◼️रिफ़ॉर्मर (सुधारक)◼️
✍🏻 लेखक - स्वामी दर्शनानन्द जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
प्यारे मित्रो! हमारे प्राचीन ऋषि-मुनि जिसे आचार्य कहते थे, पाश्चात्य देशों में जिसे पैग़म्बर कहते थे और यूरोपीय लोग जिसे रिफ़ॉर्मर कहते हैं, ये वे लोग हैं जो अपने स्वार्थ सर्वसाधारण के हित पर न्यौछावर करके अपने तन और धन को दूसरे के तन और धन की रक्षा में लगाते हुए अपनी जीवन-यात्रा को निष्ठापूर्वक शुद्ध भावों से पूर्ण करते हैं, जिसकी प्रशंसा में महात्मा भर्तृहरि ने कहा है -
🔥एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थं परित्यज्य ये॥
अर्थात् मनुष्यजाति में एक सच्चे पुरुष हैं जो दूसरे की भलाई तन, मन और धन से बिना स्वार्थ के करते हैं। वे अपने स्वार्थ का तनिक भी ध्यान नहीं करते। उनका आत्मा अपनी प्रबल शक्ति से बड़े-बड़े विघ्नों को हटाता हुआ अपने उद्देश्य को प्राप्त हो जाता है। जैसाकि महात्मा भर्तृहरिजी ने कहा है -
🔥प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः, प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः, प्रारभ्य चोत्तमजना न परित्यजन्ति॥
-नी०श०
अर्थ- नीच पुरुष तो विघ्नों के भय से किसी काम को आरम्भ ही नहीं करते। मध्यम श्रेणी के मनुष्य काम को आरम्भ कर देते हैं, परन्तु जिस समय कोई विघ्न आकर पड़ता है तो तुरन्त उस कार्य को छोड़ अलग हो जाते हैं। उत्तम पुरुष अर्थात् रिफ़ॉर्मर वे हैं कि जो विघ्नों के आने पर भी अपने आरम्भ किये हुए उत्तम कार्य को नहीं छोड़ते।
प्रिय पाठकगण! ये रिफ़ॉर्मर भी दो प्रकार के होते हैं-एक वे जो संसार के प्रवाह के साथ बहकर संसार को कुमार्ग से हटाना चाहते हैं, और दूसरे वे हैं जो संसार के प्रवाह को अपनी प्रबल शक्ति और आत्मिक बल से वहीं रोकने पर प्रस्तुत होते हैं। प्रथम श्रेणी के मनुष्यों में संसारी पुरुष तनिक भी विरोध नहीं करते और उनको कष्टों का सामना भी नहीं करना होता, परन्तु द्वितीय श्रेणी के रिफ़ॉर्मरों का विरोध संसार अपनी आर्थिक, वैज्ञानिक, राज्यकीय एवं शारीरिक शक्ति अर्थात् हर प्रकार की शक्ति से करता है और जहाँ तक बन पड़ता है संसारी मनुष्य इस श्रेणी के महात्माओं को कष्ट देने के लिए कटिबद्ध हो जाते हैं। कोई अपनी वाणी से उनको नास्तिक, गुमराह और धिक्कार-योग्य कहता है, कोई अपने धन से उनको हानि पहुँचाने के उपाय करते हैं। कोई अपनी विद्या को इस असत्य मार्ग को सत्य कर दिखाने में लगाता है और दिन रात इस प्रकार की युक्तियाँ सोचता है जिससे कि उस महात्मा के सच्चे उद्योग से संसार पूर्ण लाभ न उठा सके। कोई अपने बल के घमण्ड में सोटा, तलवार और बन्दूक लेकर सामने को दौड़ता है और कोई अपनी राज्यकीय शक्ति से कानून के बन्धन में कुचलना चाहता है।
प्रिय पाठकगण! इसी प्रकार समस्त संसार उस अकेले के विरोध पर अपने सम्पूर्ण प्रयत्न को व्यय कर देता है, परन्तु क्या बात है कि सारे संसार के विरोध से भी उस महात्मा के हृदय में तनिक भी भय उत्पन्न हो? संसार के बुरे बर्ताव से उस सच्चे हितैषी के हृदय पर तनिक भी शोक का अधिकार हो। नहीं-नहीं, जितनी प्रबलता से विरोध दिखाई पड़ता है उतना ही वह अपनी शक्ति के (सुदृढ़) प्रभाव को देखकर अपनी सफलता पर प्रसन्न होता है। वह देखता है कि यावत् मनुष्य सूर्य के प्रकाश को इतना (बहुत ही) गर्म नहीं पाते, तावत् उसके प्रभाव से बचने का विचार भी नहीं करते। जिस समय धूप की गर्मी से उनकी दशा बिगड़ने लगती है तभी उनकी रोक के उपाय सोचना आरम्भ करते हैं - कहीं खस की टट्टी लगाते हैं, कहीं घर बनाते हैं।
यही दशा वर्तमान संसार की हो रही है कि वे अब मेरे सत्य उपदेश के तेज को जान गये हैं। वह जानता है कि यद्यपि ये मेरे विरोध पर तुले हुए हैं, परन्तु मेरी सत्यता का लोहा मान गये हैं। ऐसे भावों से उसका उत्साह बढ़ता जाता है और अपने सुधार-कार्य को वह और भी जोर के साथ आरम्भ करता है। संसार उसको हानि पहुँचाना चाहता है और वह उनको लाभ पहुँचाने का प्रयत्न करता है। सारांश यह कि इसी प्रकार की खिंचा-खिंची थोड़े समय तक खूब रहती है। यदि सामना करनेवाला राजा है तो संसार उसके धैर्य के सामने हार मानकर बैठ जाता है और उसके भय के मारे उसका आज्ञाकारी हो जाता है और यदि डाकू अथवा दास है तो वह आन्तरिक धैर्य न होने के कारण स्वयं संसार का दासत्व स्वीकार कर लेता है।
प्रिय पाठकगण! यदि आप संसार के इतिहास को उठाकर देखें तो पहली श्रेणी के रिफ़ॉर्मरों (सुधारक) का आप नाम भी न पावेंगे, परन्तु द्वितीय श्रेणी के रिफ़ॉर्मर आपको चमकते हुए सूर्य की भाँति इतिहासरूपी क्षितिज पर दिखाई देंगे। यदि आप जनसाधारण से बातें करें तो इन प्रबल महात्माओं के सेवक आपको असंख्य ही मिल जाएँगे। तनिक ध्यान तो दीजिए, जिस समय महात्मा बुद्ध ने संसार के सुधार के लिए कमर कसी थी उस समय संसार में वाममार्ग का जोर था। भारतवर्ष में वाममार्गी लोग यज्ञों के नाम से पशु-हिंसा करते थे और अन्य देशों में भी जला डालने की कुर्बानी प्रचलित थी। महात्मा बुद्ध ने इन सबके विरोध पर अपनी कटि (कमर) कसी और चाहा कि अपनी प्रबल शक्ति से इस पाप-नद का प्रवाह रोक देवे, परन्तु महात्मा राजा थे, इसलिए संसार का बड़ा भारी बन्धन उसके गले में पड़ा हुआ था। जिस समय वह संसार को गिराना चाहता था, संसार उस कड़ी को पकड़कर झटका दे देता था और महात्मा बुद्ध सफलता को प्राप्त नहीं होते थे।
अन्त में उन्होंने सोचा कि यावत् मैं इस बन्धन को तोड़कर गले से न निकाल दूंगा, मैं कभी इसका सामना नहीं कर सकूँगा। उन्होंने झट से राज्य को छोड़ दिया। संसार के विरोध पर कटि (कमर) कसी और अन्त में वे फलीभूत हुए। २४ सौ वर्ष से महात्मा बुद्धदेव अपने राज्य में विद्यमान नहीं हैं, परन्तु फिर भी एक-तिहाई संसार उनका दास है। यदि महात्मा बुद्धदेव राज्य के बन्धन को गले में रखते हुए यावत् जीवन प्रयत्न करते, तो भी इतना प्रभुत्व न प्राप्त होता और इस प्रकार का तो कदापि न होता कि उनके पीछे भी बना रहता, परन्तु बौद्ध धर्म का उनके २५ सौ वर्ष पीछे भी संसार में दिखाई देना और संसार के सम्पूर्ण वर्तमान राजाओं से अधिक प्रजा का होना केवल राज्य के बन्धन को तोड़ फेंकने का ही फल है।
प्रिय पाठकगण! जिस समय महात्मा बुद्ध के उत्तराधिकारियों ने सत्य से गिरकर नास्तिकपन फैला दिया और स्वामी शङ्कराचार्य के हृदय में इस रोग के कीटों के निवारण करने का विचार उत्पन्न हुआ तो उन्होंने सम्पूर्ण संसार के विरोध पर कमर बाँधी। शङ्कर के समय में समस्त राजा बौद्ध थे। सेठ-साहूकार बौद्ध थे। सारांश यह कि समस्त संसार महात्मा शङ्कराचार्य के प्रतिकूल था, परन्तु यह अपनी इन्द्रियों का राजा संसार को तुच्छ जानकर और उनके प्रभुत्व का तनिक भी विचार न करके बौद्ध धर्म के दबाने के लिए कटिबद्ध हो गया। बड़े-बड़े शास्त्रार्थ हुए। लोगों ने उनके विरोध पर कमर कसी, परन्तु अन्त में वे महात्मा सफलता ही को प्राप्त हुए। समस्त भारत से बौद्ध धर्म को निकाल दिया। यदि शङ्कराचार्य ३२ वर्ष के वय में न मर जाते तो कदाचित् समस्त संसार में बौद्ध धर्म का नाम न रहता और न ही और कोई मत जो बौद्ध मत से उत्पन्न हुए थे, वरन् समस्त संसार में एक वैदिक धर्म ही प्रकाश करता और सम्पूर्ण संसार इस सच्चे सूर्य के प्रकाश से अविद्या और प्रमाद के अन्धकार से बचकर अपने लक्ष्य पर पहुँचने का प्रबन्ध करते और ये बुराइयाँ अर्थात् मुकद्दमेबाज़ी, झूठ बोलना, छल, कपट जो आज संसार में दिखाई पड़ते हैं तनिक भी न दीखते।
प्रिय पाठकगण! जिस समय महात्मा मसीह ने यहूदियों की रीतियों को मनुष्य-जाति के लिए हानिकारक जानकर उनके निवारण करने का प्रयत्न किया, तब भी सारे रूम के मनुष्य उसके विरुद्ध हो गये। महात्मा मसीह ने, जिसने बौद्ध धर्मानुयायियों से शिक्षा प्राप्त की थी, जिसने बुद्ध के इतिहास और वृत्तान्त को भी सुन रखा था, उनके विरोध पर कुछ ध्यान न दिया और काम को धूमधाम से चलाते गये। थोड़े ही वर्षों के उपदेश से सहस्रों मनुष्य उसके विचार के हो गये। उस समय यहूदी बादशाह थे। यहूदी ही धनवान् थे और यहूदी ही मल्ल थे, परन्तु मसीह रिफ़ॉर्मर था। वे संसार के दास थे और यह संसार का विरोधी। यद्यपि मसीह इसी झंझट में अपने एक शिष्य की बेईमानी एवं विश्वासघात से मारा गया, परन्तु उसकी मृत्यु ने भी यहूदियों के सिद्धान्त और रीति-नीति को नष्ट कर दिया। आज आधा संसार इसके अनुयायियों के अधिकार में है। यदि मसीह यावत् जीवन संसार के बन्धन में रहकर प्रयत्न करता तो कभी भी इस मान को नहीं प्राप्त कर सकता था और न इतने मनुष्यों के हृदय पर १९ सौ वर्ष से यहाँ न होते हुए भी अपना प्रभाव बनाये रखता।
प्रिय पाठकगण ! हज़रत मुहम्मद साहब ने अरबस्थान के जङ्गली देशों में मूर्तिपूजा के जोर शोर (प्राबल्य) तथा रक्त की नदी को बहता हुआ देखकर उसके रोकने का प्रयत्न किया। मुहम्मद साहब के विरोधी उस समय संसार के मनुष्य थे, (यहाँ तक कि) उसके अपने परिजन कुरैश भी उसको हानि पहुँचाने पर तुले हुए थे और अरबस्थान की अन्य सब जातियाँ भी इसके प्रतिकूल हो गईं, परन्तु इसने क्या किया? आरम्भ में तो इस महापुरुष ने संसार के विरोध पर ध्यान न दिया जिसके कारण संसार के एक बड़े भाग पर इसने अधिकार जमा लिया, परन्तु यह मूर्ख तथा धैर्य से शून्य था, अतः अन्त में संसार के दासत्व में फंस गया। शहवतपरस्ती (कामासक्ति) तथा क्रोध ने उसको अपने सिद्धान्तों से गिरा दिया और वह एक धार्मिक शक्ति के बदले, जिसका उद्देश्य संसार में शान्ति स्थापित करना था, पॉलिटिकल (राष्ट्रीय) भाव फैलाने लगा जिनका प्रभाव संसार की शान्ति के लिए हानिकारक सिद्ध हो चुका है। उसने जिहाद की ऐसी बुरी शिक्षा (खुंखार तालीम) अरब तथा अफ़गानिस्तान के जङ्गलियों को दी कि जिसने संसार को लाभ के बदले बहुत हानि पहुँचाई।
प्रिय पाठकगण! क्या कारण है कि बुद्ध, शङ्कराचार्य और मसीह अपने सिद्धान्तों से पतित नहीं हुए, परन्तु हज़रत मुहम्मद हो गये? इसका बड़ा भारी कारण जहाँ तक सोचा गया है यह है कि बुद्ध ने राज्य के बन्धन को गले से उतार दिया, स्त्री आदि को छोड़ दिया था। शङ्कराचार्य को तो यह रोग छू तक नहीं गया था और मसीह तो इस रोग से पूर्णतया बचा रहा। इसीलिए ये तीनों महात्मा सफल हुए। मुहम्मद साहब ने खदीजा आदि से विवाह करके संसारी बन्धन अपने गले में लिया था, अतः जिस समय संसार के विरुद्ध वह कुछ करना चाहते थे उस समय संसार एक ऐसा झटका देता था कि उसकी अपनी सारी सुधि भूल जाती थी। दूसरे, मुहम्मद साहब में क्रोध का वेग अरबस्थान में जन्म होने एवं बुद्धिहीनता के कारण इतना था कि जिस समय वह कुरैशों द्वारा दुःखी किये गये, तब निज अपमान स्मरण करते थे, तुरन्त ही बदले का विचार प्रबल हो जाता था और खुदा के भरोसे तथा वास्तविक विचार से दूर जा पड़ते थे।
प्रिय पाठकगण! वर्तमान समय में जब स्वामी दयानन्द ने देखा कि समस्त मनुष्य-जीवन के उद्देश्य से अनभिज्ञ होकर कष्ट उठा रहे हैं तथा संसार के धार्मिक उपदेशक स्वार्थवश मनुष्यों को बहकाकर आपस में लड़ा रहे हैं और सत्य से सब अनभिज्ञ होकर केवल पक्षपात एवं हठधर्मी से एक-दूसरे को बुरा कहने की बान पकड़ गये हैं। प्रत्येक मनुष्य अपने घमण्ड में अपने असत्य विचारों को सत्य समझ रहा है तथा दूसरों के सत्य विचारों को भी झूठा बनाने का प्रयत्न कर रहा है। एक ओर लालच देकर मनुष्यों को अपने धर्म से पतित किया जाता है, दूसरी ओर भय और तलवार दिखाकर अविद्या का राज्य जमाया जाता है। तीसरी, ओर झूठी शिक्षा द्वारा मनुष्यों के विचारों को भ्रमात्मक करके नास्तिक बनाया जाता है और चौथी ओर कानून की पेचदार तकरीरों द्वारा मुकद्दमाबाजी तथा फूट का जोर बढ़ाया जाता है। सारांश यह कि हर ओर संसार के दासत्व की प्रबलता बढ़ रही है। भाई ही भाई के नाश करने को प्रस्तुत है; ऐक्य का नामोनिशान नहीं। धर्म-धर्म कहने को तो बहुत है, परन्तु करने का किसी को ध्यान भी नहीं। ऐसी दशा में तब उस महात्मा ने सुधार पर कमर कसी। विरोध आरम्भ हुआ। एक ओर समस्त संसार के बीस करोड़ मुसलमान-अमीर, नवाब और बड़े पराक्रमी पहलवान, दूसरी ओर ईसाई जिनकी बादशाहत पश्चिम से पूर्व तक फैल रही थी, तीसरी ओर सारे हिन्दू २४ करोड़ की संख्या में थे। बड़े-बड़े राजा, महाराजा, सेठ, साहूकार, पण्डित, संन्यासी और गुसाईं मुक़ाबले पर थे। सबका विरोधी वह ईश्वर का भक्त था। किसी से सन्धि न थी। सब विरोध पर कटिबद्ध थे। बड़े-बड़े शास्त्रार्थ हुए। प्रतिपक्षियों ने खूब ज़ोर लगाया। जब विद्या के बल से काम न चला तो ईंट और पत्थर बरसाये। हुआ क्या? महात्मा तनिक भी नहीं घबड़ाया। वरन् जितना विरोध बढ़ता गया उनको अपनी सफलता की आशा बढ़ती दिखाई दी। पहले मौखिक उपदेश तथा शास्त्रार्थ किये, फिर पाठशालाएँ खोलीं। तत्पश्चात् समाज बनाना, वेदभाष्य करना एवं अपने सिद्धान्तों के प्रचारार्थ पुस्तक रचनी आरम्भ की। परिणाम क्या हआ? संसार के सामने स्वामी दयानन्द अकेला संन्यासी, जिसके पास एक लङ्गोटी के अतिरिक्त कोई और वस्तु न थी, सफलता को प्राप्त हुआ।
प्रिय पाठकगण! बहुधा मनुष्य कहते हैं कि यदि स्वामी दयानन्द ने ५० सहस्र अथवा एक लक्ष मनुष्य अपने विचार के बना लिये तो क्या हो गया? ३० करोड़ मनुष्य तो भारतवर्ष में ही हैं। इस दशा में तीन सहस्त्र मनुष्यों में से एक मनुष्य ले लेना कोई बड़ी बात नहीं है, परन्तु स्मरण रहे कि यदि विजेता को विजय में एक मोती मिल जावे तो बहुत है, जबकि ये तो एक लक्ष मनुष्य हैं, क्योंकि समस्त संसार के मुकाबले में एक मनुष्य का खडे रहना ही असम्भव सा है। तो फिर उससे छीन लेना कोई बड़ी वीरता नहीं है; किन्तु यह तो विचार कीजिए कि एक मनुष्य के पास ५० गाँव हैं और दूसरे के पास एक भी नहीं। अब यदि दुसरा मनुष्य पहले से लड़कर एक गाँव छीन ले तो आप वीर किसे कहेंगे? और फिर लडाई भी ऐसी जिसमें छल या फरेब का लेश न हो। अजी! गाफ़िल (अचेत) पाकर काम कर लेना और बात है, परन्तु संसार से डङ्के की चोट मैदान (क्षेत्र) में मुकाबला करना और। उसको जीतकर उसका भाग छीनना बहुत ही असम्भव है।
प्रिय पाठकगण! हिन्दू पण्डितों और स्वामी दयानन्द का मुक़ाबला तो इतना प्रशंसनीय नहीं, क्योंकि हिन्दुओं का तो यह बिना मुक़ाबला किये ही वेदवेत्ता ब्राह्मण तथा संन्यासी होने के कारण गुरु था ही! परन्तु बात तो यह है कि उसकी प्रबल शक्ति ने वह समय दिखाया कि जो पादरी हमारे हिन्दुओं को धार्मिक शास्त्रार्थ तथा धर्म-निर्णय के लिए चैलेञ्ज (आह्वान) करते थे और हमारे हिन्दू भाई जिनसे शास्त्रार्थ करते हुए घबड़ाते थे, अब उस ऋषि के प्रयत्न से एक उलटी ही अवस्था में हो गये, अर्थात् अब हिन्दू और आर्य तो ईसाइयों को शास्त्रार्थ के लिए ललकारते हैं, परन्तु वे इनसे ऐसे कतराते हैं कि जहाँ कहीं मुठभेड़ हुई तो वे यह कहकर कि 'हमारा समय हो गया अथवा तुम्हें शैतान बहका गया' चल देते हैं। दूसरे, हमारे मौलवी साहब जो पहले हिन्दुओं को बुतपरस्त (मूर्तिपूजक) और स्वयं अपने को ईश्वर की उपासना करनेवाला सिद्ध करते थे और हिन्दू पण्डित सर्वदा उनके साथ शास्त्रार्थ करने में घबड़ाया करते थे, आज उनसे शास्त्रार्थ करने को तैयार नहीं, और जब कभी कहीं छिड़ गया तो मौलवी साहब क्रोध में आकर लड़ने लग जाते हैं।
प्रिय पाठकगण! यदि आप तनिक ध्यानपूर्वक विचारें कि तीस वर्ष पूर्व हिन्दुओं को मुसलमान अपने मत में मिला लेते थे और बहुतों को अपने मत में खींच ले-जाते थे। यही दशा ईसाइयों की थी। यहाँ तक कि कई करोड़ मनुष्य तो मुसलमान हो गये और कोई २५ लक्ष हिन्दू ईसाई हो गये, परन्तु स्वामी दयानन्द के थोड़े-से प्रयत्न ने काया यहाँ तक पलट दी कि अब वर्षों के बिगड़े हिन्दू ईसाई और मुसलमानी मतों को छोड़कर अपने सत्य सनातन धर्म की ओर चले आ रहे हैं। आप चकित होंगे कि उलटी गङ्गा कैसे बहने लगी? परन्तु आपको स्मरण रखना चाहिए कि यद्यपि जल अपने स्वभाव से नीचे की ओर बहता है, परन्तु सूर्य की आकर्षण शक्ति उसको आकाश की ओर ले-जाती है। इसी प्रकार यद्यपि हिन्दू अपनी विद्या को भूल जाने से (स्वभावतः) इस्लाम और ईसाइयत के गड्ढे में जा रहे थे, परन्तु स्वामी दयानन्द ने जो ४८ वर्ष के ब्रह्मचर्य से आदित्य ब्रह्मचारी की पदवी प्राप्त कर चुका था, अपनी आकर्षण-शक्ति से उनको उन गड्ढों से निकालकर फिर ऋषियों के सत्यमार्ग पर, जो आकाश से भी ऊँचा है, ले जाने का प्रयत्न किया है।
प्रिय पाठकगण! जिस प्रकार सूर्य की किरण पृथिवी पर से जल खींचती हुई दिखाई नहीं पड़ती सिवाय ग्रीष्म ऋतु के, इसी प्रकार स्वामी दयानन्द का उपदेश भी प्रत्यक्ष कोई काम करता नहीं दीख पड़ता, परन्तु यदि आप विचारपूर्वक दृष्टिपात करें तो पता लगेगा कि स्वामी दयानन्द ने वैदिक ईश्वरीय धर्म को छोड़कर समस्त मनुष्यकृत मतों को, जिन्हें बुद्धि से काम लेने का कोई प्रयोजन नहीं, जड़ से उखाड़ दिया है। यद्यपि मनुष्य चारों ओर नाना प्रकार की टिप्पणी रूपी पैबन्द लगाकर अपने मतों को बनाये रखना चाहते हैं, परन्तु सम्भव नहीं कि कोई दीपक सूर्य के सम्मुख काम कर सके; अथवा कोई मनुष्य जिसके नेत्रों में किसी प्रकार का दोष न हो, सूर्य के होते हुए दीपक जलाकर व्यर्थ में अपना तेल गँवावे, अतः हे प्रिय भ्राताओ! यदि आप सफलता की इच्छा रखते हैं तो संसारी बन्धन को तोड़कर फेंक दो और सच्चे हृदय से प्रयत्न में लग जाओ। फिर देखो, कितनी शीघ्र सफलता प्राप्त होती है।
✍🏻 लेखक - स्वामी दर्शनानन्द जी
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥