Thursday, January 30, 2020

ईश्वरीय-ज्ञान की आवश्यकता [भाग-१]




◼️ईश्वरीय-ज्ञान की आवश्यकता [भाग-१]◼️
✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
◾️(१) सृष्टि के आरम्भ में ज्ञान मिलना आवश्यक है -
साधारण मनुष्य भी किसी छोटे से छोटे कार्य का प्रारम्भ करता है, तो वह उसमें सबसे पहले कुछ नियम वा व्यवस्था निश्चित करता है, जिसको लक्ष्य में रखकर सभी कार्यकर्तामों को चलना होता है। यदि माता पिता वा गुरु अपने पुत्र-पुत्रियों वा शिष्यों को विना बताये, कि यह करने योग्य है, यह करने योग्य नहीं, ताड़ना वा दण्ड देते हैं, या कोई मनुष्य अपने भृत्यों को विना बतलाये, कि ऐसा करना, ऐसा नहीं करना, दण्ड देता है, तो उसे कोई बुद्धिमान् नहीं कह सकता। ऐसी अवस्था में दो प्रकार का भाव मन में आवेगा कि या तो उस बालक वा भत्यादि ने कोई अपराध किया है, या दण्ड देनेवाला अन्यायी है। इसी प्रकार जगदीश्वर द्वारा भला इतनी भूल कैसे हो सकती है कि विना नियम या व्यवस्था के बनाये और बताये संसार में जीवों को प्रारम्भ से ही एक जैसे सुख-दुःखयुक्त उत्पन्न न करके, भिन्न-भिन्न सुख या दुःख से युक्त उत्पन्न करता?
अतः सदा सृष्टि के आदि में वेद का ज्ञान प्राप्त होना अनिवार्य है। इसके बिना संसार को कोई व्यवस्था नहीं चल सकेगी, यह व्यवस्था तभी चल सकती है, जब प्रारम्भ में यह ईश्वरीयज्ञान जीवों को प्राप्त हो और साथ ही जीवों में भी उसके ग्रहण की शक्ति विद्यमान हो, जिसे कि हम स्वाभाविक ज्ञान कहते हैं।
◾️(२) बाहयज्ञान के विना नैसर्गिक ज्ञानमात्र से काम नहीं चल सकता -
प्राणिजगत् का अध्ययन करने से हमें पता चलता है, कि चाहे पशु पक्षी हों या मनुष्य, सब जीवों में हम स्वाभाविकज्ञान की मात्रा अवश्य पाते हैं, चाहे वह न्यूनाधिक मात्रा में ही पाई जाती हो, जो न्यूनाधिकता विधाता की रचना के कारण है। मनुष्य उसको न तो समझ ही सकता है, न उसका अन्त ही पा सकता है । वर्तमान जगत् में हम प्रत्येक देह धारी के जन्म से लेकर मरणपर्यन्त दूसरों के सम्पर्क वा सम्बन्ध से, चाहे वे माता पिता हों वा अन्य, ज्ञान की वृद्धि का होना निरन्तर पाते हैं। इस प्राकृतिक नियम से कोई प्राणी नहीं बचा, यह सर्वसम्मत है। इसी प्रकार सर्गारम्भ में जब सब जीव अपने स्वाभाविक ज्ञान से युक्त होते हैं, तब पशुओं के सब व्यवहार तो वर्तमान की भाँति उसी स्वाभाविक ज्ञान मात्र से चल ही जाते हैं, जैसा कि वर्तमान में भी पशु पैदा होते ही तैरना जानते हैं, परन्तु मनुष्य का बच्चा बिना सीखे नहीं तैर सकता। पशुजगत् की विशेषता यह भी है, कि वह अपने स्वाभाविक भोजन को स्वयं पहचान लेता है, पर मनुष्य के बच्चे को अपने खाद्य पदार्थ में भी विवेक ज्ञान नहीं होता। विषयुक्त अन्न को बन्दर तो पहचान कर छोड़ देगा, पर मनुष्य जब तक जिह्वा पर रखकर न देखे, नहीं जान सकता। इसका निष्कर्ष यह है कि पशुजगत् का काम नैसर्गिक विवेक से चल जाता है, पर मनुष्य का व्यवहार विना [१] नैमित्तिक प्रज्ञा (विना किसी के सिखाये) के नहीं चल सकता । अतः आवश्यक है कि सृष्टि के आदि में जो मनुष्य उत्पन्न हुये, उनको इस व्यवहार का ज्ञान किसी शक्ति से मिले। जिस शक्ति से वह मिला, वह ईश्वर है और जो ज्ञान मिला वह वेद है। इस का स्पष्टीकरण योगसूत्र 🔥"पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेवात्" (योगसूत्र १।२६) से हो रहा है।
⚠️- - ध्यान दें❗️- -⚠️
💎१. इस विषय में हम कुछ पाश्चात्यों के विचार भी उपस्थित करते हैं
▪️(i) यूनान के राजा सेमिटिकल, फेड्रिक द्वितीय तथा चतुर्थ जेम्स ने १०-१२ नवजात बालकों को शीशे के मकान में रखा। धाईयों को शिक्षा देने वा सामने बोलने आदि से भी सर्वथा मना कर दिया गया। परिगाम में सभी ज्ञान रहित- बहिरे वा गूगे थे।
▪️(ii) अकबर बादशाह ने भी कुछ बच्चों पर ऐसा ही प्रयोग करके देखा था। वह भी इसी परिणाम पर पहुंचा था।
-Transaction of the Victoria Institute Vol. I, पृ० ३३६
▪️(iii) क्रमश: ज्ञानविकास में कोई प्रमाण नहीं, कई पाश्चात्य ऐसा मानने लगे हैं -
(क) "There is no proof of continuously increasing inte llectual power" (Social environments and moral progress.)
(ख) डा. वालेस ने मैसोपोटामिया की खुदाई में प्राप्त कलाओं और लेखों पर विचार करते हुये उनको आज कल की अच्छी से अच्छी कलाओं के समान माना है।
(ग) सर प्रालिवर लाज ने अपनी पुस्तक Life and Matter में क्रमश: मानविकास का सिद्धान्त माननेवालों से प्रश्न किया है कि विना बताये फोटोग्राफी आदि कलानों का विकास स्वयं कैसे हुआ ?
(घ) डा. बालफोर ने भी लाज के उपर्युक्त मत का समर्थन किया है।
(देखें-वैदिक ज्योति:, पृ० ४.१०) ॥
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हमारा अभिप्राय यह है कि मनुष्य का व्यवहार विना बाह्य सहायता के नहीं चल सकता । सृष्टि के आदि में भी मनुष्य का ज्ञान वा व्यवहार कैसे चला होगा, जब तक कि उसे बाह्य सहायता प्राप्त न हो। अतः बाह्य सहायता अनिवार्य है। प्रादि सृष्टि में प्राप्त इसी बाह्य ज्ञान की सहायता वा नैमित्तिक ज्ञान को हम 'ईश्वरीयज्ञान' या 'वेद' कहते हैं, जो ईश्वर द्वारा दिया जाता है।
◾️(३) उपर्युक विषय में अन्य रीति से विचार -
इस बात को हम एक अन्य प्रकार से भी विचारते हैं कि स्वाभाविक ज्ञान को सहायता की आवश्यकता अनिवार्य है। संसार में हम देखते हैं कि प्रत्येक बाह्य ज्ञानेन्द्रिय को बाह्य सहायता की आवश्यकता है। नेत्र विना सूर्य की सहायता के कुछ भी नहीं देख सकता। यद्यपि दीपक बिजली आदि मनुष्य ने बनाये, पर उनसे मनुष्य का उतना काम नहीं चल सकता, जितना सूर्य से। चक्षु विना सूर्य की सहायता के निकम्मा है। यदि संसार में सूर्य न होता, तो नेत्र का होना न होना बराबर था। यह ठीक है कि यदि नेत्र न होता तो सूर्य के प्रकाश से भी लाभ नहीं उठाया जा सकता था। सूर्य की उष्णता से बहुत से कार्य चलते हैं, पर प्रकाश केवल नेत्र की सहायता का ही कार्य कर सकता है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों की अवस्था है। कान विना आकाश के, त्वचा विना वायु के, जिह्वा विना जल के तथा घ्राण विना पृथिवी के व्यर्थ हैं।
इस विवेचना से यह सिद्ध है कि मनुष्य की प्रत्येक बाह्य ज्ञानेन्द्रिय बिना बाह्य सहायता के कार्य नहीं कर सकती। अब यहाँ इतना और विचारना चाहिये कि इसी प्रकार आन्तरिक करण (ज्ञान, बुद्धि) भी विना बाह्य सहायता के कुछ नहीं कर सकती, क्योंकि बाह्यज्ञान आन्तरिक (स्वाभाविक) ज्ञान के बिना नहीं हो सकता। जब ईश्वर की व्यवस्थानुसार प्राकृतिक नियम ने प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय (बाह्य करण) से पूर्व प्रत्येक इन्द्रिय का सहायक देवता उत्पन्न किया, तो सर्वोत्तम तथा सूक्ष्म पदार्थों के जानने के साधन (स्वाभाविक ज्ञान) का कोई सहायक न बनाता, यह बात मानने योग्य प्रतीत नहीं होती, न ही मानी जा सकती है। मनुष्य दीपक के प्रकाश में जैसे थोड़ी दूर तक की वस्तु देख पाता है, पर सूर्य के प्रकाश में बहुत दूर तक की वस्तु भी स्पष्ट देख सकता है, यही अवस्था बुद्धि की समझनी चाहिये। जिस प्रकार का प्रकाश अर्थात् ज्ञान प्राप्त होगा, वैसा ही स्थूल, सूक्ष्म ज्ञान मनुष्य को होता रहेगा। अत: प्रारम्भ में पूर्ण ज्ञान का मिलना ही आवश्यक है।
इस सारे विवेचन से यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि सृष्टि के आदि में बुद्धि अर्थात् स्वाभाविक ज्ञान की सहायता के निमित्त पूर्णज्ञानापरब्रह्म परमेश्वर द्वारा पूर्ण ज्ञान (वेद) का जीवों को प्राप्त होना अनिवार्य है। इसके विना संसार का कोई व्यवहार चलना ही असम्भव था, यही बात बुद्धिसङ्गत बैठती है।
◾️(४) विना ईश्वर के आदि ज्ञान में अन्य सम्भवनीय पक्ष और उनका निराकरण - [उक्त विषय व लेख का शेष भाग अगली पोस्ट में…]
✍🏻 लेखक - पदवाक्यप्रमाणज्ञ पण्डित ब्रह्मदत्तजी जिज्ञासु
(जन्म- १४ अक्तूबर १८९२, मृत्यु- २२ दिसम्बर १९६४)
प्रस्तुति - 🌺 ‘अवत्सार’
॥ओ३म्॥

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