Tuesday, November 12, 2024

महर्षि दयानन्द और युगान्तर




 महर्षि दयानन्द और युगान्तर

-सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'

प्रस्तुतकर्ता- #डॉ_विवेक_आर्य

उन्नीसवीं सदी का पूर्वार्द्ध भारत के इतिहास का अपर स्वर्ण प्रभात है। कई पावन चरित्र महापुरुष अलग-अलग उत्तरदायित्व लेकर, इस समय, इस पुण्य भूमि में अवतीर्ण होते हैं। महर्षि दयानन्द सरस्वती भी इन्हीं में एक महाप्रतिभामण्डित महापुरुष हैं। हम देखते हैं, हमें इतिहास भी बतलाता है, समय की एक आवश्यकता होती है। उसी के अनुसार धर्म अपना स्वरूप ग्रहण करता है। हम अच्छी तरह जानते हैं, ज्ञान सदा एकरस है, वह काल के बन्ध से बाहर है और चूँकि वेदों में मनुष्य जाति की प्रथम तथा चिरंतन ज्ञान- ज्योति स्थित है, इसलिए उसके परिवर्तन की आवश्यकता सिद्ध नहीं होती, बल्कि परिवर्तन भ्रमजन्य भी कहा जा सकता है । पर साथ-साथ, इसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि उच्चतम ज्ञान किसी भी भाषा में हो, वह अपौरुषेय वेद ही है। परिवर्तन उसके व्यवहार-कौशल, कर्म-काण्ड आदि में होता है, हुआ भी है। इसे ही हम समय की आवश्यकता कहते हैं। भाषा जिस प्रकार अर्थ साम्य रखने पर भी स्वरूपतः बदलती गई है, अथवा, भिन्न देशों में, भिन्न परिस्थितियों के कारण अपर देशों की भाषा से बिलकुल भिन्न प्रतीत होती है, इसी प्रकार धर्म भी समयानुसार जुदा-जुदा रूप ग्रहण करता गया है। भारत के लिए यह विशेष रूप से कहा जा सकता है। बुद्ध, शंकर, रामानुज आदि के धर्ममत-प्रवर्त्तन सामयिक प्रभाव को ही पुष्ट करते हैं। पुराण इसी विशेषता के सूचक हैं। पौराणिक विशेषता और मूर्त्ति-पूजन आदि से मालूम होता है, देश के लोगों की रुचि अरूप से रूप की ओर ज्यादा झुकी थी। इसीलिए वैदिक अखण्ड ज्ञान-राशि को छोड़कर ऐश्वर्यगुणपूर्ण एक-एक प्रतीक लोगों ने ग्रहण किया। इस तरह देश की तरक्की नहीं हुई, यह बात नहीं। पर इस तरह देश ज्ञान-भूमि से गिर गया, यह बात भी है। जो भोजन शरीर को पुष्ट करता है, वही रोग का भी कारण होता है। मूर्त्ति-पूजन में इसी प्रकार दोषों का प्रवेश हुआ। ज्ञान जाता रहा। मस्तिष्क से दुर्बल हुई जाति औद्धत्य के कारण छोटी-छोटी स्वतन्त्र सत्ताओ में बँटकर एक दिन शताब्दियों के लिए पराधीन हो गई। उसका वह मूर्तिपूजन-संस्कार बढ़ता गया, धीरे-धीरे वह ज्ञान से बिलकुल ही रहित हो गई। शासन बदला, अंग्रेज आए। संसार की सभ्यता एक नये प्रवाह से बही। बड़े-बड़े पण्डित विश्व-साहित्य, विश्वज्ञान, विश्व-मैत्री की आवाज उठाने लगे, पर भारत उसी प्रकार पौराणिक रूप के माया जाल में भूला रहा। इस समय ज्ञान-स्पर्धा के लिए समय को फिर आवश्यकता हुई और महर्षि दयानन्द का यही अपराजित प्रकाश है। वह अपार वैदिक ज्ञान-राशि के आधारस्तम्भ-स्वरूप अकेले बड़े-बड़े पण्डितों का सामना करते हैं। एक ही आधार से इतनी बड़ी शक्ति का स्फुरण होता है कि आज भारत के युगान्तर साहित्य में इसी की सत्ता प्रथम है, यही जनसंख्या में बढ़ी हुई है।


चरित्र, स्वास्थ्य, त्याग, ज्ञान और शिष्टता आदि में जो आदर्श महर्षि दयानन्द जी महाराज में प्राप्त होते हैं, उनका लेशमात्र भी अभारतीय पश्चिमी शिक्षा-संभूत नहीं; पुनः ऐसे आर्य में ज्ञान तथा कर्म का कितना प्रसार रह सकता है, वह स्वयं इसके उदाहरण हैं। मतलब यह है कि जो लोग कहते हैं कि वैदिक अथवा प्राचीन शिक्षा द्वारा मनुष्य उतना उन्नत-मना नहीं हो सकता, जितना अंग्रेजी शिक्षा द्वारा होता है, महर्षि दयानन्द सरस्वती इसके प्रत्यक्ष खण्डन हैं। महर्षि दयानन्द जी से बढ़कर भी मनुष्य होता है, इसका प्रमाण प्राप्त नहीं हो सकता । यहीं वैदिक ज्ञान की मनुष्य के उत्कर्ष में प्रत्यक्ष उपलब्धि होती है, यहीं आदर्श आर्य हमें देखने को मिलता है। 


यहाँ से भारत के धार्मिक इतिहास का एक नया अध्याय शुरु होता है, यद्यपि वह बहुत ही प्राचीन है। हमें अपने सुधार के लिए क्या-क्या करना चाहिए, हमारे सामाजिक उन्नयन में कहाँ-कहाँ और क्या-क्या रुकावटें हैं, हमें मुक्ति के लिए कौन-सा मार्ग ग्रहण करना चाहिए, महर्षि दयानन्द सरस्वती ने बहुत अच्छी तरह समझाया है। आर्यसमाज की प्रतिष्ठा भारतीयों में एक नये जीवन की प्रतिष्ठा है, उसकी प्रगति एक दिव्य शक्ति की स्फूर्ति है। देश में महिलाओं, पतितों तथा जाति-पाँति के भेद-भाव मिटाने के लिए महर्षि दयानन्द तथा आर्यसमाज से बढ़कर इस नवीन विचारों के युग में किसी भी समाज ने कार्य नहीं किया। आज जो जागरण भारत में दीख पड़ता है, उसका प्रायः सम्पूर्ण श्रेय आर्यसमाज को है । स्वधर्म में दीक्षित करने का यहाँ इसी समाज से श्रीगणेश हुआ है। भिन्न जातिवाले बन्धुओं को उठाने तथा ब्राह्मण-क्षत्रियों के प्रहारों से बचने का उद्यम आर्यसमाज ही करता रहा है। शहर-शहर, जिले-जिले, कस्बेकस्बे में इसी उदारता के कारण, आर्यसमाज की स्थापना हो गई। राष्ट्रभाषा हिन्दी के भी स्वामी जी एक प्रवर्त्तक हैं और आर्यसमाज के प्रचार की तो यह भाषा ही रही है। अनेक गीत खिचड़ी शैली के तैयार किये गये और गाए गये। शिक्षण के लिए 'गुरुकुल'जैसी संस्थाएँ निर्मित हो गईं। एक नया ही जीवन देश में लहराने लगा ।


स्वामी जी के प्रचार के कुछ पहले ब्राह्मसमाज की कलकत्ता में स्थापना हुई थी। राजा राममोहनराय द्वारा प्रवर्त्तित ब्राह्मधर्म की प्रतिष्ठा, वैदान्तिक बुनियाद पर, महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर कर चुके थे। वहाँ इसकी आवश्यकता इसलिए हुई थी कि अंग्रेजी सभ्यता की दीप ज्योति की ओर शिक्षित नवयुवकों का समूह पतङ्गों की तरह बढ़ रहा था, पुनः शिक्षा तथा उत्कर्ष के लिए विदेश की यात्रा अनिवार्य थी, पर लौटने पर वे शिक्षित युवक यहाँ ब्राह्मणों द्वारा धर्म-भ्रष्ट कहकर समाज से निकाल दिये जाते थे, इसलिए वे ईसाई हो जाते थे, उन्हें देश के ही धर्म में रखने की जरूरत थी। इसी भावना पर ब्राह्मधर्म की प्रतिष्ठा तथा प्रसार हुआ। विलायत में प्रसिद्धि प्राप्त कर लौटनेवाले प्रथम भारतीय वक्ता श्रीयुत केशवचन्द्र सेन भी ब्राह्मधर्म के प्रवर्त्तकों में एक हैं। इन्हीं से मिलने के लिए स्वामी जी कलकत्ता गए थे। यह जितने अच्छे विद्वान् अंग्रेजी के थे, उतने अच्छे संस्कृत के न थे। इनसे बातचीत में स्वामी जी सहमत नहीं हो सके। कलकत्ता में आज ब्राह्मसमाज - मन्दिर के सामने, कार्नवालिस स्ट्रीट पर विशाल आर्यसमाज मन्दिर भी स्थित है।


किसी दूसरे प्रतिभाशाली पुरुष से और जो कुछ उपकार देश तथा जाति का हुआ हो, सबसे पहले वेदों को स्वामी दयानन्द जी सरस्वती ने ही हमारे सामने रक्खा। हम आर्य हों, हिन्दू हों, ब्राह्मसमाज वाले हों, यदि हमें ऋषियों की सन्तान होने का सौभाग्य प्राप्त है और इसके लिए हम गर्व करते हैं, तो कहना होगा कि ऋषि दयानन्द से बढ़कर हमारा उपकार इधर किसी भी दूसरे महापुरुष ने नहीं किया, जिन्होंने स्वयं कुछ भी न लेकर हमें अपार ज्ञान-राशि वेदों से परिचित कर दिया।


देश में विभिन्न मतों का प्रचलन उसके पतन का कारण है, स्वामी दयानन्द जी की यह निर्भ्रान्त धारणा थी। उन्होंने इन मतमतान्तरों पर सप्रमाण प्रबल आक्षेप भी किये हैं। उनकी इच्छा थी कि इस मतवाद के अज्ञान-पंक से देश को निकालकर वैदिक शुद्ध शिक्षा द्वारा निष्कलङ्क कर दें।


वाममार्गवाले तान्त्रिकों की मन्द वृत्तियों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा है कि मद्य, मांस, मीन, मुद्रा, मैथुन आदि वेदविरुद्ध महा अधर्म कार्यों को वाममार्गियों ने श्रेष्ठ माना है। जो वाममार्गी कलार के घर बोतल-पर-बोतल शराब चढ़ावे और रात्रि को वारांगना से दुष्कर्म करके उसीके घर सोवे, वह वाममार्गियों में सर्वश्रेष्ठ चक्रवर्ती राजा के समान है। स्त्रियों के प्रति विशद कोई भी विचार उनमें नहीं। स्वामी जी देशवासियों को विशुद्ध वैदिक धर्म में दीक्षित हो आत्मज्ञान ही-सा उज्ज्वल और पवित्र कर देना चाहते थे। स्वामी विवेकानन्द ने भी वामाचार-भक्त देश के लिए विशुद्ध भाववाले वैदान्तिक धर्म का उपदेश दिया है।


आपने गुरु-परम्परा को भी आड़े हाथों लिया है। योगसूत्र के 'स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्' के अनुसार, आप केवल ब्रह्म को ही गुरु स्वीकार करते हैं। रामानुज-जैसे धर्माचार्य का भी मत आपको मान्य नहीं और बहुत कुछ युक्तिपूर्ण भी जान पड़ता है। आपका कहना है कि लक्ष्मी-युक्त नारायण की शरण जाने का मन्त्र धनाढ्य और माननीयों के लिए बनाया गया-यह भी एक दुकान ठहरी।


मूर्ति-पूजा के लिए आपका कथन है कि जैनियों की मूर्खता से इसका प्रचलन हुआ। तान्त्रिक तथा वैष्णवों ने भिन्न मूर्त्तियों तथा पूजनोपचारों से अपनी एक विशेषता प्रतिष्ठित की है। जैनी वाद्य नहीं बजाते थे, ये लोग शङ्ख, घण्टा, घड़ियाल आदि बजाने लगे। अवतार आदि पर भी स्वामी जी विश्वास नहीं करते। 'न तस्य प्रतिमा अस्ति' आदि-आदि प्रमाणों से ब्रह्म का विग्रह नहीं सिद्ध होता, उनका कहना है।


ब्राह्मणों की ठग विद्या के सम्बन्ध में भी स्वामीजी ने लिखा है। आज ब्राह्मणों की हठपूर्ण मूर्खता से अपरापर जातियों को क्षति पहुँच रही है। पहले पढ़े-लिखे होने के कारण ब्राह्मणों ने श्लोकों की रचना कर-करके अपने लिए बहुत काफी गुञ्जाइश कर ली थी। उसीके परिणामस्वरूप वे आज तक पुजाते चले आ रहे हैं। स्वामी जी एक श्लोक का उल्लेख करते हैं-


'दैवाधीनं जगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवताः ।


ते मन्त्रा ब्राह्मणाधीनास्तस्माद्ब्राह्मणदैवतम् ॥'


· अर्थात् सारा संसार देवताओं के अधीन है, देवता मन्त्रों के अधीन हैं, वे मन्त्र ब्राह्मणों के अधीन हैं, इसलिए ब्राह्मण ही देवता हैं। लोगों से पुजाने का यह पाखण्ड बड़ी ही नीच मनोवृत्ति का परिचायक है।


स्वामी जी ने शैव, शाक्त और वैष्णव आदि मतों की खबर तो ली ही है, हिन्दी-साहित्य के महाकवि कबीर तथा दादू आदि को भी बहुत बुरी तरह फटकारा है। आपका कहना है-" पाषाणादि को छोड़ पलङ्ग, गद्दी, तकिए, खड़ाऊँ, ज्योति अर्थात् दीप आदि का पूजना पाषाण मूर्ति से न्यून नहीं। कबीर साहब भुनगा था, व कली था, जो फूल हो गया ? जुलाहे का काम करता था, किसी पण्डित के पास संस्कृत पढ़ने के लिए गया, उसने उसका अपमान किया। कहा, हम जुलाहे को नहीं पढ़ाते। इसी प्रकार कई पण्डितों के पास फिरा, परन्तु किसी ने न पढ़ाया, तब ऊट-पटांग भाषा बनाकर जुलाहे आदि लोगों को समझाने लगा। तंबूरे पर गाता था, भजन बनाता था, विशेष पण्डित, शास्त्र, वेदों की निन्दा किया करता था। कुछ मूर्ख लोग उसके जाल में फँस गए। जब मर गए, तब सिद्ध बना लिया। जो-जो उसने जीते-जी बनाया था, उसको उसके चेले पढ़ते रहे। कान को मूँदकर जो शब्द सुना जाता है, उसको अनहद शब्द- सिद्धान्त ठहराया। मन की वृत्ति को सुरति करते हैं, उसको उस शब्द के सुनने में लगाया, उसीको सन्त और परमेश्वर का ध्यान बतलाते हैं, वहाँ काल नहीं पहुँचता । बर्डी के समान तिलक और चन्दनादि लकड़ी की कण्ठी बाँधते हैं। भला विचार के देखो, इसमें आत्मा की उन्नति और ज्ञान क्या बढ़ सकता है ?" इसी प्रकार नानक जी के सम्बन्ध में भी आपने कहा है कि उन्हें संस्कृत का ज्ञान न था, उन्होंने वेद पढ़नेवालों को तो मौत के मुँह में डाल दिया है और अपना नाम लेकर कहा कि नानक अमर हो गए-वह आप परमेश्वर हैं। जो वेदों को कहानी कहता है, उसकी कुल बातें कहानियाँ है । मूर्ख साधु वेदों की महिमा नहीं जान सकते। यदि नानक जी वेदों का मान करते, तो उनका अपना सम्प्रदाय न चलता, न वह गुरु बन सकते थे, क्योंकि संस्कृत नहीं पढ़ी थी, फिर दूसरों को पढ़ाकर शिष्य कैसे बनाते, आदि-आदि। दादू पन्थ को भी आप इसी प्रकार फटकारते हैं। शिक्षा, मार्जन तथा अपौरुषेय ज्ञान - राशि वेदों का आपका पक्ष है। मत-मतान्तरों के स्वल्प जल में वह आत्मतर्पण नहीं करते। वहाँ उन्हें महत्ता नहीं दीख पड़ती। पुनः भाषा में अधूरी कविता करके ज्ञान का परिचय देनेवाले अल्पाधार साधुओं से पण्डित - श्रेष्ठ स्वामीजी तृप्त भी कैसे हो सकते थे ? इन अशिक्षित या अल्पशिक्षित साधुओं ने जिस प्रकार वेदों की निन्दा कर-कर मूढ़ जनों में वेदों के प्रतिकूल विश्वास पैदा कर दिया था, उसी प्रकार नव्य युग के तपस्वी महर्षि ने भी उन सबको धता बताया और विज्ञों को ज्ञानमय कोष वेदों की शिक्षा के लिए आमन्त्रित किया। स्वामी नारायण के मत के विषय पर आप कहते हैं - 'यादृशी शीतलादेवी तादृशो वाहनः खरः '-जैसी गुसाईं जी की धन-हरणादि में विचित्र लीला है वैसी ही स्वामी नारायण की भी है। माध्व मत के सम्बन्ध में आपका कथन है- "जैसे अन्यमतावलम्बी हैं वैसा ही माध्व भी है, क्योंकि ये भी चक्राङ्कित होते हैं, इनमें चक्राङ्कितों से इतना विशेष है कि रामानुजीय एक बार चक्राङ्कित होते हैं और ये वर्षवर्ष फिर-फिर चक्राङ्कित होते जाते हैं, वे चक्राङ्कित कपाल में पीली रेखा और माध्व काली रेखा लगाते हैं। एक माध्व पण्डित से किसी एक महात्मा का शास्त्रार्थ हुआ था। (महात्मा) तुमने यह काली रेखा और चाँदला (तिलक) क्यों लगाया ?. (शास्त्री) इसके लगाने से हम वैकुण्ठ को जायेंगे और श्रीकृष्ण का भी शरीर श्याम रंग था, इसलिए हम काला तिलक करते हैं। (महात्मा) जो काली रेखा और चाँदला लगाने से वैकुण्ठ में जाते हों तो सब मुख काला कर लेओ तो कहाँ जाओगे ?"


स्वामी जी के व्यंग्य बड़े उपदेशपूर्ण हैं। आर्य-संस्कृति के लिए आपने निःसहाय होकर भी दिग्विजय किया और उसकी समुचित प्रतिष्ठा की। स्वामी जी का सबसे बड़ा महत्त्व यह है कि उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा की ओर नहीं देखा, वेदों की प्रतिष्ठा की है। ब्राह्म समाज और प्रार्थना समाज के सम्बन्ध में आपका कहना है- "ब्राह्म समाज और प्रार्थना समाज के नियम सर्वांश में अच्छे नहीं, क्योंकि वेदविद्याहीन लोगों की कल्पना सर्वथा सत्य क्योंकर हो सकती है ? जो कुछ ब्राह्म समाज और प्रार्थना-समाजियों ने ईसाई मत में मिलने से थोड़े मनुष्यों को बचाया और कुछ-कुछ पाषाण आदि मूर्त्ति-पूजा से हटाया, अन्य जाल ग्रन्थों के फन्दे से भी कुछ बचाया इत्यादि अच्छी बातें हैं। परन्तु इन लोगों में स्वदेशभक्ति बहुत न्यून है, ईसाइयों के आचरण बहुत से लिए हैं। खानपान- विवाहादि के नियम भी बदल दिये हैं। अपने देश की प्रशंसा व पूर्वजों की बड़ाई करनी तो दूर रही, उसके स्थान में पेट भर निन्दा करते हैं, व्याख्यानों में ईसाई आदि अंग्रजों की प्रशंसा भरपेट करते हैं। ब्रह्मादि महर्षियों का नाम भी नहीं लेते प्रत्युत ऐसा कहते हैं कि बिना अंग्रेजों के सृष्टि में आज पर्यन्त कोई भी विद्वान् नहीं हुआ, आर्यावर्त्ती लोग सदा से मूर्ख चले आए हैं, उनकी उन्नति कभी नहीं हुई। वेदादिकों की प्रतिष्ठा तो दूर रही, परन्तु निन्दा करने से भी पृथक् नहीं रहते, ब्रह्मसमाज के उद्देश्य की पुस्तक में साधुओं की संख्या में 'ईसा', 'मूसा', 'मुहम्मद', 'नानक' और 'चैतन्य' लिखे हैं, किसी ऋषि महर्षि का नाम भी नहीं लिखा ।


आज शिक्षित सभी मनुष्य जानते हैं, भारत के अध:पतन का मुख्य कारण नारी जाति का पीछे रह जाना है, वह जीवन-संग्राम में पुरुष का साथ नहीं दे सकती, पहले से ऐसी निरवलम्ब कर दी जाती है कि उसमें कोई क्रियाशीलता नहीं रह जाती, पुरुष के न रहने पर सहारे के बिना तरह-तरह की तकलीफें झेलती हुई वह कभी-कभी दूसरे धर्म को स्वीकार कर लेती है, आदि-आदि। पं० लक्ष्मण शास्त्री द्रविड़ जैसे पुराने और नए पण्डित अनुकूल तर्कयोजना करते हुए, प्रमाण देते हुए यह नहीं मानते कि भारत की स्त्रियाँ उसके पराधीन-काल में भी किसी तरह दूसरे देशों की स्त्रियों से उचित शिक्षा, आत्मोन्नति, गार्हस्थ्य सुख, विज्ञान, संस्कृति आदि में घटकर हैं। इसी तरह धर्म और जाति के सम्बन्ध में उनकी वाक्यावली, आज के अंग्रेजी शिक्षित युवकों को अधूरी जँचने पर भी, निरपेक्ष समीक्षकों के विचार में मान्य ठहरती है। फिर भी, हमें यहाँ देखना है कि आजकल के नवयुवक समुदाय से महर्षि दयानन्द, अपनी वैदिक प्राचीनता लिये हुए भी, नवीन सहयोग कर सकते हैं या नहीं। इससे हमें मालूम होगा हमारे देश के ऋषि जो हजारों शताब्दियों पहले सत्य-साक्षात्कार कर चुके हैं, आज की नवीनता से भी नवीन हैं। क्योंकि सत्य वह है जो जितना ही पीछे है, उतना ही आगे भी, जो सबसे पहले सृष्टि के सामने है वही सबसे ज्यादा नवीन है।


ज्ञान की ही हद में सृष्टि की सारी बातें हैं। सृष्टि की अव्यक्त अवस्था भी ज्ञान है। स्वामी जी वेदाध्ययन में अधिकारी भेद नहीं रखते। वह सभी जातियों की बालिकाओं-विद्यार्थिनियों को वेदाध्ययन का अधिकार देते हैं । यहाँ यह स्पष्ट है कि ज्ञानमयकोष चाहे वह जड़-विज्ञान से सम्बन्ध रखता हो या धर्मविज्ञान से नारियों के लिए युक्त हैं, वे सब प्रकार से आत्मोन्नति करने की अधिकारिणी हैं। इस विषय पर आप 'सत्यार्थ प्रकाश' में एक मन्त्र उद्धृत करते हैं- यथेमां वाचं कल्या॒णीमा॒वदा॑नि॒ जने॑भ्यः ।


ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय॒ चार्य्यय च॒ स्वाय॒ चार॑णाय च ॥ - यजु० अ० २६ । २ "परमेश्वर कहता है कि (यथा) जैसे मैं ( जनेभ्यः ) सब मनुष्यों के लिए (इमाम्) इस (कल्याणीम् ) कल्याण अर्थात् संसार और मुक्ति के सुख देनेहारी (वाचम्) ऋग्वेदादि चारों वेदों की वाणी का ( आवदानि) उपदेश करता हूँ, वैसे तुम भी किया करो। यहाँ कोई ऐसा प्रश्न करे कि जन-शब्द से द्विजों का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि स्मृत्यादि ग्रन्थों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ही को वेदों के पढ़ने का अधिकार लिखा है, स्त्री और शूद्रादि वर्णों का नहीं (उत्तर) ब्रह्मराजन्याभ्याम् इत्यादि देखो, परमेश्वर स्वयं कहता है कि हमने ब्राह्मण, क्षत्रिय, ( आर्याय) वैश्य, (शूद्राय ) शूद्र और (स्वाय) अपने भृत्य वा स्त्रियादि ( अरणाय) और अति शूद्रादि के लिए भी वेदों का प्रकाश किया है, अर्थात् सब मनुष्य वेदों को पढ़ पढ़ा और सुन-सुनाकर विज्ञान को बढ़ाके अच्छी बातों को ग्रहण और बुरी बातों को त्याग करके दुःखों से छूटकर आनन्द को प्राप्त हों । कहिए, अब तुम्हारी बात माने वा परमेश्वर की ? परमेश्वर की बात अवश्य माननीय है । इतने पर भी जो कोई इसको न मानेगा, वह नास्तिक कहावेगा, क्योंकि 'नास्तिको वेद निन्दकः' वेदों का निन्दक और न माननेवाला नास्तिक कहाता हैं।"


स्वामी जी ने वेद के उद्धरणों द्वारा सिद्ध किया है कि स्त्रियों की शिक्षा, अध्ययन आदि वेद-विहित है । उनके लिए ब्रह्मचर्य के पालन का भी विधान है। स्वामी जी की इस महत्ता को देखकर मालूम हो जाता है कि स्त्री समाज को उठाने वाले पश्चिमी शिक्षा प्राप्त पुरुषों से वह बहुत आगे बढ़े हुए हैं। वह संसार और मुक्ति दोनों प्रसंगों में पुरुषों के ही बराबर नारियों को अधिकार देते हैं। इस एक ही वाक्य से साबित होता है कि किसी भी दृष्टि से वह नारी जाति को पुरुष-जाति से घटकर नहीं मानते। 


आपका ही प्रवर्त्तन आर्यावर्त्त के अधिकांश भागों में, महिलाओं के अध्यापन के सम्बन्ध में प्रचलित है। यहाँ स्त्री-शिक्षा-विस्तार का अधिकांश श्रेय आर्यसमाज को दिया जा सकता है। यहाँ की शिक्षा की एक विशेषता भी है। महिलाएँ यहाँ जितने अंशों में देशी सभ्यता की ज्योति-स्वरूपा होकर निकलती हैं, उतने अंशों में दूसरी जगह नहीं। संस्कृति के भीतर से स्त्री के रूप में प्राचीन संस्कृति को ही स्वामी जी ने सामने खड़ा कर दिया है। 

[ साभार- ऋषि दयानन्द और आर्य समाज। लेखक डॉ जवलंत कुमार शास्त्री]

Was Maharshi Dayananda Militant and Aggressive?


 



• Was Maharshi Dayananda Militant and Aggressive? •

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- Bhavesh Merja 

It is a well-known fact that when individuals hold strong preconceived notions, no amount of evidence can sway their opinions. Maharshi Dayananda's personality is so grand that it needs no defence from ordinary individuals like us. However, when his legacy is clouded by hatred and malice, it becomes necessary for someone to present the facts in their true light. During his lifetime, Dayananda was grossly misunderstood, and the sinister forces of that era sought to diminish his influence. He faced constant harassment in various forms, and a relentless campaign of lies, blasphemy, and slander was waged against him, often employing vulgar and obscene polemics. Even after his untimely death in 1883 (he was poisoned in Jodhpur and passed away in Ajmer on 30th October, 1883), his thoughts, teachings, and personality continue to be obscured and distorted.

We are all free to form opinions about any individual, but if these opinions are not based on facts, justice, and a sincere desire to understand, they serve no constructive purpose. If one is not a genuine seeker of truth, has never delved into the complexities of religious literature, or has not experienced the challenges of spiritual practices or Vedic study, it is easy to misjudge someone like Dayananda. Therefore, it is essential to revisit some key facts to assess him accurately.

Dayananda's discoveries were rooted in the eternal divine revelation of the Vedas. These truths, as he interpreted them, offer the unifying bonds that can elevate us as a people and as a nation, providing lasting solutions to spiritual, religious, and social issues. Had truth been measured solely by popular opinion or adherence to conventional customs, no significant reform would have succeeded. It is important to acknowledge that Gujarat, the land of Dayananda's birth, gave rise to this visionary figure, who was destined to become the Rishi of modern times.

Dayananda's greatness should not be measured by the numbers of his followers from mythological sects or religious groups, but by the evidence he presented to substantiate the principles of his Vedic philosophy and social reforms. He was a true seer who discovered the essence of the Vedic truths, which had been obscured for ages by ignorance and superstition. It was through his profound learning and penetrating intellect that Dayananda pierced the veil of ignorance and revealed the radiant truths of the Vedas. His interpretation of the Vedas, particularly his commentary on the Rigveda and Yajurveda, is a testament to his intellectual brilliance.

In his time, the study of the Vedas had been misused and neglected, particularly by sectarian teachers and gurus of the so-called Vedanta, who confined themselves to narrow sectarian interpretations. Dayananda made it clear that while texts like the Upanishads and Brahma Sutra were valuable, they were not revealed knowledge; the true revealed knowledge was found only in the four Veda Samhitas. Despite his clear message, many modern Vedanta teachers continue to overlook the Vedas in favor of their sectarian texts, relegating the Samhitas to mere ritualistic practices. Dayananda, however, taught that these Samhitas were the very foundation of all true knowledge—philosophy, religion, metaphysics, ethics, and everything necessary for human fulfilment.

Dayananda's stance on the supremacy of the Vedas was unequivocal. For him, no book could rival the Vedas in presenting the true sciences of life. Even today, the Arya Samaj maintains that a single hymn from the Vedas holds greater value than the entire "Satyarth Prakash," Dayananda's own magnum opus. The Vedas represent divine knowledge, whereas "Satyarth Prakash" is a human creation, valuable in its own right but not divine in nature. This standard is applicable to any book authored by any human being.
 
Dayananda was also completely fearless. This fearlessness formed the foundation of his character. He could address hostile audiences, face physical threats like stones and brickbats, and challenge entrenched systems of superstition without flinching. He was a self-appointed crusader against the widespread ignorance and dogma that plagued society. His convictions made him indifferent to the risks he faced, whether from princes or priests. His revolutionary spirit was born at a time when the country was enslaved by feudal and religious orthodoxy. He called for the uprooting of the old, decaying social structures to make way for a new, dynamic society based on truth and justice.

Dayananda’s courage was not born of blind rebellion but of a passionate belief in truth. He did not reject religions or sects outright; instead, he identified what was useful in them and discarded the falsehoods. For him, science and reason were the ultimate judges, and he rejected anything that contradicted them. His reformist zeal brought him into conflict with the entrenched forces of orthodoxy, but his scholarship, logical reasoning, and unyielding will brought those forces to their knees. One of the most memorable events of his life was the historic debate with about 300 scholars in Kashi in 1869, where he publicly demolished the practice of idol worship. The debate was attended by over 50,000 people and marked a turning point in the intellectual climate of India.

Dayananda’s commitment to the Vedic tradition was inspired by his guru, Swami Virjananda, a master of Vedic grammar. Over the course of three decades, Dayananda travelled extensively across India, studying thousands of Sanskrit texts and observing widespread malpractices and exploitation in the name of religion. He painstakingly catalogued and verified the authenticity of the texts he deemed worthy of study. His intellectual rigor was immense, as reflected in his declaration in Bhrantinivaran that nearly three thousand books met his criteria for authenticity.

The Arya Samaj, founded in 1875, had limited resources, and Dayananda, in his last years, worked almost single-handedly in the face of fierce opposition from various religious sects and social institutions. His approach was never one of compromise or passivity. He believed that reform could not be achieved through gentle persuasion or by appeasing vested interests. He needed to confront these forces directly and forcefully. His strategy was not one of militant aggression for its own sake, but of righteous indignation and commitment to truth.

Dayananda was not a militant in the conventional sense. He was a yogi, a man of deep spirituality. His forceful and direct approach was a response to the widespread ignorance and superstition that pervaded Indian society. He did not hesitate to challenge the established order of things, even if it meant facing hostility. His mission was to build unity among people based on the platform of Vedic truth, and he believed this could be achieved only by exposing and removing the falsehoods that had taken root in society.

It is essential to understand that Dayananda was not driven by personal ambition or the desire for power. His only goal was the dissemination of the eternal truths of the Vedas. He taught that the Vedas provided the key to understanding God, the soul, and the material universe. He sought to revive the ancient traditions of Vedic study, yoga, and worship, and to promote the values of truth, non-violence, and self-realization. He rejected idol worship, the deification of historical figures, and the notion of divine incarnation, advocating instead for the worship of the formless, omnipresent God.

Dayananda's efforts led to the formation of a vibrant intellectual and spiritual movement that gave birth to numerous national leaders and reformers, including Swami Shraddhananda, Lala Lajpat Rai, Mahatma Hansraj, Pandit Lekhram and Pandit Gurudatta Vidyarthi. These leaders were deeply influenced by Dayananda's teachings and many of them played a key role in the Indian independence movement.

To suggest that Dayananda "hijacked" the Vedas is both unfair and inaccurate. His contributions to the study and interpretation of the Vedas are well-documented and have been recognized as pioneering. Dayananda's interpretation of the Vedas was not an attempt to distort their meaning, but rather to liberate them from the layers of myth and superstition that had accumulated over centuries. His teachings emphasized the oneness of God, the rejection of idol worship, and the importance of reason and science.

As Sri Aurobindo eloquently put it: “Here was one who knew definitely and clearly the work he was sent to do, chose his materials, determined his conditions with a sovereign clairvoyance of the spirit and executed his conception with the puissant mastery of the born worker. As I regard the figure of this formidable artisan in God's workshop, images crowd on me which are all of battle and work and conquest and triumphant labor. Here, I say to myself, was a very soldier of Light, a warrior in God's world, a sculptor of men and institutions, a bold and rugged victor of the difficulties which matter presents to spirit. And the whole sums itself up to me in a powerful impression of spiritual practicality. The combination of these two words, usually so divorced from each other in our conceptions, seems to me the very definition of Dayananda.” (Bankim-Tilak-Dayananda, p. 42) 

Dayananda did not merely influence the course of Indian thought; he shaped it indelibly, laying the foundation for a spiritual renaissance that continues to inspire millions.
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Wednesday, October 30, 2024

महात्मा गाँधी - ईसाई मत के समालोचक के रूप में


 महात्मा  गाँधी - ईसाई मत के समालोचक के रूप में

(महात्मा गाँधी का एक कट्टर ईसाई प्रचारिका से शास्त्रार्थ)

(लेखक-धर्मदेव वि० वा० विद्यामार्तण्ड) 

कई पाठक महानुभावों को उपर्युक्त शीर्षक देख कर आश्चर्य होगा क्योंकि महात्मा गांधी जी के विषय में प्रायः यह माना जाता है कि वे ईसाइयत को भी पूर्णतया सत्य मानते थे, किन्तु यह धारणा ठीक नहीं है। इस विषय में महात्माजी का एक कट्टर ईसाई प्रचारिका 86 वर्ष की वृद्धा लेडी एमिली के साथ 25 जुलाई 1940 को सेवाग्राम में जो मनोरञ्जक शास्त्रार्थ हुआ था।  उसका वृत्तान्त नव जीवन प्रेस अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित और श्री महादेव देसाई द्वारा सम्पादित Christian Mission in India नामक पुस्तक से देने से पूर्व मैं महात्माजी की 'आत्मकथा' से निम्न उद्धरण देना चाहता हूँ।

इस 'आत्मकथा' में महात्माजी ने  पर लिखा है:-

'मेरी कठिनाईयों की जड़ बहुत गहरे में थी । एक मात्र ईसामसीह हो ईश्वर के पुत्र हैं, जो उन्हें मानता है वही मुक्ति का अधिकारी हो सकता है । यह बात मेरा मन किसी तरह स्वीकार करने को तैयार नहीं होता था । यदि ईश्वर का पुत्र होना सम्भव है तो हम सभी उसके पुत्र हैं। ईसा मसीह ने अपनी जान देकर अपने खून से संसार के सब पापों को धो डाला है। इस बात को अक्षरशः सत्य मानने को मेरी बुद्धि कबूल नहीं करती। इसके अलावा ईसाई लोगों का विचार है कि आत्मा केवल मनुष्यों में ही है, अन्य जीवों में नहीं है, एवं शरीर के विनाश के साथ ही उनका सब कुछ विनष्ट हो जाता है। इस बात से मेरा मन सहमत नहीं है । ईसामसीह को मैं एक त्यागी महापुरुष और धर्म गुरु के रूप में मान सकता हूँ। यह भी मैं स्वीकार करता हूँ कि ईसा की मृत्यु संसार में बलिदान का एक महान् दृष्टान्त छोड़ गई है । पर मेरा हृदय यह स्वीकार नहीं कर सका है कि उनकी मृत्यु ने संसार में कोई अभूतपूर्व या रहस्यपूर्ण प्रभाव डाल रखा है । ईसाई लोगों के पवित्र जीवन में मुझे कुछ ऐसा नहीं मिलता है जो अन्य धर्मावलम्बियों के पवित्र जीवन में नहीं मिलता। सात्विक दृष्टि से भी ईसाई धर्म के तत्वों में कोई ऐसी असाधारगता नहीं है और त्याग की दृष्टि से देखने पर तो हिंदू धर्म ही श्रेष्ठ प्रतीत होता है, मैं ईसाई धर्म को पूर्ण अथवा सर्व श्रेष्ठ धर्म मानने को तयार नहीं हूँ | जब प्रसङ्ग या उपस्थित होता है तो मैं अपने ईसाई मित्रों के आगे धर्म संबंधी यह हृदयोद्गार व्यक्त कर दिया करता हूँ पर मुझे इसका सन्तोषजनक उत्तर उनसे नहीं मिलता।' (आत्म कथा महात्मा गांधी कृत नवजीवन प्रेस, अहमदाबाद)


 लेडी एमिली से शास्त्रार्थ 

अब पाठक उस मनोरंजक शास्त्रार्थ का वृत्तान्त पढ़ें जो 24 जुलाई 1940 को सेवाग्राम में महात्मा गांधी और इङ्गलैण्ड की वृद्धा प्रचारिका लेडी एमिली के मध्य में हुआ और जिसका वृत्तान्त महात्मा जी के निज मन्त्री श्री महादेव भाई देसाई ने 'A Hot Gospeller' इस शीर्षक से Christian Mission in India नामक संग्रह ग्रन्थ में प्रकाशित कराया था । उसमें से निम्न अंश विशेष उल्लेखनीय है ।

लेडी एमिली ने ईसा मसीह के विषय में कहा कि 'Jesus Christ was the Son of God' अर्थात् ईसा मसीह ईश्वर का पुत्र था । इस पर महात्मा गाँधी जी ने उत्तर दिया 'And so we ही ( ईश्वर के पुत्र ) हैं । लेडी एमिली ने इसे अस्वीकार करते हुए कहा 'Jesus Christ was the only Son of God' अर्थात् ईसामसीह ईश्वर का एकमात्र पुत्र था।

इस पर महात्मा गांधीजी ने जो उत्तर दिया और इस ईसाई सिद्धांत से अपना स्पष्ट मत भेद प्रकट किया वह उस पुस्तक के निम्न शब्दों में उल्लिखित है :-

'It is there said Gandhi Ji that the mother (Lady Emily) and son (Gandhi Ji ) must differ with you. Jesus was the only begotten son of God. With me he was the son of God, no matter how much purer than us all, but every one of us is a son of God and capable of doing what Jesus did, if we but endeavour to express the Divine in us" (Christian Missions in India P. 282 )

अर्थात यहाँ माता ( लेडीएमिली ) और पुत्र ( गाँधी ) का घोर मत भेद है । आपके विचार में ईसा मसीह ईश्वर का इकलौता बेटा था पर मेरे विचार में वह ईश्वर का एक पुत्र था | चाहे हमारी अपेक्षा वह कितना ही अधिक पवित्र क्यों न हो। किंतु हम में से प्रत्येक ईश्वर का पुत्र है और वह कार्य कर सकता है जो ईसा ने किया । यदि हम अपने अन्दर ईश्वरीयता वा दिव्यता को प्रकट करने का यत्न करें।'

इस पर लेडी एमली ने महात्मा गाँधी जी के विचार से सहमति करते हुए कहा:-

'Yes that is where I think you are wrong. Christ is our salvation and without receiving Him in our hearts, we can not be saved' she added अर्थात् हाँ, यहाँ आपका विचार अशुद्ध है । ईसामसीह हमारे लिये मुक्ति दाता है और उसको हृदय में ग्रहण किये बिना हम रक्षा नहीं पा सकते।' 

इस पर महात्मा गाँधी जी ने निम्न तर्क किया:- 

'So those who accept the Christ are all saved. They need do nothing more ?' अर्थात इस प्रकार आपकी बात को मानने पर जो ईसा मसीह को मानते हैं वे सब रक्षा व मुक्ति पाते हैं । उनको और कुछ करने की आवश्यकता नहीं ? लेडी एमिली ने उत्तर दिया:-

We are sinners all, and we have but to accept Him to be saved अर्थात् हम सब पापी हैं और हमें रक्षा अथवा मुक्ति पाने के लिये केवल उसको स्वीकार कर लेने की आवश्यकता है।

महात्मा गाँधी जी ने इस पर व्यङ्ग पूर्ण भाषा में कहा:

And then we may continue to be sinners ? Is that what you mean ?'और तब हम पापी बने रहें ? क्या आपका यही मतलब है ? इत्यादि ।

विस्तार भय से इस मनोरंजक संवाद वा शास्त्रार्थ का इतना अंश उल्लिखित करना ही पर्याप्त है जिससे स्पष्ट है कि महात्मा गाँधी जी ईसाई मत की बहुत सी बातों को सत्य और युक्ति युक्त नहीं मानते थे । रूस के सुप्रसिद्ध विचारक टालस्टाय ने जिसे महर्षि के नाम से भी पुकारा जाता है तो ईसाई मत की आलोचना करते हुए 'What is Religion' में यहाँ तक लिख दिया कि

 "Really no religion has ever preached things so evidently incompatible with contemporary knowledge or so immoral, as the doctrines preached by church-Christianity” ( What is Religion by Tolstoy p.18 ) 

अर्थात् वास्तव में किसी मत ने इतनी स्पष्ट वर्तमान ज्ञान विज्ञान विरुद्ध और अनैतिकता पूर्ण बातों का प्रचार नहीं किया जितना गिर्जा घरों में प्रचारित ईसाइयत ने।इसके टालस्टाय ने बहुत से उदाहरण बाइबल के पुराने और नये वसीयत नाम से दिये हैं जिनको फिर कभी टालस्टाय, बनार्डशा और महर्षि दयानन्द का इसाई मत के समालोचक के रुप में तुलनात्मक अनुशीलन करते हुए हमारा दिखाने की विचार है । वस्तुतः महर्षि दयानन्द की समालोचना तो अन्य समालोचकों की अपेक्षा बहुत नर्म है ।



Tuesday, October 29, 2024

बाइबल में ईश्वर का स्वरूप




बाइबल में ईश्वर का स्वरूप

पं० धर्मदेव विद्यामार्तण्ड

 हमारे ईसाई भाई यह दावा करते हैं कि बाईबल ईश्वरप्रदत्त धर्म ग्रन्थ है जिसके दो भाग हैं। पुराना धर्मशास्त्र और नया धर्मशास्त्र। इस लेखमाला में हम संक्षेप से यह बाईबल के प्रामाणिक अनुवादों के आधार पर दिखाना चाहते हैं कि ईश्वरीय ज्ञान माने जाने वाली इस बाइबल में ईश्वर का क्या स्वरूप बताया गया है। 

 (1.)  बाइबिल का ईश्वर विश्राम करने वाला है। 

और परमेश्वर ने अपना काम जिसे वह करता था सातवें दिन समाप्त किया। और उसने अपने किए हुए सारे काम से सातवें दिन विश्राम किया। और परमेश्वर ने सातवें दिन को आशीष दी और पवित्र ठहराया; क्योंकि उस में उसने अपनी सृष्टि की रचना के सारे काम से विश्राम लिया।- उत्पत्ति 2/2-3 

( 2.) बाइबिल का ईश्वर ज्ञान से मनुष्य को वंचित रखता है। 

तब उन दोनों की आंखे खुल गई, और उन को मालूम हुआ कि वे नंगे है; सो उन्होंने अंजीर के पत्ते जोड़ जोड़ कर लंगोट बना लिये।तब यहोवा परमेश्वर जो दिन के ठंडे समय बाटिका में फिर ता था उसका शब्द उन को सुनाई दिया। तब आदम और उसकी पत्नी बाटिका के वृक्षों के बीच यहोवा परमेश्वर से छिप गए। - उत्पत्ति 3/7-8 

(3.) बाइबिल का ईश्वर ज्ञानी होने पर मनुष्यको बाग़ से निकाल देता है। 

 फिर यहोवा परमेश्वर ने कहा, मनुष्य भले बुरे का ज्ञान पाकर हम में से एक के समान हो गया है: इसलिये अब ऐसा न हो, कि वह हाथ बढ़ा कर जीवन के वृक्ष का फल भी तोड़ के खा ले और सदा जीवित रहे।  तब यहोवा परमेश्वर ने उसको अदन की बाटिका में से निकाल दिया कि वह उस भूमि पर खेती करे जिस में से वह बनाया गया था।- उत्पत्ति 3/22-23 

(4.) बाइबिल का ईश्वर मनुष्यों को बनाने के बाद पछताता है। 

यहोवा पृथ्वी पर मनुष्य को बनाने से पछतावा और मन में अति खेदित हुआ। तब यहोवा ने सोचा, कि मैं मनुष्य को जिसकी मैं ने सृष्टि की है पृथ्वी के ऊपर से मिटा दूंगा; क्या मनुष्य, क्या पशु, क्या रेंगने वाले जन्तु, क्या आकाश के पक्षी, सब को मिटा दूंगा क्योंकि मैं उनके बनाने से पछताता हूं।- उत्पत्ति 6/6-7

(5) बाइबिल का ईश्वर भाषाओँ की गड़बड़ी करता है। 

 और यहोवा ने कहा, मैं क्या देखता हूं, कि सब एक ही दल के हैं और भाषा भी उन सब की एक ही है, और उन्होंने ऐसा ही काम भी आरम्भ किया; और अब जितना वे करने का यत्न करेंगे, उस में से कुछ उनके लिये अनहोना न होगा।

 इसलिये आओ, हम उतर के उनकी भाषा में बड़ी गड़बड़ी डालें, कि वे एक दूसरे की बोली को न समझ सकें।

 इस प्रकार यहोवा ने उन को, वहां से सारी पृथ्वी के ऊपर फैला दिया; और उन्होंने उस नगर का बनाना छोड़ दिया।

 इस कारण उस नगर को नाम बाबुल पड़ा; क्योंकि सारी पृथ्वी की भाषा में जो गड़बड़ी है, सो यहोवा ने वहीं डाली, और वहीं से यहोवा ने मनुष्यों को सारी पृथ्वी के ऊपर फैला दिया॥- उत्पत्ति 11/5-9 

(6.) बाइबिल का ईश्वर मांस भक्षण को बढ़ावा देता है। 

फिर इब्राहीम गाय बैल के झुण्ड में दौड़ा, और एक कोमल और अच्छा बछड़ा ले कर अपने सेवक को दिया, और उसने फुर्ती से उसको पकाया। तब उसने मक्खन, और दूध, और वह बछड़ा, जो उसने पकवाया था, ले कर उनके आगे परोस दिया; और आप वृक्ष के तले उनके पास खड़ा रहा, और वे खाने लगे।- उत्पत्ति 18/7-8 

(7.) बाइबिल का यहोवा बर्बर हत्या करने वाला है। 

क्योंकि उस रात को मैं मिस्र देश के बीच में से हो कर जाऊंगा, और मिस्र देश के क्या मनुष्य क्या पशु, सब के पहिलौठों को मारूंगा; और मिस्र के सारे देवताओं को भी मैं दण्ड दूंगा; मैं तो यहोवा हूं।- निर्गमन 12/12

और जिन घरों में तुम रहोगे उन पर वह लोहू तुम्हारे निमित्त चिन्ह ठहरेगा; अर्थात मैं उस लोहू को देखकर तुम को छोड़ जाऊंगा, और जब मैं मिस्र देश के लोगों को मारूंगा, तब वह विपत्ति तुम पर न पड़ेगी और तुम नाश न होगे।- निर्गमन 12/13 

और ऐसा हुआ कि आधी रात को यहोवा ने मिस्र देश में सिंहासन पर विराजने वाले फिरौन से ले कर गड़हे में पड़े हुए बन्धुए तक सब के पहिलौठों को, वरन पशुओं तक के सब पहिलौठों को मार डाला।- निर्गमन 12/29 

(8.) बाइबिल का ईश्वर जलन करने वाला है। 

 तू उन को दण्डवत न करना, और न उनकी उपासना करना; क्योंकि मैं तेरा परमेश्वर यहोवा जलन रखने वाला ईश्वर हूं,और जो मुझ से बैर रखते है, उनके बेटों, पोतों, और परपोतों को भी पितरों का दण्ड दिया करता हूं। - निर्गमन 20/5 

 अन्य भी सैकड़ों उद्धरण दिये जा सकते हैं। किन्तु निष्पक्ष विचारशील लोगों के लिये इतने ही पर्याप्त हैं। जिनसे स्पष्ट पता लगता है कि बाइबल का ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान न्यायकारी और दयालु नहीं अपितु वह आकाश में सिंहासन पर बैठा रहता है, वह वहां से उतर कर आता है, बाग में घूमता है, उससे मनुष्य अपने को छिपा सकते हैं, वह नहीं चाहता कि मनुष्यों को सच्चा ज्ञान हो और उनकी एक भाषा हो । वह बड़ा ईर्ष्यालु है जो मनुष्यों की भाषाओं में भी गड़बड़ डाल देता है । वह गाय के कोमल बछड़े का भी मांस खाता है, उसे पश्चाताप वा पछतावा होता है । वह लोहू के चिह्न के बिना मिश्र देशवासियों को औरों से पहचान नहीं सकता, वह दयालु और न्यायकारी नहीं बल्कि इतना क्रूर है कि मिश्र वासियों के छोटे-2 बच्चों को भी बिना किसी अपराध के मार डालता है वह अपने मुख से कहता है कि मैं तेरा परमेश्वर बड़ी जलन रखने वाला हूं । विचारशील पाठकों को क्या यह प्रश्न करने का अधिकार नहीं कि क्या ईश्वरीय वाक्य माने जाने वाले ग्रन्थ में ईश्वर का ऐसा असंगत वा बेहूदा बुद्धि तथा विज्ञान विरुद्ध स्वरूप पाया जाना उचित है ? क्या ईश्वर के अन्दर भी साधारण मनुष्य की तरह थकावट के कारण आराम की जरूरत पश्चाताप, ईर्ष्या वा जलन, पक्षपात, क्रूरता, बछड़े का मांस खाना, लोहू की निशानी के बिना भेद न कर सकना इत्यादि बातें मानी जा सकती हैं ? क्या कोई भी निष्पक्षपात बुद्धिमान् ईश्वर के ऐसे भद्दे स्वरूप को स्वीकार कर सकता है ? हम अपने यहूदी ईसाई तथा अन्य भाइयों से सप्रेम निवेदन करते हैं कि वे निष्पक्षपात होकर इस पर विचार करें और सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहें ।

कहाँ तो


स पर्य॑गाच्छु॒क्रम॑का॒यम॑व्र॒णम॑स्नावि॒रꣳ शु॒द्धमपा॑पविद्धम्। क॒विर्म॑नी॒षी प॑रि॒भूः स्व॑य॒म्भूर्या॑थातथ्य॒तोऽर्था॒न् व्य᳖दधाच्छाश्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यः ॥( यजु० 40/8)

हे मनुष्यो ! जो अनन्त शक्तियुक्त, अजन्मा, निरन्तर, सदा मुक्त, न्यायकारी, निर्मल, सर्वज्ञ, सबका साक्षी, नियन्ता, अनादिस्वरूप ब्रह्म कल्प के आरम्भ में जीवों को अपने कहे वेदों से शब्द, अर्थ और उनके सम्बन्ध को जनानेवाली विद्या का उपदेश न करे तो कोई विद्वान् न होवे और न धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के फलों के भोगने को समर्थ हो, इसलिये इसी ब्रह्म की सदैव उपासना करो ॥

वे॒नस्तत्प॑श्य॒न्निहि॑तं॒ गुहा॒ सद्यत्र॒ विश्वं॒ भव॒त्येक॑नीडम्। तस्मि॑न्नि॒दꣳ सं च॒ वि चै॑ति॒ सर्व॒ꣳ सऽ ओतः॒ प्रोत॑श्च वि॒भूः प्र॒जासु॑ ॥(यजु० 32/8) 

हे मनुष्यो ! विद्वान् ही जिसको बुद्धि बल से जानता, जो सब आकाशादि पदार्थों का आधार, प्रलय समय सब जगत् जिसमें लीन होता और उत्पत्ति समय में जिससे निकलता है और जिस व्याप्त ईश्वर के बिना कुछ भी वस्तु खाली नहीं है, उसको छोड़ किसी अन्य को उपास्य ईश्वर मत जानो ॥

 इत्यादि मन्त्रों द्वारा प्रतिपादित ईश्वर का सच्चा युक्तियुक्त स्वरूप जिसे महर्षि दयानन्द जी ने वेदों के आधार पर इन सरल शब्दों में वरिणत किया कि 

'ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है उसी की उपासना करनी योग्य है ।' 

और कहां यह बाइबल प्रोक्त ईश्वर का स्वरूप ।इनमें कितना आकाश पाताल का अन्तर है यह बुद्धिमान् स्वयं विचारें । 


Sunday, October 27, 2024

बंदा वैरागी की जीवन मीमांसा

 




बंदा वैरागी की जीवन मीमांसा


वैद्यश्री गुरुदत्त राष्ट्रीय इतिहासविद्


सन् 1924-25  की बात है । पंजाब के एक नेता डाक्टर सत्यपाल बन्दा वैरागी को हिन्दू धर्म के विपरीत आचरण करने वाला कहते थे। डाक्टर साहब 'रौलेट एक्ट' आन्दोलन में विख्यात हुए थे और फिर पंजाब में लाला लाजपत राय के बराबर के नेता समझे जाते थे। भाई परमानन्द जी ने 'बन्दा वैरागी' के नाम से एक पुस्तक लिखी थी। उस पुस्तक में उन्होंने बन्दा वैरागी को हिन्दू धर्म के रक्षक की उपाधि से विभूषित किया। उसी पुस्तक पर विचार करते हुए डाक्टर साहब ने यह कहा था कि बन्दा वैरागी धर्म का शत्रु था ।


यह विचार डाक्टर साहब के ही नहीं थे, वरंच देश में अन्य कोटि-कोटि हिन्दू, मुसलमानों और सिक्खों के भी थे। यह इसलिए कि बन्दा वैरागी ने मुसलमानों को अति निर्दयता से मरवाया था, ऐसा कहा जाता है ।


बन्दा का कार्य और उसका मूल्यांकन


बन्दा ने क्या किया था ? इसका मूल्यांकन करने के लिए उस काल की देश की अवस्था का अनुमान लगाना पड़ेगा । हिन्दुस्तान में मुगलों का राज्य स्थापित हुए पौने दो सौ वर्ष हो चुके थे और इस काल में कुछ ही वर्षों के काल को छोड़कर हिन्दुओं के साथ मुगलों का व्यवहार ऐसा रहा था मानो वे उनके क्रीत दास थे ।


स्वार्थी हिन्दुओं का ही यह चमत्कार था कि कोटि-कोटि हिन्दू एक आध लाख मुसलमानों से ऐसे शासन किए जाते थे, जैसे ये हिन्दू गाय, भैंसों के झुण्ड हों और मुगल सैनिक लाठी लिए ग्वाले उनको हांकते हुए ले जाते हों । इस पौने दो सौ वर्ष के मुगल राज्य में जब जब मुगल राज्य दृढ़ता से स्थापित हुआ, तब तब

मुगलों का हिन्दुओं पर अत्याचार भी बढ़ा । जहांगीर और शाहजहां के राज्य मुगलों के भली भांति स्थापित राज्य माने जाते हैं और इन दिनों में ही पंजाब, महाराष्ट्र और राजस्थान में मुल्ला-मौलानाओं के अत्याचार बढ़ रहे थे।


अकबर राज्य के प्रारम्भिक काल में जब अकबर अपने राज्य को विस्तार दे रहा था, तब तो हिन्दुओं से कुछ सीमा तक सहयोग चलता था । उसी काल में हिन्दुओं से जजिया उठा लिया गया था तीर्थ-यात्रा का कर हटा लिया गया था और कहा जाता है कि अकबर नगरकोट के देवी के मन्दिर में सोने का छत्र चढ़ा आया था । परन्तु ज्यों-ज्यों राज्य सुदृढ़ होता गया और यह दूर दूर तक विस्तार पाता गया, हिन्दुओं का दास की भांति उत्पीड़न प्रारम्भ हो गया था ।


जहांगीर का राज्य गुरु अर्जुन देव के बलिदान से प्रारम्भ हुआ। फिर गुरु हर गोविन्द को बन्दी बना कर रखा गया । शाहजहां के काल में यह जोर-जुल्म जारी रहा। शाहजहां के विषय में स्कूलों में पढ़ाने वाले इतिहास में भी यह लिखा मिलता है । शाहजहां पक्का सुन्नी मुसलमान था । वह धार्मिक पक्षपात करता था और कभी कभी हिन्दुओं के साथ कठोर व्यवहार करता था । कहीं-कहीं औदार्य भी दिखाता था । यूरोपीय यात्री डैलावैली लिखता है कि खम्भात के हिन्दुओं से रुपया पाने पर उसने वहां गो-हत्या बन्द कर दी ।


रुपया लेकर राजा की ओर से गौ-हत्या बन्द करने को उसकी उदारता बताई है। इससे अनुमान लगाया जाता है कि जब और जहां वह उदार नहीं होता था, वहां क्या करता होगा ?


शाहजहां की बीवी मुमताज़ महल के विषय में कहा जाता है कि वह अति क्रूर थी और विधर्मियों की निर्मम हत्या कराती थी। यहां तक कि शाहजहां की हिन्दुओं और ईसाइयों से निर्दयता में कारण वह ही कही जाती है। 


शाहजहां के उपरान्त तो औरंगजेब का राज्य आया । इस राज्य काल में क्या हुआ ? उसके विषय में डा०  आशीर्वादी लाल जी श्रीवास्तव अपनी पुस्तक The Mughul Empire के पृष्ट 339 पर लिखते हैं । पुस्तक अंग्रेजी में है और उसका अनुवाद इस प्रकार है ।



औरंगज़ेब राज्य के सम्बन्ध में इस्लामी सिद्धांत पर विश्वास रखता था । वह ऐसे शासन में विश्वास रखता था, जिसमें शासक कुरान का कानून शासन में चलाए और वह देश को दारा-उल-हरब से दारा-उल-इस्लाम बना सके । वह इस्लाम को राज्य धर्म बनाना चाहता था और राज्य की पूर्ण शक्ति को अपने मजहब के प्रचार के लिए लगाता था ।


उसने पुराने मन्दिरों की मरम्मत करने से मना कर दिया था । इसके कुछ ही काल उपरान्त सब प्रान्तों के हाकिमों को आज्ञा दी थी कि काफिरों के सब विद्यालय और मन्दिर गिरा दिए जाएं और दृढ़ता से उनकी शिक्षा और पूजा-पाठ बन्द कराई जाए। 'मुहतासिव' घूमते रहते थे और वे हिन्दू मन्दिर और मूर्तियां विनष्ट करते रहते थे। सरकारी मन्दिर गिराने वालों की संख्या इतनी अधिक थी कि उन पर एक दरोगा नियुक्त होता था और उनके कार्यों को दिशा देता था । यहां तक कि बनारस का विश्वनाथ का मन्दिर, मथुरा का केशव देव का मन्दिर और पाटन का सोमनाथ का मन्दिर गिराकर भूमि में मिला दिए गए थे । मित्र हिन्दू राजाओं के राज्यों में भी, जैसे कि जयपुर में भी मन्दिर छोड़े नहीं गए । मन्दिर और मूर्तियों का तोड़ना प्रायः चलता था और उसके साथ उनको भ्रष्ट और अपमानित किया जाता था । प्रायः वहां गौ हत्या की जाती और मूर्तियों को सड़कों पर दमूसों से कूट दिया जाता था ।


सन् 1678 में पुन: हिन्दुओं पर जजिया लगा दिया गया, जिससे इस्लाम फैले और काफिरों को पराजित किया जाए...... | हिन्दुओं ने चीख पुकार की, परन्तु सुना नहीं गया । उसने तीर्थ-यात्रा कर भी कर लगा दिया । तीर्थ स्नान करने पर छ: रुपये चार आने कर देना पड़ता था । वस्तुओं पर कर मुस्लमानों से नहीं लिया जाता था और हिन्दुओं से पांच प्रतिशत वसूल किया जाता था ।


औरंगज़ेब ने मृत्युकाल (1707) तक और उसके पीछे बहादुरशाह और फरुखसीयर के राज्य में हिन्दुओं को किसी प्रकार की राहत नहीं दी गई ।


इस काल में बन्दा वैरागी पंजाब में आया । उसके आने से पूर्व गुरु तेग बहादुर और गुरु गोविन्द सिंह के अल्पवयस्क बच्चों का बलिदान हो चुका था । पंजाब में औरंगज़ेब की धांधली मची हुई थी । तब बन्दा वैरागी ने क्या किया, यह विचारणीय रह ही नहीं जाता ।


विचारणीय यह रह जाता है कि इस मूर्खों के देश में बन्दा वैरागी का कैसे पंत हुआ ? इसमें दो मुख्य कारण बताए जाते हैं । प्रथम कारण यह था कि पंजाब में हिन्दुनों के वे तत्व, जिनका संगठन हुआ था, सिक्ख थे । आदि गुरु नानक से लेकर दशम गुरु गोविंद सिंह तक को वे अपना पथ-प्रदर्शक मानते थे । उन दिनों हिन्दुस्तान में गुरु की बहुत महिमा थी और जो एक बार किसी समुदाय का गुरु बन गया वह उस समुदाय में परमात्मा का रूप ही बन जाना था ।


ऐसी स्थिति में यदि गुरु गोविन्द सिंह यह न कह जाते कि उनके पीछे कोई नया गुरु नहीं होगा तो बन्दा गुरु पद पर सुशोभित माना जाता । गुरु गोविंद सिंह बन्दे को अपना आशीर्वाद और तलवार दे गए थे । तब बन्दा वैरागी गुरु- पद पर होता हुआ सिक्खों को अपने व्यवहार के अनुकूल बना लेता ।


हुआ यह कि युद्ध की स्थिति में और राज्य स्थापित होने के काल में वह त्याग और तपस्या रह नहीं सकती थी जो गुरुओं में केवल धर्म प्रचार के समय थी । अतः सिक्खों की दृष्टि में बन्दा की वह मान-प्रतिष्ठा नहीं रही थी जो गुरुओं की थी। यदि वह गुरु गद्दी पर आसीन होता तो नई व्यवस्था देकर अपने साथियों में वह श्रद्धा, भक्ति उत्पन्न कर सकता, जो गुरुओं के लिए थी ।


बन्दा ने सिक्खों के अतिरिक्त भी हिन्दुनों की सेना बनाने का यत्न किया था, परन्तु उसमें वह सफल नहीं हो सका था ।


दूसरा कारण था हिन्दुओं और सिक्खों का राजनीति से सर्वथा अनभिज्ञ होना । फरुखसीयर इसमें सिक्खों को चकमा दे गया । फरुखसीयर के गुप्तचरों ने सिक्खों में बन्दा के प्रति श्रद्धा देख सिक्खों को बन्दा के विरुद्ध करने का यत्न किया । गुरु गोविंद सिंह की पत्नियों को समझाया गया, भड़काया गया और सिक्खों के उस तत्व को, जो बन्दा के लिए अश्रद्धा रखते थे, एक पत्र लिखवा कर बन्दा और सिक्खों में फूट डलवा दी गई । वे सिक्ख तत्व खालसे कहलाते थे ।


दिल्ली के शहनशाह ने उन सिक्खों को, जो बन्दा की सेना छोड़कर शाही सेना में आए, एक रुपया प्रति दिन के वेतन पर नौकर रख लिया । बहुत से सिक्ख शाही सेना में भरती हो गए ।


दिल्ली के शहनशाह ने पांच हज़ार रुपये अमृतसर दरबार साहब को दिया और सिक्खों ने निम्न शर्तों पर सन्धि कर ली ।


1.) खालसा देश में लूट-मार नहीं करेंगे ।


2.) खालसा बन्दा की सहायता नहीं करेंगे ।


3.) विदेशी आक्रमण के समय खालसा शहनशाह दिल्ली के लिए लड़ेंगे | 


4.) खालसानों की जागीरें छीनी नहीं जाएंगी ।


5.) हिन्दुओं को विवश कर इस्लाम स्वीकार नहीं कराया जाएगा ।


6.) हिन्दुओं के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाएगा और उनकी मजहबी बातों में दखल नहीं दिया जाएगा ।


यह सन्धि दरबार साहब के अधिकारियों, तत्व खालसा, के साथ हुई और वे बन्दा के विरुद्ध प्रचार करने लगे ।


बन्दा पकड़ा गया और अपने सात सौ साथियों के साथ चांदनी चौक दिल्ली में अनेक प्रकार के कष्ट देकर मार डाला गया ।


इसके कुछ ही पीछे सिक्खों के साथ हुई सन्धि भंग हो गई और दो-दो रुपये पर सिक्खों के सिर बिकने लगे ।


अतः बात ठीक ही है 'हम हैं मूर्खों के देश' में।


Saturday, October 26, 2024

आर्यसमाज का तप

 



आर्यसमाज का तप 

#डॉ_विवेक_आर्य 

पराधीन भारत में अंग्रेज पादरियों और अधिकारियों की आर्यसमाज के अनुयायियों पर कू्रर दण्डात्मक दृष्टि थी। इसके लगभग 24 उदाहरण आर्यसमाज के विद्वान आचार्य पं. सत्यप्रिय शास्त्री, प्राचार्य, दयानन्द ब्राह्म महाविद्यालय, हिसार ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय स्वातन्त्र्य संगाम में आर्यसमाज का योगदान’ में दिये हैं। वह पुस्तक के छठे अध्याय में लिखते हैं कि आर्यसमाज सामान्यतः अपने जन्मकाल से ही विशेषकर श्यामजी कृष्ण वर्मा तथा लाला लाजपतराय के समय से ब्रिटिश सरकार के प्रबल सन्देह का विषय बन गया था। आर्यसमाज के भयंकर राजद्रोही होने का विचार विदेशी सरकार तक कैसे पहुंचा? यह हम आर्यसमाज के लौहपुरुष अमर शहीद स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज के शब्दों में ही यहां पर उद्धृत कर रहे हैं–

“गरीब हिन्दुओं को वाग्युद्ध में सदा पछाड़ने के अभ्यासी पादरियों को जब आर्यसमाज में पले बालकों तक से पटकनी पर पटकनी मिलने लगी तब वे ओछी करतूतों पर उतर आये और उन्होंने सरकारी अधिकारियों को यह विश्वास दिलाना आरम्भ कर दिया कि आर्यसमाज से क्रिश्चियन मत को तो कम भय है अधिक भय गवर्नमेन्ट को है।” (कल्याण मार्ग का पथिक पृ. 146)

इस विश्वास के कारण (जो किसी भी इतिहासकार की दृष्टि में अनुचित नहीं कहा जा सकता है) अंग्रेजी सरकार ने आर्यसमाज को कुचलने तथा दबाने का पूर्ण निश्चय कर लिया था। स्थान-स्थान पर आर्यसमाजियों तथा आर्यसमाज से सम्बन्धित पुरुषों को उत्पीड़ित किया जाने लगा था, उस समय की सरकारी नौकरियों में विद्यमान आर्यसमाजियों पर तो मानों विपत्तियों का पहाड़ ही टूट पड़ा था क्योंकि सरकारी नौकरी में होने के कारण उनको पीड़ित, दुःखी तथा त्रस्त करना सरकार के लिए बहुत ही सरल काम हो गया था। उस समय के आर्यसमाजियों पर क्या बीती, इसका दिग्दर्शन कराने के लिए कुछ घटनाओं का संक्षिप्त संगंह यहां प्रस्तुत किया जाता है। इससे पाठकों को यह भी ज्ञात हो जायेगा कि विपदा और आंधी के उस तूफानी दौर तथा काल में आर्यसमाजियों ने किस प्रकार अपनी बहादुरी का परिचय दिया। वे टूट तो गये परन्तु झुके नहीं और किस प्रकार अपनी लौकिक अनित्य सम्पदाओं के सर्वस्व की बाजी लगाकर भी उन्होंने अपने सिद्धान्तों, मान्यताओं तथा आर्यत्व की रक्षा करके उस विपत्ति की घड़ी में खरे उतरे, यह एक गौरव का विषय है।

आर्यसमाजियों से दुर्व्यवहार की कुछ घटनायें

1- मैं सायंकाल सड़क पर घूम रहा था, सामने से घोड़े पर सवार नाभा के वृद्ध राजा हरि सिंह आ रहे थे। वह अक्सर लाहौर आते थे और मैं उन्हें पहचालता था। मैंने हाथ जोड़कर उनका उचित सत्कार किया। उन्होंने पूछा कि पढ़ते हो? मेरे उत्तर देने पर पूछा कि कहां? मैंने कहा कि दयानन्द कालेज में। ‘कहने लगे कि हंसराज से कह देना कि अंग्रेजों के साथ उलझना ठीक नहीं, जितने आर्यसमाजी तुम हो, उनके लिए तो मेरी फौज ही काफी है। राजा नाभा ने अपना सन्देश पहुंचाने के लिए अच्छा दूत चुना। उनके कथन से इतना तो पता लगता है कि उस समय का राजनैतिक वायुमण्डल कैसा था?’ (आर्यसमाज के त्या0 तप0 सं0 पृ0 32)

2- गुलाबचन्द एक सिख रेजिमेण्ट में लेखक था। वह कर्तव्य परायण तथा सत्यप्रिय और परिश्रमी था। परन्तु साथ ही अध्किरियों को उत्तर देने में निर्भीक था। पहले तो उसकी इस बात की प्रशंसा होती थी किन्तु अब उसका वही गुण कांटे की तरह खटकने लगा और उसे इसलिए पृथक् कर दिया कि वह आर्यसमाजी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आर्यसमाजी का अर्थ हुआ उद्दण्ड अर्थात् निर्भीक एवं सत्यवादी।

3- जिला करनाल के तीन जेलदारों में से एक आर्यसमाजी था। उसकी डायरी में लिख दिया गया कि वह जेलदार तो अच्छा है परन्तु इसका निरीक्षण किया जाना चाहिये क्यांकि वह आर्यसमाजी है।

4- एक डिप्टी कमिश्नर ने एक नगर के प्रमुख पुरुषों को बुलाकर कहा कि यदि तुम्हारे यहां कोई आर्यसमाजी रहता है तो उसे निकाल दो। स्वयं उन प्रमुख पुरुषों में ही दो आर्यसमाजी थे। उन्होंने पूछा कि आर्यसमाजियों के विरुद्ध क्या किया जाये? डिप्टी कमिश्नर ने कहा कि कुछ करो, तुम्हारे विरुद्ध कोई भी कार्रवाई न होगी। वे बोले कि आप स्पष्ट निर्देश करें, तो उनका पालन किया जा सकता है और आप स्पष्ट कार्रवाई करने से डरते हैं तो फिर हममें यह साहस कहां है?

5- एक रेजिमेण्ट के सिपाही आर्यसमाजी थे। उन्हें यज्ञोपवीत उतार देने की आज्ञा दी गई। उन्होंने जाटसभा के द्वारा एक निवेदन पत्र भिजनवाया जिसे आपत्तिजनक समझा गया।

6- एक मुसलमान जमादार ने एक यूरोपियन लैफ्टिनेण्ट को विवाद में हरा दिया। इसकी शिकायत हुई और मुसलमान को डांटकर कहा गया कि तुम आर्यसमाजी हो। उसने उत्तर दिया कि मैं तो मुसलमान हूं। अधिकारी ने उसे और डांटा और कहा कि तुम मुसलमान आर्यसमाजी हो।

7- आर्यसमाज के प्रचारक पं0 दौलतराम झांसी गये। वहां उन्होंने सिपाहियों को भी उपदेश दिया और उनसे अनाथालय के लिए चन्दा लाये। पण्डित जी पर अभियोग चलाया और दण्ड यह दिया गया कि या तो झांसी या उसके पांच मील के अन्दर रहने वाले तथा सरकार को 1000 से 2000 की आय पर कर देने वाले दो सज्जनों की जमानतें दिलाओ या एक वर्ष के कठोर कारावास का कठोर दण्ड भुगतो। यों तो दालतराम जी आगरे के खाते पीते घर के थे परन्तु झांसी में अजनबी थे। इसलिये झांसी में कारावास भुगतना पड़ा।

8- जोधपुर में वायसराय पधारे थे। उनके मार्ग में आर्यसमाज मन्दिर पड़ता था। पुलिस ने समाज वालों से कहा कि अपना फट्टा तथा झण्डा उतार लो। उनके इन्कार करने पर पुलिस ने ये दोनों चिन्ह उतार दिये।

9- पंजाब की एक ब्रिगेड में आज्ञा दी गई कि सिपाही आर्यसमाज अथवा किसी अन्य राजनैतिक सभा में न जाया करें।

10- 10वीं जाट रेजीमेण्ट जो कि सन् 1898 में बनारस में थी, तब उसमें धार्मिक दृष्टि से आर्यसमाज का प्रभाव था। जब सन् 1899 में यह सिलचर पहुंची तो उसके (अंग्रेज) सेनापति को हिन्दी में बहुत ऐसे पत्र मिले जिन पर हिन्दी में ओ३म् लिखा था जिसे कुछ अधिकारियों ने सन्देह की नजरों से देखा। जब 1904 में यह रेजीमेण्ट कानपुर पहुंची तो उसके सैनिक आर्यसमाज के सत्संगों में जाने लगे तथा आर्यसमाज से अपना सम्पर्क बढ़ाने लगे। जब अधिकारियों को यह बात विद्रोह सा जान पड़ी तब उन्होंने उनके आर्यसमाज के सत्संगों, सभाओं में जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया। साथ ही आर्यसमाजी साहित्य छावनी में लाने पर भी कठोर प्रतिबन्ध लगा दिया। सितम्बर 1905 में सुरजनसिंह नामक एक सिपाही इसी अपराध में दण्डित किया गया था कि उसने स्वदेश प्रचार के बारे में बुलाई गई आर्यसमाज की एक सभा में भाग लिया था।

पुस्तक में 24 घटनाओं में से हमने आरम्भ की 10 घटनायें ही इस लेख में प्रस्तुत की हैं। अन्य घटनायें भी यही कहानी कहती हैं कि आर्यसमाजियों को सरकारी नौकरी से हटाया गया व उन्हें प्रताड़ित किया गया। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में आर्यसमाज में शीर्ष नेता स्वामी श्रद्धानन्द ने आर्यों को सन्देश देते हुए अपने पत्र सद्धर्म प्रचारक में कहा था कि आर्य पुरुषो! क्या तुमको परमात्मा पर सच्चा विश्वास नहीं है? यदि है तो फिर दो हाथवालों की खातिर सहस्रबाहु का क्यों अनादर करते हो? दो भुजावाला जिस रोजी को छीन सकता है क्या सहस्रबाहु उससे बढ़कर रोजी तुम्हें दे नहीं सकता? इसलिये संसार को धर्म पर न्यौछावर करना ही आर्यत्व है। वैदिक धर्म की सेवा के लिए कायरों के उद्यत होने का क्या काम?

आचार्य सत्यप्रिय शास्त्री जी लिखते हैं कि स्वामी श्रद्धानन्द जी के चेतावनी भरे इन ओजस्वी शब्दों ने बिजली का सा असर किया। इसके परिणामस्वरूप् अनेक असह्य कष्ट आने पर भी आर्यसमाजी अपने निश्चित तथा स्वीकृत मार्ग से विचलित होने का विचार तक मन में भी नहीं कर सके। यह उस महान् सर्वस्व त्यागी तथा अवसर की नाड़ी को पहचानने वाले दूरदर्शी नेता के नेतृत्व की महान् सफलता थी जिसने मझधार में डूबने को तैयार आर्यसमाज की नौका को कुशल मल्लाह बनकर पार लगाने का साहसपूर्ण कार्य तथा वीरतायुक्त ऐतिहासिक कार्य किया। अन्धकार में भटक रहा आज का आर्यसमाज ऐसे निःस्पृह, दूरदर्शी नेतृत्व की आशा में है।


Friday, October 25, 2024

A Study of the Vedas with special reference to the Monotheism.


 A Study of the Vedas with special reference to the Monotheism. 

-Devendra Prasad Savitreya

Reproduced by Dr. Vivek Arya

It will be necessary to understand the 'Vedas' before understanding monotheism. "What are the Vedas? What is the derivation of the word Vedas? What is the importance of these ancient (Rishis) books?

"The Vedas are eternal eyes of Deva, Pitris and men. It is beyond human capacity of measurement".(Pitridevamanushyaanam Vedaschakshuh Sanatanam -Manusmriti 12/94)

"The Vedas are the fountain-head of all faiths". (Vedokhilo Dharmamulan-Manusmriti 1/125)

"The Vedas are the voice of God as they are eternal and self evident". (Tad vachnada mamnayasya pramanyam -Vaishisik Darshan 1/1/3 ) 

"There is no other higher, or nobler Scripture than the Vedas". (Nahi Vedatparam Shastram -Garuda Purana)

"The Vedas contain the elements of all true knowledge and it is the primary duty of every Arya to study and propagate the Vedic teachings which are contained in these holy scriptures. "( Aryasamaj Third Niyam)

"The Vedas contain seeds of knowledge. (Swami Dayananda Saraswati). 

In Sri Aurobindo's words

" I will add my own conviction that Veda contains other truths of science which the modern world doesn't possess at all."

"The Vedas are the imperishable treasure-house of all truths, Vidyas and knowledge, sciences, religions guide-lines of character building." ( Ved Mahima by Savitreya)


The word Veda is derived from the root 'vid' which means (know to 'knowledge)'. Thus the etymological meaning of the Veda is the book of true knowledge, physical as well as spiritual. Although the Veda is one, yet on account of its dealing with the different topics it has been further divided into four books or Samhitas. Which are called (the) 

I Rig Veda : II Yajur Veda, III. Sam Veda and the IV. Atharva Veda.

These books support the view that, there is its importance. All ancient Monotheism (present) in the Vedas.

Maharshi Dayanand Saraswati was the founder of the Arya Samaj.The Vedas are main foundations of the Arya Samaj. The light of Monotheism is revealed in the fundamental principles of the Arya Samaj: as the Maharshi was a monotheist. Monotheism implies that there is one God. The tenets of the Arya Samaj from the very beginning flow from prayers to one God, who was invoked to purge our hearts of all evils and impurities The holy Mantra runs :

"O, Savitar, God, send far away all troubles and calamities, and send us only what is good. (viśvāni deva savitar duritāni parā suva | yad bhadraṁ tan na ā suva ||.- Rigveda 5/82/5)  

Another Mantra says that God is one. Who is God? The problem is solved the following Mantra.

Hiranyagarbha: Samvartatagre Bhootasya  Jaat: Patirek Asit.( Yajurveda 13/4)

This Vedic mantra contains five features-

1. Did God exist before the creation ?

2. Was God "HIRANYAGARBHA” ?

3. Did God create the universe and still sustain ?

4. Is God one or many ?

5. Should we worship him or any one else?

The answer to all these question is that God existed before the creation. God was Hiranyagarbha, God created the Universe, God is one and not many. We should worship him alone and no other god," 

So the Vedas tell us that God is our friend, our father and our supporter and protector. In other words-He is our kin, our father and holy dispenser, he knows all beings and all ordinances. He is one in whom the Gods obtaining's life eternal have risen upward to the third high station is own position of immortality and bless.

This holy Mantra contains the word "(Kasmai)" Like Latin cui, which either masculine or neuter. There is a sign of interrogation at the end. The Mantra means what God should be worshipped? The answer to the query is provided in the Hiranyagarbha sukta at the end of 9th Sukta and beginning, of 10th Sukta. The Mantra really means “Kasmai Devai Havisha Vidhem "i.e. Sacrificial offering and prayer should be made to the only one God of Delight.

According to Dayananda the Vedas declare the existence of only one God. The monotheism of the Vedas is the same as the Brahmavad of the Upanishadic Rishis. Since the medieval ages the wrong. view has held away that the Vedas embody the Worship of many gods and that they are books preaching, Polytheism. Western Sanskrit scholars widely propagated this line of thought. Dayanandji is firmly convinced of the existence of only Supreme Being and enjoin on us to worship Him alone, There is no provision in the Vedas for worshiping any other God than He.

To remove their wrong ideas and impressions it would be well to reproduce the following catechism (questions and answers) from the 'Satyarth Prakash" 

Q. Do the Vedas mention one God or Many gods?

Ans. They mention only one God. No where in the Vedas is there mention of any gods.

Every where in the Vedas God is invoked in such metaphorical languages as "the God of gods' formless and all pervading. He is also invoked as the Supreme author of creation". According to Dayanandji, the so called Gods such as Surya, Vayu, Usha (dawn) are merely natural entities and Varuna, Rudra and other are spiritual entities.

They are not really separate gods bearing human bodies or bodies of their kinds; they are simply forces affecting our lives on the practical plane. In other words they are natural forces which shed their influences upon our lives or they are forces which bear some relation to our spiritual growth. But they are by no means worthy of our adoration and worship.

There is one (Supreme Divine) who is the object of our worship. Whether the Vedas proclaim the existence of many gods depend upon which of the various interpretations of the Vedic commentaries is in accord with rationality and sound common sense. In other words, should we accept the interpretation according to the canons laid down by the ancient treatise of Nirukta or the ritual-oriented interpretation of Sayanan or the new-Naturological methodology of the western scholars ? I have already pointed out that if we want to get at the truth about the Vedas, we shall have to adopt the ancient Nairuktic methodology. European scholars have equated the word "Deva" with God, taking the word "Deva" in the sense of god, Mr. Macdonell, has made the fantastic statement in his book that the chariot of the sun-god is driven by seven horses. He also regards the Goddess Usha (Dawn) sometimes as the wife and sometimes as the mother of the sun God.

According to him, the goddess also evokes amorous passions in every god.( See 'A Vedic Reader for Students' p. 92, by A. A. Macdonell, Reprint 1954.)

Mr. Max Muller has read a different kind of Polytheism into the Vedas. In his view, the worship of thirty three gods has been mentioned in the Vedas. But Dayanandji in course of his exposition, clearly showed that the number of Gods mentioned is actually 3339 (three thousands, three hundred and thirty three). In spite of this he does not conclude that the Vedas advocate Polytheistic cult. In support of his argument he says there is no affinity between the polytheistic cult of the ancient Greeks or the Romans and the so called Polytheism of the Vedas (In ancient), Polytheism prevailing cavilling in ancient Greece or Rome meant that under the domination of one supreme Being there were a number of minor gods. In the light of Max Mullers exposition, the concept of Polytheism (i.e. many minor-Gods under the domination of a Supreme power is analogous to that of absolute monarchy or dictatorship ruling over the people of a state). He further points out that the Vedic Rishis used to regard each separate deity, however small it is, as the Supreme Being and worship him. Max Mullar has given a new name to this concept of Polytheism in the Vedas and that is Kathoneism, that is the worship of the Gods one after the other or Henotheism-that is the worship of the gods severally.(It was necessary therefore, for the purpose of accurate reasoning to have a name different from Polytheism, to signify this worship of since Gods, each occupying for a time a supreme position and I proposed the name of Kathoneism that is a worship of one god after another or of Henotheism the worship of single gods. F. Max Muller India what can it teach us ? p. 146. 147. 1892)

 According to Dayanandji, however, the Vedas support neither Kathoneism nor Henotheism, All the four Vedas use the term "Deva" in many Mantras and generally scholars take the term 'Deva' to indicate one Supreme Being. For this reason it has become rather difficult to apprehend the real intention of the Vedas because by taking "Deva" to mean God "Deva," who is worthy of worship. Nowhere do the Vedas support the worship of separate gods unless and until they are interpreted to denote different names of one Supreme Divine.

All other judgments regarding the meaning of the the term 'Deva' used in the Vedas is faulty, Dayanandji arrives at this conclusion following the cannons of interpretation of Nirukta. According to Nirukta the 1st word 'Deva' does not mean "God"; it means one of these, 1. one who confers gift. 2. one who gives right: 3. one who instructs & supports (such as gurus parents) 4. Dyusthani the source of light, such as the sun.(Devo Daanadva, Deepanadva, Dyotanadva Dyusthano Bhavatiti Va. -Nirukta 7/4/15)  

In Niruktas view any one possessing one of the attributes mentioned can be regarded as a God. If all these-epithets were applied to God, god becomes the God of Gods and when God is conceived as keeping under control all the Vyaraharik gods i.e. the forces of nature, such as the sun, the Moon, Marut etc., then he is regarded as Mahadeva.

There is no doubt that according to the Vedas there is only one Supreme Divine who alone is the object of adoration and worship, whom the Rishis invoke in various names. (soryama sa varunah sa rudrah sa mahaadevah .soghih sa u sooryah sa u ev mahayamah- Atharvaved 13/4/5)

Maharshi Dayanand is decidedly and firmly of the view that the Vedas enjoin on us, the worship of only one God. There are no other gods besides. (Indran mitran varunamagnimaahurato divyah sa suparno garutmaan, sadvipra bahudha vadantyagni yaman matrishvanamahu.- Rigved 1/164/46

The Vyavaharik gods i.e. the forces of nature should on no account be worshipped, only one Supreme Being is to be worshipped.

The "Satpatha Brahmana,' is a more reliable authority on the issue whether the Vedas advocate the worship of one God or many gods say the western Vedic scholars. Satpatha Brahmana says those who worship any other-god except 'Parmatma' (i.e. one "Supreme Being)" are no better than animals.

In the Vedas generally only those epithets are applied to Indra, Marut, Sun etc. which are relevant to God. It is apparent that in such matters Dr. Max Muller stumbles into the blunder of 'Henotheism', The truth is that the Vedic Rishis give many different names to one Supreme Divine, each name signifying some particular attribute of God. (yonin devataamupaasate na sa ved yatha pashurev sa devaanaan (shatapath brahman).

 (Agni is that ; the sun is That: Vayu and Chandramas are that: The Bright is that: Brahma is That, those waters, that Prajapati: According to Dayanandji where ever such attributes as "Omnipotent" are used in respect of 'Indra or any other God, it must be taken as pointing to "Paramatma" (i.e. the Supreme Divine) because only God is Omnipotent. He alone is worthy of adoration and worship. The Aryans have been worshipping the one God since the very beginning of creation under different names. Similarly where ever such attribute as "Sarvagnya" i.e. Omniscient) "Vyapak" (i. e. all pervasive), Shuddha (i. e. Pure), "Sanatana (i. e. Eternal) and Shristhi-Karta" (i. e. creator) are used, the so called gods mentioned must be regarded as One Supreme Being under different names, because these fundamental attributes can be possessed by God alone.

Whether the Vedas actually support the monotheistic stand of Dayanandji will be made amply clear to any impartial scholar, if he studies carefully the following Vedic Mantras.

1. "Supreme Spirit is the protector of all, and pervades and gives light to all bright things. He is called Indra or the glorious Mitra or the friendly, Varuna or the greatest and the best Agni or the adorable. Though one, Brahma (He) is called by the learned by many names, such as Agni (the adorable, Yama (the ruler) Matrishiva (the mighty). ( anejdekan manaso javiyo nainadadevaaaapannuvan poorvamarshat.- Yajurveda 40/4)

or the other words tell like this-

2. "This Universe and whatever it contains, living, and non-living is pervaded by the Almighty God." (sa no bandhurjanita sa vidhaata dhaamaani ved bhuvanaani vishva.- Yajurveda 32/10)

3. "Nothing, O Bounteous Lord, stands firm before thee, Among the Gods not one is found equal. None born or springing into life comes near Thee "Do what thou hast to do, exceedingly mighty one" (Indran mitran varunamagnimaahurato divyah sa suparno garutmaan, sadvipra bahudha vadantyagni yaman matrishvanamahu.- Rigved 1/164/46) (It means God is only one and our greatest Guru).

4. We prey to that Almighty God who is the Lord of the whole creation to protect and enlighten us. Let that God add to our wealth and ensure our lives, security and well being against adverse forces or Enveloped by the Lord must be this all each thing that moves on earth. With that renounce and enjoy thyself, Covet no wealth of any man covet no wealth of man.

5. He that Supreme Being is Brahma, Vishnu. Rudra, Shiva, He is the Eternal Transcendingent. He is the great king of kings. He is Indra, Kala, Agni and Chandrama.- (eesha vaasyaamidannk sarvan yatkinch jagatyaan jagatt.-Yajurveda 40/1)

6. Oh Glorious Master, neither there is nor shall be anyone like you either in heavens or on earth. We adore and worship you, that we may be possessed of horses, elephants and- milk supplying cattle who may serve us in diverse ways. Thus equipped with physical strength and knowledge we may pour forth-hymns of gratitude.(anuttama te maaghavannakirnu- Yajurveda 33/79)

7. "Before creation there was neither death nor immortality, no sign to tell the day from the night. There existed only the Supreme Being wrapped in his silent glory and unfathomable mystery without a stir of breath of life. There was nothing else, gross or subtle besides Him."(tam īśānaṁ jagatas tasthuṣas patiṁ dhiyaṁjinvam avase hūmahe vayam | pūṣā no yathā vedasām asad vṛdhe rakṣitā pāyur adabdhaḥ svastaye ||.- Rigveda 1/89/5)  

8. That "Parmatma" (i. e. Supreme Divine) is our nourisher, our supporter. He is the mighty 'Vayu' (wind) or the 'Aryama', the guide and leader of all. He is the chief among the Varuna. He is 'Rudra' (the holy judge of the Universe). He is Mahadeva (the mighty God. He is 'Agni' (the revealing Fire of knowledge and wisdom). He is the 'Sun' (the enlightener of creatures) Above all. He is Mahayama (the controller of people and dispenser of justice." (sa brahma sa vishnuh sa rudrass shivasoksharas paramah svaraat. sa indrass kaalaagnis chandramaah. kaivalaya upanishad 1/7)


9. "That 'Paramatma' (i. e. the Supreme Beings) Sees through and through all things and all being those who breathe as well as those who do not breathe. Nothing is beyond the ken of his vision. He is unique, sui generis and uncaused cause of the universe. All the gods (i. e. forces, natural or spiritual) are contained in Him as parts of an integral whole. (na tvaavaan anyo divyo na paarthivo na jaato na janishyate. ashvaayanto meghavannindr vaajino gvyantastva havaamahe - Atharvaveda 20/121/2)

Mantras such as those mentioned above will be found scattered in profusion throughout the Vedas. Those Mantras convincingly prove that the Vedas fully advocate Monotheism.

10. "Who by his grandeur hath become the sole Ruler of the moving world that breathes and slumbers, He who is Sovran of these men and-cattle-what God shall we adore with our oblation other than-Prajapati." (na mṛtyur āsīd amṛtaṁ na tarhi na rātryā ahna āsīt praketaḥ | ānīd avātaṁ svadhayā tad ekaṁ tasmād dhānyan na paraḥ kiṁ canāsa ||.- Rigveda 10/129/2)

11. "He who hath eyes on all sides round about him, a mouth on all sides, arms and feet on all sides, He the sole God, producing earth and heaven, weldeth them with his arms as wings together". (sa dhaata sa vidhart sa vaayurnabh uchchhrtam . Atharvaveda- 13/4/3-5)

12. "Mighty in mind and power is Visvakarman, Maker, Disposer, and Most lofty Presence. Their offerings joy rich juice where value one, only one beyond the Seven Rishis."(sa sarvasmay vi pashyati yachch pranti yachch na .- Atharvaveda 13/4/19-21)

13. "Father who made us, he who, as Disposer knoweth all races and all things existing Even he alone, the Deities' name giver , him other beings seek for information,  (yah praananato nimishato mahitvaikaidraaja jagato bbhuv. yaisheasy dvipaadashchuspadah kasmai devaay havisha dhidhem- Yajurveda-23/3)

14. "What time the mighty waters came containing the Universal germ: producing Agni, Thence sprang God's spirit into being, What God shall we adore with our oblation? What God shall we adore : or worship ? -(āpo ha yad bṛhatīr viśvam āyan garbhaṁ dadhānā janayantīr agnim | tato devānāṁ sam avartatāsur ekaḥ kasmai devāya haviṣā vidhema ||.- Rigveda 10/121/7)

15. "Whom in his might surveyed the floods enclosing productive force and generating Worship, He who is God amid Gods, and none beside him-What God shall be adore with our oblation? (vishvatshchakshurut vishvatomukho vishvatobaahuroot vishvatspat. san baahubhyaan dhamati san pattrairadyavaabhoomi jnayan devaekah.- Yajurveda 17/19)

16. "They blamed as victim on the grass Purusha born in earliest time. With him the Deities and all Sadhyas and Rishis scienced." (vishvakarmama vimanaaadvihaaya dhaata vidhaata paramot sandrik. teshaamishtaani samisha madanti yaatra saptarshin paraekamaahuh .- Yajurveda 17/26)

17. "There is no counter part of him whose glory verily is great. In the beginning rose 'Hirayagarbha ; etc. Let not him harm me, etc. than whom there is no other born, etc. " (aapo ha yad brhateervishvamayan garbhan dadhaana jnayantiragnim. tato devaana samavarttataasurekarah kasmai devaay havisha vidhem. -Yajurveda 27/25)

18. "This very God pervadeth all the regions; Yes, born a foretime, in the womb he dwelleth. He is verily born and to be born hereafter meeteth his offspring facing all directions. "(yashchidaapo maheena paryapashyad dakshin dadhaana jnayantiryagyam. yo deveshvadhi dev ek aseet kasmai devaay havisha dhidhem- Yajurveda 27/26)

19. "He hath attained unto the Bright Bodiless, woundless Sinewless, the pure which evil hath not pierced. Far sighted, wise, all-encompassing he the self-existent hath prescribed aims, as propriety demands, unto the everlasting years." (It means one pure God and that is 'Nirakar'.)- (tan yagyaan brharshi praukshan purushan jaatamagratah.- Yajurveda 31/9)

20. Lord of all earths, Lord of all mind, Lord of all speech thou Lord of speech entire. Heard by the Gods,--Caldron, divine, do thou, a God, protect the Gods, Here, after, let it speed you twain on to the banquet of the Gods. Sweetness for both the sweetness lovers! sweetness for those the twain who take delight in sweetness !" so, God is Almighty and only one". (na tasy pratimaaasti yasy naam mahadyashah. hiranyaagrbhaityesh ma ma hishaasidityesha yasmaann jaatatityeshah- Yajurveda 32/3)

21. In Rig Veda we again get the following to read. The learned and the wise describe and Imagine the one God using many forms and expressions, Speaking of Brahm (Him) as the Creator of all creatures. (esho ha devah pradisho nu sarvah poorvo ha jaatah sa u garbhe antah. sa ev jaatah sa janishyaamanah pratyan janaasthiti sarvatomukhah .- Yajurveda 32/4)

Yajur Veda tells us-

22. "He (means God) is one, He does not move, and yet is swifter than the mind; the senses (devas) cannot reach him, although he is already in them". 

(sa priyagachchhukramakaayamavrnamsnaavirashudhamapaapaviddham. kavirmanishi paribhooh svayabhooryaathaatathyatorthaan vyaadhadachchashvatibhyah samaabhyah.- Yajurveda 40/8)

23. "In the ten Mantras (Rig Veda, Mandal 10, Sukta 121, Mantras 1 to 10) we have incontrovertible evidence in support of the monotheism that is preached and taught by the Vedas. The first ten of these Mantras tell us that in the beginning there was God." He was the one Supreme creator of all created beings. It is difficult to understand that beginning means the beginning and not removed in time and space from that was the beginning".

24. In the Yajurveda  we again gel the same affirmation that the religion of the Vedas is only monotheism. There we (His children) take a view saying that "Unto that Great God alone shall we offer (our) prayers". (vishvasan bhuvan pit vishvasy manasaspate vishvasy vaachaspate sarvasy vaachaspate. devashruttvan devav gharm devo devavaan pahatr praaveeranu vaan devavitaye. madhu maadhaveebhyaan madhu madhuchibhyam .-Yajurveda 37/18)

In Rigveda Veda we read that "He is our father. Only the self-bigoted will refuse to accept that one can have only one father. (suparṇaṁ viprāḥ kavayo vacobhir ekaṁ santam bahudhā kalpayanti | chandāṁsi ca dadhato adhvareṣu grahān somasya mimate dvādaśa ||)- Rigveda 10/114/5

25. Yajurveda once again tells us that he is the master of all the worlds. We know it too well that the master does not mean some one who shares his master ship with any one else. (anejdekan manaso javiyo nainadadevaaaapannuvan poorvamarshat. taddhavatonyaanatyeti tishthatatsasminnapo maatarishva dadhaati - Yajurveda 40/4)

26. The Rig Veda advises us "O Indra (the glorious), there is none-superior to Thee".  (mā no hiṁsīj janitā yaḥ pṛthivyā yo vā divaṁ satyadharmā jajāna | yaś cāpaś candrā bṛhatīr jajāna kasmai devāya haviṣā vidhema ||- Rigveda 10/121/9)

27. The Atharvaveda says again that "Thou art the Greatest God of all". (sa nah pita janita sa ut bandhurdhaamaani ved bhuvanaani vishva. yo devaanaan naamadh ek ev tan sanprashnan bhuvana yanti sarva.- Atharvaveda 2/1/3)

28. Rig Veda tells us once again that among those who deserve our respects, Thou art the most respectable of all"-(mahām̐ asi mahiṣa vṛṣṇyebhir dhanaspṛd ugra sahamāno anyān | eko viśvasya bhuvanasya rājā sa yodhayā ca kṣayayā ca janān ||-Rigveda 3/46/2)

Any one who sets out to find for himself the religion of the Vedas is sure to come to the one and only one conclusion that the Religion of the Vedas is pure and unadulterated 'Monotheism'. Raja Ram Mohan Roy was a Hindu ; he believed in the Vedic Teachings and he was a stanch monotheist.

So Vedic Religion recognises one God It is a thoroughly scientific religion where religion and science meet hand in hand. The 'Vedas' recognise only one God. It is far from the truth to hold that Polytheisms and Diatheism are enunciated in the Vedas.

Mantras such as those mentioned above will be found-scattered in profusion throughout the Veda. Those Mantras convincingly prove that the Vedas fully advocate Monotheism. According to some Western Vedic Scholars such as Mr. Griswold and their Indian followers who blindly and uncritically tread the trail blazed by their foreign masters; Dayanandji's exposition and interpretation of the Vedas are utterly unscientific and fantastic. 

 This attempt to denigrate and debunk Dayanandji flows from Mr, Griswold and Co's gross ignorance and complete misunderstanding of terminology of the Vedas. It should be remembered that Maharshi Dayanand's exposition and interpretation of the Vedas are in conformity with the canons and methodology of ancient Pre-Sayana holy Vedic-commentors. We take the liberty of reproducing the following extract from the pen of Yogi-Sri Aurobindo which gives a shattering answer the wild and reckless charges made by Mr. Griswold-against Dayanandji.

"Such statements are far from the truth. The Vedas in clear and unambiguous terms say that the learned concentrate on the one, while the unlearned on many. The former designate the one by various terms such as Indra, Yama, Matariswa and Agni".(devo devānām asi mitro adbhuto vasur vasūnām asi cārur adhvare | śarman syāma tava saprathastame gne sakhye mā riṣāmā vayaṁ tava ||-Rigveda 1/94/13)

In answer of this the western scholars say that these Mantras which enunciate the existence of only one God, were somehow produced in the brains of the Aryans on a later date, or were taken over by the ignorant Aryan worshippers of Fire, the sun, the sky from the original inhabitants from those cultured, refined and talented pre-Aryan Dravidians. These speculations of western scholars are impertinently wild. They don't have even a medium of Vedic knowledge. In this connection it will not be out of place to quote a few lines from the writings of Edmond Holmes-

"The Western mind, as has already been suggested, is as a rule, debarred by the prejudices in which it has been trained from entering with sympathetic insight into ideas which belong to another world and another age. Not only does it end to survey these and the problem in which they enter, from stand, points which are distinctively western, but it sometimes goes so far as to assume that the western is the only stand point which is complete with mental sanity..." 

These western scholars study of the Vedas has been purely motivated by the desire of debunking and denigrating these-sacred scriptures. They would go to any length and resort to all possible means to achieve their objective. Further their statement that the Aryans borrowed the concept of monotheism from the Vedas in nothing but effusions of a-raving maniac. In the first place it is extremely doubtful if the Dravidians flourished in India before the Aryans, Secondly there are so far no extent evidences of the Dravidians attaining to a high level of philosophic and spiritual culture. The reason is that the inscriptions on the seals that were excavated from the ruins of the Sindhu have not yet been successfully deciphered and decoded. In the face of all these cogent arguments we are at a loss to make out how these western scholars could jump to a hasty conclusion on the basis of scholars meagre and shaky evidences.

They would fit their exposition and interpretation of the Vedas into procrustean frame work of their ingrained prejudices and Pre-conceived notions. For this reason they would read polytheism or Henotheism or folk love into the Vedas. Specially modern western scholars have been propagating the view that there "Brahma Vidya" (Conception of Brahma) has no place in the Vedas and that the development of "Brahmavidya" took place only in the Vedanta (or) the Upanishads)".(The Religion of the Rigveda by Griswold, p. 109-110)  Some scholars again hold the view that the Vedas embody the doctrine of Pantheism "Pantheism is the doctrine that God is all and all is God".

All this leads to the inescapable conclusion that God is one. There is no second, third, fourth, fifth, sixth and seventh etc. But he is one without a second there is no one besides him. (Bankim, Tilak, Dayananda, by Sri Aurobindo, p.p.55-56 third Sec, reprint, 1955. The Vedas are the imperishable treasure house of all the Truths. Vidyas and knowledge, Sciences, Rig is just like guide line-of character building.)

 It is the power of the Supreme Being that all gods such as Vasu in this world and other heavenly bodies are kept in being and in whom they are merged during the Pralaya (Dissolution) and become part and parcel of his being. Mantras conveying this idea are to be found in plenty in the Vedas".(See the philosophy of the Upanishads by Sir S. Radhakrishnan-Introduction)

So long as lakhs of people are hungry and ignorant, I consider every person who has been educated with their strength ungrateful; let all educated Aryans realise the truth of this statement. Om ! Heaven! Brahma ! On Heaven! Brahma !!

Concluding, we take the liberty of quoting the following lines from the writings of Sri Aurobindo, which have a direct bearing on the issues we have discussed above: ((The conception of Brahman which has been the highest glory for the Vedanta philosophy of later days had hardly emerged in the Rigveda from the association of the sacrificial mind. By S. N. Das Gupta. "A History of Indian Philosophy Vol. 1. p. 20)

"The oldest traditional interpretations by Yaska, Skandaswami, Durga, Udgitha, Venkata. Madhana, Ananda Tirtha Madhava etc, all accept the principle of a triple meaning to be found in the Riks. The traditional pre Sayana interpreters of the Veda never considered the question of Vedic interpretation a settled one.

The triple meaning admitted by all scholars of traditional commentators of course before Sayana are (i) Adhibhautika or most outward and sacrificial or ceremonial sense, (2) Adhidaivika or that which applies to the cosmogony, the universal realm of law and order and (3) Adhyatmika or the Spiritual the erotetic sense applicable to man's inner life in its approach to the transcenderate the greatest drawback of Sayana interpretation is his complete omission of the principle of the triple interpretation of the warranted, by tradition and the consequent binding down of the Riks to their most external exoteric sense. The European scholars started with this initial error of Sayana and have therefore not the least chance of arriving at the esoteric sense of the Riks if any". (p. 387 by Patrick (Revised Edition).

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Tuesday, October 22, 2024

ईसाइयत कैसे फैली?


 


ईसाइयत कैसे फैली?

-अमर हुतात्मा स्वामी श्रद्धानन्द

 [स्वामी श्रद्धानन्द जी ने एक पुस्तक लिखी थी । नाम था – Hindu Sangathan — Saviour of a Dying Race ( हिन्दू संगठन – एक विनाशोन्मुख जाति की रक्षा का उपाय ) । उसी - दुर्लभ पुस्तक के कुछ महत्त्वपूर्ण अंशों को यहां दे रहे हैं।स्वामी जी ने यह पुस्तक इतिहास के अनेकानेक ग्रन्थों का गहरा अध्ययन करने के बाद लिखी थी । पुस्तक पढ़कर उन हथकंडों का सजीव चित्र आंखों के सामने खिंच जाता है, जो  ईसाइयों ने अपने मत के प्रसार के लिए अपनाये।स्वामी जी ने अपील की थी कि हिन्दू संगठित हों और अपने बिछड़ भाइयों को पुनः गले लगायें ।]

ईसाइयत द्वारा जबर्दस्ती धर्म-परिवर्तन

भारत में सर्वप्रथम आने वाले ईसाई पादरी, जिन्होंने पूरे जोश से ईसाई बनाना शुरू किया, जेस्युइट लोग थे । यूरोपियनों में पुर्तगाली या ओलन्देज लोग ही सर्वप्रथम थे, जो वास्को-द-गाना के पथ प्रदर्शन में दक्षिणी भारत में उतरे थे और जिन्होंने सारे मलाबार तट पर अधिकार कर लिया था । ईसाइयत को मानने वाले कुछ आदमी उसे मिले, परन्तु इनकी ईसाइयत में इतनी अधिक बुतपरस्ती मिली हुई थी कि उस समय का ईसाई शासक कांप गया और उसने फ्रेन्सिस्कन पादरियों को भेजा, जिससे उसकी मूर्तिपूजक प्रजा में सच्चे धर्म का फैलाव हो सके । भारत में सर्वप्रथम आने वाले ईसाई पादरी जेस्युइट लोग थे । "जेस्युइट्स, एक पूरा इतिहास" शीर्षक के महवत्त्पूर्ण ग्रन्थ में जर्मन राजनीतिक पत्रकार थियोडोर ग्रि सिंगार ने भारत में रोमन कैथोलिक ईसाई पादरियों के सम्बन्ध में एक स्पष्ट वर्णन किया है । इस सहजगम्य ऐतिहासिक ग्रन्थ का जर्मन भाषा से अंग्रेजी में अनुवाद श्री ए. जे. स्मिथ, एम० डी० ने किया है । यह पुस्तक इण्डिया आफिस, लन्दन के प्रकाशक डब्ल्यू० ऐच० ऐलन एण्ड कम्पनी ने सन 1912 में प्रकाशित की है। इसी पुस्तक में से बहुत से उद्धरण दूंगा ।

"इस तरह के काम के लिए फ्रेफ्न्सिस्कस बहुत असफल सिद्ध हुए । मालूम हुआ कि धर्मपरिवर्तन या मूर्तिपूजकों के प्रति कार्य करना उनके बस की बात नहीं, यद्यपि गवर्नर वाइसराय अल्फान्सो अल्बुकर्क ने फोजी ताकत की सारी संगीनें उनकी मर्जी पर छोड़ दी थीं। भारतीय वैसे के वैसे ही रहे और अपने देवताओं की अपने पिताओं तथा पूर्वजों की रीति से पूजा करते रहे। यद्यपि कुछ थोड़े-से फौजी दबाव से पोप के अनुयायी बन गये थे, परन्तु जनता का अधिकतर हिस्सा ब्रह्मा और विष्णु की उपासना में ही लगा रहा । "

यह हालत देर तक नहीं सही जा सकती थी और पुर्तगाल के जान तृतीय, जो 1521 से 1557 तक राज्य करता रहा, इससे बेचैन हो गया और उसने सोचा " उसके नये प्राप्त किये हुए प्रदेशों के निवासी सच्चे पुर्तगाली प्रजाजन नहीं बन सकते, जब तक वे उसी क्रॉस के सम्मुख दण्डवत् न लेटें, जिसके आगे पुर्तगाली घुटने टेकते हैं ।" इस काम के लिये फ्रान्सिस जेवियर सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति था, क्योंकि उसमें धर्मपरिवर्तन का जोश दूसरे सब विचारों को जीत लेता था। वह भारत में आया। उसके साथ पोप की आज्ञायें भी आईं जिनसे उसे सम्पूर्ण भारत में रोम के पोप के प्रतिनिधि की स्थिति मिल गयी तथा एशियाई देशों में पुर्तगाली अफसरों के ऊपर सम्पूर्ण व्यावहारिक प्रभाव डालने का अधिकार मिल गया । अन्त में एक तीसरे फरमान द्वारा बादशाह जान तृतीय ने आशा अन्तरीप से गंगा तक के सब बादशाहों, राजाओं और सरकारों से उसकी विशेष सिफारिश की थी।"

फ्रान्सिस जेवियर 6 मई 1542 को गोआ में उतरा यद्यपि शाही साजो- सामान तथा राजकीय भवन उसकी इच्छा पर शहर के गवर्नर ने छोड़ दिये थे, परन्तु उसका ख्याल सबसे पहले स्वयं अस्पताल पहुंचने का हुआ, जिससे स्वयं बीमारों की देख-रेख कर सके और उसकी अपनी देख-रेख लायक साधन जनता के दान से एकत्र हो सके। "कुछ या बिल्कुल नहीं, जो कुछ भी इस ढंग से किया जाये, वही उसका असली उद्देश्य था और इसलिये जेवियर ने उस स्थान के पादरी की मदद चाही परन्तु एक दूसरी दिक्कत सामने आ बड़ी हुई। जेवियर ने उनसे क्या कहा उसका एक शब्द भी मूर्ख बाशिन्दे समझ न पाये और इस्राईल ने उसे किसी प्रकार की सहायता न पहुंचाई।

इस पर जेवियर ने हिन्दुस्तानी पढ़नी शुरू की । साथ ही साथ होली पाल का कॉलेज स्थापित किया और वाइसराय की फौजी सहायता से उसने गोआ के पास के मूर्तिपूजकों के मन्दिरों को उखड़वा डाला और उनकी बहुत सी सम्पत्ति को नये कालेज के उपयोग और लाभ में लगा दिया।"

"इसके बाद जेवियर सम्पूर्ण मलाबार में प्रचार-यात्रा पर चल दिया । उसने अपने साथ एक घण्टा ले लिया, जिसके साथ सुसज्जित होकर वह दिनदहाड़े उसे बजाता हुआ गलियों में भागता था। जब तक उत्सुकता से प्रेरित होकर बच्चों तथा दूसरों की टोली ठट्ठा तथा हंसी करती हुई उसके पीछे तक लग जाती थी। जब उसे इस प्रकार काफी गिनती में श्रोता मिल जाते थे, तब वह एक बड़े पत्थर पर खड़ा होकर लेटिन, स्पेनिश, इटालियन और फ्रेंच भाषाओं के टुकड़ों से मिली हुई देश की भाषा में दोनों हाथों तथा पैरों को विचित्र ढंग से हिलाता हुआ उपदेश देता था। आखिर में वह एक बड़ा क्रास निकालता था, जिसे वह बड़ी भक्ति से चूमता था और भीड़ से यही करने की प्ररेणा करता था । जो कोई यह कर लेता था उसे वह एक सुन्दर गुलाब का फूल भेंट में देता था। वह हजारों गुलाब के फूल पुर्तगाल से लाया था । यह उसके तरीके का पूर्वार्ध ही था। उत्तरार्ध अधिक प्रभावशाली था। वह सरकार से मांगी हुई पुर्तगाली फौज की मदद से देशी लोगों के मन्दिरों को तुड़वा डालता था और उनके स्थान पर सूली पर चढ़े ईसा मसीह की मूर्ति के साथ ईसाई गिरजे बनवा देता था और उनके पड़ौस में बांसों की एक सुन्दर इमारत बच्चों की शिक्षा के लिये बनवा देता था और उन्हें ईसाइयत के सिद्धान्तों से परिचित कराने के स्थान पर वह उन्हें प्रभु की प्रार्थना मन्तव्य के साथ पढ़ाता था और उन्हें समझाने की कोशिश करता था । अन्त में विनयपूर्वक उनकी बांहों से क्रास छुआता था ।"

इन्हें बप्तिस्मा लिये मान लिया गया, परन्तु यह सिलसिला बहुत धीमे चला । जेवियर ने अपने गुरु ( जेस्युइटवाद के संस्थापक) इगनातिन लियोला से और अधिक सहायक मंगाये । 20 से अधिक सहायक भेजे गये और अब जेवियर के लिये इकट्ठे ईसाई बनाने का काम सरल हो गया।

अगले छः सालों में जिन-जिन स्थानों में पुर्तगाली झण्डे की हकूमत थी, वहां छोटा या बड़ा स्कूल कायम हो गया। धर्म-परिवर्तन का मुख्य अखाड़ा गोआ का कालेज रहा, जहां यूरोप से सहायकों के आने पर जेवियर ने फौजी ताकत से हिन्दू सभ्य समाज के 120 लड़के इकट्ठे कर लिये, जिससे वे भविष्य में अपने देशवासियों को ईसाई बना सकें । पुर्तगाली संगीनों ने तथा उनसे भी अधिक इनके भय ने इस दिशा में बहुत परिणाम दिखलाये ।

इस तरीके से जो ईसाई बनते थे " वे मन्तव्य को दोहरा सकते थे। मामले के सम्बन्ध में कुछ जानकारी सीख सकते थे, जिससे वे जलूसों में भाग लेते थे और दूसरे बाहरी समारोहों में हिस्सा ले सकते थे । परन्तु जब ईसाई पादरी उस जगह से विदा हो जाते थे ,तो ब्राह्मणों को उन आदमियों को पुराने धर्म में जिस में वे पाले और पोसे गये थे, लेने में कोई दिक्कत नहीं होती थी। यह वास्तव में उनको बेचैन करने योग्य उन्माद रोग था। जेवियर का एक साथी औटोन क्रिमिनल, जिसने कन्या कुमारी में ईसाई बनाये थे, इस पर ब्राह्मणों के विरुद्ध बहुत कुद्ध हो उठा कि उसने उन पर बहुत ही पाशविक अत्याचार किये । इस पर हताश होकर इन अपराधी और गोआ के गवर्नर से प्राप्त कुछ सिपाहियों के विरुद्ध उन्होंने मदद की पुकार मचायी। ये जनता के उस श्रेणी के आदमी थे, जो अल्पमत वाले पुर्तगालियों की अधीनता में नहीं आये थे। परिणामतः एक लड़ाई हुई जिसमें अपराधी सब पुर्तगालियों के साथ मार डाले गये । इसी समय लंका में काण्डी के राजा को अपनी बांहों में क्रॉस लेकर जेवियर की आज्ञा से जबर्दस्ती हथियारों के दबाव से ईसाई होने के लिये बप्तिस्मा लेना पड़ा । उसके सरदारों और सूबेदारों को आदेश दिया गया था कि यदि वे बप्तिस्मे की कार्रवाई में अड़चन डालेंगे, तो उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली जायेगी। ईसाइयत में हजारों को इस तरीके से प्रतिदिन लेना बड़ा आसान था।"

" इसके बाद कुछ समय तक कोई पादरी अपनी कारिस्तानी दिखाने नहीं आया । ब्राह्मणों ने कड़े मुकाबले से अपनी स्थिति मजबूत नहीं की अपितु बहुत बुरा असर हुआ, क्योंकि फ्रान्सिस जेवियर ने मौके का लाभ उठा कर स्पेनिश इन्क्विजिशन (पोप के विरोधियों का विचार करने का विचारालय) के ढंग पर एक धार्मिक न्यायालय कायम कर दिया। इस पर बिना किसी विरोध के इसी का प्रभुत्व था। पुर्तगाली हथियारों की मदद से ईसाइयत के प्रचार में किसी तरह की बाधा पैदा करने वाले या बप्तिस्मा लेने वाले देसी लोगों को दुबारा उनके पुराने मूर्ति पूजक धर्म में लेने वालों के विरोध में अत्यन्त भयंकर अत्याचार करने लगा। इस तरह से असंख्य ब्राह्मण और खास तौर से उनमें धनी व्यक्तियों ने जल्लादों के हाथों अपनी जानें गंवा दीं या समाज के लाभ के लिये सम्पत्ति के छीने जाने के डर से वे राज्य से निकाल दिये गये। वास्तव में स्त्री स्वभाव के हिन्दुओं पर दबाव डाला गया कि वे इन्क्विजिशन की कैद से परिचय प्राप्त करने के स्थान पर बप्तिस्मा ले लें अथवा धीमी आंच पर जिन्दे भूने जाने का खतरा उठायें ।

"परिणामस्वरूप सभी उपयुक्त स्थानों पर जेस्युइट कालेज खड़े हो गये जिन्हें कत्ल किये गये या नष्ट किये गये नास्तिकों की सम्पत्ति से मजबूत बनाया गया । और भी अधिक गिनती में गिरजाघर बनाये गये और क्योंकि अब सैक्सन्स के विरुद्ध चार्ल्स महान के क्रूर व्यवहार को उदाहरणस्वरूप रख कर मानो जेस्युइट्स ने मूर्तिपूजकों के मन्दिरों को आग और तलवार की मदद से नष्ट करने में झिझक छोड़ दी हो।"

ईसाइयत की क्रूरताओं के दृष्टान्त अधिक देना व्यर्थ है। ईसाइयत का सम्पूर्ण इतिहास शान्ति के देवदूत के अनुयायियों द्वारा इन्क्विजिशन तथा गिलोटीन ( फांसी का यूरोपियन संस्करण) के माध्यम से मानवता पर की गयी तबाही के खेल से भरा पड़ा है ।

ताकत के अतिरक्त अन्य साधनों से ईसाइयत का प्रचार

ताकत द्वारा ईसाइयत के खून जमाने वाले विवरण में पहले ही दे चुका । मुझे विश्वास है कि वे आसानी से खिलजी, औरंगजेब और टीपू सुल्तान के अत्यधिक धर्मान्ध कारनामों की तुलना भी आसानी से कर सकते हैं। अब मैं विश्वस्त अधिकारी व्यक्तियों के प्रमाणों से सिद्ध करूंगा कि मुसलमान साथियों की तुलना में जेस्युइट धर्मप्रचारक कपट के क्षेत्र में भी बाजी मार गये हैं । अपने विचार को सिद्ध करने के लिये मैं थियोडर ग्रिसिंग के कुछ उद्धरण दूंगा-

"पूर्वी भारत में पुर्तगालियों के अधीन जो कोई भी महत्त्वपूर्ण स्थान हुआ, वहीं जैवियर ने ईसाई धर्म प्रचारकों का रास्ता साफ कर दिया । कालेज, निवास स्थानों और प्रचार केन्द्रों आदि के नाम पर जेस्युइट बस्तियों की स्थापना की गयी । ये लगातार बढ़ती गयीं । लोयाला के लड़के के लिये इस काम में सफलता पाना बड़ा आसान था, क्योंकि राजा के आदेश से पुर्तगाली गवर्नर इन धर्मप्रचारकों के हाथों में खेलते थे और दूसरे किसी विरोध को वे स्पेनिश धार्मिक न्यायालयों की स्वयं स्थापना कर आसानी से दबा सकते थे । प्रत्येक जगह प्रचार केन्द्रों की संख्या बढ़ाना भी मुश्किल काम न था । जहां कहीं भी पुर्तगाली या दूसरे यूरोपियन लुटेरे गये वहां जेस्युइट धर्म प्रचारक भी बढ़ते चले गये और बहुत सरल तरीकों से ईसाइयत की जातियों को बनाने के लिये अपने पैर मजबूती से जमा लिये। तो ये सरल तरीके क्या थे? इसके सिवाय दूसरा तरीका नहीं था कि ये धर्मप्रचारक भारतीय पुजारियों या ब्राह्मणों के भेस में जाते थे जिससे कि वे देसी लोगों के समान गुजर सकें। 

उनमें से एक का नाम पीटर कांस्टेंटिनो बेसची था, जिसने हिन्दुओं की भाषा और संस्कृत का सावधानतापूर्वक अध्ययन किया था। यह हिन्दुओं के रीतिरिवाजों और तरीकों तथा ब्राह्मणों के जीवन क्रम को इतने ठीक रूप से नकल करता था कि दक्षिण के लोग, जिनमें वह अधिक समय से रहता था, वास्तव में ही उसे एक संत के समान पूजने लगे। इस काफिरों के स्वर्ग में वह देसी भाषा में लोकप्रिय कवितायें भी करता था, जिनसे वह सब मुल्कों में पूजा जाने लगा।

दक्षिण के शासक ने इस भरोसे से कि वह सच्चा ब्राह्मण है, उसे दरबार का मुख्य दरबारी अफसर, (मंत्री) बना दिया और कान्स्टेंटिनो बेसची ने गलती को बचाने की तकलीफ बिल्कुल नहीं उठायी। इसके विपरीत इस मान्य पीटर ने इस समय से सम्पूर्ण यूरोपियन रीति-रिवाजों और परम्पराओं को त्याग कर सुन्दर पूर्वी पोशाक पहननी शुरू कर दी, कीमती साज वाले घोड़े पर सवार हो वह सार्वजनिक रूप से निकलने या गुलामों से उठायी जाने वाली पालकी में बैठने लगा । इसके साथ सदा कुछ घुड़सवार साथी होते थे जो कि इस बड़े आदमी का रास्ता साफ करते जाते थे । साथ ही उसके आने तथा जाने का तुरही मे ढिंढोरा पीटते थे। किसी को यह ख्याल न था कि वह असल में एक यूरोपियन है अथवा बप्तिस्मा लिया हुआ कोई ईसाई है । वह अपने अन्तिम दिनों तक जेस्युइट ही बना रहा और उसके संघ के साथी भी उस पर कम नाज न करते थे । सुयोग्य पीटर बरथेलिमी डकोस्टा का दूसरा उदाहरण मैं यहां उपस्थित करना चाहता हूं। यह बिल्कुल विभिन्न चरित्र का व्यक्ति था। वह देश व समाज के उच्च श्रेणी के व्यक्तियों के पास बहुत कम जाता था, परन्तु वह जनता की सबसे निचली तलछट में घुले रहना अधिक पसन्द करता था । सम्भवतः प्रधान मंत्री और वजीरे आजम कांस्टेंटिनो बेसची की न्याई निस्सन्देह उसका भी वही उद्देश्य और आशय था । वह समाज की बदनाम वेश्याओं और नर्तकियों के कोठों पर गया और वह बयोदेरों की झोंपड़ियों में गया । उसे अच्छी तरह पता था कि वे हर समय हर दिन प्रेम के देवता को रिझाने में लगे रहने से पुरुष जाति को प्रभावित कर सकते हैं, इसलिये असने उनके साथ बहुत अच्छे सम्बन्ध बना लिये । वह उनके साथ जाकर खेलता नाचता था और शराब पीता था। इन सब तरीकों से वह उनका सब से प्रिय मित्र और विश्वासपात्र बन गया । वे दीन प्राणी उससे खूब खुश थे। उन्होंने उसके हाथों ही स्वर्ग के रास्ते पर चलना निश्चय किया, जिसने कि सारा मामला बहुत आसान कर दिया था। ईसाइयत का मजहब स्वीकार करने में उन्हें एक ही बाधा दिखाई देती थी । पादरी उस व्यवसाय को पापमय जुर्म कहते थे जिस पर वे जिन्दगी बिताते थे । परिणामस्वरूप उनके बप्तिस्मे के धर्मानुष्ठान को करने का समय तो क्षण प्रतिक्षण टलता ही जाता था । इस पर उस योग्य धर्मपिता ने क्या किया ? 

उसने उन्हें शिक्षा दी कि वे किसी प्रकार का पाप किये बिना हो ईसाई चर्च को सौंप दें तथा सब अवसरों पर जो उनकी मोहिनी शक्ति से उनके बस में है, उन्हें ईसाई बनाने की कोशिश करें। इन तथा इसी तरह की दूसरी रीतियों से जेस्युइट लांग सम्पूर्ण भारत में धीमे-धीमे घुस गये और जब तक पुर्तगाली हकूमत बची रही, वे देश के असली शासक बने रहे अथवा यह कहना ठीक होगा कि उन्होंने इस अनन्त प्रदेश को स्वेच्छापूर्वक लूटने में खुली छूट पायी। वे ईसाई बनाते थे, कालेज और छात्रावासों की स्थापना करते थे, क्योंकि उन्हें पुर्तगाल के राजा बहुत ही अधिक प्यार करते थे।"

1886 ई० के जुलाई मास के थियोसोफिस्ट में भारत में जेस्युइट लोगों के कारनामों और ईसाई बनाने के उत्साह का वर्णन कर एक लेखक उनके कार्यों के परिणाम का सारांश इस तरह रखता है-

"1558 में जेवियर की मृत्यु के समय भारत के दोनों किनारों पर विभिन्न प्रचार केन्द्रों में 200 जेस्युइट कार्य कर रहे थे। कुछ ही सालों में हिन्दू मन्दिरों के ध्वंसावशेषों पर उन्होंने शाही गिरजाघर खड़े कर दिये थे । इसके अतिरिक्त उन्होंने नये ईसाइयों के लिये धार्मिक स्कूलों की स्थापना की । परन्तु वे इंजील के बुरे शिक्षक थे । डाक्टर टामस मैकरी कहते हैं कि पवित्र ईसा का नाम बहुत बुरे कार्यों में आया जब वह उस समाज पर थोपा गया जो 'विनीत और निम्न' था। यह ईसा की वास्तविक भावना और चरित्र के विरुद्ध था । जेस्युइट लोगों ने अपने फायदे के लिये एक बिल्कुल नया आचार-शास्त्र गढ़ लिया था । दैवी कानून के स्थान पर उन्हें अपने चरित्र का अनुकरण करना, अपने बड़ों का आंख मूँद कर आज्ञापालन, जिसे वे परमात्मा के स्थान पर स्वीकार करने को बाध्य हैं और उनकी आज्ञाओं का पालन करते हुए अपनी इच्छाओं को मृत लाश या बूढ़े आदमी की टेक समान छोड़ देना होगा। नवयुवकों के शिक्षक के नाते वे सावधानी बरतते थे कि मानव ज्ञान का क्षेत्र कम से कम विस्तृत किया जाये, क्योंकि वह उनके धर्मप्रचार के प्रभुत्व के लिये खतरनाक सिद्ध हो सकता था । इसलिए उन्होंने अपने शिष्यों को साहित्यिक अध्ययन तक ही सीमित रखा, जो अन्धकार युग के पक्षपात को कम किये बिना उन्हें प्रसन्न रख सकता था । धर्मप्रचारकों के नाते वे सब देशों को बप्तिस्मा देने की मेहनत में अधिक परिश्रमी रहे - बनिस्बत इसके कि वे इंजील की शिक्षा देते । हिन्दुओं और मुसलमानों को ईसाइयत में बहका लाने के लिये उन्होंने सब उपायों का आसरा लिया और तमिल तथा दूसरी भाषाओं में पर्चे व पुस्तकें प्रकाशित कीं। यह उस समय की हालत थी जब बादशाह अकबर ईसाइयत के बारे में अपनी जिज्ञासा पूरी कर रहा था और उसने 1582 में अपने दरबार में जेस्युइट लोगों को बुलाकर उनसे ईसा की जीवनी के बारे में पूछा था । कपटी पादरियों ने यह सोच कर कि उसकी पूर्वी कल्पना को लुभाने के लिए सरल जीवन आकर्षक न होगा, उन्होंने बादशाह को हिन्दुओं के पुराणों के समान दन्तकथाओं से भरी ईसा की झूठी जीवनी सुनाई। पर यह चालाकी मात दे गयी। अकबर ने कपट को पकड़ लिया और उन्हें दरबार से विदा कर दिया । इस तरह से वे देशी लोगों से इंजील की विशेषताओं को छिपा कर रखते थे । वे जनता के भद्दे सिद्धान्तों से मेल करने का प्रयत्न करते थे । यही काफी न था। वे रोम से कल्पित सन्तों के सिर और कपाल लेते थे। साथ ही चालाकी से वे इन मारक चिह्नों के करतबों तथा कारनामों को सर्वत्र फैला देते थे । इन्हें स्वर्ग से आश्चर्यजनक रूप से हिलाया जा रहा है । कोरोमंडल किनारे पर मलियापुर में एक कब्र को फलपूर्वक सेन्ट टामस की समाधि बताया जाने लगा । साथ ही हवाला दिया जाने लगा कि ईश्वर दूत सिन्धु को पार कर कर्णाटक तक दक्षिण में पहुंच गया था और वहां शुभ समाचार सुना कर शहीद हो गया था । इस तरह के सन्तों की हड्डियों से वे शैतानी से हास्यजनक लड़ाइयां लड़ते थे और अशिक्षित जनता की आंखों में धूल झोंकते थे । भारत की जनता को ठगने के लिए इन चतुर पादरियों ने कितने अनगिन चालबाजियों कीं, इनकी गणना के लिये एक बड़े ग्रन्थ की जरूरत होगी ।