुणो देहे साकल्येनातिरिच्यते।
स तदा तद्गुणप्रायं तं करोति शरीरिणम्॥3॥ मनु॰12.25
जो गुण इन जीवों के देह में अधिकता से वर्त्तता है, वह गुण उस जीव को अपने सदृश कर देता है॥3॥
सत्त्वं ज्ञानं तमोऽज्ञानं रागद्वेषौ रजःस्मृतम्।
एतद्व्याप्तिमदेतेषां सर्वभूताश्रितं वपुः॥4॥ मनु॰12.26
जब आत्मा में ज्ञान हो तब ‘सत्त्व’, जब अज्ञान रहे तब ‘तम’ और जब राग-द्वेष में आत्मा लगे तब ‘रजोगुण’ जानना चाहिये। ये तीन प्रकृति के गुण सब संसारस्थ पदार्थों में व्याप्त होकर रहते हैं॥4॥
तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं किञ्चिदात्मनि लक्षयेत्।
प्रशान्तमिव शुद्धाभं सत्त्वं तदुपधारयेत्॥5॥ मनु॰12.27
उसका विवेक इस प्रकार करना चाहिये कि जब आत्मा में प्रसन्नता, मन प्रसन्न प्रशान्त के सदृश शुद्धभानयुक्त वर्त्तें, तब समझना कि सत्त्वगुण प्रधान और रजोगुण तथा तमोगुण अप्रधान हैं॥5॥
यत्तु दुःखसमायुक्तमप्रीतिकरमात्मनः।तद्रजोऽप्रतिघं विद्यात् सततं हारि देहिनाम्॥6॥ मनु॰12.28
जब आत्मा और मन दुःखसंयुक्त प्रसन्नतारहित विषय में इधर-उधर गमन-आगमन में लगे, तब समझना कि रजोगुण प्रधान; सत्त्वगुण तथा तमोगुण अप्रधान हैं॥6॥
यत्तु स्यान्मोहसंयुक्तमव्यक्तं विषयात्मकम्।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत्॥7॥ मनु॰12.29
जब ‘मोह’ अर्थात् सांसारिक पदार्थों में फँसा हुआ आत्मा और मन हो, जब आत्मा और मन में कुछ विवेक न रहे, विषयों में आसक्त तर्क-वितर्क-रहित जानने योग्य न हो तब निश्चय समझना चाहिये कि इस समय मुझमें तमोगुण प्रधान और सत्त्वगुण तथा रजोगुण अप्रधान हैं॥7॥
त्रयाणामपि चैतेषां गुणानां यः फलोदयः।
अग्र्यो मध्यो जघन्यश्च तं प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥8॥ मनु॰12.30
अब जो इन तीन गुणों का उत्तम, मध्यम और निकृष्ट फलोदय होता है, उसको पूर्णभाव से कहते हैं॥8॥
वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धर्मक्रियात्मचिन्ता च सात्त्विकं गुणलक्षणम्॥9॥ मनु॰12.31
जब सत्त्वगुण का उदय होता है तब वेदों का अभ्यास, धर्मानुष्ठान, ज्ञान की वृद्धि, पवित्रता की इच्छा, इन्द्रियों का निग्रह, धर्म-क्रिया और आत्मा का चिन्तन होता है, यही सत्त्वगुण का लक्षण है॥9॥
आरम्भरुचिताऽधैर्य्यमसत्कार्यपरिग्रहः।
विषयोपसेवा चाजस्रं राजसं गुणलक्षणम्॥10॥ मनु॰12.32
जब रजोगुण का उदय; सत्त्व और तमोगुण का अन्तर्भाव होता है तब आरम्भ में रुचिता, धैर्य, त्याग, असत् कर्मों का ग्रहण, निरन्तर विषयों की सेवा में प्रीति होती है, तभी समझना कि रजोगुण प्रधानता से मुझमें वर्त्त रहा है॥10॥
लोभः स्वप्नोऽधृतिः क्रौर्यं नास्तिक्यं भिन्नवृत्तिता।
याचिष्णुता प्रमादश्च तामसं गुणलक्षणम्॥11॥ मनु॰12.33
जब तमोगुण का उदय; और दोनों का अन्तर्भाव होता है तब अत्यन्त ‘लोभ’ अर्थात् सब पापों का मूल बढ़ता, अत्यन्त आलस्य और निद्रा, धैर्य्य का नाश, क्रूरता का होना, ‘नास्तिक्य’ अर्थात् वेद और ईश्वर में श्रद्धा का न रहना, भिन्न-भिन्न अन्तःकरण की वृत्ति और एकाग्रता का अभाव, जिस किसी से ‘याचना’ अर्थात् माँगना, ‘प्रमाद’ अर्थात् मद्यपानादि दुष्ट व्यसनों में फँसना होवे, तब समझना कि तमोगुण मुझमें बढ़कर वर्त्तता है॥11॥
यत्कर्म कृत्वा कुर्वंश्च करिष्यंश्चैव लज्जति।
तज्ज्ञेयं विदुषा सर्वं तामसं गुणलक्षणम्॥12॥ मनु॰12.35
यह सब तमोगुण का लक्षण विद्वान् को जानने योग्य है कि जब अपना आत्मा जिस कर्म को करके, करता हुआ और करने की इच्छा से लज्जा, शङ्का और भय को प्राप्त होवे तब जानो कि मुझमें प्रवृद्ध तमोगुण है॥12॥
येनास्मिन्कर्मणा लोके ख्यातिमिच्छति पुष्कलाम्।
न च शोचत्यसम्पत्तौ तद्विज्ञेयं तु राजसम्॥13॥ मनु॰12.36
जिस कर्म से इस लोक में जीवात्मा पुष्कल प्रसिद्धि चाहता, दरिद्रता होने में भी चारण, भाट आदि को दान देना नहीं छोड़ता तब समझना कि मुझमें रजोगुण प्रबल है॥13॥
यस्सर्वेणेच्छति ज्ञातुं यन्न लज्जति चाचरन्।
येन तुष्यति चात्मास्य तत्सत्त्वगुणलक्षणम्॥14॥ मनु॰12.37
और जब मनुष्य का आत्मा सबसे जानने को चाहे, गुण ग्रहण करता जाये, अच्छे कर्मों में लज्जा न करे और जिस कर्म्म से आत्मा प्रसन्न होवे अर्थात् धर्माचरण ही में रुचि रहे, तब समझना कि मुझमें सत्त्वगुण प्रबल है॥14॥
तमसो लक्षणं कामो रजसस्त्वर्थं उच्यते।
सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः श्रैष्ठ्यमेषां यथोत्तरम्॥15॥ मनु॰12.38
तमोगुण का लक्षण काम, रजोगुण का अर्थ-संग्रह की इच्छा और सत्त्वगुण का लक्षण धर्मसेवा करना है, परन्तु तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से सत्त्वगुण श्रेष्ठ है॥15॥
अब जिस-जिस गुण से जिस-जिस गति को जीव प्राप्त होता है, उस-उस को आगे लिखते हैंः—
देवत्त्वं सात्त्विका यान्ति मनुष्यत्वञ्च राजसाः।
तिर्यक्त्वं तामसा नित्यमित्येषा त्रिविधा गतिः॥1॥ मनु॰12.40
जो मनुष्य सात्त्विक हैं वे ‘देव’ अर्थात् विद्वान्, जो रजोगुणी होते हैं वे मध्यम मनुष्य और जो तमोगुणयुक्त होते हैं वे नीच गति को प्राप्त होते हैं॥1॥
स्थावराः कृमिकीटाश्च मत्स्याः सर्पाश्च कच्छपाः।
पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसा गतिः॥2॥ मनु॰12.42
जो अत्यन्त (जघन्य) तमोगुणी हैं वे स्थावर वृक्षादि, कृमि, कीट, मत्स्य, सर्प, कच्छप, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते हैं॥2॥
हस्तिनश्च तुरङ्गाश्च शूद्रा म्लेच्छाश्च गर्हिताः।
सिंहा व्याघ्रा वराहाश्च मध्यमा तामसी गतिः॥3॥ मनु॰12.43
जो मध्यम तमोगुणी हैं वे हाथी, घोड़ा, शूद्र, म्लेच्छ निन्दित कर्म करने वाले,सिंह , व्याघ्र, ‘वराह’ अर्थात् सुअर के जन्म को प्राप्त होते हैं॥3॥
चारणाश्च सुपर्णाश्च पुरुषाश्चैव दाम्भिकाः।
रक्षांसि च पिशाचाश्च तामसीषूत्तमा गतिः॥4॥ मनु॰12.44
जो उत्तम तमोगुणी हैं वे ‘चारण’ (जो कि कवित्त दोहा आदि बनाकर मनुष्यों की प्रशंसा करते हैं), सुन्दर पक्षी, ‘दाम्भिक’ पुरुष अर्थात् अपने मुख से अपनी प्रशंसा करनेहारे, ‘राक्षस’ जो हिंसक, ‘पिशाच’ जो अनाचारी अर्थात् मद्यादि के आहारकर्त्ता और मलिन रहते हैं, वह उत्तम तमोगुण के कर्म का फल है॥4॥
झल्ला मल्ला नटाश्चैव पुरुषाः शस्त्रवृत्तयः।
द्यूतपानप्रसक्ताश्च जघन्या राजसी गतिः॥5॥ मनु॰12.45
जो जघन्य रजोगुणी हैं वे ‘झल्ला’ अर्थात् तलवार आदि से मारने वा कुदार आदि से खोदनेहारे, ‘मल्ला’ अर्थात् नौका आदि के चलाने वाले, ‘नट’ जो बाँस आदि पर कला कढ़ना-चढ़ना-उतरना आदि करते हैं, शस्त्रधारी भृत्य, द्यूत और मद्यपान में आसक्त हों, ऐसे जन्म नीच रजोगुण का फल है॥5॥
राजानः क्षत्रियाश्चैव राज्ञां चैव पुरोहिताः।
वादयुद्धप्रधानाश्च मध्यमा राजसी गतिः॥6॥ मनु॰12.46
जो मध्यम रजोगुणी होते हैं वे राजा, क्षत्रियवर्णस्थ राजाओं के पुरोहित, वादविवाद करनेवाले, द्यूत, प्राड्विवाक (वकील-वारिष्टर), युद्ध-विभाग के अध्यक्ष का जन्म पाते हैं॥6॥
गन्धर्वा गुह्यका यक्षा विबुधानुचराश्च ये।
तथैवाप्सरसः सर्वा राजसीषूत्तमा गतिः॥7॥ मनु॰12.47
जो उत्तम रजोगुणी हैं वे गन्धर्व (गानेवाले), गुह्यक (वादित्र बजानेहारे), यक्ष (धनाढ्य), विद्वानों के सेवक और ‘अप्सरा’ अर्थात् जो उत्तम रूपवाली स्त्री उसका जन्म पाते हैं॥7॥
तापसा यतयो विप्रा ये च वैमानिका गणाः।
नक्षत्राणि च दैत्याश्च प्रथमा सात्त्विकी गतिः॥8॥ मनु॰12.48
जो तपस्वी, यति-संन्यासी, वेदपाठी, विमान को चलानेवाले, ज्योतिषी और ‘दैत्य’ अर्थात् देहपोषक मनुष्य होते हैं, उनको प्रथम सत्त्वगुण के कर्म का फल जानो॥8॥
यज्वान ऋषयो देवा वेदा ज्योतींषि वत्सराः।
पितरश्चैव साध्याश्च द्वितीया सात्त्विकी गतिः॥9॥ मनु॰12.49
जो मध्यम सत्त्वगुणयुक्त होकर कर्म करते हैं वे जीव यज्ञकर्त्ता, वेदार्थवित्, विद्वान्, वेद, विद्युत् आदि और काल-विद्या के ज्ञाता, रक्षक, ज्ञानी और ‘साध्य’ कार्यसिद्धि के लिये सेवन करने योग्य अध्यापक का जन्म पाते हैं॥9॥
ब्रह्मा विश्वसृजो धर्म्मी महानव्यक्तमेव च।
उत्तमां सात्त्विकीमेतां गतिमाहुर्मनीषिणः॥10॥ मनु॰12.50
जो उत्तम सत्त्वगुणयुक्त होके उत्तम कर्म करते हैं वे ‘ब्रह्मा’ सब वेदों का वेत्ता, ‘विश्वसृज’ सब सृष्टिक्रम विद्या को जानकर विविध विमानादि यानों को बनानेहारे, धार्मिक, सर्वोत्तम बुद्धियुक्त और अव्यक्त के जन्म और प्रकृतिवशित्व सिद्धि को प्राप्त होते हैं॥10॥
इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन धर्मस्यासेवनेन च।
पापान्संयान्ति संसारानविद्वांसो नराधमाः॥11॥ मनु॰12.52
जो इन्द्रियों के वश होकर विषयी, धर्म को छोड़कर अधर्म करनेहारे अविद्वान् हैं, वे मनुष्यों में ‘नीच-जन्म’ बुरे-बुरे दुःखरूप जन्म को पाते हैं॥11॥
इस प्रकार सत्त्व, रज और तमोगुणयुक्त वेग से जिस-जिस प्रकार का कर्म जीव करता है, उस-उस को उसी-उसी प्रकार का फल प्राप्त होता है। ( स॰प्र॰न॰समु॰)
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