• उपदेशक के रूप में महर्षि दयानन्द •
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— पंडित वेदमित्र ठाकोर
महर्षि दयानन्द को उपदेशक के रूप में एक अलग ही श्रेणी में रखा जा सकता है। उनकी कोई बराबरी नहीं है। वे अद्वितीय हैं।
भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ जब दयानन्द ने मूर्तिपूजा के विरुद्ध प्रबल स्वर में आवाज़ उठाई, जबकि मूर्तिपूजा हिन्दुओं के जीवन, रक्त और हड्डियों तक में समाई हुई मानी जाती थी। लोग मानते थे कि मूर्तिपूजा तो हिन्दू धर्म का एक अभिन्न अंग है। कोई भी इसके विरुद्ध बोलने का साहस नहीं करता था। लेकिन दयानन्द ने इसकी निरर्थकता को स्पष्ट रूप से समझा, क्योंकि उन्हें वेदों में इसका कोई उल्लेख नहीं मिला। वेदों में बीस हजार से अधिक मंत्र हैं, पर एक भी मंत्र मूर्तिपूजा का समर्थन नहीं करता। इसके विपरीत वेद कहते हैं—"उस निराकार परमात्मा की कोई मूर्ति, प्रतिमा या रूप नहीं हो सकता।"
(‘न तस्य प्रतिमा अस्ति...’ — यजुर्वेद 32.3)
इसीलिए दयानन्द ने मूर्तिपूजा पर प्रबल प्रहार किया। उन्होंने सभी पुराणिक पंडितों को खुलेआम चुनौती दी कि यदि मूर्तिपूजा वेदों में है तो दिखाओ, नहीं तो इसे पूरी तरह छोड़ दो। यह आवाज़ गरजते हुए बम की तरह गूंजी। कश्मीर से कन्याकुमारी तक सभी पंडित चौंक उठे। वे शास्त्रार्थ करने आए, लेकिन कोई भी वेदों से मूर्तिपूजा को सिद्ध नहीं कर सका।
जब दयानन्द ने बड़े-बड़े पंडितों को शास्त्रार्थ में पराजित किया, तो बुद्धिजीवी वर्ग पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा। लोगों को मूर्तिपूजा की निरर्थकता का एहसास हुआ। कोई भी पत्थर की मूर्ति, चाहे वह कितनी भी सुंदर क्यों न हो, पत्थर ही रहती है। जैसे ताजमहल लोगों की प्रशंसा को सुन नहीं सकता, वैसे ही मूर्तियाँ चेतन नहीं होतीं।
दयानन्द ने भारत के कोने-कोने में घूम-घूम कर हिन्दुओं को मूर्तिपूजा से दूर रहने का उपदेश दिया। उनकी लगातार चलने वाली यह प्रचार यात्रा हिन्दुओं के मन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन ले आई। यह विचार और भावना के संघर्ष का युग बन गया — और विचारों ने भावनाओं को पराजित किया। बहुत से बुद्धिमान हिन्दुओं ने मूर्तिपूजा में अपनी आस्था खो दी और गंगा-यमुना में मूर्तियाँ प्रवाहित करने लगे।
इस प्रकार दयानन्द मूर्तिपूजा के विरुद्ध अपने अभियान में काफी हद तक सफल हुए।
उन्होंने हिन्दू धर्म को मूर्तिपूजा की गंदी बेड़ियों से मुक्त करके अतुलनीय सेवा की। मूर्तिपूजा हिन्दू धर्म में बाद में जोड़ी गई चीज़ है। श्रीकृष्ण के समय तक हिन्दू धर्म में इसका कोई स्थान नहीं था। यह महावीर स्वामी के समय से हिन्दू धर्म में प्रवेश कर गई। इस तथ्य का यह पक्का प्रमाण है कि महावीर के पूर्व काल में मूर्तिपूजा का कोई उल्लेख नहीं मिलता। इसलिए यह बाद की उपज है, जिसे कुछ स्वार्थी पंडितों ने अपनी आजीविका के लिए चतुराई से जोड़ दिया।
इस विषय के अंत में बंगाल के एक महान और निष्पक्ष लेखक पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय की प्रेरणादायक वाणी स्मरण आती है:
"आप चाहे हाईकोर्ट के न्यायाधीश हों चाहे गवर्नर (लाट) साहब के प्रधानतर सचिव, आप बुद्धि में बृहस्पति के तुल्य हों चाहे वाग्मिता में सिसरो (Cicero) और गिटे (Goethe) से भी बढ़कर, आप अपने देश में पूजित हों अथवा विदेश में, आप की ख्याति का डंका बजा हो, आप सरकारी क़ानून को पढ़कर सब प्रकार से अकार्य्य और कुकार्य को आश्रय देने वाले अटर्नी (Attorney) कुल के उज्ज्वलतम रत्न हों चाहे मिष्टभाषी, मिथ्योपजीवी सर्वप्रधान, स्मार्त्त (वकील); परन्तु यदि किसी अंश में भी आप मूर्त्तिपूजा का समर्थन करेंगे, तो हमें यह कहने में अणुमात्र भी संकोच नहीं होगा कि आप किसी अंश में भी भारतवर्ष के मित्र नहीं हो सकते, क्योंकि मूत्तिपूजा भारतवर्ष के सारे अनिष्टों का मूल है।" (महर्षि दयानन्द जीवनचरित, भूमिका, पृ. 27)
प्रिय पाठको! निष्पक्ष सोचिए और बुद्धिपूर्वक निर्णय लीजिए।
दयानन्द का एक और प्रबल प्रहार था — साकारवाद (अर्थात ईश्वर के अवतार लेने की गलत धारणा) पर। वेदों में ईश्वर को सर्वव्यापक और निराकार बताया गया है:
"वह सर्वव्यापक परमात्मा किसी भी प्रकार के शरीर — स्थूल, सूक्ष्म या कारण — से रहित है। वह कभी किसी माता के गर्भ से नहीं आता। वह स्वयंप्रकाशमान, स्वयंभू और सर्वज्ञ है।" (‘स पर्यगात्...’ — यजुर्वेद 40.3)
"वह सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है। वही पृथ्वी, आकाश, सूर्य, चंद्रमा और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आधार है।" (‘स्कम्भो दाधार...’ और ‘यः श्रमात् तपसो...’ — अथर्ववेद 10.7.35–36)
यहाँ दयानन्द का मूल बिंदु अत्यंत महत्त्वपूर्ण है : जब ईश्वर सर्वशक्तिमान और सबका आधार है, तो फिर वह स्वयं किसी चीज़ या शरीर का आधार कैसे ले सकता है? अगर वह किसी चीज़ या शरीर का आधार लेता है, तो वह सर्वशक्तिमान नहीं रहा। अगर वह किसी का शरीर आदि का सहारा नहीं लेता, तो सिद्ध होता है कि वह निराकार है, क्योंकि शरीर का आधार लेने वाला तो साकार ही कहा जाएगा।
इस प्रकार दयानन्द ने साकारवाद और अवतारवाद की मजबूत दीवार को एक ही प्रहार से ध्वस्त कर दिया।
इसीलिए उन्होंने खुले शब्दों में कहा कि श्रीराम और श्रीकृष्ण न तो ईश्वर हैं और न ही ईश्वर के अवतार। वे महान् व्यक्ति थे, आत्माएँ थे, परंतु उन्हें सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, निराकार परमात्मा के समकक्ष नहीं रखा जा सकता। इसलिए श्रीराम और श्रीकृष्ण की पूजा ईश्वर के रूप में करना एक दार्शनिक और आध्यात्मिक भूल है।
कोई भी आत्मा, चाहे वह कितनी भी महान् क्यों न हो, ईश्वर का स्थान नहीं ले सकती, क्योंकि आत्मा सीमित ज्ञान वाली होती है और ईश्वर असीम ज्ञानस्वरूप होता है। क्या कोई आत्मा, चाहे वह कितनी भी साधना करे, सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी या ब्रह्मांड की रचना कर सकती है? नहीं। तो फिर राम और कृष्ण को ईश्वर मानने की यह सारी दलीलें व्यर्थ हैं। आत्मा सदा आत्मा ही रहती है और ईश्वर सदा ईश्वर ही।
इस प्रकार दयानन्द ने हिन्दू धर्म में उसके प्राचीन तत्त्व और उसकी महिमा को पुनः स्थापित किया। यही कारण है कि दयानन्द को उपदेशकों में एक विशेष स्थान प्राप्त है — वे अपने आप में अकेले हैं।
[स्रोत: ‘Dayananda the Great’ — लेखक: पं. वेदमित्र ठाकोर, अनुवाद और प्रस्तुति: भावेश मेरजा]
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