मेरे अनेक मूर्तिपूजक मित्र है। सभी जानते है कि मैं मूर्तिपूजा नहीं करता क्यूंकि ईश्वरीय ज्ञान वेद में मूर्तिपूजा को अमान्य कहा है। कारण ईश्वर निराकार और सर्वव्यापक है। इसलिए सृष्टि के कण कण में व्याप्त ईश्वर को केवल एक मूर्ति में सीमित करना ईश्वर के गुण, कर्म और स्वाभाव के विपरीत है। ईश्वर हमारे ह्रदय में स्थित आत्मा में वास करते है। इसलिए ईश्वर कि स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना के लिए मूर्ति अथवा मंदिर कि कोई आवश्यकता नहीं है। इसलिए अपने भीतर ही ईश्वर को खोजना चाहिए।
आज एक मित्र ने मुझसे मूर्तिपूजा को लेकर शंका पूछी। उन्होंने कहा मूर्तिपूजा अध्यात्म जगत में प्रथम सीढ़ी है। जो अल्पमति लोग है उनके लिए मूर्तिपूजा का प्रावधान किया गया था। मैंने उत्तर दिया फिर तो पहली सीढ़ी चढ़ने के पश्चात अगली सीढ़ी चढ़कर निराकार ईश्वर कि स्तुति-प्रार्थना एवं उपासना तक अनेक लोगों को पहुँचना चाहिए। मगर हम किसी भी मूर्तिपूजक की ऐसी प्रगति नहीं देख पाते। उल्टा हम उनकी अवनति देखते है। उदहारण के लिए वैदिक काल में केवल निराकार ईश्वर कि उपासना का प्रावधान था। मध्यकाल में बुद्ध और जैन मत वालों ने बुत पूजा आरम्भ करी। उन्हें देखकर श्री राम जी और श्री कृष्ण जी की मूर्तियां बनाई जाने लगी। मध्य काल के अग्रिम भाग में विभिन्न पुराणों की रचना हुई। जिससे अनेक कल्पित अवतार प्रचलित हुए। विभिन्न अवतारों की मूर्तियां बनने लगी। कालांतर में देवियों का प्रवेश हुआ। मूर्तिपूजा में विभिन्न मतों के प्रवर्तकों, गुरुओं आदि जुड़ गए। अगली सीढ़ी तो अभी बहुत दूर थी। कलियुग में केवल मूर्ति का सहारा ऐसा सिखाया गया। इसका प्रभाव ऐसा हुआ कि मूर्तिपूजा में अब एक ऐसा दौर आया कि लोग श्री राम, श्री कृष्ण और वीरवर हनुमान जी को भी भूलने लग गए। महान पुरुषों का स्थान अब साईं बाबा उर्फ़ चाँद मियां एवं अजमेर वाले गरीब नवाज़ की कब्र ने ले लिया। बुत परस्ती अब कब्र परस्ती में बदल गई। जिन हिन्दुओं को अगली सीढ़ी चढ़ना था वो जमीन के अंदर समा गए। अक्ल में दखल देना बंद हुआ। हिन्दुओं को इतनी भी मति न रही कि साईं बाबा और गरीब नवाज सभी बिगड़े काम बनाने वाले बन गए। राम और कृष्ण के मंदिरों खाली हो गए। रामायण-महाभारत और गीता का पाठ छूट गया। वेद, दर्शन और स्मृतियों का स्वाध्याय तो अतीत कि बात हो गई। साईं संध्या गाई जा रही है। अब कब्रों पर कलमा पढ़ सुन्नत की तैयारी हो रही है।
आगे ईश्वर ही इस हिन्दू समाज का रक्षक होगा। इसलिए मित्रों इस काल्पनिक तर्क से बाहर निकले कि मूर्तिपूजा अध्यात्म की पहली सीढ़ी है। मूर्तिपूजा सीढ़ी नहीं अपितु गहरा गड्ढा है। इसमें जो एक बार गिरा। तो निकलने के लिए बहुत प्रयास करना होगा।
आईये वेद विदित निराकार ईश्वर कि स्तुति, प्रार्थना और उपासना अपने ह्रदय में स्थित आत्मा में ही करें। इसी में हिन्दू समाज का भला है।
(इस लेख का उद्देश्य हिन्दू समाज में मूर्तिपूजा के कारण हो रही दुर्दशा से सभी को परिचित करवाना है। कृपया निष्पक्ष रूप से अपनी प्रतिक्रिया दीजिये)
डॉ विवेक आर्य