Thursday, August 7, 2025

आर्यसमाज प्रणीत श्रीमद्भगवद्गीता विषयक व्याख्या एवं विवेचनामूलक साहित्य


 


• आर्यसमाज प्रणीत श्रीमद्भगवद्गीता विषयक व्याख्या एवं विवेचनामूलक साहित्य • 

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-- डॉ. भवानीलाल भारतीय 


यों तो भगवद्गीता महाभारत के भीष्म पर्व के अन्तर्गत आती है, किन्तु उसमें वर्णित विषयों की दृष्टि से उसे स्वतन्त्र महत्त्व प्राप्त है। युद्ध के आरम्भ में उत्पन्न अर्जुन के विषाद का शमन करने के लिए कृष्ण ने जो उपदेश दिये, उन्हें ही भगवद्‌गीता के रूप में संगृहीत किया गया है। 

आर्यसमाज में गीता को लेकर दो प्रकार की धारणाएँ प्रचलित हैं। अधिकांश विद्वानों की दृष्टि में महाभारत का एक अंश होने के कारण गीता की गणना प्रामाणिक ग्रन्थों के अन्तर्गत होनी चाहिए। कथ्य की दृष्टि से भी गीता में जिन विषयों का प्रतिपादन हुआ है वे प्रायः वेद, उपनिषद् आदि प्राचीन ग्रन्थों के अनुकूल ही हैं, विशेषतया आत्मा के अमरत्व तथा कर्मयोग जैसे उपयोगी विषयों की मीमांसा गीता में जिस भावस्फूर्त शैली में की गई है, उसे देखते हुए इस ग्रन्थ की महनीयता और उपयोगिता को निरपवाद रूप से स्वीकार करना ही पड़ता है। 

किन्तु आर्यसमाज में ही कुछ ऐसे विद्वान् हैं जो गीता को न तो प्रामाणिक ग्रन्थ ही मानते हैं और न उन्हें खुद उसकी उपयोगिता ही स्वीकार्य है। इस प्रकार गीता की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता को लेकर आर्यसमाज के विद्वान् स्पष्टतया वो शिविरों में बंटे हुए हैं।

जहाँ तक स्वामी दयानन्द का सम्बन्ध है, उन्होंने गीता के विषय में अपनी कोई स्पष्ट सम्मति प्रकट नहीं की थी। सम्भवतः इसीलिए कि वे गीता को स्वतन्त्र ग्रन्थ न मानकर महाभारत का ही एक अंश स्वीकार करते थे। उन्होंने सत्यार्थप्रकाश में गीता के कुछ श्लोकों को यत्र-तत्र उद्धृत किया है तथा एक स्थान पर तो ईश्वर के अवतार लेने के प्रसंग का खण्डन करते हुए उन्होंने गीता के प्रसिद्ध श्लोक "यदा यदा ही धर्मस्य" को उद्धृत कर उसकी स्वमतानुकूल व्याख्या भी की है। यह कहना तो उचित नहीं होगा कि वर्तमान रूप में उपलब्ध गीता स्वामीजी को उसी रूप में स्वीकार्य थी, तथापि यह भी उतना ही सत्य है कि वे इस ग्रन्य को पुराणों और तन्त्रों के तुल्य न तो तिरस्कार्य मानते ये और न त्याज्य।

भारतीय धर्म और दर्शन को गीता ने जिस समग्रता के साथ चित्रित किया है उसके कारण इस ग्रन्थ की लोकप्रियता अत्यधिक बढ़ गई है। यह भी सत्य है कि अधिकांश में वैदिक और उपनिषद्-प्रतिपादित विचारसरणि का अनुकरण करने पर भी गीता में कुछ न कुछ पौराणिक तत्त्व मिलते ही हैं। तथापि इस ग्रन्य का बहुलांश प्रायः उत्कृष्ट तथा दोषरहित है। आर्यसमाज के विद्वानों ने गीता पर विभिन्न भाष्य, टीकाएँ और व्याख्याएँ लिखी हैं जिनकी संख्या बहुत अधिक है। अनेक विद्वानों ने स्वमति के अनुसार प्रक्षिप्त समझे जानेवाले श्लोकों को पृथक् कर गीता के शुद्ध एवं संक्षिप्त संस्करण भी प्रकाशित किये हैं। ऐसे ग्रन्थों की संख्या भी पर्याप्त है जिनमें गीता में वर्णित कुछ उदात्त प्रसंगों को संकलित किया गया है, साथ ही गीता की प्रामाणिकता तथा स्वामी दयानन्द की गीता-विषयक दृष्टि को ध्यान में रखकर भी कुछ ग्रन्थ लिखे गए हैं। कतिपय ग्रन्थ उस वर्ग के विद्वानों द्वारा भी लिखे गए हैं जो इस ग्रन्थ के कठोर आलोचक हैं। यहाँ हम भगवद्गीता-विषयक सम्पूर्ण साहित्य का किंचित् विस्तार से परिचय देना उपयुक्त समझते हैं।


गीता के भाष्य, टीकादि ग्रन्थ : 

सर्वप्रथम हम गीता पर लिखे गए भाष्य और टीका आदि की चर्चा करेंगे। 

स्वामी दयानन्द के आद्य शिष्य पण्डित भीमसेन शर्मा ने गीता पर भी अपनी लेखनी उठाई थी। उन्होंने गीता पर संस्कृत में विस्तृत भाष्य लिखा तथा उसका भावानुवाद हिन्दी में प्रस्तुत किया। पण्डित भीमसेन ने गीता में प्रक्षिप्त किये गए श्लोकों पर भी विचार किया है। उनके विचारानुसार आज उपलब्ध गीता में सात, नौ, दस, ग्यारह और बारह - ये पाँच अध्याय तो पूर्णतया प्रक्षिप्त माने जा सकते हैं। अन्य में भी उन्होंने जिन-जिन श्लोकों को प्रक्षिप्त माना है उसका संकेत उन्होंने ग्रन्थ की प्रस्तावना में कर दिया है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन सर्वप्रथम 1897 ई० में सरस्वती यन्त्रालय, इटावा से हुआ। 

पण्डित आर्यमुनि का "गीता-योग प्रदीपार्य-भाष्य" लाहौर से 1962 वि० में छपा। आर्यमुनि ने सम्पूर्ण ग्रन्थ की संगति लगाने में अत्यधिक श्रम किया है। वे गीता में केवल एक श्लोक को ही प्रक्षिप्त मानते हैं, और यह है "पत्र पुष्पं फलं तोयम्"। 

पण्डित तुलसीराम स्वामी का गीताभाष्य भी अपनी दृष्टि से अपूर्व है क्योंकि इसमें सम्पूर्ण ग्रन्थ को वैदिक सिद्धान्तों के अनुकूल सिद्ध किया गया है। 

पण्डित राजाराम, स्वामी दर्शनानन्द, स्वामी सत्यानन्द, पण्डित चन्द्रमणि विद्यालंकार, पण्डित सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार आदि के गीता भाष्य भी अनेक दृष्टियों से उपयोगी तथा उल्लेखनीय हैं। 

पण्डित भूमित्र शर्मा स्वामी दयानन्द के समकालीन थे जिन्हें स्वामीजी से ही यज्ञोपवीत धारण करने का अवसर मिला था। उन्होंने गीता पर 'वेदानुगरत्नसंग्रह' शीर्षक भाष्य लिखा है। इसकी भूमिका में उन्होंने स्वामी दयानन्द के जीवन का एक प्रसंग वर्णित करते हुए बताया है कि ऋषि दयानन्द के अनुसार बर्तमान गीता में 7, 9, 10, 11, 12 अध्याय समग्र रूप से प्रक्षिप्त किये गए हैं। सम्भवतः स्वामीजी के गीता-विषयक इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर पण्डित भीमसेन और पण्डित भूमित्र शर्मा ने अपने गीता के संस्करणों में इन अध्यायों को प्रक्षिप्त मानकर स्थान ही नहीं दिया है।

गीता के प्रक्षिप्त श्लोकों को छाँटने में पण्डित मुक्तिराम उपाध्याय (स्वामी आत्मानन्द सरस्वती) का परिश्रम विशेष रूप से प्रशंसनीय है। उन्होंने प्रक्षेप चुनने की एक मौलिक पद्धति निर्धारित की, जिसका विस्तृत विश्लेषण उन्होंने ग्रन्थ की भूमिका में किया। उनका यह तो आग्रह नहीं है कि जिन श्लोकों को उन्होंने प्रक्षिप्त माना है उन्हें अन्य विद्वान् भी प्रक्षिप्त मान लें, तथापि प्रक्षिप्त अंशों को निर्धारित करने में उन्होंने जिस युक्तिसरणि तथा तार्किकता का सहारा लिया है वह सर्वथा प्रशंसनीय है। 

गीता पर किये गए भाष्यों में पण्डित कृष्णस्वरूप विद्यालंकार का 'गीतामर्म' तथा स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती का 'समर्पणभाष्य' मौलिक विवेचना की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। 

इन पंक्तियों के लेखक ने पण्डित ईश्वरीप्रसाद प्रेम के आग्रह पर गीता के एक शुद्ध संस्करण का सम्पादन किया था जो सत्यप्रकाशन, मथुरा से प्रकाशित हुआ। इस ग्रन्थ की विस्तृत भूमिका में गीता-विषयक सभी विषयों का ऊहापोह किया गया है। महाभारत में गीता की स्थिति का विवेचन करने के पश्चात् इसमें आर्यसमाज के उन विद्वानों की आपत्तियों का उत्तर भी दिया गया है जो गीता के कठोर आलोचक है। ग्रन्थ के उत्तरार्द्ध में स्वामी आत्मानन्द सरस्वतीकृत वैदिक गीता के क्रम के अनुसार ही गीता के श्लोकों का सरल और संक्षिप्त भावार्थ प्रस्तुत किया गया है। 

स्वामी वेदानन्द वेदवागीश ने गीता पर 'ज्योतिष्मती' और 'दीप्तिमती' शीर्षक टीकाएँ लिखी हैं। इनमें से ज्योतिष्मती टीका संस्कृत में और 'दीप्तिमती' टीका हिन्दी में है। 


हिन्दी से भिन्न भाषाओं में भी आर्यसमाजी विद्वानों द्वारा गीता पर अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे गए हैं। 

उर्दू में भाई परमानन्द लिखित 'गीता के राज' तथा फिरोजपुर के पण्डित विष्णुदत्त वकील द्वारा लिखित 'गीता-शतक' उल्लेखनीय हैं। 

पण्डित घासीराम ने सम्पूर्ण गीता का उर्दू पद्यानुवाद किया था तथा पण्डित गोपदेव शास्त्री ने तेलुगु में गीता की टीका लिखी है।

आर्यसमाज के विद्वानों ने समग्र गीता को यथावत् मान्यता चाहे न दी हो, तथापि उन्होंने यह तो स्वीकार किया ही है कि इस ग्रन्थ में यत्र-तत्र अनेक गम्भीर उपदेश तथा उदात्त शिक्षाएँ संगृहीत हैं। अतः गीता के कुछ मार्मिक श्लोकों को पृथक् ग्रन्थ के रूप में संकलित करने की प्रवृत्ति आर्य विद्वानों में आरम्भ से ही रही है। 

स्वामी मंगलानन्द पुरी ने भगवद्गीता के 70 श्लोकों को ही प्राचीन ठहराया था और इसी के आधार पर उन्होंने 'प्राचीन भगवद्गीता' शीर्षक ग्रन्थ का सम्पादन किया। उनकी एक अन्य पुस्तक 'सप्तश्लोकी गीता' भी छपी थी। 

पण्डित ईश्वरदत्त मेधार्थी विद्यालंकार ने गीता से सौ श्लोकों का संग्रह कर 'आर्यकुमार गीता' का सम्पादन किया। 

पण्डित जगतकुमार शास्त्री ने द्वितीय अध्याय के अन्तिम श्लोकों की टीका 'स्थितप्रज्ञोपनिषद्' शीर्षक से की है। 

बंगला में पण्डित दीनबन्धु वेदशास्त्री ने 'प्राचीन गीता' शीर्षक से गीता के कुछ महत्त्वपूर्ण श्लोकों का अनुवाद प्रकाशित किया।

भगवद्गीता के हिन्दी पद्यानुवाद : गीता जैसे लोकप्रिय ग्रन्थ का काव्यरुचि-सम्पन्न पाठकों के लिए पद्यानुवाद किया जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हमारी जानकारी में ऐसे आठ पद्यानुवाद समय-समय पर किये जा चुके हैं। गुरुकुल वृन्दावन के डॉक्टर देवदत्त ने 'गीतायन' शीर्षक पद्यानुवाद किया। हितैषी अलावलपुरी लिखित 'हितैषी की गीता' गीता के श्लोकों का दोहानुवाद प्रस्तुत करती है। श्री ज्ञानप्रकाश ने राधेश्याम-तर्ज पर गीता का पद्यानुवाद किया। अन्य अनुवादों में स्वामी धीरानन्द संन्यासी का 'गीतागान', रामकृष्ण भारती का 'भगवद्गीता पद्यानुवाद', प्रकाशवीर शर्मा 'व्याकुल' का 'गीता-ज्ञान प्रकाश' तथा डॉक्टर वेदप्रकाश का 'वैदिक भगवद्गीता-दोहानुवाद' उल्लेखनीय हैं।

गीता-विषयक आलोचनात्मक ग्रन्थों की संख्या भी पर्याप्त है। भाई परमानन्द ने 'गीतामृत' लिखकर गीता में विवेचित विषयों की समीक्षा की थी। पण्डित नरदेव शास्त्री-लिखित 'गीता-विमर्श' इस ग्रन्थ का सर्वांगीण अध्ययन प्रस्तुत करता है। पण्डित गोपाल तथा प्रिसिपल दीवानचन्द ने गीता-विषयक उल्लेखनीय ग्रन्थ लिखे हैं। पण्डित कृष्णस्वरूप विद्यालंकार ने 'गीता-विज्ञान-विवेचन' शीर्षक ग्रन्थ में गीता के प्रतिपाद्य विषयों की व्यापक समीक्षा की है।

गीता को अप्रामाणिक माननेवाले विद्वानों में पण्डित राजेन्द्र तथा डॉ० श्रीराम आर्य आदि हैं। इन्होंने अपने दृष्टिकोण को 'गीता-विमर्श', 'गीता की पृष्ठभूमि', 'ऋषि दयानन्द और गीता' तथा 'गीता-विवेचन' आदि ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है। उक्त विद्वानों द्वारा किये गए आक्षेपों के समाधान रूप में तथा गीता और वेद की शिक्षाओं में परस्पर अविरोध स्थापित करने की दृष्टि से अमर स्वामी सरस्वती ने कुछ ग्रन्थ लिखे हैं। इनमें 'गीता और वेद', 'ऋषि दयानन्द और गीता' आदि मुख्य है। 

निश्चय ही गीता जैसे लोक-प्रिय धार्मिक ग्रन्थ पर विस्तृत टीका, भाष्य, व्याख्या और आलोचना लिखकर आर्यसमाजी विद्वानों ने इसके अध्ययन और प्रचार में अपना बहुमूल्य योगदान दिया है।

[स्रोत: आर्य समाज का इतिहास, भाग 5, पृष्ठ 164-6, प्रधान संपादक: डॉ. सत्यकेतु विद्यालंकार, प्रस्तुतकर्ता: भावेश मेरजा]


नोट : यह तो 1986 ई. तक का विवरण है। तत्पश्चात् भी आर्य समाज के अनेक विद्वानों ने गीता पर ग्रन्थ लेखन किया है, जिसमें स्वामी विद्यानंद सरस्वती रचित 'मूल गीता में श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद' उल्लेखनीय है, जिसका गुजराती अनुवाद भी प्रकाशित किया गया है। 'वेदवाणी' पत्रिका के वर्तमान संपादक श्री आचार्य प्रदीप जी ने भी आर्य विद्वानों द्वारा लिखित गीता विषयक विभिन्न लघु ग्रंथों का एक संग्रह संपादित किया है। - प्रस्तुतकर्ता।

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