Wednesday, April 26, 2023

क्या वास्तु पूजा वैदिक है?


 


क्या वास्तु पूजा वैदिक है?

-प्रियांशु सेठ

पौराणिक समाज में प्रायः हम यह देखते हैं कि 'वास्तु पूजा' घर-मकान, इमारतें, फैक्टरी, दुकान इत्यदि के सम्बन्ध में पूजा कराए जाने में प्रचलित है। उनकी यह मान्यता है कि वास्तु शास्त्र से घर, दुकान आदि पर लगे दोष या ऊपरी शक्ति (जादू-टोना-टोटका) या दुकान पर आने वाला कोई खतरा खत्म होकर टल जाता है इत्यादि। सर्वप्रथम तो हम यह बता दें कि कोई जादू-टोना-टोटका जैसा शक्ति नहीं होता, यह पोपजनों ने लोगों को मूर्ख बनाकर अपना पेट भरने का धंधा बना रखा है। यदि वास्तव में ऐसा कुछ है तो पोपजी मेरे कुछ प्रश्नों के उत्तर दें-

१. आप अपने अलमारी में कीमती सामान रखकर घर और अलमारी का ताला खुला छोड़ दीजिये। अब कुछ देर के लिए घर से कहीं दूर घूमने चले जाएं, अब आकर देखें कि अलमारी में कीमती सामान गायब हुए हैं या नहीं?

यदि गायब हुए तो क्यों? पोपजी का वास्तु पूजा तो खतरे को टालता है न!

२. जब किसी नए मन्दिर का निर्माण होता है तो उसमें वास्तु नहीं देखा जाता। तो क्या उसमें दोष नहीं होता है? यदि पोपजी यह कहें कि वहां तो भगवान का वास है तो क्या ईश्वर कण-कण में विद्यमान नहीं है? है न! तो फिर जमीन, मकान, दुकान आदि में दोष कैसे?

ऐसे तो पोपजी ईश्वर को ही दोषपूर्ण बता रहे हैं।

३. ऊपरी शक्ति (जादू-टोने-टोटके) को लेकर लोगों का कहना है कि आपके दुकान या घर पर कीमती सामान, रुपये-पैसे इत्यादि को नजर न लगने पाये इसके लिए मुख्य द्वार पर निम्बू-मिर्च लटकाये तो नजर नहीं लगेगा।

ऐसी बचकानी हरकतों से ही आज समाज की दुर्गति है। लोग अपने बुद्धि का प्रयोग नहीं करते बस! सुनी-सुनाई बातों पर आंख-बंद करके भरोसा कर लेते हैं। यदि आपसे कोई कह दे कि चूहे को लड्डू खिलाओ मोक्ष मिल जाएगा तो आप यही करने लगते हैं, अस्तु!

यह बताइये कि नजर का क्या कार्य है, देखना या लगना? यदि लगता है तो पोपजी वास्तु पूजा के साथ-साथ वास्तु दोष पर भी लगा कर दिखाओ? हम भी तो वास्तविकता देखें।

वास्तुपूजा क्या है?

सर्वप्रथम हम पूजा के सही अर्थ को जान लेते हैं:- "पूजनं नाम सत्कार:" अर्थात् यथोचित व्यवहार करना, पूजा कहलाता है।

भूखा बालक जब भूख के कारण भूख-भूख चिल्लाता है तो मां कहती हैं कि दो मिनट रुक, तेरी पेट-पूजा करती हूँ।

अब आप बताइये कि क्या मां उसके पेट को अगरबत्ती दिखाएंगी, पेट की आरती करेंगी? नहीं न! भोजन खिलाएंगी न. अर्थात् यथोचित व्यवहार करना या सेवा करना पूजा कहलाता है।

वास्तुपूजा:-

वस्तु से सम्बंधित पूजा, पूजा अर्थात् यथायोग्य उपयोग लेना, वास्तु के अंतर्गत इमारतें आदि बनाने की कला= आर्किटेक्चर (architecture) वस्तुओं को व्यवस्थित रखने, सुविधानुसार, सही प्रकार से प्रयोग करने आदि का विज्ञान आता है। पाठकगण! ध्यानपूर्वक पढ़ेंगे- "सुविधानुसार" लिखा है...। वस्तुओं को व्यवस्थित रखने का अर्थ "दिशाओं के बारे में आग्रह करना नहीं अपितु अपनी सुविधा देखना चाहिए।

अब सुविधा किस प्रकार की होने चाहिए कुछ उदाहरण देता हूँ:-

१. घर में यज्ञशाला अवश्य होना चाहिए क्योंकि यज्ञ करने से वातावरण शुद्ध होता है। वेदमन्त्रों का नित्य रूप से पाठ हो और उसकी ध्वनि घर के प्रत्येक स्थान पर गुंजायमान हो। इससे दरिद्रता और अज्ञानता का नाश होगा और ज्ञान की वृद्धि होगी जिससे मनुष्य का कल्याण सम्भव है।

२. घर बन्द-बन्द (पैक) न होकर खुला-खुला होना चाहिए जिससे स्वच्छ वायु घर में निरन्तर आता रहे और यह घर विस्तृत भूमि पर बनाया जाए। जहां सूर्य का प्रकाश आना चाहिए जिससे अच्छे स्वास्थ्य की प्राप्ति भी हो।

३. अतिथि के ठहरने के लिए पर्याप्त स्थान और उचित प्रबंध भी होना चाहिए, सभी प्रेमपूर्वक होकर रहें। घर के बुजुर्ग सदस्यों का अपमान न करें क्योंकि यह मत भूलियेगा "बूढ़ा पेड़ फल दे या न दे, छाया अवश्य देता है।" घर में गाय तो विशेष रूप से होना चाहिए।

४. शौचालय घर के पीछे वाले भाग में हो। यदि आगे ही रहेगा तो कीटाणु फैलेंगे और परिवार को रोग से ग्रस्त करेंगे।

५. घर में सुगन्धित, रोगनाशक, पुष्टिकारक पौधे या वृक्ष होने चाहिए; जैसे- नीम, तुलसी, गिलोय आदि।

वेद में इसके सम्बन्ध में क्या आज्ञा है?

वेद में घर बनाने के सम्बन्ध में यह उपदेश है:-

भूताय त्वा नारातये स्वरभिविख्येषं दृँहन्तां दुर्या: पृथिव्यामुर्वन्तरिक्षमन्वेमि।

पृथिव्यास्त्वा नाभौ सादयाम्यदित्याऽउपस्थेऽग्ने हव्यँ रक्ष।। -यजु० १/११

इस मन्त्र में ईश्वर ने मनुष्यों को आज्ञा दी है कि "हे मनुष्य लोगों! मैं तुम्हारी रक्षा इसलिए करता हूँ कि तुम लोग पृथिवी पर सब प्राणियों को सुख पहुंचाओ तथा तुम को योग्य है कि वेदविद्या, धर्म के अनुष्ठान और अपने पुरुषार्थ द्वारा विविध प्रकार के सुख सदा बढ़ाने चाहिए। तुम सब ऋतुओं में सुख देने के योग्य, बहुत अवकाशयुक्त, सुन्दर घर बनाकर, सर्वदा सुख सेवन करो और मेरी दृष्टि में जितने पदार्थ हैं, उनसे अच्छे-अच्छे गुणों को खोजकर अथवा अनेक विद्याओं को प्रकट करते हुए फिर उक्त गुणों का संसार में अच्छे प्रकार प्रचार करते रहो कि जिससे सब प्राणियों को उत्तम सुख बढ़ता रहे तथा तुम को चाहिए कि मुझको सब जगह व्याप्त, सब का साक्षी, सब का मित्र, सब सुखों को बढ़ानेहारा, उपासना के योग्य और सर्वशक्तिमान् जानकर सब का उपकार, विविध विद्या की वृद्धि, धर्म में प्रवृत्ति, अधर्म में निवृत्ति, क्रियाकुशलता की सिद्धि और यज्ञक्रिया के अनुष्ठान आदि करने में सदा प्रवृत्त रहो।

स्मृतियों में भी लिखा है:-

यस्यैकाऽपि गृहे नास्ति धेनुर्वत्सानुचारिणी।

मङ्गलानि कुतस्तस्य कुतस्तस्य तमः क्षयः।।

यन्न वेदध्वनिश्रान्तं न च गोभिरलंकृतम्।

यन्न बालैः परिवृत्तं श्मशानमिव तद्गृहम्।। -अत्रिस्मृति २२०,३१३

भावार्थ:- जिस घर में बछड़े से युक्त एक भी गाय न हो उस घर में मङ्गल कैसे हो सकता है और उस घर के तामस भावों का क्षय भी कैसे हो सकता है?

जिस घर में वेद की ध्वनि न होती हो, जो घर गायों से सुशोभित न हो और जिस घर में छोटे-छोटे बच्चे न हों वह घर, घर नहीं अपितु श्मशान ही है।

उपरोक्त सभी बातों से स्पष्ट है कि यह सुविधा, हमारे अनुकूल है, जिसका संकेत है सुविधानुसार वस्तुओं को व्यवस्थित रखना, अतः वास्तुपूजा वैदिक हो सकती है।

Sunday, April 23, 2023

तब्लीगी जमात के एजेंडे से अनजान देश, इसका उद्देश्य है मुसलमानों को पक्का मुसलमान बनाना


 तब्लीगी जमात के एजेंडे से अनजान देश, इसका उद्देश्य है मुसलमानों को पक्का मुसलमान बनाना

1.जमात के संस्थापक मौलाना को रंज होता था कि दिल्ली के मुसलमान हिंदू रंगत लिए हुए थे

प्रसिद्ध विद्वान मौलाना वहीदुद्दीन खान की पुस्तक ‘तब्लीगी मूवमेंट’ से इसकी प्रामाणिक जानकारी मिलती है। इस जमात के संस्थापक मौलाना इलियास को यह देख भारी रंज होता था कि दिल्ली के आसपास के मुसलमान सदियों बाद भी बहुत चीजों में हिंदू रंगत लिए हुए थे। वे गोमांस नहीं खाते थे, चचेरी बहनों से शादी नहीं करते थे, कुंडल, कड़ा धारण करते थे, चोटी रखते थे। यहां तक कि अपना नाम भी हिंदुओं जैसे रखते थे। हिंदू त्योहार मनाते और कुछ तो कलमा पढ़ना भी नहीं जानते थे। वास्तव में मेवाती मुसलमान अपनी परंपराओं में आधे हिंदू थे। इसी से क्षुब्ध होकर मौलाना इलियास ने मुसलमानों को कथित तौर पर सही राह पर लाना तय किया।

2. हिंदू प्रभावित मुसलमानों को इस्लामी प्रशिक्षण देकर उन्हें ‘नया मनुष्य बना दिया गया

मौलाना इलियास ने मुसलमानों में हिंदू प्रभाव का कारण मिल-जुल कर रहना समझा था। उनकी समझ से इसका उपाय उन्हें हिंदुओं से अलग करना था, ताकि मुसलमानों को ‘बुरे प्रभाव से मुक्त किया जाए।’ इस प्रक्रिया के बारे में मौलाना वहीदुद्दीन लिखते हैं कि कुछ दिन तक इस्लामी व्यवहार का प्रशिक्षण देकर उन्हें ‘नया मनुष्य बना दिया गया।’ यानी उन्हें अपनी जड़ से उखाड़ कर, दिमागी धुलाई करके, हर चीज में अलग किया गया। खास पोशाक, खान-पान, खास दाढ़ी, बोल-चाल, आदि अपनाना इसके प्रतीक थे।

3. तब्लीगी जमात का मिशन है हिंदुओं के साथ मिल-जुल कर रहने वाले मुसलमानों को अलग करना

तब्लीगी जमात में प्रशिक्षित मुसलमानों ने वापस जाकर स्थानीय मेवातियों में वही प्रचार किया। इससे मेवात में मस्जिदों की संख्या तेजी से बढ़ी और मेवात पूरी तरह बदल गया। वास्तव में यही जमात का मिशन है हिंदुओं के साथ मिल-जुल कर रहने वाले मुसलमानों को पूरी तरह अलग करना। उन्हें पूर्णत: शरीयत-पाबंद बनाना। अपने पूर्वजों के रीति-रिवाजों से घृणा करना। दूसरे मुसलमानों को भी वही प्रेरणा देना।

4. तब्लीगी एजेंडे को महात्मा गांधी द्वारा खिलाफत आंदोलन के सक्रिय समर्थन से ताकत मिली

तब्लीगी एजेंडे को महात्मा गांधी द्वारा खिलाफत आंदोलन के सक्रिय समर्थन से ताकत मिली। ऐसा इसके पहले कभी नहीं हुआ। मुमताज अहमद के अनुसार मौलाना इलियास को खिलाफत आंदोलन का बड़ा लाभ मिला। इससे उपजे आवेश का लाभ उठाकर उन्होंने सही इस्लाम और आम मुसलमानों के बीच दूरी पाटने और उन्हें हिंदू समाज से अलग करने में आसानी हुई।

5. स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के बाद ही तब्लीगी जमात पहली प्रमुखता से समाचारों में आई

खिलाफत के बाद जमात का काम इतनी तेजी से बढ़ा कि जमाते उलेमा ने 1926 में बैठक कर तब्लीग को स्वतंत्र रूप में चलाने का फैसला किया। इस तरह तब्लीगी जमात बनी। मौलाना वहीदुद्दीन के अनुसार, ‘‘आर्य समाज के शुद्धि प्रयासों से नई समस्याएं पैदा हुईं, जो मुसलमानों को अपने पुराने धर्म में वापस ला रहा था।’’ यही स्वामी श्रद्धानंद पर जमात के कोप के कारण का भी संकेत है। स्वामी श्रद्धानंद की हत्या के बाद ही तब्लीगी जमात पहली बार प्रमुखता से (1927) समाचारों में आई।

6। निजामुद्दीन मरकज: मलेशिया, इंडोनेशिया आदि देशों के कई मौलाना मिले

इलियास के बाद उनके बेटे मुहम्मद यूसुफ ने पूरे भारत और विदेश यात्राएं कीं। इसके असर से अरब और अन्य देशों से भी तब्लीगी मुसलमान निजामुद्दीन आने लगे। इस पर हैरानी नहीं कि हाल में उसके मरकज यानी मुख्यालय से मलेशिया, इंडोनेशिया आदि देशों के कई मौलाना मिले।

7.मौलाना यूसुफ ने कहा था- इस्लाम की सामूहिकता सर्वोच्च रहनी चाहिए

मौलाना यूसुफ ने अपनी मृत्यु से तीन दिन पहले रावलपिंडी में (1965) में कहा था, ‘उम्मत की स्थापना अपने परिवार, दल, राष्ट्र, देश, भाषा, आदि की महान कुर्बानियां देकर ही हुई थी। याद रखो, ‘मेरा देश’, ‘मेरा क्षेत्र’, ‘मेरे लोग’, आदि चीजें एकता तोड़ने की ओर जाती हैं। इन सबको अल्लाह सबसे ज्यादा नामंजूर करता है। राष्ट्र और अन्य समूहों के ऊपर इस्लाम की सामूहिकता सर्वोच्च रहनी चाहिए।’

8. शांतिपूर्ण प्रचार और जिहाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं

कुछ लोग तब्लीगी जमात के गैर-राजनीतिक रूप और राजनीतिक इस्लाम में अंतर करते हैं, पर यह नहीं परखते कि प्रचार किस चीज का हो रहा है? शांतिपूर्ण प्रचार और जिहाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसे जगह, समय और काफिरों की तुलनात्मक स्थिति देखकर तय किया जाता है। जमात के काम ‘शांतिपूर्ण’ हैं, मगर यह शांति माकूल वक्त के इंतजार के लिए है, क्योंकि उनके पास उतनी ताकत नहीं है।

9. जमात का मॉडल आरंभिक इस्लाम है

प्रो. बारबरा मेटकाफ के अनुसार, जमात का मॉडल आरंभिक इस्लाम है। उसके प्रमुख की ‘अमीर’ उपाधि भी इसका संकेत है, जो सैनिक-राजनीतिक कमांडर होता था। उसकी टोलियों की यात्रा कोई शिक्षक-दल नहीं, बल्कि गश्ती दस्ते जैसी होती हैं ताकि किसी इलाके की निगरानी कर उसके हिसाब से रणनीति बनाई जा सके।

10. कई मंदिरों पर हमले में 1992-93 में तब्लीगी जमात का नाम उभरा था

यह संयोग नहीं कि 1992-93 में भारत, पाक, बांग्लादेश में कई मंदिरों पर हमले में तब्लीगी जमात का नाम उभरा था। न्यूयॉर्क में आतंकी हमले के बाद तो वैश्विक अध्ययनों में भी उसका नाम बार-बार आया। अमेरिका के अलावा मोरक्को, फ्रांस, फिलीपींस, उज्बेकिस्तान और पाक में सरकारी एजेंसियों ने जिहादियों और तब्लीगियों में गहरे संबंध पाए थे।

11.तब्लीगी जमात की सफलता में उसकी एकनिष्ठता का बड़ा हाथ

तब्लीगी जमात की सफलता में उसकी एकनिष्ठता का बड़ा हाथ है। वे पदों-कुर्सियों के फेर में नहीं रहे। वे हिंदू नेताओं, बौद्धिकों के अज्ञान का भी चुपचाप दोहन करते हैं। इसीलिए उनका अंतरराष्ट्रीय केंद्र राजधानी दिल्ली में एक पुलिस स्टेशन के समीप होने पर भी बेखटके चलता रहा।

12. हमारी पार्टियों ने ‘राष्ट्रवादी मुसलमान’ कह कर उन्हें महिमामंडित किया

वस्तुत: हमारी पार्टियों ने ‘राष्ट्रवादी मुसलमान’ कह कर जिन्हें महिमामंडित किया, वे अधिकांश पक्के इस्लामी थे- मौलाना मौदूदी, मशरिकी, इलियास, अब्दुल बारी आदि। उनके द्वारा मुस्लिम लीग के विरोध के पीछे ताकत बढ़ाकर पूरे भारत पर कब्जे की मंशा थी। इसी को कांग्रेसियों ने देशभक्ति कहा। वही परंपरा भाजपा ने भी अपना ली। इस प्रकार, हमारे दल विविध इस्लामी नेताओं, संस्थानों, संगठनों आदि को सम्मान, अनुदान, संरक्षण तो देते रहते हैं, पर उनके काम का आकलन कभी नहीं करते। फलत: दोहरी नैतिकता और छद्म के उपयोग से पूरा देश गाफिल रहता है। इसीलिए भारत में तब्लीगी जमात का काम अतिरिक्त सुविधा से चलता रहता है।

[ लेखक :शंकर शरण ]

Thursday, April 20, 2023

Guru Tegh Bahadur's Martyrdom: A story of self sacrifice for Dharma


 


Guru Tegh Bahadur's Martyrdom: A story of self sacrifice for Dharma


Dr Vivek Arya

Guru Tegh bahadur was settled in Anandpur Sahib in Punjab as 9h Gurus of Sikhs. He was regarded as Dharma Guru and countrymen in mass visited him to get his blessings.

Kashmiri Pandits' deputation

Nawab Iftikhar Khan was appointed governor of Kashmir in 1671. He was chosen by Aurangzeb to convert Pandits to Islam so that the common people might follow their example. His proselytizing activities terrified the Pandits. They were in search of a guide to help them. In the Deccan Shivaji was resisting the Mughal government. In northern India the revolt of Jats of Mathura under Gokal in 1669 had been crushed. In 1672 the Satnamis had been completely wiped out. The Pandit's very existence was at stake. In the Panjab Guru Hargobind alone in six hundred year's Muslim rule had provided military leadership to Hindus and Sikhs for the first time. The Pandits thought of waiting upon his son Guru Tegh Bahadur, A 15-man-deputation of Kashmiri Pandits under Kirpa Ram Dat of Matan arrived at Anandpur on 25 May, 1675.
The Guru's heart melted at their tale of woe. He became uneasy and restless at the sad plight of innocent people. At this time 8 year old-Gobind Das appeared there. He innocently asked the cause of sadness of the Guru and the visitors. The Guru replied that the nation required a holy man to sacrifice his life. The child thoughtlessly remarked that there could be no holier person than the Guru'himself. It was enough. The Guru took the child's observation as God's word. Hisresolve was made. He informed the Pandits that they should tell the governor to convert Tegh Bahadur first, and they would follow his example.

The Pandits went back and told the Governor who conveyed it to Aurangzeb at Hasan Abdal, situated close to the borders of Kashmir. The Emperor's mind was already prejudiced against Tegh Bahadur.He issued a firman to the governor of Lahore to arrest the Guru and keep him in prison until he was called at Delhi.The Governor of Lahore passed on a copy of the imperial firman to Abdul Aziz Dilawar Khan, faujdar of Sarhind, with instructions to execute the orders in such a way as not to arouse any serious alarm in the region, and to treat it as most confidential. The faujdar instructed Nur Muhammad Khan Mirza, the Kotwal ofRupar, in whose jurisdiction Anandpur was situated, to arrest the Guru quietly and immediately send him to Sarhind.
The Guru accompanied by three devoted Sikbs, Mati Das, Sati Das and Dyal Das left Anandpur on 11 July, 1675. After covering about 40 kms, the Guru halted for the night at Muslim Ranghar village, Malakpur Rangbaran, Pargana Ghanaula, near Rupar, and put up with his disciple named Nagahia. At about 3 o'clock next morning on 12 July, the Guru and his three companions were taken prisoners, and were hurriedly whisked away to Sarhind. After four months the faujdar put the Guru in an iron cage and fastened it on the back of an elephant. His companions were fettered and handcuffed, and were carried in a bullock cart to Delhi.

Aurangzeb asked him to embrass Islam. The Guru replied that as for embracing Islam he considered his own religion as good as Islam, and therefore the change of religion was not necessary.The emperor ordered that the Guru be put to the severest tortures.After five days of persecution Aurangzeb tried to forcibly change the mind of GuruJi.
Dyal Das, Mati Das and Sati Das, Mohiyal Brahmins from jhelum as well as the Guru were brought to the open space in front of the Kotwali where now stands a fourtain. First of all Bhai Mati Das was asked to become a Musalman. He replied that Sikhism was true and Islam was false. If God had favoured Islam, He would have created all men circumcised. He was at once tied between two posts, and while standing erect, was sawn across from head to loins. Dyal Das abused the Emperor and his courtiers for this atrocious act. He was tied up like a bundle with an iron chain and was put into a huge cauldron of boiling oil. He was roasted alive into a block of charcoal. Sati Das condemned the brutalities. He was hacked to pieces limb by limb.

All this happened before the very eyes of Tegh Bahadur. He was all the time repeating 'Wah Guru'. He knew his turn was coming next. He remained stonelike unruffled and undismayed. His energy, thoughts, ideas, feelings and emotions hadconcentrated on Wah Guru, and dazzling divine light was beating upon his face. He realized that such immortal sacrifices could not go in vain. Their name wouldlive for ever.On November 11, 1675, at 11 o'clock in the morning was the time fixed for the Guru's to reply. Keeping in mind his promise to the Kashmiri Pandits, the Guru continuallychanted the following hymn:Bāhen Jināhn di pakariyeSar dije bāhen na chhoriyeTegh Bahadur bolyāDhar payae dharma na chhoriye.(Give up your head, but forsake not those whom you have undertaken to protect. Says Tegh Bahadur, sacrifice your life, but relinquisb not your faith.)

A little before 11 O'clock Guru Tegh Bahadur was brought to the open place of execution in Chandni Chauk, where now stands Gurdwara Sis Ganj. The Qazi, several high officials, and the executioner, Sayyid Jalal-ud-din of Samana with a shining broad sword in hand were already there. A contingent of Mughal soldiers stood on guard. A large crowd of spectators had gathered outside the barricade. The Guru stood in front. The Qazi asked him either to show a miracle or embrace Islam or face death.The blow was given and the head of the Guru rolled on the floor.
After the execution Guru's head and body were placed on the back of an elephant and paraded into the streets and bazars of Delhi. They were kept at the Kotwali in Chandni Chauk after demonstration Aurangzeb then ordered that parts of his body be imputated and hung about the city.

Guru body lay at the gate. Jaita slipped out quietly, picked up the head and fled away towards Sabzi Mandi. He tied the head in a sheet, fastened it on his back and covered his body in an old, dirty blanket. Lakhi's son and a servant lifted the body, hid it in cotton and rushed off to Raisina, and to their home in Rikab Ganj village. Lakhi set fire to the house to avoid detection to perform cremation of Guru's body. After two days the Guru's ashes were collected. They were put in a bronze pot, and buried under ground at that very spot. Gurdwara Rakab Ganj marks this site. Jaita carried the head. he went from Azadpur to sonipat to Karnal. From Karnal he took the pathway to Pebowa, Ismailabad and Ambala. He reached Kiratpur on the afternoon of Tuesday, 16 November, 1675. He had covered 320 kms in five days.Gobind Das performed the ceremonial cremation of the head on 17 November.
Hindus, Sikhs in the Panjab were deeply shocked at execution ofthe Guru and his three brave companions.Guru Tegh Bahadur's execution turned the tide of history of the Panjab. His son and successor Guru Gobind Singh reflected on the history of India especially the history of the Punjab. Guru Nanak had described the rulers of his time as tigers and dogs. His great-grandfather, the fifth Guru, Arjan, was executed at Lahore. His grandfather, the sixth Guru, Hargobind, had been imprisoned in the Gwalior fort for twelve years. His father was beheaded simply because he happened to be the head of a religious body. There had been nochange in the attitude of rulers as described by Guru Nanak even after two hundred years. The Guru came to the conclusion that if the king was bad, people must rise in revolt and follow the example of Shivaji (1628-1680)

Under the direction of the Guru, the Khalsa took up to the profession of arms. The down-trodden people who had lived for centuries under complete servility turned into doughty warriors. In the course of one hundred years they not only ended the foreign rule but also put a stop for ever to the foreign invasions from the north-west.

[This article is based on book History of the Sikhs by Hari Ram Gupta, The Sikh Gurus, 1469-1708, Vol.1]
#GuruTeghBahadur
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*Open Letters to Sir Syed Ahmed Khan* (1888) by Lala Lajpat Rai




*Open Letters to Sir Syed Ahmed Khan* (1888) by Lala Lajpat Rai

Would you excuse me if I encroach upon your valuable time for a short while? Before I address you on the subject matter of discussion I think it advisable to state for your information that I have been a constant reader and admirer of your writings. From childhood, I was taught to respect the opinions and the teachings of the white-bearded Syed of Aligarh. Your Social Reformer [the Urdu journal Tahzib ul-Ikhlaq] was constantly read to me by my fond father, who looked upon you as no less than a prophet of the nineteenth century. Your writings in the [English-language journal] Aligarh Institute Gazette and your speeches in Council and other public meetings, were constantly studied by me and preserved as a sacred trust by my revered parent.
It was thus that I came to know that you once approved of the contents of John Stuart Mill's book on "Liberty," and it was thus that I came to know (if my memory does not deceive me) that the present Chief Justice of Hyderabad [Mehdi Hasan Khan], a staunch opponent of the National Movement, once translated Jeremy Bentham's book on "Utility" for the readers of your Social Reformer. Is it strange then that I have been astonished to read what you now speak and write about the "National Congress"?
Any person, in my circumstances, would shout out. Times have changed; and with them, convictions! Flattery and official cajoleries have blinded the eyes of the most far-seeing; cowardice has depressed the souls of the foremost of seekers after truth, and high-sounding titles and the favours of worldly governors have extinguished the fire of truth burning in many a noble heart. Is it not a sad spectacle to [see] the men whose days are numbered, whose feet are almost in the grave, trying to root out all the trees planted with their own hands!
Under these circumstances, Syed Sahib, it is, surely, not strange if I ask what has been true cause of this lamentable change in you. Old age and exhaustion of faculties may, perhaps, have some share in causing you to forget what you once wrote and spoke. Has your memory lost its retentiveness, or is it the blindness of dotage which has permitted you to stray into your present unhappy position? If the former, I from amongst your old admirers will take upon myself the duty of reminding you of what, in moments of wisdom, was recorded and published by your pen and tongue, and this duty, I promise, I will fulfil with the utmost pleasure and with feelings of the highest satisfaction.
I will begin with your book on the "Causes of the Indian Revolt," which was written in 1858, though only translated and published in English in the year 1873. It may be worth while to note here that the translators of this were no others than Sir Auckland Colvin, the present Lieutenant-Governor of the North-West Provinces, and Lieutenant-Colonel Graham, the writer of your biography [The Life and Works of Sir Syed Ahmed Khan, 1885]. In this book, after having tried to prove that the Mutiny of 1857 was no "religious war," nor the result of a preconcerted conspiracy, you say that "most men, I believe, agree in thinking that it is highly conducive to the welfare and prosperity of Government -- indeed, that it is essential to its stability -- that the people should have a voice in its Councils. It is from the voice of the people that Government can learn whether its projects are likely to be well received. The voice of the people can alone check errors in the bud, and warn us of dangers before they burst upon and destroy us."
To make the matter more clear you go on saying that "this voice, however, can never be heard, and this security never acquired, unless the people are allowed a share in the consultations of Government. The security of a government, it will be remembered, is founded on its knowledge of the character of the governed as well as on its careful observance of their rights and privileges." These are noble words, nobly spoken; words of sterling honesty and independence of spirit. Can they bear any other meaning than that which attaches to that resolution of the National Congress which prays for the introduction of a representative element into the constitution of our Legislative Councils? Pray, tell me how can the people have a voice in the Councils of a Government if not by representation? How can the people of a country have their voice constantly heard if not through representatives?
But, to leave no doubt on the subject, I will go on giving quotations in proof of my assertion that you have yourself in former times strongly advocated the introduction of a representative element into the Legislative Councils of India. After laying much stress upon the necessity of a Government respecting the opinions of the people it governs, you say: "The evils which resulted to India from the non-admission of natives into the Legislative Councils of India were various.... It (i.e. the Government) could never hear, as it ought to have heard, the voice of the people on the laws and regulations which it passed." Again you say: "But the greatest mischief lay in this, that the people misunderstood the views and the intentions of the Government. They misapprehended every act." After this you proceed to say that "if Hindustanis had been in the Legislative Councils, they would have explained everything to their countrymen, and thus these evils which have happened to us would have been averted."
In your opinion, as expressed there, this non-representation of the voice of the governed in the Legislative Council of the realm was "the one great cause" and the "origin of all smaller causes of dissatisfaction," Nay, further, not to leave any doubts in the matter, and to prove that in your book you even go to the length of saying that your countrymen should be selected to form an assembly like the English Parliament (which demand, at the time you advanced it, was certainly more premature than it now is, though the National Congress, with all the advantages that the country has had in the way of education and enlightenment since that miserable year of 1858, only advocates the partial introduction of a representative element in the Legislative Councils), I shall give some more extracts from the same work.
There you say: "I do not wish to enter here into the question asto how the ignorant and uneducated natives of Hindustan could be allowed a share in the deliberations of the Legislative Council, or as to how they should be selected to form an assembly like the English Parliament. These are knotty points. All I wish to prove is that such a step is not only advisable but absolutely necessary, and that the disturbances are due to the neglect of such a measure."
Could clearer words be used than what have been quoted above? Is there any doubt as to their meaning? Because if so, I shall be obliged to quote the exact Hindustani words used by you to express the ideas propounded in the above lines. But no, I do not suppose you can feel any doubt on that point, because the English rendering was undertaken by no others than Sir Auckland Colvin and Lieutenant-Colonel Graham, the former of whom, at least, is. now being proclaimed (whether rightly or wrongly, God knows) as an opponent of the National Congress.
Sir Syed, does it not sound strange that the writer of the words above quoted should put himself forward as the leader of the anti­Congress movement? Is it not one more proof of India's misfortune, that the writer of the above words should impute bad motives to the supporters of the National Congress, mainly because they advocate the introduction of some sort of representation in the Legislative Councils of India? Is not your charge of sedition against the promoters of the Congress, in the face of these, a mere mockery, a contradiction in terms?
Thirty years ago, you advocated the institution of a Parliament, and yet you chide us saying that we want an Indian Parliament, notwithstanding that we protest that for the present, and for a long time to come, we do not claim any such thing? Mark the difference. India is no longer what it was thirty years ago. In the course of this period it has made a marked advance towards a higher civilization. The natives of India are no longer, with very few exceptions, ignorant or uneducated. The rays of education are penetrating and shedding their wholesome light inside most Indian homes; hundreds of thousands of Indians are as well educated as any average English gentleman, and we see scores of our countrymen every year crossing the "black waters" to witness. with their own eyes the proceedings of the great British Parliament, and personally familiarize themselves with the political institutions of the English nation.
Can you in face of these facts still call us "seditious"? According to your writings, we are the most loyal subjects of the Government, and if, notwithstanding what you have written, you still deserve to be called "the ablest of our loyal Mahomedan gentlemen," why do we not deserve to be styled as "the ablest of the most loyal subjects of the English Government"?
To give a still more clear idea of what you thought about the fitness of India for this sort of Government, I give one more extract to the point, and then I will have done with your old writings for the present. After giving many arguments in proof of your position that the law which allowed the sales of land for "arrears of Government revenue" was also a cause of the outbreak of disturbances in 1858, you say: "A landed estate in Hindustan is very like a kingdom. It has always been the practice to elect one man as the head over all. By him matters requiring discussion are 'brought forward' (mind, not decided --LLR), and every shareholder, in proportion to his holding, has the power of speaking out his mind on the point."
You are wrong when you say "in proportion to his holding." However, let it remain as it is. You proceed and say: "The cultivators and the choudhries of the villages attend on such an occasion and say whatever they have to say. You have here, in great perfection, a miniature kingdom and parliament." How is it that now you have changed your mind, and have come to opine that these kingdoms, as you called them, should have no voice in the making of laws which materially affect the person, the property, and the reputation of the people?
Some persons insinuate that these writings which I have quoted came from an honest, uncorrupted mind, at a time when the writer had no prospect of being raised to the Legislative Council by mere favour. No, Sir Syed, no! I, on my own part, do not want to make such an insinuation against the fearless writer of those noble words which have been quoted above. Then the problem to be solved remains the same, viz., why this change, why this inconsistency"?
I pause for a reply, with a promise of more in my next; and in the meanwhile beg to be allowed to subscribe myself,
The Son of an old Follower of Yours
27th October 1888

Friday, April 14, 2023

ज्योतिबाफुले, बाबासाहेब आंबेडकर व कुछ अन्य विद्वान और ऋषि दयानंद


ज्योतिबाफुले, बाबा साहेब आंबेडकर व कुछ अन्य विद्वानों के ऋषि दयानंद जी के बारे में विचार-

स्वामी दयानन्द के पूना प्रवास के समय ज्योतिबा फुले स्वामी जी का विशेष स्वागत करने वालों में से थे। फुले के आग्रह पर स्वामी दयानन्द फुले द्वारा स्थापित दलित लड़कियों की पाठशाला में गायत्री मंत्र पर उपदेश देने गए थे। फुले की संस्था ने स्वामी दयानन्द जी के सम्मान हेतु प्रशस्ति पत्र भी भेंट किया था। स्वामी दयानन्द के पूना प्रवास के समय उन्नीस भाषण हुए थे जो उपदेश मंजरी के नाम से लिखित मिलते हैं। फुले उन भाषणों को सुनने के लिए नियमित रूप से आते थे। अंतिम दिनों में स्वामी दयानन्द को हाथी पर बैठाकर जुलुस निकाला गया था। हाथी एक ओर, एक और महागोविंद रानाडे और दूसरी और फुले स्वयं चल रहे थे। देश व समाज को जन्मना जाति व्यवस्था के अभिशाप से मुक्त कराने के लिए ऋषि दयानन्द के दलितोद्धार के कुछ प्रेरक कार्य-

वर्णव्यवस्था जन्मना है या कर्मणा ? यदि उसे जन्मना माना जाय तो वह जातिगत भेदभाव को निर्माण करने का एक महत्तवपूर्ण कारण सिद्ध होती है। ऋषि दयानन्द कर्मणा वर्णव्यवस्था के पक्षधर हैं। उनकी यह धारणा थी कि जन्मना वर्णव्यवस्था तो पांच-सात पीढ़ियों से शुरु हुई है,अतः उसे पुरातन या सनातन नहीं कहा जा सकता। अपनें तार्किक प्रमाणों द्वारा उन्होंने जन्मना वर्णव्यवस्था का सशक्त खंड़न किया है। उनकी दृष्टि में जन्म से सब मनुष्य समान हैं, जो जैसे कर्तव्य-कर्म करता है,वह वैसे वर्ण का अधिकारी होता है। अस्पृश्य अछूत-दलित शब्द का विवेचन प्रस्तुत करते हुए डा. कुशलदेव शास्त्री लिखते हैं कि दलितोद्धार से पूर्व दलितों के लिए सार्वजनकि सामाजिक क्षेत्र में अस्पृश्य और अछूत शब्द प्रचलित थे,लेकिन जब समाज-सुधार के बाद समाज में यह धारणा बनने लगी कि कोई भी अस्पृश्य और अछूत नहीं है,तो धीरे-धीरे अस्पृश्य के स्थान पर दलित शब्द रुढ़ हो गया। स्वाभाविक रूप से अस्पृश्योद्धार वा अछूतोद्धार का स्थान भी दलितोद्धार ने ले लिया।मानसिक परिवर्तन ने पारिभाषिक संज्ञाओं को भी परिवर्तित कर दिया। दीर्घ समय तक सामाजिक,आर्थिक आदि दृष्टि से जिनका दलन किया गया,कालान्तर में उन्हें ही दलित कहा गया। पं. इन्द्र विद्यावाचस्पति के अनुसार जब यह महसूस किया जाने लगा कि शुद्धि और दलितोद्धार दोनों चीजें एक सी नहीं हैं।दलितों की हीन दशा के लिए सवर्ण समझे जाने वाले लोग ही जिम्मेदार हैं,जिन्होंने जाति के करोड़ों व्यक्तियों को अछूत बना रखा है।उन्हें मानवता का अधिकार देना सवर्णों का कर्तव्य है।इस विचार को सामने रखकर आर्य समाज के कार्यकर्ताओं ने अछूतों के लिए दलित और अछूतों के उद्धार कार्य के लिए दलितोद्धार की संज्ञा दे दी।तभी से अछूतों की शुद्धि के संदर्भ में दलितोद्धार संज्ञा प्रचलित हो गयी।

यह बात अविस्मरणीय है कि आर्य समाज के समाज सुधार आंदोलन ने ही दलित-आन्दोलन को दलित और दलितोद्धार जैसे सक्षम शब्द प्रदान किये हैं। महर्षि दयानन्द अपने ही नही सबके मोक्ष की चिंता करनेवाले थे।किसी जाति-सम्प्रदाय वर्ग विशेष के लिए नहीं,अपितु सारे संसार के उपकार के लिए उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की थी। सन् 1880 मेन काशी में एक दिन एक मनुष्य ने वर्ण व्यवस्था को जन्मगत सिद्ध करने के उद्देश्य से महाभाष्य का निम्न श्लोक प्रस्तुत कियाः-

विद्या तपश्च योनिश्च एतद् ब्राह्मण कारकम्।विद्या तपोभ्यां यो हीनो जाति ब्राह्मण एव सः।। 4/1/48।।

अर्थात् ब्राह्मणत्व के तीन कारक हैं –1) विद्या, 2) तप और 3) योनि।जो विद्या और तप से हीन है वह जात्या (जन्मना) ब्राह्मण तो है ही।

ऋषि दयानन्द ने प्रतिखंडन में मनु का यह श्लोक प्रस्तुत किया-

यथा काष्ठमयो हस्ती, यश्चा चर्ममयो मृगः। यश्च विप्रोऽनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति।।-मनु०(2,157)

अर्थात् जैसे काष्ठ का कटपुतला हाथी और चमड़े का बनाया मृग होता है,वैसे ही बिना पढ़ा हुआ ब्राह्मण होता है।उक्त हाथी,मृग और विप्र ये तीनों नाममात्र धारण करते हैं

ऋषि दयानन्द से पूर्व और विशेष रूप से मध्यकाल से ब्राह्मणों के अतिरिक्त सभी वर्णस्थ व्यक्तियों को शूद्र समझा गया था,अतः क्रमशः मुगल और आंग्ल काल में महाराष्ट्र केसरी छत्रपति शिवाजी महाराज,बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड और कोल्हापुर नरेश राजर्षि शाहू महाराज को उपनयन आदि वेदोक्त संस्कार कराने हेतु आनाकानी करनेवाले ब्राह्मणों के कारण मानसिक यातनाओं के बीहड़ जंगल से गुजरना पड़ा था।  ऋते ज्ञानान्नमुक्तिः अर्थात् ज्ञानी हुए बिना इन्सान की मुक्ति संभव नहीं है।अतः ऋषि दयानन्द का दलितोद्धार की दृष्टि से भी सब से महान् कार्य यह था कि उन्होंने सबके साथ दलितों के लिए भी वेद-विद्या के दरवाजे खोल दिए।मध्यकाल मे स्त्री-शूद्रों के वेदाध्ययन पर जो प्रतिबंध लगाये गए थे,आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने अपने मेधावी क्रांतिकारी चिंतन और व्यक्तित्व से उन सब प्रतिबंधों को अवैदिक सिद्ध कर दिया।ऋषि दयानन्द के दलितोद्धार के इस प्रधान साधन और उपाय में ही उनके द्वारा अपनाये गए अन्य सभी उपायों का समावेश हो जाता है,जैसे- दलित स्त्री-शूद्रों को गायत्री मंत्र का उपदेश देना, उनका उपनयन संस्कार करना, उन्हें होम-हवन करने का अधिकार प्रदान करना,  उनके साथ सहभोज करना,  शैक्षिक संस्थाओं में शिक्षा वस्त्र और खान पान हेतु उन्हें समान अधिकार प्रदान करना, गृहस्थ जीवन में पदार्पण हेतु युवक-युवतियों के अनुसार (अंतरजातीय) विवाह करने की प्रेरणा देना आदि।

डा. आंबेडकर जी ने भी स्वीकार किया है कि-‘‘स्वामी दयानन्द द्वारा प्रतिपादित वर्णव्यवस्था बुद्धि गम्य और निरूपद्रवी है।”  डा. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के उपकुलपति,महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध वक्ता प्राचार्य शिवाजीराव भोसले जी ने अपने एक लेख में लिखा है,‘राजपथ से सुदूर दुर्गम गांव में दलित पुत्र को गोदी में बिठाकर सामने बैठी हुई सुकन्या को गायत्री मंत्र पढ़ाता हुआ एकाध नागरिक आपको दिखाई देगा तो समझ लेना वह ऋषि दयानन्द प्रणीत का अनुयायी होगा।’

आर्यसमाजी न होते हुए भी ऋषि दयानन्द की जीवनी के अध्ययन और अनुसंधान में पन्द्रह से भी अधिक वर्ष समर्पित करने वाले बंगाली बाबू देवेंद्रनाथ ने दयानन्द की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है,‘वेदों के अनधिकार के प्रश्न ने तो स्त्री जाति और शूद्रों को सदा के लिए विद्या से वंचित किया था और इसी ने धर्म के महंतों और ठेकेदारों की गद्दियां स्थापित की थीं,जिन्होंने जनता के मस्तिष्क पर ताले लगाकर देश को रसातल में पहुंचा दिया था। दयानन्द तो आया ही इसलिए था कि वह इन तालों को तोड़कर मनुष्यों को मानसिक दासता से छुड़ाए।’ ऋषि दयानन्द के काशी शास्त्रार्थ में उपस्थित पं. सत्यव्रत सामश्रमी ने भी स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हुए लिखा है,‘‘शूद्रस्य वेदाधिकारे साक्षात् वेदवचनमपि प्रदर्शितं स्वामि दयानन्देन यथेमां वाचं ….. इति।”

डा. चन्द्रभानु सोनवणे ने लिखा है,‘मध्यकाल में पौराणिकों ने वेदाध्ययन का अधिकार ब्राह्मण पुरुष तक ही सीमित कर दिया था,स्वामी दयानन्द ने यजुर्वेद के (26/2) मंत्र के आधार पर मानवमात्र को वेद की कल्याणी वाणी का अधिकार सिद्ध कर दिया।स्वामीजी इस यजुर्वेद मंत्र के सत्यार्थद्रष्टा ऋ़षि हैं।’

ऋषि दयानन्द के बलिदान के ठीक दस वर्ष बाद उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए दादा साहेब खापर्डे ने लिखा था,‘स्वामीजी ने मंदिरों में दबा छिपाकर रखे गए वेद भंडार समस्त मानव मात्र के लिए खुले कर दिये।उन्होंने हिंदू धर्म के वृक्ष को महद् योग्यता से कलम करके उसे और भी अधिक फलदायक बनाया।’

‘वेदभाष्य पद्धित को दयानन्द सरस्वती की देन’ नामक शोध प्रबंध के लेखक डा. सुधीर कुमार गुप्त के अनुसार ‘स्वामी जी ने अपने वेदभाष्य का हिंदी अनुवाद करवा कर वेदज्ञान को सार्वजनिक संपत्ति बना दिया।’

पं. चमूपति जी के शब्दों में ‘दयानन्द की दृष्टि में कोई अछूत न था।उनकी दयाबल-बली भुजाओं ने उन्हें अस्पृश्यता की गहरी गुहा से उठाया और आर्यत्व के पुण्यशिखर पर बैठाया था।’

हिंदी के सुप्रसिद्ध छायावादी महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने लिखा है ‘‘देश में महिलाओं,पतितों तथा जाति-पांति के भेदभाव को मिटाने के लिए महर्षि दयानन्द तथा आर्य समाज से बढ़कर इस नवीन विचारों के युग में किसी भी समाज ने कार्य नहीं किया। आज जो जागरण भारत में दीख पड़ता है, उसका प्रायः सम्पूर्ण श्रेय आर्य समाज को है।’

महाराष्ट्र राज्य संस्कृति संवर्धन मंडल के अध्यक्ष मराठी विश्वकोश निर्माता तर्क-तीर्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी ऋषि दयानन्द की महत्ता लिखते हुए कहते हैं, ‘सैकड़ों वर्षों से हिंदुत्व के दुर्बल होने के कारण भारत बारंबार पराधीन हुआ।इसका प्रत्यक्ष अनुभव महर्षि स्वामी दयानन्द ने किया।इसलिए उन्होंने जन्मना जातिभेद और मूर्तिपूजा जैसी हानिकारक रुढ़ियों का निर्मूलन करनेवाले विश्वव्यापी महत्वाकांक्षा युक्त आर्यधर्म का उपदेश किया। इस श्रेणी के दयानन्द यदि हजार वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए होते,तो इस देश को पराधीनता के दिन न देखने पड़ते।इतना ही नहीं,प्रत्युत विश्व के एक महान् राष्ट्र के रूप में भारतवर्ष देदीप्यमान होता।’

मनुस्मृति के संबंध में प्रचलित भ्रांतियों के निवारण के लिए #डॉ_विवेक_आर्य द्वारा रचित एवं मनुस्मृति भाष्यकार एवम पूर्व उप कुलपति डॉ सुरेंद्र कुमार जी द्वारा संपादित मनुस्मृति को जानें पुस्तक अवश्य पढ़ें।

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Wednesday, April 12, 2023

कम्युनिस्टों पर सरदार पटेल के 5 अनमोल विचार


कम्युनिस्टों पर सरदार पटेल के 5 अनमोल विचार !!!

-प्रखर श्रीवास्तव

इस देश का इतिहास वामपंथियों ने लिखा इसलिए उन्होंने इस सच को छुपा लिया कि फरवरी 1948 में कम्युनिस्टों ने इस देश की सरकार का तख्ता पलटने का षडयंत्र रचा था इसलिए सरदार पटेल के निर्देश पर कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया था। आइए क्रमवार जानते हैं सरदार पटेल के विचार "कौमनष्टियों" पर...

*सरदार पटेल का विचार क्रमांक 1*
"दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान कम्युनिस्टों ने अंग्रेज़ सरकार का समर्थन किया था और उन्हे मदद दी थी। जिसके बदले में उन्हे अंग्रेज़ सरकार से शक्ति प्राप्त हुई। लेकिन 1945 में जब हम कांग्रेस के नेता जेल से छूटे तो कम्युनिस्टों को धक्का लगा। मुझे भारत में कम्युनिस्टों का कोई भविष्य नहीं दिखता क्योंकि उन्होने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में कोई योगदान नहीं दिया है, बल्कि इस दौरान वो खुद को ताकतवर बनाते रहे। इसलिए जनता की भावनाएं उनके खिलाफ हैं। जहां तक हैदराबाद की बात है तो वहां के निज़ाम की रजाकार सेना ने कम्युनिस्टों को हथियार दिये हैं, लेकिन वो हमारे सामने लंबे समय तक नहीं टिक पाएंगे। वो अगर किसानों और मजदूरों को हिंसा की तरफ मोड़ेंगे तो हम उनसे कड़ाई से निपटेंगे। उनका उद्देश्य अराजकता फैलाना है।"
(स्रोत – सरदार पटेल द्वारा विदेशी पत्रकार स्टीफ डेविस को 2 अक्टूबर 1948 को दिया इंटरव्यू, सरदार पटेल की बेटी मणिबेन पटेल की लिखी किताब in Tune with Millions में प्रकाशित हुआ है)

*सरदार पटेल का विचार क्रमांक 2*
"किसी एक पार्टी की वजह से आज अगर हैदराबाद पूरी दुनिया में बदनाम है तो वो है कम्युनिस्ट पार्टी। ये लोग कुछ और नहीं बल्कि हत्यारे और डकैत हैं। महिलाओं, बच्चों और गांववालों को गोली से मार देना या फिर बेदर्दी से उनके टुकड़े कर देना वामपंथ नहीं है। मैं कम्युनिस्टों से कह देना चाहता हूं कि इन क्रूर हरकतों में शामिल लोगों को मैं उखाड़ फेकूंगा। हैदराबाद में कम्युनिस्ट लोग सिर्फ उत्पात करने के लिए आये हैं, क्योंकि इससे उन्हे काफी पैसा मिलता है। मैं उनसे कहता हूं कि हैदराबाद छोड़ दो, मैं यहां एक भी कम्युनिस्ट बर्दाश्त नहीं करूंगा।"
(स्रोत – सरदार पटेल के पर्सनल सेक्रेटरी और पूर्व आईसीएस अधिकारी वी. शंकर की पुस्तक My reminiscences of Sardar Patel का पेज नंबर 132)

*सरदार पटेल का विचार क्रमांक 3*
"चीन के बाहरी खतरे के साथ-साथ हमें आंतरिक समस्याओं का भी सामना करना पड़ेगा। अभी भारत के कम्युनिस्टों को विदेश में रहने वाले कम्युनिस्टों से संपर्क करने और हथियार प्राप्त करने में दिक्कत आती है। लेकिन अब चीन तिब्बत तक पहुंच चुका है, अब उनके पास कम्युनिस्ट चीन तक पहुंचने का आसान तरीका मिल गया है। अब देशद्रोहियों और कम्युनिस्टों को देश में घुसपैठ करना आसान हो जाएगा।"
(सरदार पटेल का अपनी मृत्यु से सिर्फ 37 दिन पहले यानी 11 नवंबर 1950 को नेहरू को लिखा गया पत्र)

*सरदार पटेल का विचार क्रमांक 4*
"कम्युनिस्टों का काम है कि देश में गड़बड़ कराओ, अशांति पैदा करो और रेल की पटरी उखाड़ दो। इस प्रकार की हड़ताल कराओ कि सरकार चले ही नहीं। तब हमने सोच लिया कि इन कम्युनिस्टों के साथ ट्रेड यूनियन में बैठना देश के लिए बड़ी खतरनाक चीज है। इस लिए हमने उनसे अलग रहने का फैसला किया।"
(स्रोत - भारत की एकता का निर्माण, पेज नंबर 163, पब्लिकेशन डिपार्टमेंट, सूचना प्रसारण मंत्रालय)

*सरदार पटेल का विचार क्रमांक 5*
"मुझे समाजवाद सिखाने की किसी को जरूरत नहीं है। मैंने फैसला किया था कि यदि सार्वजनिक जीवन में काम करना हो, तो अपनी नीजि संपत्ति नहीं रखनी चाहिए। तब से आज तक मैंने अपनी कोई चीज नहीं रखी। न मेरा कोई बैंक एकाउंट है, न मेरे पास कोई जमीन है और न मेरे पास अपना कोई मकान है। इसीलिए कोई मुझे कोई समाजवाद का पाठ सिखाए। लेकिन याद रहे मैं हिंदुस्तान की बरबादी होने के काम में कभी साथ नहीं दूंगा। चाहे आप मुझे पूंजीपतियों का एजेंट कहें या जो कहें।"

#HeyRam

Thursday, April 6, 2023

माता की लाज पुत्रियों के हाथ में


माता की लाज पुत्रियों के हाथ में

लेखक- श्रीयुत् स्वामी श्रद्धानन्दजी महाराज
प्रस्तोता- प्रियांशु सेठ

भारत माता का विलाप सन्तान के लिए असह्य हो गया, इसी लिए सन्तान माता की रक्षा और उसके पुनरुत्थान के लिए हाथ पैर मार रही है। अबतक पुरुष ही यत्न करते रहे थे, कुछ दिनों से स्त्रियों ने मातृ-सेवा का व्रत लेना शुरू कर दिया है। मन कितना ही उठने वाला विशाल क्यों न हो बिना दृढ़ बलवान शरीर और आत्मा के वह विवश ही रहता है। भारतीयों में मानसिक भाव बड़े व्यापक हैं, परन्तु आत्मा और शरीर की निर्बलता के कारण उनके संकल्प केवल संकल्प मात्र ही रहते हैं। फिर निर्बल, तेजहीन शरीर के अन्दर तेजस्वी आत्मा का निवास भी दुस्तर है।

कहा जायगा कि सुशिक्षित पुरुषों ने शारीरिक उन्नति और दृढ़ता की ओर ध्यान देना आरम्भ कर दिया है। परन्तु सन्तान वही कुछ बनती है जो उसे पिता माता (विशेषत: माता) बना दें। भारत को वीर सिंह सन्तान चाहिए, वेद के आदेशानुसार-
अस्य यजमानस्य वीरो जायताम्।
राष्ट्र में वीर सन्तान उत्पन्न होनी चाहिए।

वह वीर सन्तान कैसे उत्पन्न होगी?
आजकल की विदेशी शिक्षापद्धति ने जहां भारतीय बालकों के शरीर निस्तेज कर दिए हैं वहां आर्य बालिकाओं को भी अत्यन्त निर्बल बना दिया है। आज से ४० वर्ष पहिले की आर्य देवियां यद्यपि सर्व भाषाओं के अक्षरों से शून्य थीं तथापि शारीरिक बल से वञ्चित न थीं; उनमें इतनी शक्ति अवश्य थी कि कम से कम स्वस्थ और दृढ़ाङ्ग सन्तान उत्पन्न करें। विदेशी शिक्षा ने भारत की कुछ पुत्रियों को पुस्तक पढ़ने और अक्षर लिखने के योग्य तो बना दिया परन्तु साथ ही उन्हें दृढ़ाङ्ग वीर सन्तान उत्पन्न करने के योग्य नहीं छोड़ा। ऊंची एड़ी के बूंट और रंग बिरंगी रेशमी साड़ियां पहिन कर हमारी पुत्रियां और बहिनें तितलियां बना दी गईं। फिर तितलियों के गर्भ से सिंह कैसे पैदा हो सकते हैं।

•६०० वर्ष हुए मेवाड़ की गद्दी पर राना अजयसिंह बैठे। उनके पीछे उनके भाई अमरसिंह के पुत्र को गद्दी मिलनी थी। उन का पुत्र प्रसिद्ध राना हम्मीर हुआ जिसने ६४ वर्षों में मेवाड़ की काया पलट दी थी। उसने मेवाड़ के खोए हुए सहस्रों दुर्ग ही मुसलमानों से न लौटा लिए अपितु बादशाह महमूद ख़िलजी को भी ३ महीने तक चित्तोड़ के कारागार में रक्खा। और उसने अजमेर, रनथम्बोर, नागौर, सुई, शिवपुर के इलाके ही न छुड़वा लिए प्रत्युत ५० लाख रुपया हर्जाना और १०० हाथी कर में लिए। वह हम्मीर किस माता का पुत्र था? सुनो!
एक दिन अमरसिंह जंगली सुअर के शिकार के लिए जा रहा था सुअर एक ज्वार के खेत में घुस गया। अमरसिंह के साथियों को खेत में जाते देख एक राजपूतनी लड़की ने जो मचान पर बैठी थी उनको खेत में घुसने से रोक कर कहा- "तुम सब हट जाओ मैं शिकार को खेत में से निकाल देती हूं।"
ज्वार के एक चार गज लम्बे लट्ठे को उखाड़ कर उससे सुअर को मार उनके सामने खींच लाई और विदा हो गई। राजपूत बहादुर उस शक्ति को देख आश्चर्य में आ गए। उन सबने पास की नदी के किनारे बैठ शिकार रूंधा और जल्सा मनाने लगे। उसी समय किसी का चलाया एक मिट्टी का गोला कुमार अमरसिंह के घोड़े को लगा और उसकी हड्डी तोड़ दी। देखने पर मालूम हुआ कि मचान पर से उसी कुमारी राजपूतनी ने जानवरों को हांकने के लिए यह गोला चलाया था। उससे हानि देखकर वह कुमारी उतरी और कुमार से क्षमा प्रार्थना करके चली गई। जब सब राजपूत घर को लौट तो रास्ते में देखा तो वही कुमारी सिर पर दूध का घड़ा रखे दोनों हाथ से दो मस्त भैंसे पकड़े लिए जा रही है। हंसी में उसके सिर से दूध गिराने के लिए एक सवार आगे बढ़ा। कुमारी घबराई नहीं एक भैंसे को घोड़े की टांग में अड़ा कर घोड़ा और सवार दोनों को अड़ा दिया। अमरसिंह ने कुमारी के पिता के पास पहुंच कर उससे विवाह करने का प्रस्ताव किया। वह चन्दावत राजपूत था। निर्धन होते हुए भी अमरसिंह के बराबर बेपरवाही से बैठ गया और प्रस्ताव अस्वीकृत कर दिया। उसकी धर्मपत्नी ने जब समझाया तब अमरसिंह का चन्दावत राजपूतों में से विवाह हुआ। उन दोनों की सन्तान राना हम्मीर था।

•कैलवे के फतहसिंह की माता और धर्मपत्नी ने चितौरगढ़ से निकल कर मुग़ल सेना में हलचल डाल दी थी और सैकड़ों को मार कर देश की स्वतन्त्रता पर अपनी जान कुर्बान कर दी।

•वह पुस्तक की विद्या व्यर्थ है जो शरीर और आत्मा को निर्बल कर दे। झांसी की रानी की कहानी भी कोई बहुत पुरानी नहीं है। ३२ वर्ष पहिले की एक घटना तो मेरे सामने ही घटित हुई थी। एक नव विवाहित जाट लड़की यात्रा में कुटुम्ब के साथ सोई हुई थी। रात को चोर ने चांदी की चूड़ी उतारने के लिए हाथ बढ़ाया। १७ वर्ष की जाट लड़की ने उसके दोनों हाथ पकड़ लिए। श्वसुर और अन्य बड़े बूढ़ों से लजाते बोल न सकती थी। तीन घंटे तक उसी तरह पकड़े रक्खा जब चोर ने हाथ छुड़ाना चाहा तो उसकी कलाइयां इतनी दबाई कि चोर चींख उठा तब पुरुष जागे और चोर पकड़ा गया।

ऐसी दृढ़ाङ्ग देवियां यदि सत्य विद्या के भूषण से आभूषित कर दी जांय तब वह सन्तान उत्पन्न हो सकती है जिसकी 'वेद' ही राष्ट्र के लिए आवश्यकता बतलाता है। अब तक कन्या पाठशालाओं और महाविद्यालयों के संचालकों के पास यह सन्देश भेजता रहा हूं और अब जब कि कन्या गुरुकुल खोलने का साहस किया गया है वही सन्देश उस संस्था के संचालकों के पास पहुंचाना चाहता हूं।
[स्रोत- ज्योति 'मासिक' का जुलाई १९२४ का अंक; सम्पादिका- विद्यावती सेठ बी०ए०]

Tuesday, April 4, 2023

The Library that Shaped Bhagat Singh and the Indian Revolutionary Movement


 



The Library that Shaped Bhagat Singh and the Indian Revolutionary Movement

-Harshwardhan


Named after the Arya Samaj educationist Dwarka Das, a colleague and friend of Lala Lajpat Rai, this Lahore library churned out revolutionaries quite liberally.A library is much more than a repository of books. It is a storehouse of knowledge, a stimulant of critical thought. A good library with stacks of books piled over each other has the potential to change the entire course of human history.

None of the great philosophers, scientists, politicians, and academicians who have had a great impact on the course of human history could be imagined apart from the libraries they visited. It is difficult to understand the European renaissance without the humanities libraries that cropped up across Europe and served as a nucleus for renaissance scholars. During this period, the role of libraries changed from being passive institutions housing books to active institutions for disseminating knowledge.

Bhagat Singh and other revolutionaries like Sukhdev, Bhagwati Charan Vohra, Dhanwantri, Ehsan Elahi, Durgadas Khanna and Yashpal without mentioning the Dwarka Das Library of Lahore, which was established in 1920 by Lala Lajpat Rai as part of his National College.

Named after the Arya Samaj educationist Dwarka Das, a colleague and friend of Lala Lajpat Rai, this library liberally churned out revolutionaries and also became a recruiting ground for revolutionary organisations like the Naujawan Bharat Sabha and the Hindustan Socialist Republican Association.

The reason why this library became a centre of revolutionary activism lies in the pedagogical approach of the National College which was established as an alternative to the British education system after the non-cooperation call of Mahatma Gandhi. The National College’s curriculum was designed to inculcate socio-political awareness among the students. This stood in stark contrast to British government-funded colleges and universities that were more or less factories for producing clerks and lower administrators for the colonial regime.

Three subjects, economics, politics and history, were mandatory for all students of the National College. Revolutionary and freedom movements from different parts of the world were mandatory parts of the course. It was therefore not surprising that the College soon became a breeding ground of radical nationalist thought.

It was to support this pedagogical approach of the National College that the Dwarka Das Library was established by Lala Lajpat Rai who while announcing its opening had said, “This library will be the first political library in the country in which the students of economics and politics will be able to satisfy their appetite.”

The Dwarka Das Library also became a place for learning the art of bomb-making. Shastri writes that once Bhagat Singh made a special request to him to find and arrange books and material related to bomb-making.Rajaram Shastri, who later went on to become a prominent trade union leader in present-day Uttar Pradesh, and edited a working-class magazine Kranti, was the librarian when Bhagat Singh and his comrades were students at the National College.

Apart from this, the library also became a recruiting ground for the revolutionary movement. Rajaram Shastri was given the task to find out the interest of students who used to visit the library on the basis of the kinds of books that they read or borrowed. If someone showed interest in revolutionary or nationalist literature, Shastri used to inform about them to Bhagat Singh after which Sukhdev was given the task of recruitment. Because of this, the library came under police surveillance with C.I.D agents in plain clothes spending time in the reading hall.

Even after his arrest Bhagat Singh used to borrow books from the library but the arrest of Shastri in 1930 for participating in the salt satyagraha momentarily halted the flow of books to Bhagat Singh in the later part of the 1930s. About this, he complained to Shastri when they met in the Lahore Central Jail.

After the arrest of Bhagat Singh, Sukhdev and Shiv Verma along with others, the momentum of the revolutionary movement watered down in Punjab, and later it shifted to the United Provinces. The Dwarka Das Library too began to lose its prominence in the revolutionary movement.

Later, just like humans on both sides of the border, the Dwarka Das Library also had to suffer the pain of Partition. During the Partition, the library was shifted book by book to Shimla where it stayed for a few years before finally being shifted to Chandigarh Sector 15, where it stands today. Its role changed over the years. It has become the place where youth flock to prepare for competitive exams – a fate shared by most libraries across the country.

The books that were once borrowed and read by Bhagat Singh are preserved in the library and are on public display, serving as a constant reminder of the role the library once played in the Indian freedom movement.'





Shirdi Sai Baba – The ‘Hinduization’ of a Moslem Fakir


 



Shirdi Sai Baba – The ‘Hinduization’ of a Moslem Fakir




– Kevin Shepherd

Shirdi Sai Baba was an Urdu speaker. He adapted to Marathi, but his basic linguistic and cultural affiliations reveal him as a Muslim, and more specifically as a Sufi of the liberal and unorthodox variety.

One of his early Muslim disciples kept a notebook in Urdu which has permitted a strong insight into the Sufi orientation of the Shirdi Sai Baba

The Muslim disciple Abdul Baba was a close servitor of the Shirdi Sai Baba for almost thirty years until the latter’s death. Thus, we know that the Sufism exposited by Shirdi Sai was in evidence from 1889 until his last years. Abdul would read the Quran in the presence of the Sai Baba, and at the latter’s behest. Sai Baba would make diverse utterances, and these were recorded in the notebook. Abdul’s Urdu manuscript was unpublished until very recently. The basic and underlying significances had passed into oblivion.

Dr. Marianne Warren observed that:

“the manuscript largely pertains to Muslim and Sufi material in Deccani Urdu; there are a number of quotations in Arabic included from the Quran and hadith [traditions of the Prophet]…. the fact that the manuscript’s Islamic nature does not fit in with the accepted Hindu interpretation and presentation of Sai Baba may explain why it has remained unpublished.”

The major devotional biography, written in Marathi, likewise confirms the Muslim background. Unfortunately for popular assimilation, this book by Govind R. Dabholkar (alias Hemadpant) gained a very misleading English adaptation that seems to have been more widely read than the original.

The Marathi biography, entitled Shri Sai Satcharita, was composed by an early brahman devotee who repeatedly acknowledged and indicated the Muslim faqir identity. Yet the English adaptation by N. V. Gunaji involved an attempt to omit the Muslim context, instead of improvising a Vedantic complexion to the subject. For instance, Gunaji ignored the frequent use of Urdu by Shirdi Sai, and omitted sections of Dabholkar that referred to Muslims, Muslim practices, and Sufi teachings. Gunaji deleted reference to the Islamic ritual of goat slaughter (takkya). However, Dabholkar duly reported that Sai Baba would occasionally undertake this ritual so abhorrent to Hindus.

The name (or rather title) of Sai Baba is evocative of Muslim origins. The word Sai appears to be derived from the Arabic sa’ih – a term used to designate itinerant ascetics in the Islamic world. The word Baba is sometimes given a Hindu context, but that is only partially correct. Baba is a common Marathi expression meaning “father,” though it was also employed in the medieval Indian Sufi tradition. Baba is a Turkish word that referred to diverse preachers and shaikhs, having an origin in the itinerant babas from Central Asia.

The Shirdi Sufi was later believed to possess an intimate knowledge of the Sanskrit language, which was the medium for Hindu scriptures. The attribution was based on his explanation of a verse in the Bhagavad-Gita, a classic text associated with Vedanta. That explanation was imparted to a Hindu devotee. Subsequent analysis has strongly contested the “Sanskrit” attribution, favored by B. V. Narasimhaswami, who was writing many years after Sai Baba’s death. “That interpretation was followed by other writers, and served to strengthen the tendency to portray Sai Baba in a Hinduized manner.”

Sai Baba’s explanation of the Gita verse has been described as “totally different” from the version of Shankara and other canonical Hindu commentators. According to recent scholarship, the dialogue does not in fact prove that Sai Baba knew the Gita or even Sanskrit, his emphasis being Sufistic. The very convincing version of Dr. Marianne Warren stresses that he gave a unique interpretation, and did not need to know the text at all, as the verse was read out to him along with a statement of grammatical meanings. This was done at his own request. “Sai Baba had all the raw material of the verse given to him, so there is no basis to the supposition that he in fact ‘knew’ Sanskrit or even the Bhagavad-Gita.”

During his lifetime, Sai Baba was generally regarded as a Muslim faqir, with Sufi associations not in general well understood. His white robe (kafni) and headgear were clearly Muslim. He used the Islamic name for God, and repeated Islamic sacred phrases, not Hindu mantras. He even had a habit of referring to God as the Faqir.

The influx of urban Hindus from Bombay in the last years of Sai Baba made the Hindus a clear majority in his following, and tendencies to Hinduization appeared in the later reports culled from devotees who were interviewed by Narasimhaswami in 1936. Nearly eighty devotees were then interviewed, though only 51 have a clear religious identity. No less than 43 of those were Hindu, and 26 of that contingent were members of the elite Brahman caste. Only four were Muslims, and there were also two Parsi Zoroastrians and two Christians.

A revealing factor emerges. Narasimhaswami asked all the devotees he interviewed a rather pointed question. Did they think that Sai Baba taught Vedanta? “In all cases, they said he did not.” It, therefore, seems the more anomalous that Narasimhaswami improvised his theme of the Sanskrit expert. In the 1940s, Gunaji was giving an erroneous impression via his Vedantic interpretations of Shirdi Sai Baba, which cannot be found in the original work by Dabholkar that Gunaji was rendering.

Narasimhaswami had never met Sai Baba and arrived at Shirdi nearly twenty years after his demise. He was not familiar with either Marathi or Urdu. Yet his books on the subject became very influential amongst Hindus. He rather reluctantly referred to Sai Baba as a Muslim, and one whose teachings were indistinguishable from Sufism. He nevertheless admitted to knowing little about Sufism, and himself clearly preferred the bhakti (devotion) approach of Hinduism. Narasimhaswami constantly tended to project that conceptualism onto Shirdi Sai Baba. He had initially been repelled by the Muslim identity, and it is evident that this writer would never have become enthusiastic about the subject without the latitude for Hindu associations in reports he edited.

Narasimhaswami could reason that Sai Baba was apparently a Muslim because he lived in a mosque, although the former was very partial to one report (of Mhalsapati) which claimed that he was a Brahman by birth. The Narasimhaswami version basically wishes to regard the subject as a Hindu, not as a Muslim.

The influential testimonies provided by Narasimhaswami were strongly in the direction of hagiology. That enthusiastic promoter of the “Shirdi revival” produced a work entitled Devotees’ Experiences of Sai Baba (1942). This has been described by a recent assessor as:

“a detailed presentation of alleged miraculous phenomena…. the intent of the work is clearly hagiographic, aiming at the expansion of Sai Baba’s popularity among the public at large.”

Discrepancies in reporting apply to many stories as the alleged wrestling match of Sai Baba in Shirdi with Mohidden Tamboli, evidently a Muslim. According to Gunaji, Sai Baba lost this contest, and thereafter changed his apparel to the kafni of faqirs. The dating is obscure. It has been pointed out that this report is in contradiction to Gunaji’s own statement that Sai Baba had been wearing faqir garb from the outset of his arrival at Shirdi. Furthermore, the Hindu informant Ramgiri Bua emphasized that Sai Baba did not wrestle, but instead had a disagreement with the son-in-law of Tamboli, as a consequence of which he retreated to the nearby jungle. This obscure episode has been tentatively dated to the 1880s.

The popular theme that Sai Baba was a miracle worker may be regarded as a devotional distraction culminating in the Shirdi revival of the 1930s. He did not perform “miracle” stunts and was merely in the habit of giving sacred ash (udi) from his dhuni fire as a token of blessing. The ash became credited with healing properties. Devotees like Dabholkar did strongly credit him with miracles, generally of the minor variety, a major preoccupation being the birth of a child.

Writers who followed in the wake of Gunaji and Narasimhaswami produced diversions. They were strongly influenced by the Hinduization tendency. A Parsi writer composed a chapter entitled “What the Master Taught.” There is not a single reference to Sufism, but instead many to Hindu bhakti, and also one or two that can be interpreted in terms of a simplified Vedanta. Furthermore, another chapter includes the statement:

“The saint of Shirdi baffled his admirers! No one knew whether he was a Hindu or a Muslim. He dressed like a Muslim and bore the caste marks of a Hindu !”

The equivocal theme of “Hindu or Muslim” had replaced the earlier awareness that the revered entity was a faqir, meaning an alien to Hinduism. The reference to caste marks is superficial, arising from hagiological tendencies.

What did Sai Baba actually teach? The original Hindu devotees like Dabholkar testify that he was constantly uttering Islamic sacred phrases such as “Allah malik” (God is the only ruler). Vedanta is not here evident, but rather a version of the Sufi theme tauhid (unity, oneness of God). There were also many parables and enigmatic statements, plus gnostic assertions in the radical Sufi idiom.

These subjects are not the easiest to penetrate, and certainly cannot be brought under any simplified heading such as bhakti or devotion. However, that is what too many writers have done with the mutated legacy of a radical Muslim Sufi.

Strong tendencies to Hinduize the subject influenced writers like Arthur Osborne into making Shirdi Sai Baba a subject of equivocal affiliation. According to Osborne, Sai Baba “did not fully conform to either” religion, meaning Islam and Hinduism. The primary reasons given for this rather deceptive view are that Sai Baba was a vegetarian and was worshipped in Hindu fashion. The vegetarian theory has since been exposed as a myth, one which inadvertently sides with the Gunaji excision of Dabholkar’s reference to the Islamic ritual involving goat slaughter. The fact of Hindu worship, in the unusual circumstances prevailing (in a rural mosque), in no way proves an offsetting Hindu identity.

It is relevant to focus here upon the first major account of Sai Baba, and one that has an elite reputation amongst Hindu devotees. I have referred above to Hemadpant, which was the name bestowed by Sai Baba upon his brahman devotee Govind Raghunath Dabholkar. The contact of Dabholkar with Ssi Baba commenced in 1910 and resulted in the devotional biography known as Sri Sai Satcharita. This was written in Marathi verse, and published in 1929. Dabholkar was here following a long Hindu tradition of writing saintly biographies in verse format.

Dabholkar was concerned to describe miracles, and the hagiological tendency is evident. Legendary details and actual events have been discerned to overlap, requiring careful analysis. Another realistic assessment about the verse of Dabholkar is that “when he did not understand the enigmatic mystic, he would rationalize sayings and events in conformity with his own religious background.”

Dabholkar’s poetic biography assimilated the devotional tendency to identify Sai Baba with the god Dattatreya, who is often depicted as an ascetic or yogi. This Hindu deity is associated with the syncretism of Hinduism and Islamic Sufism that has been traced in Maharashtra. The association is said to date back to the fourteenth century and was revived in the case of Sai Baba circa 1910. Various Hindu gurus gained repute in the nineteenth century as incarnations of the ascetic deity Dattatreya, and most of these figures (and likewise Sai Baba) were reticent about revealing their personal histories.

A well-known instance of Dattatreya association is Swami Samarth of Akalkot (d.1878), who was in affinity with Muslims. A subsequent “Dattatreya guru” representing a Hindu context was Narayan Maharaj of Kedgaon (1885-1945), an ascetic who favored an opulent lifestyle in his later years while acting as a patron of Dattatreya worship at his ashram.

At the beginning of each chapter, Dabholkar extols Sai Baba. The purpose was evidently to link the Shirdi entity with the Maharashtrian Hindu bhakti tradition of saints who also figure as poets. It is obvious that Dabholkar “tried to accommodate the Muslim Sai Baba within the Maharashtrian Hindu milieu for his readers.”

The reported statement of Sai Baba that “I am of the Muslim caste” is significant. Yet in passing from Dabholkar to the adaptation of Gunaji, we here find a serious case of contraction and omission. Gunaji neglected to include the statement about the Muslim caste. He even attempted to deny the possibility Sai Baba could have been a Muslim. In a controversial passage, Gunaji poses the question: if Sai Baba was a Muslim, how could he keep a dhuni fire burning in his mosque, and how could he keep a sacred tulsi plant in the yard outside, and how could he permit Hindu music, and how could he have pierced ears, and how could he have donated money to repair Hindu temples? This is more or less the credo of the “Hindu identity” suggestion that became widespread.

The insular thinking can be contradicted. The sacred fires known as dhuni were also favored by Muslim faqirs. The tolerance of Sai Baba in relation to Hindu ceremonial adjuncts should not be made antithetical to his own excised statement that he was a Muslim. The issue of pierced ears is not definitive. Many Hindus gained pierced ears at birth. Hindu biographers have urged that he had pierced ears. Against this must be set an assertion of the Hindu devotee Das Ganu, in a well-known poem which states that Sai Baba can be called a Muslim because of such characteristics as his ears not being pierced. Das Ganu added his own conclusion that Sai Baba was a Hindu, adducing the dhuni fire as support. Dabholkar is also contradictory, favoring pierced ears but indicating that Sai Baba was circumcised.

The sectarian attitude frequently contradicts a due perspective. In 1930, a foreword was added to the Dabholkar book in Marathi by Hari Sitaram Dixit. This was the same prominent Hindu devotee who had ousted Abdul Baba from the role of tomb custodian nearly a decade before. Dixit always referred to Sai Baba as Sai Maharaj, that title conveying a distinctly Hindu flavor. Dixit had evolved an interpretation of Sai Baba that is considered idiosyncratic in some sectors. He now declared Sai Baba to have been born ayoniya, which literally means without a womb, i.e., without a human mother.

This new concept avoided the issue of whether he was born a Muslim or a Hindu. Yet the innovation was closely linked to an interpretation of divine incarnations in the Hindu tradition, entities who were all considered to be the products of a virgin birth. The Shirdi Sufi had now effectively become a divine incarnation of Hindu association.