Monday, July 21, 2014

तमिल भाषा का संस्कृत से सम्बन्ध





(1965 में हिंदी-तमिल विवाद के समय प्रमुख समाचार पत्र में प्रकाशित कार्टून)

तमिल भाषा का संस्कृत से सम्बन्ध

डॉ विवेक आर्य

तमिल भाषा एक बार फिर से सुर्ख़ियों में है। कारण प्रधानमंत्री मोदी जी द्वारा छात्रों से वार्तालाप के समय एक वक्तव्य दिया गया कि तमिल भाषा संस्कृत से भी पुरानी है। प्रधानमंत्री जी ने जाने या अनजाने में जो बयान दिया है उसके कई मायने हैं। सभी जानते है कि तमिलनाडु आर्य-द्रविड़ की विभाजनकारी मानसिकता का केंद्र रहा है। वहां के राजनेता जनता को द्रविड़ संस्कृति के नाम पर भड़काते हैं। वे कहते है कि द्रविड़ संस्कृति, तमिल भाषा हमारी मूल पहचान है। विदेशी आर्यों ने अपनी संस्कृति हमारे ऊपर थोपी है। उनका यह भी कहना है कि तमिल भाषा एक स्वतंत्र भाषा है एवं उसका संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है। संस्कृत आर्यों की भाषा है जिसे द्रविड़ों पर थोपा गया है।

एक सामान्य शंका मेरे मस्तिष्क में सदा रहती है कि तमिल राजनेता हिंदी/संस्कृत का विदेशी भाषा कहकर विरोध करते है परन्तु इसके विपरीत अंग्रेजी का समर्थन करते है। क्या अंग्रेजी भाषा की उत्पत्ति तमिलनाडु के किसी गाँव में हुई थी ? नहीं। फिर यह केवल एक प्रकार की जिद है। तमिलनाडु में हिंदी विरोध कैसे प्रारम्भ हुआ? इस शंका के समाधान के लिए हमें तमिलनाडु के इतिहास को जानना होगा। रोबर्ट कालद्वेल्ल (Robert Caldwell -1814 -1891 ) के नाम से ईसाई मिश्नरी को इस मतभेद का जनक माना जाता है। रोबर्ट कालद्वेल्ल ने भारत आकर तमिल भाषा पर व्याप्त अधिकार कर किया और उनकी पुस्तक A Comparative Grammar of the Dravidian or South Indian Family of Languages, Harrison: London, 1856 में प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक का उद्देश्य तमिलनाडु का गैर ब्राह्मण जनता को ब्राह्मण विरोधी, संस्कृत विरोधी, हिंदी विरोधी, वेद विरोधी एवं उत्तर भारतीय विरोधी बनाना था। जिससे उन्हें भड़का कर आसानी से ईसाई मत में परिवर्तित किया जा सके और इस कार्य में रोबर्ट कालद्वेल्ल को सफलता भी मिली। पूर्व मुख्य मंत्री करूणानिधि के अनुसार इस पुस्तक में लिखा है कि संस्कृत भाषा के 20 शब्द तमिल भाषा में पहले से ही मिलते है। जिससे यह सिद्ध होता हैं की तमिल भाषा संस्कृत से पहले विद्यमान थी। तमिलनाडु की राजनीती ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण धुरों पर लड़ी जाती रही हैं। इसीलिए इस पुस्तक को आधार बनाकर हिंदी विरोधी आंदोलन चलाये गए। विडंबना देखिये कि भाई भाई में भेद डालने वाले रोबर्ट कालद्वेल्ल की मूर्ति को मद्रास के मरीना बीच पर स्थापित किया गया है। उसकी स्मृति में एक डाक टिकट भी जारी किया गया था।

जहाँ तक तमिल और संस्कृत भाषा में सम्बन्ध का प्रश्न है तो संस्कृत और तमिल में वैसा ही सम्बन्ध है जैसा एक माँ और बेटे में होता है। जैसा सम्बन्ध संस्कृत और विश्व की अन्य भाषाओँ में हैं। संस्कृत जैसे विश्व की अन्य भाषाओं की जननी है वैसे ही तमिल की भी जननी है। अनुसन्धान करने पर हमें मालूम चलता है कि प्राचीन तमिल ग्रंथों में विशेष रूप से तमिल काव्य में बहुत से संस्कृत के शब्द प्रयुक्त किये गए है। यहाँ तक कि तमिल की बोलचाल की भाषा तो संस्कृत-शब्दों से भरी पड़ी है। कम्ब रामायण में भी अपभ्रंश रूप से अनेक संस्कृत शब्द मिल जायेंगे। तमिल भाषा की लिपि में अक्षर कम होने के कारण संस्कृत के शब्द स्पष्ट रूप से नहीं लिखे जाते। इसलिए अलग लिपि बन गई।


“तमिल स्वयं शिक्षक” से तमिल, संस्कृत,हिंदी के कुछ शब्दों में समानता


तमिल संस्कृत हिंदी

1. वार्ते वार्ता बात
2. ग्रामम् ग्राम: गांव
3. जलम् जलम् जल
4. दूरम् दूरम् दूर
5. मात्रम् मात्रम् मात्र
6. शीग्रम शीघ्रम शीघ्र
7. समाचारम समाचार: समाचार

इस प्रकार के अनेक उदहारण तमिल, संस्कृत और हिंदी में “तमिल स्वयं शिक्षक” से समानता के दिए जा सकते हैं।

इसी प्रकार से "तमिल लैक्सिकान" के नाम से तमिल के प्रामाणिक कोष को देखने से भी यही ज्ञात होता है कि तमिल भाषा में संस्कृत के अनेक शब्द विद्यमान है। तमिल वेद के नाम से प्रसिद्द त्रिक्कुरल , संत तिरुवल्लुवार द्वारा प्रणीत ग्रन्थ के हिंदी संस्करण की भूमिका में माननीय चक्रबर्ती राजगोपालाचारी लिखते है कि ‘इस पुस्तक को पढ़कर उत्तर भारतवासी जानेंगे की उत्तरी सभ्यता और संस्कृति का तमिल जाति से कितना घनिष्ठ सम्बन्ध और तादात्म्य हैं’। इस ग्रन्थ में अनेक वाक्य वेदों के उपदेश का स्पष्ट अनुवाद प्रतीत होते है। तमिल के प्रसिद्द कवि भारतियार की काव्य में भी संस्कृत शब्द प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। तमिलनाडु के प्रसिद्द संगम काल के साहित्य में संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों प्रभाव स्पष्ट रूप से मिलता हैं।
संस्कृत भाषा और विश्व की अन्य में सम्बन्ध को सिद्ध करने के लिए पूर्व में कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई है जैसे पंडित धर्मदेव विद्यामार्तंड द्वारा रचित वेदों का यथार्थ स्वरुप, Sanskrit-The Mother of all World Languages, पंडित भगवददृत्त जी द्वारा लिखित भाषा का इतिहास अदि। संस्कृत को विश्व की समस्त भाषाओं की जननी सिद्ध करने के लिए अनुसन्धान कार्य को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। फुट डालो और राज करो की विभाजनकारी मानसिकता का प्रतिउत्तर सम्पूर्ण देश को हिंदी भाषा के सूत्र से जोड़ना ही है। यही स्वामी दयानंद की मनोकामना थी। आर्यसमाज को भाषा वैज्ञानिकों की सहायता से रोबर्ट कालद्वेल्ल की पुस्तक की तर्कपूर्ण समीक्षा छपवा कर उसे तमिलनाडु में प्रचारित करवाना चाहिए। ऐसा मेरा व्यक्तिगत मानना है।


(लेखक ने हिंदी भाषी होते हुए अपने जीवन के 6 वर्ष तमिलनाडु में व्यतीत किये हैं एवं तमिल भाषा से परिचित है।)

Saturday, July 12, 2014

सबसे बड़ा गुरु कौन




गुरु पूर्णिमा पर विशेष


आज गुरु पूर्णिमा हैं। हिन्दू समाज में आज के दिन तथाकथित गुरु लोगों की लॉटरी लग जाती हैं। सभी तथाकथित गुरुओं के चेले अपने अपने गुरुओं के मठों, आश्रमों, गद्दियों पर पहुँच कर उनके दर्शन करने की हौड़ में लग जाते हैं।  खूब दान, मान एकत्र हो जाता हैं। ऐसा लगता हैं की यह दिन गुरुओं ने अपनी प्रतिष्ठा के लिए प्रसिद्द किया हैं। भक्तों को यह विश्वास हैं की इस दिन गुरु के दर्शन करने से उनके जीवन का कल्याण होगा। अगर ऐसा हैं तब तो इस जगत के सबसे बड़े गुरु के दर्शन करने से सबसे अधिक लाभ होना चाहिए।  मगर शायद ही किसी भक्त ने यह सोचा होगा की इस जगत का सबसे बड़ा गुरु कौन हैं? इस प्रश्न का उत्तर हमें योग दर्शन में मिलता हैं।

स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् || ( योगदर्शन : 1-26 )
 वह परमेश्वर कालद्वारा नष्ट न होने के कारण पूर्व ऋषि-महर्षियों का भी गुरु है ।

अर्थात ईश्वर गुरुओं का भी गुरु हैं। अब दूसरी शंका यह आती हैं की क्या सबसे बड़े गुरु को केवल गुरु पूर्णिमा के दिन स्मरण करना चाहिए। इसका स्पष्ट उत्तर हैं की नहीं ईश्वर को सदैव स्मरण रखना चाहिए और स्मरण रखते हुए ही सभी कर्म करने चाहिए।  अगर हर व्यक्ति सर्वव्यापक एवं निराकार ईश्वर को मानने लगे तो कोई भी व्यक्ति पापकर्म में लिप्त न होगा। इसलिए धर्म शास्त्रों में ईश्वर को अपने हृदय में मानने एवं उनकी उपासना करने का विधान हैं। 

ईश्वर और मानवीय गुरु में सम्बन्ध को लेकर कबीर दास के दोहे को प्रसिद्द किया जा रहा हैं।
 गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय । बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥

गुरुडम कि दुकान चलाने वाले कुछ अज्ञानी लोगों ने कबीर के इस दोहे का नाम लेकर यह कहना आरम्भ कर दिया हैं कि ईश्वर से बड़ा गुरु हैं क्यूंकि गुरु ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग बताता हैं। एक सरल से उदहारण को लेकर इस शंका को समझने का प्रयास करते हैं। मान लीजिये कि मैं भारत के राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से मिलने के लिये राष्ट्रपति भवन गया। राष्ट्रपति भवन का एक कर्मचारी मुझे उनके पास मिलवाने के लिए ले गया। अब यह बताओ कि राष्ट्रपति बड़ा या उनसे मिलवाने वाला कर्मचारी बड़ा हैं?आप कहेगे कि निश्चित रूप से राष्ट्रपति कर्मचारी से कही बड़ा हैं, राष्ट्रपति के समक्ष तो उस कर्मचारी कि कोई बिसात ही नहीं हैं। यही अंतर उस गुरुओं कि भी गुरु ईश्वर और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताने वाले गुरु में हैं। हिन्दू समाज के विभिन्न मतों में गुरुडम कि दुकान को बढ़ावा देने के लिए गुरु कि महिमा को ईश्वर से अधिक बताना अज्ञानता का बोधक हैं। इससे अंध विश्वास और पाखंड को बढ़ावा मिलता हैं। 

पाया गुरु मन्त्र बृहस्पति से, फिर अन्य गुरु से करना क्या।
 की माँग विश्वपति अधिपति से, फिर और किसी से करना क्या।।

 वरणीय वरुण प्रभु वरुपति हों, अर्य्यमा न्याय के अधिपति हों।
 हमको परमेश ईशता दो, तुम इन्द्र हमारे धनपति हों।।

 की याचना इन्द्र‌ धनपति से, फिर दर दर हमें भटकना क्या।
 की माँग विश्वपति अधिपति से, फिर और किसी से करना क्या।।

 अत्यन्त पराक्रम बलपति हो, तुम वेद बृहस्पति श्रुतिपति हो।
 तन मानस का बल हमको दो, तुम विष्णु व्याप्त जग वसुपति हो।।

 की सन्धि शौर्य के सतपति से, फिर हमें शत्रु से डरना क्या।
 की माँग विश्वपति अधिपति से, फिर और किसी से करना क्या।।

 प्रिय सखा सुमंगल उन्नति हो, हर सम‌य तुम्हारी संगति हो। 
 बन मित्र मधुरता अपनी दो, सुख वैभव बल की सम्पति दो।।

 मित्रता विष्णु प्रिय जगपति से, फिर पलपल हमें तरसना क्या। 
 की माँग विश्वपति अधिपति से, फिर और किसी से करना क्या।।

 (पं. देवनारायण भारद्वाज रचित गीत स्तुति का प्रथम प्रकाश)

डॉ विवेक आर्य   

Friday, July 4, 2014

साई बाबा का विरोध कितना सही कितना गलत






साईं बाबा के नाम को सुर्ख़ियों में लाने का श्रेय शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी को जाता हैं जिनका कहना हैं की साई बाबा की पूजा हिन्दू समाज को नहीं करनी चाहिए क्यूंकि न साई ईश्वर के अवतार हैं न ही साई का हिन्दू धर्म से कुछ लेना देना हैं। साई बाबा जन्म से मुस्लमान थे और मस्जिद में रहते थे एवं सबका मालिक एक हैं कहते थे। शंकराचार्य जी को कहना हैं की ओम साई राम में राम के नाम साई के नाम के साथ जोड़ना गलत हैं और जो राम का नाम लेते हैं वे साई का नाम कदापि न ले, यह हिन्दू धर्म की मान्यताओं के विरुद्ध हैं। कुछ लोग शंकराचार्य जी की दलीलों को सही ठहरा रहे हैं क्यूंकि साई बाबा के नाम के साथ मुस्लमान शब्द का जुड़ा होना होना उनके लिए असहनीय हैं जबकि कुछ लोग जो अपने आपको साई बाबा का भगत बताते हैं शंकराचार्य जी के विरोध में उनके पुतले फूंक रहे हैं। 
हमें यह जानना आवश्यक हैं की साई बाबा का पिछले एक दशक में इतने अधिक प्रचलित होने के पीछे क्या कारण हैं? क्या कारण हैं की एकाएक हिन्दू मंदिरों में साई बाबा की मूर्ति सबसे बड़ी होने लगी और बाकि हिन्दू देवी देवता उसके समक्ष बौने दिखने लगे हैं? क्या कारण हैं की प्राय: हर हिन्दू के घर में रामायण, गीता, भागवत आदि के स्थान पर साई आरती के गुटके पढ़े जाते हैं? क्या कारण हैं की राम और कृष्ण के नामों से अपने बच्चों का  नामकरण करने वाले हिन्दू लोग साई के नाम से अपने बच्चों को पुकारने में गर्व करने लगे हैं? उत्तर स्पष्ट हैं की सामान्य जन साई बाबा द्वारा चमत्कार करने, बिगड़े कार्य बनाने, अधूरे काम बनाने, व्यापार, नौकरी, संतान प्राप्ति, प्रेम सम्बन्ध आदि कार्यों में सफलता प्राप्ति करने हेतु करते हैं। अगर विस्तृत रूप से देखा जाये तो हिन्दू समाज में जितनी भी पूजा-उपासना की विधियाँ प्रचलित हैं उनका लक्ष्य ईश्वर प्राप्ति नहीं अपितु जीवन में सफलता प्राप्ति अधिक हैं। जैसे कोई तीर्थों में ,कोई पहाड़ों में,कोई नदियों में, कोई जीवित गुरुओं के चरणों में या गुरु नाम में , कोई मृत गुरुओं के चित्र और वस्तुओं में, कोई पीरों में, कोई कब्रों में, कोई निर्मल बाबा के गोलगप्पों में, कोई व्रत कथाओं में, कोई हवनों में, कोई पुराणों के महात्म्य में, कोई निरीह पशुओं की बलि में, कोई  आडम्बरों में, कोई गंडा-तावीज़ में सफलता की खोज कर रहा हैं। वैसे हिन्दुओं के समान मुस्लिम समाज भी मक्का मदीना से लेकर दरगाहों और कब्रों में  तो ईसाई समाज भी प्रार्थना रूपी पूजा, ईसाई संतों के चमत्कारों में सफलता खोज रहा हैं।
सत्य यह हैं की हिन्दू समाज की ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव से अनभिज्ञता, चमत्कार को कर्म-फल व्यवस्था से अधिक महता , वेदादि शास्त्रों में वर्णित ईश्वर की पूजा करने सम्बन्धी अज्ञानता इस अव्यवस्था के लिए मुख्य रूप से दोषी हैं। खेद हैं की शंकराचार्य जी भी इस समस्या का समाधान करने में विफल हैं क्यूंकि उनके अनुसार साई के स्थान पर गंगा स्नान और राम नाम के स्मरण से ईश्वर की पूजा करनी चाहिए।  जब तक सर्वव्यापक, अजन्मा, सर्वज्ञानी, सर्वशक्तिमान एवं निराकार ईश्वर की सत्ता में पूर्ण विश्वास नहीं होगा तब तक धर्म के नाम पर इसी प्रकार से पाखंड फैलते रहेंगे। जब तक मनुष्य को यह नहीं सिखाया जायेगा की हम ईश्वर की उपासना इसलिए करते हैं ताकी अनादि ईश्वर के सत्यता, न्यायकारिता, निष्पक्षता, दयालुता जैसे गुण हमारे भी हो जाये तब तक मनुष्य इसी प्रकार से सफलता प्राप्ति के लिए विभिन्न प्रकार के अंधविश्वासों में भटकता रहेगा। जब तक मनुष्य को यह नहीं सिखाया जायेगा की जीवन का उद्देश्य आत्मिक उन्नति कर मोक्ष की प्राप्ति हैं तब तक मनुष्य अपने आपको भ्रम में रखकर दुःख भोगता रहेगा।
इसलिए केवल साई बाबा का विरोध इस समस्या का समाधान नहीं हैं अपितु वेद विदित सत्य का प्रचार से ही इस समस्या का समाधान संभव हैं।
डॉ विवेक आर्य