Wednesday, July 29, 2015

कुछ मुर्ख हम आर्यों को सत्य मार्ग से कभी दूर नहीं कर सकते।





कुछ मुर्ख हम आर्यों को सत्य मार्ग से कभी दूर नहीं कर सकते।




आज प्रातकाल: फेसबुक पर कुछ अज्ञानी लोगों की करतूत देखी। उन्होंने स्वामी दयानंद के चित्र पर कुछ फोटोशॉप कर ऊटपटांग सा बनाने का प्रयास किया। हमारे कुछ आर्य भाई उसे देख आवेश में आ गये।




मेरे मन में केवल एक विचार आया। अगर स्वामी दयानंद आज होते तो क्या करते?




इसके उत्तर स्वामी जी के जीवन चरित्र में पूना प्रवास के समय का मिलता है। स्वामी जी के उपदेशों के प्रभाव से पूना के कुछ अज्ञानी लोगों में खलबली मच गई। उन्होंने स्वामी जी के विरोध में एक गधे को गेरुए रंग से सजाकर, उस पर काषाय रंग की झूल डालकर गर्दभानन्द सरस्वती लिख दिया। इसके बाद गर्दभानन्द की जय के नारे लगाते हुए जुलुस निकाला। स्वामी जी ने जब यह जुलुस देखा तो मुस्कुराये और बोले- "नकली गर्दभानन्द के साथ तो ऐसा ही होना चाहिये।"

स्वामी जी की स्थितप्रज्ञता एवं आवेश में न आने के गुण का उनका उपदेश सुनने आये दर्शकों पर व्यापक प्रभाव पड़ा।




धन्य हैं वीतराग सन्यासी जो परनिंदा से अपने आपको सुरक्षित रखे हुए थे।




आज सभी आर्यों को स्वामी दयानंद के जीवन की इस प्रसंग से शिक्षा लेनी चाहिए की परनिंदा में अपने बहुमूल्य और कीमती समय को न लगाकर तप, स्वाध्याय और ईश्वर उपासना से जीवन का उद्धार करे। स्वामी दयानंद के जीवन के इस सन्देश को आर्यों को प्रचार करने की प्रबल आवश्यकता हैं तभी देश, जाति और धर्म का कल्याण होगा।




सन्देश-




पावका नः सरस्वती वाजेभिर्वाजिनीवती ।

यज्ञं वष्टु धियावसुः ॥
-- ऋग्वेद १ - ३ - १०

भावार्थ -- सब मनुष्यों को चाहिये कि वे ईश्वर की प्रार्थना और अपने पुरुषार्थ से सत्य विद्या और सत्य वचनयुक्त कामों में कुशल और सब के उपकार करनेवाली वाणी को प्राप्त रहें , यह ईश्वर का उपदेश है ॥


- महर्षि दयानन्द सरस्वती




डॉ विवेक आर्य

वेद रूपी गंगा



वेद रूपी गंगा

इंग्लैंड प्रदेश से एक विदेशी जिज्ञासु युवक गंगा नदी की महिमा सुनकर कोलकाता आया। मगर हावड़ा पुल से गंदे गंगा जल को देखकर वह हैरान हो गया। उसके मन में शंका हुई कि क्या यही गंगा नदी है जिसके जल को अमृत समान माना जाता है? एक पंडित जी से उन्होंने अपनी शंका करी। पंडित जी उन्हें लेकर कानपूर गये और गंगा के दर्शन करवाये। वहां का जल उन्हें कुछ अच्छा लगा। पंडित जी उन्हें लेकर हरिद्वार गये। वहां का जल उन्हें पहले से अधिक अच्छा लगा। पंडित जी उन्हें लेकर गंगोत्री गये। वहाँ का जल ग्रहण कर वह युवक प्रसन्न हुआ और कहा की यह साक्षात अमृत है।
हिन्दू समाज की वर्तमान मान्यताएँ, वर्तमान स्वरुप, वर्तमान आस्थाएं सदियों के प्रवाह से कुछ विकृत, कुछ परिवर्तित हो गई हैं। जिससे इसका वर्तमान स्वरुप बदल गया है। इस परिवर्तित स्वरुप को देखकर कुछ लोग अंधविश्वासी, नास्तिक, आचारहीन, विधर्मी आदि हो रहे हैं। इसलिये संसार कि इस श्रेष्ठ विचारधारा को जानने के लिये इसके उद्गम तक जाना होगा। यह उद्गम वेद का सत्य ज्ञान है। वेद वह सत्य ज्ञान है जिसका पान करने वाला सदा के लिये अमर हो जाता हैं।
वेद का प्रदाता ईश्वर हैं इसलिये उसमें कोई दोष नहीं हैं। काव्य रूपी वेद को उत्पन्न करने वाले ईश्वर का एक नाम जातवेदा: इसलिये हैं।वेद को ,परमात्मा द्वारा मनुष्यों के कल्याण के लिये दिया गया ज्ञान बताया गया है। अथर्ववेद में 16/71/1 में परमात्मा कहते है- हे मनुष्यों! तुम्हारे लिए मैंने वरदान देने वाली वेद माता की स्तुति कर दी है, वह मैंने तुम्हारे आगे प्रस्तुत कर दी है। वह वेद माता तुम्हें चेष्टाशील, द्वीज और पवित्र बनाने वाली है। आयु अर्थात दीर्घजीवन, प्राण, संतान, पशु, कीर्ति, धन-संपत्ति और ब्रहावर्चस् अर्थात ब्राह्मणों के तेज अर्थात विद्या- बल रूप वरों को यह वेद-माता प्रदान करती है। वेद माता के स्वाध्याय और तदनुसार आचरण द्वारा प्राप्त होने वाले इन आयु आदि सातों पदार्थों को मुझे दे कर, उन्हें मदर्पण, ब्रहार्पण कर के ब्रह्मलोक अर्थात मोक्ष को प्राप्त करो।
डॉ विवेक आर्य

Tuesday, July 28, 2015

भ्रूण हत्या महापाप है



एक स्त्री एक दिन एक स्त्रीरोग विशेषज्ञ के पास के गई
और बोली, " डाक्टर मैँ एक गंभीर समस्या मेँ हुँ और मै
आपकी मदद चाहती हुँ । मैं गर्भवती हूँ, आप
किसी को बताइयेगा नही मैने एक जान - पहचान के
सोनोग्राफी लैब से यह जान लिया है कि मेरे गर्भ में एक
बच्ची है। मै पहले से एक बेटी की माँ हूँ और मैं किसी भी दशा मे
दो बेटियाँ नहीं चाहती ।
" डाक्टर ने कहा ,"ठीक है, तो मै आपकी क्या सहायता कर
सकता हुँ ?" तो वो स्त्री बोली," मैँ यह चाहती हू
कि इस गर्भ को गिराने मेँ मेरी मदद करें ।" डाक्टर अनुभवी और
समझदार था। थोडा सोचा और फिर बोला,"मुझे लगता है कि मेरे
पास एक और सरल रास्ता है
जो आपकी मुश्किल को हल कर देगा।" वो स्त्री बहुत खुश हुई..
डाक्टर आगे बोला, " हम एक काम करते है आप
दो बेटियां नही चाहती ना ?? ?
तो पहली बेटी को मार देते है जिससे आप इस
अजन्मी बच्ची को जन्म दे सके और आपकी समस्या का हल
भी हो जाएगा. वैसे भी हमको एक बच्ची को मारना है
तो पहले वाली को ही मार देते है ना.?"
तो वो स्त्री तुरंत बोली"ना ना डाक्टर.".!!!
हत्या करना गुनाह है पाप है और वैसे भी मैं अपनी बेटी को बहुत
चाहती हूँ । उसको खरोंच भी आती है तो दर्द का अहसास मुझे
होता है डाक्टर तुरंत बोला,"पहले
कि हत्या करो या अभी की जो जन्मा नही
उसकी हत्या करो
दोनो ही पाप हैं।" यह बात उस स्त्री को समझ आ गई ।
वह स्वयं की सोच पर लज्जित हुई और पश्चाताप करते हुए घर
चली गई।

क्या आपको समझ मेँ आयी?

अगर आई हो तो Share करके दुसरे लोगो को भी समझाने मे मदद
कीजिये
....बडी कृपा होगी ।

हो सकता है आपका एक Share किसी की सोच बदल दे

जीवन का बीमा


जीवन का बीमा

दो मित्र थे। बड़े परिश्रमी और मेहनती। अपने परिश्रम से दोनों एक दिन बड़े सेठ बन गए। दोनों ने बड़ा व्यवसाय खड़ा कर लिया। पहले सेठ ने अपनी सारी संपत्ति का बीमा करवा लिया। उसने अपने मित्र को बार बार यही परामर्श दिया की वह भी अपनी सम्पत्ति का बीमा करवा ले। परन्तु दूसरे मित्र ने उसकी बात को अनसुना कर दिया। दुर्भाग्य से एक दिन शहर में आग लग गई। दोनों की सारी संपत्ति जल कर राख हो गई। पहले सेठ ने बीमा करवा रखा था इसलिये उसे सारी संपत्ति वापिस मिल गई जबकि दूसरा मित्र निर्धन बन गया। मगर हाथ पछताने के अतिरिक्त उसके पास कोई चारा नहीं बचा था।
मनुष्य का यह जन्म भी सेठ की संपत्ति के समान है। हम सभी को मालूम है की एक दिन इस शरीर को भस्म होना है मगर हम हैं की जीवन के इस अटल सत्य को जानकर भी अनसुना कर देते हैं। हम इसका कभी बीमा नहीं करवाते। न सत्कर्म करते है, न अभ्यास और वैराग्य द्वारा मोक्ष मार्ग को सिद्ध करते हैं, न योग मार्ग के पथिक बनते है, न ईश्वर का साक्षात्कार करते है। इसके विपरीत भोग, दुराचार, पाप, राग-द्वेष, ईर्ष्या, अभिमान, अहंकार, असत्य आदि के चक्कर में अपना बीमा ही करवाना भूल जाते हैं।
वेद में अनेक मन्त्रों के माध्यम से जन्म-मरण और मुक्ति की पवित्र शिक्षा को कहा गया हैं-
शरीररूप बंधन में आकर जीवात्मा जहाँ तहाँ भटकता है- वेद
शरीर नश्वर है इसके रहते हुए जो श्रेष्ठ कर्म किया जा सके करले अपने को संभाल के परमात्मा का स्मरण कर-वेद
जीवात्मा वासनावश ऊँची नीची योनियों में शरीर धारण करता है, शरीर अस्थिर है-वेद
मैं नश्वर कच्चे घर(शरीर) में फिर न आऊं- वेद
हमें नश्वर शरीर की प्राप्ति न हो, सर्वथा अखंड सुखसम्पत्ति मुक्ति को प्राप्त हो।
डॉ विवेक आर्य

यह कौन चित्रकार है?



यह कौन चित्रकार है?
संसार कि अदभुत सुंदरता को देखो। पृथ्वी,आकाश, भूमण्डल, सूर्य, चन्द्रमा, गृह, पर्वत, नदियाँ से लेकर विभिन्न पशु,पक्षी, चिड़िया आदि हमें किसका स्मरण करा रहे हैं? एक ही सत्ता का जिसे हम ईश्वर के नाम से जानते हैं। उन ईश्वर का एक नाम "विश्वकर्मा" भी है। ईश्वर को विश्वकर्मा इसलिए कहा गया है क्यूंकि केवल ईश्वर में वह सामर्थ्य हैं कि वह विश्व के समस्त पदार्थों को प्रलय में अपने अंदर अव्यक्त रूप कर देता है। वही ईश्वर "जनक" के नाम से भी जाना जाता है क्यूंकि आश्रयदाता के कर्तव्य का पालन करते हुए वह ईश्वर पुन: जगत को अव्यक्तरूप से व्यक्त रूप में स्थापित करता हैं। सभी जीवों को शरीर धारण कराता हैं। न प्रकृति, न जीव उसके शासन का विरोध कर सकते हैं। यह सृष्टि की रचना और प्रलय,यह जीव का जन्म-मरण सब उसी के अधीन हैं। इसीलिए उस विश्वकर्मा जनक परमात्मा की इस कृपा की महता को समझते हुए उसकी महिमा का गान अवश्य करना चाहिये। इस जगत के पदार्थों का भोग करते हुए उसे बनाने वाले महान चित्रकार, महान अधिष्ठाता को कभी नहीं भूलना चाहिये। ईश्वर की उपासना में अपना कल्याण समझना चाहिये और मानव जीवन को सफल बनाना चाहिये।
डॉ विवेक आर्य

Monday, July 27, 2015

त्रैतवाद अर्थात ईश्वर, जीव और प्रकृति में सम्बन्ध


त्रैतवाद अर्थात ईश्वर, जीव और प्रकृति में सम्बन्ध
एक माली ने बहुत सुंदर बाग लगाया। एक युवक सुन्दर कपड़े पहने हुए माली से बाग देखने की इच्छा प्रकट करता हैं। माली एक शर्त पर की आप कोई भी फल-फूल नहीं तोड़ेंगे बाग में जाने कि आज्ञा दे देता हैं। वह युवक बाग में घूमते हुए फल-फूल आदि देखकर मोहित हो जाता है। उसके मन में विचार आता है कि अगर मैं कुछ फूल तोड़ कर अपनी जेब में छुपा लूँ तो किसी को पता नहीं चलेगा। उस युवक ने कुछ फल-फूल तोड़ कर अपनी जेब में छिपा लिये। जब वह बाहर निकलने लगा तो माली ने नियम अनुसार उसकी जेब तलाशी। माली ने उस युवक को अपराध में पुलिस के हवाले कर दिया। चोरी के दंड में उसे जेल भेज दिया गया।
यह जो माली है ईश्वर है जिन्होंने सृष्टि रूपी यह सुन्दर बाग लगाया है। ईश्वर ने आत्मा को मनुष्य रूप धारण कर घूमने अर्थात कर्म करने की स्वतंत्रता दी है। मनुष्य नियम का पालन करने के स्थान पर भोग रूपी कर्म करता है। इसके अपराध में ईश्वर उसे अगले जन्म रूपी बाग में कर्म करने के लिये भेज देता हैं।
यही त्रैतवाद का अटल सत्य सिद्धांत है। ईश्वर मनुष्य को मोक्ष रूपी सुख देने के लिये सृष्टि का निर्माण करता है एवं कर्म की स्वतंत्रता का अधिकार देता हैं। यजुर्वेद के 40 वें अध्याय के प्रथम मंत्र में सन्देश दिया गया हैं-
ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत। तेनत्येक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम॥
ईश्वर सदा सब को देख रहा है, यह जगत ईश्वर से व्याप्त है और ईश्वर सब स्थान पर विद्यमान है। संसार के सभी पदार्थों को त्याग की भावना से भोग कर। धर्मात्मा होकर इस लोक के सुख और परलोक के मोक्ष की अभिलाषा कर।

मन ही मनुष्यों के बंधन और मुक्ति का कारण है।



मन ही मनुष्यों के बंधन और मुक्ति का कारण है।
राजा जनक ब्रह्म विद्या में पारंगत विद्वान माने जाते थे। दूर दूर से लोग उनके पास धर्म सम्बन्धी जिज्ञासा का समाधान करने आते थे। एक बार एक महात्मा व्यक्ति उनसे मिलने आये। उन्होंने चंचल मन के पाश से छूटने का उपाय पूछा। राजा जनक अपने स्थान से उठे और एक वृक्ष को जोर से पकड़ कर बोले- "अगर यह वृक्ष हमें छोड़ दे तो हम आपके प्रश्न का उत्तर दे पाये।" प्रश्न पूछने वाले महात्मा का दिमाग चकरा गया। उसके मन में शंका हुई क्या यही राजा जनक है जो सम्पूर्ण भूमण्डल में ब्रह्म विद्या के ज्ञाता के रूप में प्रसिद्द है और एक वृक्ष को पकड़ कर कह रहे हैं की अगर यह वृक्ष हमें छोड़ दे तो हम आपके प्रश्न का उत्तर दे पाये। महात्मा बोले- महाराज! आपको जड़ वृक्ष कैसे पकड़ सकता है? यह तो आपने स्वयं ही पकड़ा हुआ है। आप वृक्ष छोड़ दे, आप स्वयं छूट जायेंगे। महाराज जनक ने कहा- क्या आपको दृढ़ विश्वास ह की यह छूट जायेगा? महात्मा बोले महाराज यह तो बिलकुल प्रत्यक्ष है कि आप वृक्ष छोड़ दें तो आप छूट जायेंगे। महाराज जनक ने कहा ,"बस इसी भाँति आपने मन को पकड़ा हुआ है। यदि आप मन को वश में कर ले और इसके फंदे में न आयें तो मन कुछ नहीं कर सकता। आप इस जड़ मन को चाहे सुमार्ग पर चलाये, चाहे कुमार्ग पर। यह आपके अधीन है। बिना जीव कि इच्छा के मन में संकल्प नहीं हो सकते। इसलिये मन को वश में करना व्यक्ति के अधीन है।" यह सुनकर ब्राह्मण प्रश्न ह राजा जनक के ब्रह्मज्ञानी होने की प्रशंसा करने लगा।
यजुर्वेद के 34 वें अध्याय के प्रथम 6 मन्त्रों को शिवसंकल्प मन्त्रों के नाम से जाना जाता हैं। इन मन्त्रों में मन के संकल्पों को शिव अर्थात कल्याणकारी बनाने का उपदेश हैं। जिससे व्यक्ति परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए हितकारी बने। शिवसंकल्प अपने अधिकार और कर्तव्य पालन को एक सूत्र में संयुक्त करना भी कहलाता हैं। ऐसे संकल्प मन को बनाकर अपना तथा सब का हित साधना मानवधर्म है। शिवसंकल्पन मन मानव को उठाता है और अशिवसंकल्प मन मानव को गिराता है।
शिक्षा- मन ही मनुष्यों के बंधन और मुक्ति का कारण है।

डॉ विवेक आर्य

Little knowledge is always dangerous.


Little knowledge is always dangerous.

Journo Sagarika Ghosh has promptly proved this proverb by writing an article on politics and Indian scholars in Ancient India. She was trying to target Sangh Parivar, Saffron wing, Savarkar, Hedgewar etc. but unknowingly she exposed her futile knowledge. She proved that English speaking convent educated so called modern breed of our country are dummy progeny of west.

We will serially analyze her article and post counter views point by point.

[SG- Sagarika Ghosh MV- My view point]

SG: Indian right or the Hindutva movement lacks intellectuals of global stature.

MV: Everything Global is always from west. Please come out of this stigma. We provide the intellectual knowledge of Vedas which can guide the whole humanity. Sorry to say that the so called educated class of country does not possess even the slightest knowledge of the Vedas and whatever they know is wrong and shoddy interpretations provided by western thinkers. It’s well known that Macaulay and Maxmuller conspired against social and cultural foundations of our country. They uprooted Gurukul system of education and introduced western system of education. It was devoid of proper learning thus leading to atheistic and non-sympathetic view point of present generations. How can we expect from the westerners that they will admire the Vedic Philosophy?  Instead they always try to oppose and averse it. That’s the main reason that you will never find any Indian of global stature with indigenous nonwestern viewpoint. Whatever exception you find is due to blind observance of west thoughts.

SG: The Indian tradition may have had a preponderance of thinkers on spirituality, divinity and otherworldly concerns, but where for example is the Bhartiya John Locke or Thomas Paine? Where’s the Bhartiya Magna Carta? The exception is the Arthashastra, but that’s over 2,000 years old.
MV: This is the main problem of ignorance. If I do not know any topic it never means that it does not exist. SG seems to be completely unaware of pride history of our country, our old sages who solved the mysteries of this world by meditating and analyzing, our old Acharya’s who taught the mankind the true knowledge of God. Way back before Arthashastra why she forgets the four Sages Agni, Vayu, Aditya and Angira who are regarded as Vedic seers who first propounded the Vedas.  Why she forgets hundreds of names of each Rishi mentioned with each mantra who first understood the meaning of Vedic Mantra.  Why she is unaware of Acharyas of six Indian School of philosophy Gautama of Nyaya Darshan, Patanjali of Yoga Darshan, Samkhya of Kapila, Vedanta of Badarayana, Vaisesika of Kanada and Mimansa of Jamini. Why she is blank on name of Rishi Vashista and Rishi Vishvamitra? She completely ignored the message of Upanishads mentioning Yajvalakya-Matrayi, Yam-Nachiketa, Jabala Rishi dialogues. I am surprised that she completely ignored the epics of Ramayana and Mahabharata. The rule of King Rama was so prosperous that any ideal rule is considered as “Ram Rajya”. Not to forget even Mahatma Gandhi acknowledged it. Different dialogues between Ram-Parshuram, Ram-Vishamitra, Janak-Ram, Ravan-Lakshman etc. are expounding political science and duties of a king. The problem with this class is that they have developed a habit of considering all great epics as myth. It’s again a biased western idea. Shukra Niti is another book about politics missed by SG. Why did she forget rule of Raja Bhoj who firmly admitted that in my kingdom there is no beggar, no thief, no rapist, no poor, no sinner and no one sleeps hungry. All country man performs Yagya and read Vedas. Please tell me who was the guide for king like Raja Bhoj? Definitely our indigenous texts existed in those days .You already rejected them as a myth. The only text you mentioned is Arthashastra by Chanakya. I think you are not aware that few westerns unsuccessfully tried to say that even Chanakya was a myth. My opinion is that they have to mention his name halfheartedly as he was associated with King Asoka. If SG would have got opportunity to consult the Arthashastra with preciosity, she would have definitely reached the conclusion that it’s influenced by Manu Smriti.

SG: The Bhagwad Gita does not contain tenets of liberal governance but is predominantly concerned with good and bad conduct.

MV: Bhagwad Gita is a part of great epic Mahabharata. Apart from Gita Mahabharata bears different dialogues between Bhishma-Yudhishthira, Bhishma-Arjuna, Bhishma-Krishna, Krishna-Arjuna, Vidura-Krishna, Yaksha-Yudhishthira etc. These are capable of guiding a king or ruler. Problem is that people should come out of mindset of considering everything foreign as good. SG even ignored Vidur niti one of splendid and magnificent work by wise Vidur. I think she has a habit of ignoring.

SG: The Manusmriti cannot really be a blueprint for a liberal progressive society.

MV: This is the best part of this article I want to reply. Our country is full of outspoken self-acclaimed experts who feel pride in speaking against Manusmriti. Almost all of them are unaware of this fact that eponymic Manusmriti is foremost constitution of this universe. It was composed by Aadi Manu for the benefit of Mankind. In the middle age Manusmriti was adulterated by some selfish persons. They interpolated various verses in support of casteism, denigrating women rights, animal killing etc. Thus, leaving an impression that Manusmriti is not useful for liberal progressive society. The solution to this problem was solved by Swami Dayanand. He rejected the adulterated portion and accepted the authentic part. This task is just equivalent to a surgeon who does not chop the whole arm of the patient but believes in limb saving surgery. After insight of authentic part of Manusmriti we easily reach this conclusion that why Swami Dayanand was big admirer of Manusmriti. In his famous work Satyarth Prakash sixth chapter he talks about Raj Dharma. He concludes the chapter by saying that “Those, who want to study duties of Ruler in detail, they can refer the Vedas, the seventh, eighth and ninth chapters of Manu, the Shukraniti, Vidur prajaagar, Rajadharma and Apatadharma chapters of Shantiparva of Mahabharata.” Swami Dayanand provides multiple references from Manusmriti on politics. I am elaborating how Vedas and Manusmriti guide a King about politics.

Vedas on politics

(God teaches), "Let there be for the benefit of the rulers and the ruled three Assemblies -
1.       Religious 2.Legislative 3. Educational

Let each discuss and decide subjects that concern it, and adorn all men with knowledge, culture, righteousness, independence, and wealth, and thereby make them happy. RIG VEDA 3/38/6

Let the three Assemblies, Military Councils, and the Army harmoniously work together to carry on the government of a country. ATHARVA VEDA 15/2/6/2

A king should address the Assembly. Let the leader of the Assembly abide by the just laws passed by the Assembly, and let other members do the same. ATHARVA VEDA 19/7/55/6

O learned men! Proclaim that man with one voice your king – the President and Head of the State - who is just, impartial, well-educated, cultured and friend of all. In this way alone shall ye attain universal sovereignty, be greater than all, manage the affairs of the State, obtain political eminence, acquire wealth, and rid the world of its enemies. YAJUR VEDA 9/40

God teaches in the Veda, "Rulers! Your implements of warfare, (such as, guns, rifles, bows, arrows, etc.) and war-materials (such as gun-powder) be worthy of praise, strong and durable to repel and conquer your enemies. Let your army be a glorious one, so that you may always be victorious. But the aforesaid things shall not be attainable to the contemptible, the despicable, and unjust. RIG VEDA 1/39/2

These are few examples from Vedas on politics.

Manusmriti on Politics-


QUALIFICATIONS OF THE HEAD OF THE STATE
He should be as powerful as electricity: as dear to his people's hearts as their very breath, able to read the inmost thoughts of others, and just in his dealings as a Judge. He should enlighten people's mind by the spread of knowledge, justice, and righteousness, and dispel ignorance and injustice as the sun illuminates the world. He should be like one who consumes wickedness like fire, keeps the wicked and the criminal under control like a jailer, gladdens the hearts of the good like the moon; makes the country rich and prosperous, as a treasurer keeps his treasury full; is powerful and majestic like the sun, keeps the people in order and awe; and on whom no one in the whole world dares to look with a stern eye. He alone is then fit to be the Head of the State who is like fire, air, the sun, the moon, a judge, a treasurer, a  keeper of wicked under control and absolute majesty. MANU 7/4, 6, 7

Manu smriti gives vivid description on different aspects of politics like Law (MANU 7: 17, 19, 24, 28, 30, 31), division of offices (MANU 12: 100, 110-111), qualification of members of the political assembly (MANU 7: 43-53), qualification of ministers (MANU 7: 54-57, 60-62, 64), duty of ministers and officials (MANU 7: 65, 66, 68, 70, 74-78), revenue (MANU 7: 80-82, 87, 89, 91-97), wealth (MANU 7: 99-101, 104-108, 110-117, 120-124), implementation of taxes (MANU 7: 128, 129,139, 140,142-144), administration of justice (MANU 8: 3-8, 12-16).

Detailed analysis and inquisition will make us understand politics in Vedas and related texts.

TAKE HOME MESSAGE

Instead of just focusing on west, our intellectual class should start showing interest in learning our own Ideology which is not even practical but advance, rich, splendid, progressive and perfect. Otherwise wise people will always reward them with this proverb-
“Little knowledge is always dangerous”

Dr Vivek Arya

Link of Article by Sagarika Ghosh in Times of India newspaper published on 22 July, 2015


Please send email to SG at her email ID for supporting our viewpoint


Sagarika.Ghose@timesgroup.com

Saturday, July 25, 2015

स्वामी दयानंद का अमृतसर आगमन एवं ईसाई पादरी



स्वामी दयानंद का अमृतसर आगमन एवं ईसाई पादरी
स्वामी दयानंद के पंजाब प्रवास के काल में उनका 15 मई, 1878 को अमृतसर में आगमन हुआ। स्वामी जी के अनेक स्थानों पर व्याख्यान हुए जिससे लोगों कि वेदों के प्रति आस्था जागृत हुई। स्वामी जी को ज्ञात हुआ कि अमृतसर के मिशन स्कूल के लगभग चालीस हिन्दू छात्र पादरियों की बातें सुनकर ईसाई बनने जा रहे हैं। स्वामी जी का व्याख्यान सुनकर सभी का भ्रम जाता रहा और वे हिन्दू ही बने रहे।
ईसाईयों ने पादरी खड़क सिंह जो 12 वर्ष पहले सिख से ईसाई बना था को स्वामी जी से शास्त्रार्थ करने के लिए बुलाया। पादरी खड़क सिंह मिशन स्कूल के प्राध्यापक ज्ञान सिंह से मिले और उनसे जानना चाहा कि पादरियों ने उन्हें किस से शास्त्रार्थ करने के लिए बुलाया हैं। ज्ञान सिंह उन्हें स्वामी जी के पास ले गए। स्वामी जी को नमस्ते कर खड़क सिंह उनके समीप बैठ गया। स्वामी जी के ब्रह्मचर्य से तपे हुए आकर्षक व्यक्तित्व एवं वेदों के ज्ञान का उस पर व्यापक प्रभाव हुआ की पादरी खड़क सिंह का ईसाइयत से विश्वास उसी समय हट गया और वह स्वामी जी का अनुयायी बन गया। । स्वामी जी उस समय एक ब्राह्मण द्वारा पूछे गए प्रश्नों का उत्तर दे रहे थे। पादरी खड़क सिंह ने उत्तर देना आरम्भ कर दिया। उस ब्राह्मण ने कहा कि वह इन प्रश्नों का उत्तर स्वामी जी से चाहता है। पादरी खड़क सिंह ने ब्राह्मण से कहा कि यदि आप मेरे उत्तरों से संतुष्ट नहीं हो, तो आप स्वामी जी से पूछ सकते हैं। वह ज्ञान सिंह के पास रुक कर वैदिक धर्म का प्रचार करने लगा। पादरी खड़क सिंह ने अपनी दो पुत्रियों का विवाह आर्यों संग किया।
ईसाईयों में इस प्रकरण का ऐसा प्रभाव हुआ कि उनमें खलबली मच गई। उन्होंने कोलकाता तार भेजकर प्रसिद्द ईसाई के.म. बनर्जी को ईसाई मत की रक्षा के पंजाब आने का निवेदन किया। स्वामी जी भी उसकी प्रतीक्षा में अमृतसर में ही रुक गए। ईसाईयों ने उसे शीघ्र आने को कहा तो उसने तार भेजा कि उसकी पुत्री बीमार हैं। वह नहीं आ सकते। ईसाईयों ने दबाव बनाते हुए तार भेजा कि यदि उनकी लड़की मर भी गई तो ईसा मसीह के पास ही जायेगी और आपका पंजाब आना ईसाइयत को बचायेगा। बनर्जी नहीं आये। ईसाई लोग निराश हो गये। अनेक ईसाई शुद्ध होकर हिन्दू बन गए।
स्वामी जी का सभी नगर वासियों ने ईसाईयों से हिन्दू समाज की रक्षा के लिए धन्यवाद किया।
आधुनिक समय में हिन्दू समाज में बिछड़े हुए भाइयों को शुद्ध कर वापिस लाने का श्रेय सर्वप्रथम स्वामी दयानंद को जाता हैं। आज कितने हिन्दू स्वामी जी के इस उपकार के लिए कृतज्ञ हैं?
डॉ विवेक आर्य

Drama on name of Intellect


Drama on name of Intellect

Mass Media is full of Drama being propagated on name of intellect. The lobby supporting this mess defines itself as “Civil Society”. I am always questioning myself on this nomenclature. Are the individuals who are not part of this society uncivilized? What are the criteria’s to become active member of this society or consider one as civil?  One must have secular credentials. This credibility is very easy to earn.

1.            Just say I am an atheist.
2.            I do not believe in God.
3.            Hinduism is full of archaic thoughts and superstitions.
4.            India was glorified first during reign of Asoka and Akbar due to impact of Buddhism and Islam.
5.            Islam is the most peaceful religion.
6.            Hindus are radical and fundamentalist in thoughts as well as action.
7.            Every Muslim is not a terrorist but all Hindus are saffronized terrorists because they chant the name of Rama and Krishna.
8.            Hindus must always offer their daughters to marry Muslim boys to strengthen bonding between the two religions.
9.            Hindus must never seek Muslims daughters because it will create tension between the two communities.
10.          Hindus must support Muslims in their stand against Israel on Gaza strip while they should never open mouth on Kashmir and Bengal because Hindus are majority and Muslims are minority.
11.          Muslims have first right on all resources of country being minority.
12.          Rama and Krishna were a myth and Ramayana and Mahabharata are man-made stories.
13.          Vedas are nonsense stories of shepherd first uttered by group of invaders tribe name Aryans who came from outside and became rulers.
14.          Knowledge of foreigners is superior to ours.
15.          Love Jihad is a myth.
16.          Ghar Vapsi or Shuddhi is a blot to secular society while conversion by Christian missionaries is for upliftment of poor and downtrodden.
17.          Alcoholism, Smoking, Narcotic Drugs, Meat eating, Adultery, Incest, LGBT orientations, Nudity, Live-in-relationships, Divorce, Pre and post marital affairs are symbol of modernity and open thought. 
These are few easy steps to join this elite club.  Just obey them. Persons from different streams join this secular gang for wide coverage in newspapers, good presence in talk shows on TV, cheap publicity, foreign awards and mouth licking posts of different ministries and commissions, funds on name of NGOs, participation offer from International platforms, celebrity status and not to forget support from mass vote bank of minorities. Politicians, Journalists, Professors, Historians, Film stars, Social activists, Human rights advocates etc. All professions will get boost by becoming civil. You have to just follow what your predecessors have done.

Now we see the opposite aspect of this drama.

I am a common man but I will be considered uncivilized because

1.            I consider meat eating, alcohol drinking as sin.
2.            I consider that character is my best treasure. I consider illegitimate relationship, extramarital affairs and Live-in relationships as wrong and immoral.
3.            I am proud to consider that I am born in a country with glorious past and rich knowledge of Vedas.
4.            I am proud to belong to a race that has never persecuted any other country or race on name of religion never ever in history.
5.            I am proud to speak Hindi, follow customs and traditions and believe in austerity.
6.            I am proud to believe in high thinking and plain living.
7.            I resist any malicious attempt against my sacred Kings Lord Rama and Lord Krishna.
8.            I resist forceful or luring of poor Hindus to Islam or Christianity by hook or crook.
9.            I resist trapping of my sisters and daughters by Muslims as a pre-planned conspiracy of love jihad.
10.          I promote swadeshi and feels pride in using country made goods.
11.          I am a firm believer in God.
12.          I demand for human rights of Kashmir Hindus who are refugees in their own motherland.
13.          I demand against mindset education of madrasas which are nothing more than a burden on our country and advocates modern education with Math, Science and Technology as part of curriculum.
14.          I oppose subsidy on Haj Yatra as wastage of tax payers money which would better be used for development.
15.          I oppose minority appeasement for seeking votes by politicians.
If this is the criteria of civilized and uncivilized then I am being uncivilized rather than civilized. As I consider all this as intellectual drama and nothing else.


Dr Vivek Arya

हिज़ाब को लेकर व्यर्थ माथापच्ची




हिज़ाब को लेकर व्यर्थ माथापच्ची


सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) की ओर से शनिवार को आयोजित होने वाली ऑल इंडिया प्री मेडिकल टेस्ट (एआईपीएमटी) के लिए तय ड्रेस कोड में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया, जिसके बाद अभ्यर्थी कक्षा में पूरी आस्तीन की कमीज, हिजाब या बुर्का पहनकर नहीं जा सकेंगे। याचिका में दलील दी गई थी कि सीबीएसई द्वारा तय इस ड्रेस कोड से उनकी आस्था आहत होती है। कोर्ट ने हालांकि उनकी यह दलील खारिज कर दी।

 सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा, यदि आप किसी परीक्षा में बिना हिजाब के बैठ जाएंगे, तो आपकी आस्था समाप्त नहीं हो जाएगी। याचिका को 'अहंकार' करार देते हुए कोर्ट ने कहा परीक्षा समाप्त होने के बाद अभ्यर्थी हिजाब पहन सकते हैं। कोर्ट ने यह भी कहा कि आस्था एक विशेष प्रकार के कपड़े पहनने से कहीं अलग है।

इससे पहले भी विद्यालयों में हिज़ाब पहनने पर जब भी कोई विद्यालय रोक लगाता है तो मीडिया अपना रुदाली गान आरम्भ कर देता हैं। यह सारी माथा पच्ची न होती अगर लोग धर्म की मूलभूत परिभाषा से परिचित होते।

धर्म में वाह्य (बाहर) के चिन्हों का कोई स्थान नहीं हैं, क्यूंकि धर्म लिंगात्मक नहीं हैं -न लिंगम धर्मं कारणं अर्थात लिंग (बाहरी चिन्ह) धर्म का कारण नहीं हैं।
धर्म आचरण प्रधान मार्ग है। धर्म में कर्म सर्वोपरि है। धर्म मनुष्य के स्वाभाव के अनुकूल है। धर्म सर्वकालिक (सभी काल में मानने योग्य), सार्वजानिक (सभी के लिए उपयोगी), सर्वग्राह्य (सभी को ग्रहण करने योग्य) और सार्वभौमिक (सभी स्थानों पर मानने योग्य) हैं। धर्म सदाचार रूप हैं अत: धर्मात्मा होने के लिये सदाचारी होना अनिवार्य है।  धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है।  धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़ता है। धर्म मनुष्य को पुरुषार्थी बनाता है।  धर्म दूसरों के हितों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति तक देना सिखाता है। धर्म मनुष्य को सभी प्राणी मात्र से प्रेम करना सिखाता है। धर्म मनुष्य जाति को मनुष्यत्व के नाते से एक प्रकार के सार्वजानिक आचारों और विचारों द्वारा एक केंद्र पर केन्द्रित करके भेदभाव और विरोध को मिटाता हैं तथा एकता का पाठ पढ़ाता है। धर्म एक मात्र ईश्वर की पूजा बतलाता है।

बिना मूंछ की दाढ़ी रखना, गोल टोपी पहनना, खुला पैजामा पहनना,  हिज़ाब पहनना। यह सब धर्म नहीं अपितु बाहरी चिन्ह है। सोचिये एक व्यक्ति यह सभी धार्मिक चिन्ह धारण करता है मगर सदाचारी नहीं है और दूसरा व्यक्ति कोई चिन्ह धारण नहीं करता मगर सदाचारी है। दोनों में से कौन श्रेष्ठ है? सभी का उत्तर होगा पहले वाला दिखावा मात्र हैं जबकि दूसरे वाला सच्चे अर्थों में धार्मिक है। इसलिए धार्मिक बने दिखावटी नहीं।

डॉ विवेक आर्य 

Thursday, July 16, 2015

वैदिक रीति के अनुसार जन्मदिन मनाने की विधि



वैदिक रीति के अनुसार जन्मदिन मनाने की विधि

जन्मदिवस मनाने का ध्येय

अपने पूर्व जीवन के सुकर्मों व दुष्कर्मों पर दृष्टि डालकर दुर्गुणों को त्यागने व सत्कर्मों को अपनाने के लिए प्रभु से प्रार्थना करना ही जन्मदिवस मनाने का उद्देश्य है| 

जन्मदिन मनाने की विधि


प्रात: काल सूर्योदय से पहले उठकर ईश्वर का इतना सुन्दर जीवन प्रदान करने के लिये धन्यवाद देने से दिनचर्या का आरम्भ करना।

 प्रसन्न होकर उल्लास के साथ अंदर व बाहर की शुद्धि करके ईश्वर स्तुति-प्रार्थना उपासना की यज्ञविधि करके यज्ञोपवित के महत्व पर विचार करना, उसे सदैव धारण करने के संकल्प के साथ स्वस्तिवाचन व शंतिकरण के मन्त्र स्वर सहित बोलें और दैनिक यज्ञ के साथ निम्न मन्त्रों की आहुतियाँ दें|

जीवेम शरदः शतम्
हम सौ सालों तक जीयें।
बुध्येम शरदः शतम्
हम सौ वर्षों तक बुद्धिमान बने रहें।
रोहेम शरदः शतम्
हम सौ वर्षों तक पुष्ट रहें।
भवेम शरदः शतम्
सौ वर्षों तक बने रहें।
भूयेम शरदः शतम्
सौ वर्षों तक पवित्र बने रहें।
भूयसीः शरदः शतात्
सौ वर्षों तक ऐसी कल्याणकारी बातें होती रहें।
ओ३म् उप प्रियं पनिन्पतं युवानमाहुतीवृधम्|
अगन्म बिभ्रतो नमो दीर्घमायुः कृणोतु मे|| 


~अथर्ववेद-7.32.1

भावार्थ- हे स्तुति करने योग्य प्रियतम प्रभु! जिस प्रकार मैं इस आहुति द्वारा इस यज्ञ की अग्नि को बढ़ा रहा/रही हूँ, वैसे ही मैं सात्विक अन्न का सेवन करके अपनी आयु को बढ़ाता हुआ / बढ़ाती हुई प्रतिवर्ष अपना जन्मदिन मनाता/मनाती रहूँ|

ओ३म् इंद्र जीव सूर्य जीव देवा जीवा जीव्यासमहम्|
सर्वमायुर्जीव्यासम्||
~अथर्ववेद-19.70.1


भावार्थ- हे परम ऐश्वर्यवान देव!! आप हमें श्रेष्ठ जीवन दो| हे सूर्य! हे देवगण! आपकी अनुकूलतापूर्वक मैं दीर्घजीवी होऊं|

ओ३म् आयुषायुः कृतां जीवायुष्मान जीव मा मृथाः|
प्राणेनात्मन्वतां जीव मा मृत्योरुदगा वशम् ||
~अथर्ववेद-19.27.8 


भावार्थ- मैं संकल्प लेता हूँ की मुझे मृत्यु के वशीभूत नहीं होना है| कर्मशील व आत्मबल युक्त होकर ईश्वरभक्त, महापुरुषों का अनुकरण करता हुआ मैं आयु को बढ़ाऊंगा| जीवन भर श्रेष्ठ कर्म कर्ता हुआ यश को प्राप्त करूंगा|

ओ३म् शतं जीव शरदो वर्धमानः शतं हेमन्तान्छतमु वसन्तान|
शतमिन्द्राग्नी सविता बृहस्पतिः शतायुषा हविषेमं पुनर्दुः||
~ऋग्वेद -10.161.4 


भावार्थ- मनुष्य श्रेष्ठ कर्म व संयम धारण करके सौ वर्षों तक जीने का प्रयास करे| विद्युत, अग्नि, सूर्य, बृहस्पति आदि से समुचित सहयोग लेकर मनुष्य सौ वर्ष तक जीवनधारण कर सकता है|

ओ३म् सत्यामाशिषं कृणुता वयोधै कीरिं चिद्ध्यवथ सवेभिरेवैः|
पश्चा मृधो अप भवन्तु विश्वास्तद रोदसी शृणुतं विश्वमिन्वे||
~अथर्ववेद-20.91.11 


भावार्थ- हे विद्वानों..!! आपका ‘आयुष्मान भवः’ का आशीर्वाद सत्य हो! आपके मार्ग का अनुसरण करने वाले की रक्षा आप ज्ञान देकर करते हो| आपके मार्गदर्शन में चलने वालों के सब दोष नष्ट हो जाते हैं| इसलिए हे श्रेष्ठ स्त्री-पुरुषों!! आप हमें वेदोक्त शिक्षा दो|

ओं जीवास्थ जीव्यासं सर्वमायुर्जीव्यासम ||1||
ओं उपजीवा स्थोप जीव्यासं सर्वमायुर्जीव्यासम ||2||
ओं सं जीवा स्थ सं जीव्यासं सर्वमायुर्जीव्यासम ||3||
ओं जीवला स्थ जीव्यासं सर्वमायुर्जीव्यासम ||4||
~अथर्ववेद-19.69.1-4 


भावार्थ- जल की भांति शांत स्वभाव सज्जनों!! आप मुझे दीर्घायु का शुभाशीष दो| सदाचरण व प्रभु पूजा को धारण कर मैं अपने जीवन को बढ़ा सकूं| आप एसा जीवन दे सकते हो, सो कृपा करके मुझे श्रेष्ठ जीवन तत्व प्रदान कीजिये| मैं आप लोगों की सहायता व प्रेरणा से दीर्घजीवन प्राप्त करूं|

इसके बाद जितने वर्ष के होओ उतनी बार गायत्री मन्त्र की आहुति देकर पूर्णाहुति करें|


इसके बाद यज्ञ-प्रार्थना व शांतिपाठ के बाद सभी वरिष्ठ जन पुष्प वर्षा के संग निम्न शब्दों से आशीर्वाद दें......
हे..........(नाम का उच्चारण करें)!! त्वं जीव शरदः शतं वर्धमानः| आयुष्मान तेजस्वी वर्चस्वी श्रीमान भूयाः ||


अर्थात- हे........!! तुम आयुष्मान, विद्यावान, धार्मिक, यशस्वी, पुरुषार्थी, प्रतापी, परोपकारी, श्रीमान/श्रीमती बनो!!
आपके व आपके परिजनों के जन्मदिन को इस विधि से अवश्य ही मनाएं, यज्ञ करने की सुविधा न होने पर दीपक की ज्योति के समक्ष शुद्धभाव से करें।
सत्य सनातन वैदिक धर्म की जय🚩
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र की जय🚩
योगिराज श्री कृष्ण चन्द्र की जय🚩
गौमाता का पालन हो🚩
अधर्म का नाश हो🚩
भारत माता की जय🚩

आपको जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ