Tuesday, May 19, 2020

ऋषि दयानन्द का इतिहास विषयक चिन्तन



ऋषि दयानन्द का इतिहास विषयक चिन्तन

प्रस्तुति- प्रियांशु सेठ

ऋषि दयानन्द योगी, पण्डित, ब्रह्मचारी, समाजसुधारक, न्यायप्रिय आदि होने के साथ ही इतिहास के एक कुशल चिन्तक भी थे। उन्होंने अपने ग्रन्थों में मात्र वेदकाल का निर्णय ही नहीं स्थापित किया अपितु आर्यावर्तीय चक्रवर्ती राजाओं की शासनसारिणी भी यथाक्रम प्रकाशित की है। प्यारे पाठक! यदि तुम ऋषि दयानन्द के इतिहास विषयक चिन्तन पर दृष्टिपात करो, तो तुम आर्यवार्त्त के इतिहास की यथार्थता से भलीभांति परिचित होगे। इसलिए पक्षपातरहित होकर इस लेख को पढ़ो और अपने इतिहास विषयक ज्ञान का उपार्जन करो।

१. प्रश्न- जगत् की उत्पत्ति में कितना समय व्यतीत हुआ?
उत्तर- एक अर्ब, छानवें क्रोड़, कई लाख कई सहस्र वर्ष (आज तक के हिसाब से १९७२९४९०६३ वर्ष) जगत् की उत्पत्ति और वेदों के प्रकाश होने में हुए हैं। इसका स्पष्ट व्याख्यान मेरी बनाई भूमिका (ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में लिखा है देख लीजिये। स०प्र० ८ समुल्लास)

२. प्रश्न- जिन वेदों का इस लोक में प्रकाश है उन्हीं का उन लोकों में भी प्रकाश है वा नहीं?
उत्तर- उन्हीं का है। जैसे एक राजा की राज्यव्यवस्था नीति सब देशों में समान होती है उसी प्रकार परमात्मा राजराजेश्वर की वेदोक्त नीति अपने-अपने सृष्टिरूप सब राज्य में एक सी है। (सत्यार्थप्रकाश ८ समु०)

३. प्रश्न- किसी देशभाषा में वेदों का प्रकाश न करके संस्कृत (वैदिक संस्कृत) में क्यों किया?
उत्तर- जो किसी देशभाषा में प्रकाश करता तो ईश्वर पक्षपाती हो जाता। क्योंकि जिस देश की भाषा में प्रकाश करता उनको सुगमता और विदेशियों को कठिनता वेदों के पढ़ने-पढ़ाने की होती। इसलिये संस्कृत (वैदिक संस्कृत) में ही प्रकाश किया; जो किसी देश की भाषा नहीं। और वेदभाषा अन्य सब भाषाओं का कारण है। उसी में वेदों का प्रकाश किया। (सत्यार्थप्रकाश ७ समु०)

४. जो कोई यह कहते हैं कि वेदों को व्यास जी ने इकट्ठे किये यह बात झूठी है क्योंकि व्यास जी के पिता, पितामह, प्रपितामह, पराशर, शक्ति वशिष्ठ और ब्रह्मा आदि ने भी चारों वेद पढ़े थे। यह बात क्योंकर घट सके? (सत्यार्थप्रकाश ११ समुल्लास)

५. जो कोई ऋषियों को मन्त्रकर्त्ता बतलावें उन को मिथ्यावादी समझें। वे तो मन्त्रों के अर्थप्रकाशक हैं। (स०प्र० ७ समु०)

६. यथा ब्राह्मणग्रन्थेषु मनुष्याणां नामलेखपूर्वका लौकिका इतिहासाः सन्ति न चैवं मन्त्रभागे। ...अतोऽनात्र मन्त्रभागे इतिहासलेशोऽप्यस्तीत्यवगन्तव्यम्। अतो यश्च सायणाचार्यादिभिर्वेदप्रकाशादिषु यत्र कुत्रेतिहासवर्णनं कृतं तद् भ्रममूलमस्तीति मन्तव्यम्। (ऋग्वेदभाष्य भू० वेदसंज्ञा प्रकरण)

७. अब जो वेदादि सत्यशास्त्र और ब्रह्मा से लेकर जैमिनी-मुनि पर्यन्तों के माने हुये ईश्वरादि पदार्थ हैं जिनको मैं भी मानता हूं सब सज्जन महाशयों के सामने प्रकाशित करता हूं। (स्वमन्त० प्रकाश)

८. प्रश्न- मनुष्यों की आदि सृष्टि किस स्थल में हुई?
उत्तर- त्रिविष्टप अर्थात् जिसको ‘तिब्बत’ कहते हैं।
प्रश्न- आदि सृष्टि में एक जाति थी वा अनेक?
उत्तर- एक मनुष्य जाति थी। पश्चात् "विजानीह्यार्यान्ये च दस्यवः" यह ऋग्वेद (१/५१/८) का वचन है। (इस नियम के अनुसार) श्रेष्ठों का नाम आर्य, विद्वान् देव और दुष्टों के दस्यु अर्थात् डाकू, मूर्ख नाम होने से आर्य और दस्यु दो नाम हुए। (स०प्र० ८ समु०)

९. प्रश्न- प्रथम इस देश का नाम क्या था और इस में कौन बसते थे?
उत्तर- इसके पूर्व इस देश का नाम कोई भी नहीं था और न कोई आर्यों के पूर्व इस देश में बसते थे क्योंकि आर्य लोग सृष्टि के आदि में कुछ काल के पश्चात् तिब्बत से सूधे इसी देश में आकर बसे थे।
प्रश्न- कोई कहते हैं कि ये लोग ईरान से आये। इसी से इन लोगों का नाम आर्य हुआ है। इनके पूर्व यहां जंगली लोग बसते थे कि जिनको असुर और राक्षस कहते थे। आर्य लोग अपने को देवता बतलाते थे और उनका जब संग्राम हुआ उसका नाम देवासुर संग्राम कथाओं में ठहराया।
उत्तर- यह बात सर्वथा झूठ है। क्योंकि ...यह लिख चुके हैं कि आर्य नाम धार्मिक, विद्वान्, आप्त पुरुषों का और इनसे विपरीत जनों का नाम दस्यु अर्थात् डाकू, दुष्ट, अधार्मिक और अविद्वान् है। तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य-द्विजों का नाम आर्य और शूद्र का नाम अनार्य अर्थात् अनाड़ी है। ...दूसरे विदेशियों के कपोलकल्पित को बुद्धिमान् लोग कभी नहीं मान सकते। ...किसी संस्कृत ग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आये और यहां के जंगलियों को लड़कर, जय पाके, निकाल इस देश के राजा हुए। पुनः विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है? (स०प्र० ८ समु०)

१०. अर्थात् इक्ष्वाकु से लेकर कौरव पाण्डव तक सर्व भूगोल में आर्यों का राज्य और वेदों का थोड़ा-थोड़ा प्रचार आर्यावर्त्त से भिन्न देशों में भी रहता था। इसमें यह प्रमाण है कि ब्रह्मा का पुत्र विराट्, विराट् का मनु, मनु का मरीच्यादि दश और उनके स्वायम्भुवादि सात राजा और उनके सन्तान इक्ष्वाकु आदि राजा जो आर्यावर्त्त के प्रथम राजा हुए जिन्होंने यह आर्यवर्त्त बसाया है। (स०प्र० ८ समु०)

११. जैसे यहां सुद्युम्न, भूरिद्युम्न, इन्द्रद्युम्न, कुवलयाश्व, यौवनाश्व, वद्ध्र्यश्व, अश्वपति, शशविन्दु, हरिश्चन्द्र, अम्बरीष, ननक्तु, शर्याति, ययाति, अनरण्य, अक्षसेन, मरुत्त और भरत सार्वभौम सब भूमि में प्रसिद्ध चक्रवर्ती राजाओं के नाम लिखे हैं वैसे स्वायम्भुवादि चक्रवर्ती राजाओं के नाम स्पष्ट मनुस्मृति, महाभारतादि ग्रन्थों में लिखे हैं। इस को मिथ्या करना अज्ञानी और पक्षपातियों का काम है।

१२. और श्रीमान् महाराज स्वायम्भुव मनु से लेके महाराज युधिष्ठिर पर्यन्त का इतिहास महाभारतादि में लिखा ही है और ...इन्द्रप्रस्थ में आर्य लोगों ने श्रीमन्महाराज यशपाल पर्यन्त राज्य किया, जिनमें श्रीमन्महाराजे 'युधिष्ठिर' से महाराजे 'यशपाल' तक वंश अर्थात् पीढ़ी अनुमान १२४ (एक सौ चौबीस) राजा,  वर्ष ४१५७, मास ९, दिन १४ समय में हुए हैं। इनका ब्यौरा- (स०प्र० ११ समु०)
सूचना- यह समय १९३९ विक्रम तक का है।

१३. यह निश्चय है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं वे सब आर्यावर्त्त देश ही से प्रचारित हुए हैं। देखो! एक जैकालियट साहेब पैरस अर्थात् फ्रांस देश निवासी अपनी "बायबिल इन इण्डिया" में लिखते हैं कि सब विद्या और भलाइयों का भण्डार आर्यावर्त्त देश है और सब विद्या तथा मत इसी देश से फैले हैं।

१४. जब तक आर्यावर्त्त देश से शिक्षा नहीं गई थी तब तक मिश्र, यूनान और यूरोप देश आदिस्थ मनुष्यों में कुछ भी विद्या नहीं हुई थी।

टिप्पणी-
१. आर्यावर्त्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है सो भी विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहा है। ...कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मत-मतान्तर के आग्रहरहित अपने और पराये का पक्षपात-शून्य प्रजा पर पिता माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।

[सन्दर्भ ग्रन्थ- वैदिकयुग और आदिमानव; लेखक- आचार्य वैद्यनाथ शास्त्री]

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