दलितोद्धारक आर्यसमाजी :श्री पंडित गंगाराम जी
ऋषि के जीवन में एक नाई के प्रस्तुत किये भोजन का वर्णन पाया जाता है जिसे ऋषि ने भरी सभा में अंगीकार किया । यह दूसरे शब्दों में अछूत उद्धार का पहिला सूत्र पात था ।
मुजफ्फ़रगढ़ी कहलाने वाले पं ० गंगाराम को है । पं ० गंगाराम रहने वाले तो बजवाड़े के थे परन्तु इन के जीवन का बहुत साभाग मुज़फ्फरगढ़ जिले में व्यतीत हुआ था । इस इलाके में आर्य समाज के कार्यकर्ता जिन की हड्डियाँ तक इसी इलाके के अर्पण हो गई , पण्डित जी थे । हम इन के शेष जीवन पर आगे चलकर दृष्टि डालेंगे । यहाँ केवल इतना ही कहना है कि सामूहिक अछूत उद्धार का , जिसे आगे जाकर दलितोद्धार तथा पतितोद्वार कहा जाने लगा , सूत्रपात इन्हीं के परिश्रम से हुआ था । पण्डित जी अभी सात वर्ष के थे कि एक दिन इन के गाँव के बाहर एक तालाब में , जिस से अछूत लोग पानी ले लिया करते थे , एक लड़के ने पेशाब कर दिया । पण्डित जी उस लड़के से लड़ पड़े और जब तक उस ने क्षमा न माँग ली उसे इन्हों ने छोड़ा नहीं । इन के जीवन की यह घटना आगे आने वाले इन के द्वारा किये गये अछूत उद्धार के कार्य की मानो पूर्व छाया थी ।
तीस वर्ष की आयु में जब ये मुज़फ्फरगढ़ में ओवरसियर थे , इन की दृष्टि में एक जाति ऐसी आई जो हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बीच में थी । ये अपने मृतकों को तो दबा देते , शेष देव - पूजन , तीर्थ यात्रा , पर्वों तथा मोटे मोटे संस्कारों यथा विवाह इत्यादि में पुराहितों की सहा यता लेते तथा हिन्दुओं का सा व्यवहार करते थे । परन्तु थे ये अस्पृश्य । सर्व - साधारण इन्हें " ओड " कहते थे , परन्तु इन का अपना नाम भगीरथ था ।
भगीरथ लोग अपने उद्भव का स्रोत सगर राजा को बताते थे । उनका कहना था कि सगर की सन्तान जिसकी संख्या साठ हज़ार थी , एक ऋषि की आज्ञानुसार प्रतिदिन नया कुआँ खोद कर उस के पानी से यज्ञ किया करती थी । इस से पृथिवी माता को कष्ट होता था । एक बार पृथिवी ने इन्हें पानी नहीं दिया । इस से ये अत्यन्त व्याकुल हुए । गहरी खुदाई के पश्चात् जब इन्हें पानी दिखाई दिया तो प्यास के मारे ये कुएँ में कूद पड़े । ऊपर से कुआँ बन्द हो गया और श्राद्ध आदि द्वारा इन की सद्गति न हो सकी । इस प्रकार पुरुष तो मर गए परन्तु स्त्रियाँ रह गई । एक गर्भवती स्त्री की कोख से भगीरथ नाम का बालक पैदा हुआ । बड़े हो कर उस ने कैलाश पर्वत पर तप किया और शिवजी के वर से गंगा को स्वर्ग से उतार लाया । आगे - आगे भगीरथ था और पीछे - पीछे गंगा नदी बह रही थी । जब ब्राह्मण अपने ग्राम के बाहर पहुँचा तो गंगा को वहीं छोड़ कर अपनी माता से उस ढक गये कुएँ का स्थान पूछने गया । इतने में एक ने गुम हो गई गंगा नाम की अपनी गाय को पुकारा । गंगा नदी उसे भगीरथ समझ उस के पीछे हो ली और कुएँ के स्थान से आगे निकल आई । भगीरथ पीछे से पहुँचा तो उस ने उसे लौटा ले जाना चाहा । परन्तु नदी ने कहा गंगा उलटी नहीं बहती । इस प्रकार भगीरथ का भगीरथ परिश्रम व्यर्थ गया । भगीरथ और उस की सन्तति अपने पूर्वजों की अपगति के कारण तभी से भ्रष्ट हो गई हैं । ये तभी से अस्पृश्य हैं और शोक के रूप में सारा पहरावा खुर्दरे कम्बल का ही पहनते हैं । इन के उद्धार का समय तब होगा जब इन के पितरों का उद्धार होगा ।
पं ० गंगाराम जी ओवरसियर होने के कारण उन ओडों से भी काम लेते थे । इन का हृदय उन की दीन अवस्था देख कर बार - बार द्रवित होता था । उन की पैदायश की उपर्युक्त कहानी सुन कर इन्हों ने उस पर विचार किया । एक दिन ओड जाति के मुख्य पुरुषों को बुला कर कहा : - भाई ! तुम्हारे पितरों का उद्धार हो गया है । उन्हों ने चकित हो , कर पूछा : - कैसे ? इन्हों ने उत्तर दिया : - भगीरथ के गंगा उतार लाने मात्र से। जिस गंगा के स्पर्श से करोड़ों और मनुष्य सद्गति को प्राप्त हो चुके हैं , क्या उसे स्वर्ग से नीचे ले आने वाला स्वयं उस के पुण्य - प्रताप से वञ्चित रह सकता है ? उस की तो अगली पिछली सभी पीढ़ियाँ मुक्लि - धाम को पहुँच चुकी हैं । भोले - भाले ओडों ने पण्डित जी के ये वचन सुने वे चकित रहे । पण्डित जी गम्भीर बने रहे । उन्हें और विश्वास दिलाने को कहा : - पानी का एक लोटा भर लाओ । वे पानी ले आए । पण्डित जी ने गायत्री का पाठ कर उसे पान किया । इस से ओडो को निश्चय हो गया कि वास्तव में अब वे अस्पृश्य नहीं रहे ।
पण्डित जी ने ओडो की शुद्धि का प्रश्न मुज़फ़्फ़रगढ़ समाज में रखा और मुज़फ़्फ़रगढ़ से एक मील की दूरी पर मौज़ा भूटापुर में चाह कटवाल वाला पर उन्हें यज्ञोपवीत दे कर एक बड़े समूह की शुद्धि की । इस के पश्चात् यह शुद्धि कई अन्य स्थानों पर भी हुई ।
कठिनता तब हुई जब मुलतान शहर में इस शुद्धि का प्रबन्ध किया गया । पण्डित जी ने आस - पास की सारी बस्तियों के ओडो को शुद्धि का निमन्त्रण दे दिया और नियत दिन स्वयं मुलतान जा पधारे । पण्डित जी का विचार था कि मुलतान के आर्य अधिक उदार होंगे । परन्तु वहाँ जा कर इन्हें ज्ञात हुआ कि बड़े स्थानों में बिरादरी का भय अधिक है । डर यह था कि इस प्रकार के क्रान्तिमय आन्दोलन से हिन्दुओं का विरोध , जो पहिले ही कम तीव्र न था , और अधिक बढ़ जायेगा । परन्तु पण्डित जी अपनी धुन के धनी थे । इन्हों ने हटने का पाठ पढ़ा ही न था । पहिले तो शुद्ध होने वाला कोई था ही नहीं परन्तु जब वे धीरे - धीरे आने लगे और सत्तर ओड इकट्ठे हो गए तो समाज के प्रधान ला ० चेतनानन्द ने अन्त को यह स्वीकार कर लिया कि समाज मन्दिर में नहीं , कहीं अन्यत्र शुद्धि कर ली जाय । इस निर्णय के अनुसार बोहड़ दवज़े के बाहर नहर के किनारे सिविल सर्जन ला ० जसवन्तराए के मकान में शुद्धि संस्कार हुआ ।
यह दृश्य देखने योग्य था । सदियों के बिछड़े भाई आपस में गले मिल रहे थे । समाज का एक गलित अंग स्वस्थ हो कर शरीर का जीता - जागता भाग बन गया । ये आर्य जाति के सौभाग्य के चिह्न थे । इस के पश्चात् दलितों की शुद्धि सैकड़ों अन्य स्थानों पर हुई परन्तु इस पुण्य कार्य में अग्रणी होने का श्रेय स्वनामधन्य पं ० गंगाराम को है । भगीरथ जाति के लिए वे उन के पूर्वज की खोई हुई गंगा थे । उसी गंगा के दर्शन से उन का हमेशा के लिए उद्धार हो गया । पण्डित जी ने केवल संस्कार ही नहीं करा दिया । मुज़फ्फरगढ़ में इन की शिक्षा के लिए पाठशाला भी खोली परन्तु यह अधिक समय चली नहीं । पहिला काम था । उस के सफल होने में देर लगनी ही थी । आज इस शुद्धि को सैंतालीस वर्ष हो गये । इस समय में अनेक ओड पण्डित , अनेक बाबू , अनेक बनिये बन चुके हैं और आर्य जाति से उन का कोई भेद - भाव नहीं है । ओड जाति के लिए गंगाराम के दर्शन वास्तव में " पतित - पावनी गंगा " के दर्शन थे- उस गंगा के जिस की प्रतीक्षा वे कई पीड़ियों से करते चले आते थे । १८८८ ही में हम बदायूँ जिले में गँवर नाम के ग्राम में एक जाति भ्रष्ट परिवार के पुनः प्रवेश का समाचार पाते हैं । यह संस्कार हिन्दू सभा द्वारा कराया गया है । इस से प्रतीत होता है कि आर्य जाति जो आज तक अपने व्यक्तियों तथा समूहों के पृथकरण की ही अभ्यस्त चली आती थी , अब उस के विशाल भवन में प्रवेश तथा पुनः प्रवेश का द्वार भी खुल गया । यह इस जाति के इतिहास में एक नए युग का आरम्भ था जिस के लाने का सेहरा आर्य समाज के सिर है ।
लेखक :- पंडित चमूपति एम ए
पुस्तक :- आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब का इतिहास 1935
प्रस्तुतकर्ता :- अमित सिवाहा