क्या वृक्षों में जीवन हैं और क्या वृक्ष आदि खाने में पाप है?
#डॉ_विवेक_आर्य
आधुनिक समाज में खान पान को लेकर एक विशेष दुविधा आज भी बनी हुई हैं, जिसमें सभी व्यक्तियों के अलग अलग दृष्टीकौन हैं।
इस्लाम और ईसाइयत को मानने वालों का कहना है कि ईश्वर ने पेड़ पौधे पशु आदि सब खाने के लिए ही उत्पन्न किये हैं। नास्तिक लोगों का मानना है कि ईश्वर जीवात्मा आदि कुछ भी नहीं होता। इसलिए चाहे शाक खाओ ,चाहे मांस खाओ, कोई पाप नहीं लगता। अहिंसा का समर्थन करने वाले लोगों का एक मत यह भी है कि केवल पशु ही नहीं, अपितु पेड़ पौधे में भी जीवात्मा होने के कारण उनको खाने में हिंसा है और वृक्ष को काटकर खाने से हम भी मांसाहारी है। क्यूंकि हम उनके शरीर के अवयवों को खाते हैं। यह भी एक प्रकार की जीव हत्या है। निष्पक्ष होकर हम धर्म शास्त्रों पर विचार करे तो हमें इस समस्या का समाधान का हल निकल सकता है।
संसार में दो प्रकार के जगत हैं। जड़ और चेतन। चेतन जगत में दो विभाग हैं। एक चर और एक अचर। वृक्ष आदि अचर कोटि में आते है, जबकि मानव पशु आदि चर कोटि में आते है।
महाभारत के अनुसार वृक्ष आदि में वनस्पति, औषधि, गुल्म, गुच्छ, लता, वल्ली, तृण आदि अनेक प्रजातियाँ हैं। (सन्दर्भ- ५८.२३)
मनु स्मृति में बीज या शाखा से उत्पन्न होने वाले को उदभिज्ज स्थावर बीज कहा गया है। (सन्दर्भ- १.४६)
मनु स्मृति के अनुसार मनुष्य जब शरीर से पापाचरण करता हैं तो उसके फलस्वरूप अगले जन्म में वृक्ष आदि का जन्म पाता है। (सन्दर्भ- १२.९)
मनु स्मृति के अनुसार जो मनुष्य अत्यंत तमोगुणी आचरण करते हैं या अत्यंत तमोगुणी प्रवृति के होते हैं तो उसके फल स्वरुप वे अगले जन्म में स्थावर = वृक्ष, पतंग, कीट ,मत्स्य , सर्प, कछुआ, पशु और मृग के जन्म को प्राप्त होते है। (सन्दर्भ- १२.४२)
आगे मनु महाराज स्पष्ट रूप में घोषणा करते हैं की पूर्वजन्मों के अधम कर्मों के कारण वृक्ष आदि स्थावर जीव अत्यंत तमोगुण से अवेषटित होते है। इस कारण ये अंत: चेतना वाले होते हुए आन्तरिक रूप से ही कर्म फल रूप सुख दुःख की अनुभूति करते है। वाह्य सुख सुख की अनुभूति इनको नगण्य रूप से होती है अथवा बिलकुल नहीं होती।
आधुनिक विज्ञान में वृक्षों में जीव विषयक मत की पुष्टि डॉ जगदीश चन्द्र बसु जीवात्मा के रूप में न करके चेतनता के रूप में करते है। देखा जाये तो दोनों में मूलभूत रूप से कोई अंतर नहीं होता क्यूंकि चेतनता जीव का लक्षण है। भारतीय दर्शन सिद्धांत के अनुसार जहाँ चेतनता है, वही जीव है और जहाँ जीव है, वही चेतनता है।
आधुनिक विज्ञान वृक्षों में जीव इसलिए नहीं मानता है क्यूंकि वो केवल उसी बात को मानता है। जिसे प्रयोगशाला में सिद्ध किया गया है और जीवात्मा को कभी भी प्रयोगशाला में सिद्ध नहीं किया जा सकता। डॉ जगदीश चन्द्र बसु पहले वैज्ञानिक थे। जिन्होंने ऐसे यंत्रों का अविष्कार किया वृक्षों पौधों में वायु, निद्रा,भोजन, स्पर्श आदि के जैविक प्रभावों का अध्यनन किया जा सकता हैं।
यहाँ तक शास्त्रों के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि वृक्ष आदि में आत्मा होती है, अब शास्त्रों के आधार पर यह सिद्ध करेंगे की वृक्ष आदि के काटने में अथवा पौधों आदि को जड़ से उखारने में हिंसा नहीं होती है।
संख्या दर्शन 5/27 में लिखा है कि पीड़ा उसी जीव को पहुँचती हैं। जिसकी वृति सब अवयवों के साथ विद्यमान हो अर्थात सुख दुःख की अनुभूति इन्द्रियों के माध्यम से होती है। जैसे अंधे को कितना भी चांटा दिखाए , बहरे को कितने भी अपशब्द बोले, तो उन्हें दुःख नहीं पहुँचता। वैसे ही वृक्ष आदि भी इन्द्रियों से रहित है। अत: उन्हें दुःख की अनुभूति नहीं होती। इसी प्रकार बेहोशी की अवस्था में दुःख का अनुभव नहीं होता। उसी प्रकार वृक्ष आदि में भी आत्मा को मूर्च्छा अवस्था के कारण दर्द अथवा कष्ट नहीं होता हैं और यहीं कारण है की दुःख की अनुभूति नहीं होने से वृक्ष आदि को काटने, छिलने, खाने से कोई पाप नहीं होता और इससे जीव हत्या का कोई भी सम्बन्ध नहीं बनता।
भोजन का ईश्वर कृत विकल्प केवल और केवल शाकाहार है और इस व्यस्था में कोई पाप नहीं होता, जबकि मांसाहार पाप का कारण है।
मनु 5/48 के अनुसार प्राणियों के वध से मांस उपलब्ध होता है, बिना प्राणिवध किये मांस नहीं मिलता और प्राणियों का वध करना दुःख भोग का कारण हैं, अत: मांस का सेवन नहीं करना चाहिए।
ईश्वर की वाणी वेद का प्रमाण है कि —
१. मांसं न अश्नीयात् ॥ अर्थः मांस मत खाओ । २. मा नो हिंसिष्ट द्विपदो मा चतुष्पदः ॥ अथर्व॰ ११ । २ । १ ॥ अर्थः दो पग वाले (मनुष्य, पक्षी आदि) और चार पगवाले पशुओं को मत मारो । ३. इमं मा हिंसीर्द्विपाद पशुम् ॥ यजु॰ १३ । ४७ ॥ अर्थः इस दो खुर वाले पशु की हिंसा मत करो ।
प्रमाण सब से अधिक बलवान होता है । आर्यों को उचित है कि वे अपने जीवन को प्रमाणों के अनुरूप परिवर्तित करें ।